पाप, तर्क और प्रायश्चित / प्रज्ञा
‘‘सुनो, तुम मीनू को जानते हो?...वही जो तुम्हारे भैया के पास पढ़ती थी।’’
‘‘न... नहीं तो।’’
‘‘अरे काफी समय से पढ़ रही थी उनसे और तुम्हें तो अच्छी तरह जानती है। शायद देखा हो तुमने कभी। पतली-दुबली सी लड़की है। कद ठीक-ठाक ही है, हाँ सांवली है और बात-बेबात हँसती रहती है। और वो न...’’
‘‘अरे भैया के पास कितने बच्चे आते हैं ट्यूशन पढ़ने, मेरे पास सबका रिकार्ड है क्या? और जहाँ तक मेरी बात है तो भैया ने बताया होगा कभी मेरे बारे में या देखा होगा उसने कभी जब मैं घर गया हूँगा।’’
‘‘जानते हो आज उसका पहला दिन था कॉलेज में और मुझे देखते ही बोली-‘आप संजय सर की छोटी बहू हो न?’...मुझे अच्छा नहीं लगा। पहली ही मुलाकात में इतना बेतकल्लुफ हो जाना उसका।’’
‘‘इसका मतलब तो ये हुआ कि उसने मुझे ही नहीं तुम्हें भी देखा है घर में। और फिर भैया ने कह दिया होगा कि हमारी बहू है, पढ़ाती है कॉलेज में। पर तुम्हें बुरा क्या लग रहा है- उसका बेतकल्लुफ होना या उसका भैया की छोटी बहू कहना?’’
मानस की बात तीर की तरह मेरे कलेजे में जा लगी। दरअसल बात तो यही थी कि मेरे वर्कप्लेस पर एक अजनबी लड़की पहली ही बार में मुझसे इतनी लिबर्टी लेकर मुझे टीचर नहीं बल्कि अपने टीचर की बहू कह रही थी। उसके एक वाक्य ने मेरा सारा वजूद हिलाकर रख दिया था। मैं डॉ. सहज त्रिपाठी, एक लंबा अनुभव है मेरा इस संस्थान में। कितने ही छात्र पढ़ाए। एक रूतबा है मेरा और मात्र बारहवीं पास एक लड़की ने मुझे मेरे ही गढ़ में चित्त कर दिया। देखा जाए तो कुछ गलत तो नहीं था उसके कहने में पर उसका परिचय की कड़ी जोड़ने का अंदाज़ ही मुझे न भाया। उसके चंद शब्दों ने मेरी पहचान को सीमित कर दिया और उसकी बेसाख्ता हंसी मुझे इसलिए नापसंद हो गयी कि शायद परिचय के घेरे का लाभ उठाकर वो क्या मुझे एक मामूली औरत समझ रही है ? और फिर अब तीन साल इसे पढ़ाना है। अपनी क्लास के बच्चों पर भी मुझे जानने का रौब गाँठेगी और मेरा परिचय एक बहू के रूप में ही देगी। दिमाग में अटके उसके शब्दों ने जब बहुत तूफान मचा दिया तो मैंने उसे संभालने के लिए गर्दन को तेजी से झटका। अगले दिन पढ़ाए जाने वाली क्लास की सभी तैयारियों के साथ मैंने मीनू को भी दुरूस्त करने के कुछ तरीके सोच लिए।
अगले दिन सबसे पहलेे उसकी बेतकल्लुफ हंसी को अपनी गंभीर नजर जो अपरिचय की हद पार कर रही थी, उसीके रिमोट से मैंने कंट्रोल करने की कोशिश की। पर उसे तो जैसे फर्क ही नहीं पड़ा। कॉलेज के माहौल ने उसकी हंसी को नए पंख दे दिए थे शायद। वो वैसे ही बिंदास हँस रही थी। क्लास शुरू होने पर नए बच्चों में मैंने अतिरिक्त दिलचस्पी लेकर उसे नियंत्रित करने का नया तरीका ईजाद किया पर फिर भी कोई फर्क नहीं। तब मैंने अपने तरकश का अचूक तीर निकाला। विषय पर आने से पहले बच्चों से सवाल-जवाब का। पर यहाँ भी मेरा अंदाज़ा गलत निकला। उसकी हंसी से मुझे लगा था कि पढ़ने-लिखने में औसत या उससे कम ही ठहरेगी पर दिमाग से पैदल नहीं निकली मीनू और ऐसे लोगों की कद्र करना मेरे स्वभाव में था। पर मैंने ये बात जाहिर नहीं होने दी। मेरी मुद्रा काफी अर्से तक उसके प्रति अतिरिक्त रूप से गंभीर और सचेत ही बनी रही। उसने पहली ही मुलाकात में मुझे असहज कर दिया था इसलिए उसका असर आसानी से जाने वाला नहीं था।
मेरी नज़र सख्त बने रहने के बावजूद उसका पीछा किया करती। अक्सर देखती कॉरिडोर उसकी हंसी से झूमता मिलता। कुछ ही दिनों में सीनियर्स से भी अच्छी दोस्ती गाँठ ली उसने। उसे देखकर कोई कह नहीं सकता था कि ये फस्र्ट ईयर की लड़की है, यूनिवर्सिटी की शब्दावली में कहें तो ‘फच्चा’ है। वह तो अपने अलमस्त स्वभाव से ऐसी लगती थी कि बरसों से इस कॉलेज के चप्पे-चप्पे से वाकिफ है। क्लास में आते-जाते मैं कनखियों से उसे निहारने का कोई मौका न चूकती। ऐसा लगता जैसे मेरी सारी इंद्रियाँ अपनी पूरी ऊर्जा के साथ उसे सुनने-सूंघने की क्रिया में प्राणपण से जुट गईं हों। बात-बात पर ताली मार कर उसका हँसना, गलियारों में भागना, तेज़ स्वर में उसकी तीखी आवाज़ का गूंजना, गलियारों में भागते-दौड़ते परांठों का रोल बनाकर खाना या जबरन लोगों को खिलाना या फिर घर की सी उन्मुक्तता महसूस करते हुए अचार की चूस-चूसकर पतली कर दी गई झिल्ली जैसी परत का भी उसके धूमिल होने की हद तक लुत्फ उठाए चलना --सब उसकी आदतों में शुमार था। और फिर बात-बात में उसके ‘चल जा ना ’ या ‘हट भई हवा आने दे’- जैसे जुमलों की मैं आदि होती जा रही थी। ऐसे ही उसकी हरकतों को अपनी जासूस निगाहों से टोहते हुए मैंने जाना लोग उसे नाम की बजाय ‘जैनी या जैन साब’ पुकारने लगे थे। इसका राज़ बाद में फाश हुआ। दरअसल इसके भी दो कारण थे। एक सामान्य कारण ये कि क्लास में दो मीनू होने के कारण पहचान की सुविधा के लिए सरनेम का सहारा एक सरल उपाय था और दूसरा विशिष्ट कारण था कि अक्सर कॉलेज में अधिक घनिष्ठ संबंध होने या दूसरों से खास होने वाले को ये बच्चे ऐसे नाम अपनेपन और प्यार से दे दिया करते थे।
मुझे शुरू से ही ऐसे मस्तमौला बच्चे पसंद थे पर मीनू उस दायरे में होकर भी बाहर थी। उससे पहली मुलाकात का असर अब तक कायम था। हालांकि ये असहजता मुझे अक्सर परेशान भी करती। खांमखां मैंने उससे दूरी बना ली है। आखिर कब तक ? और एक दिन पुरानी बातों पर खाक डालने की बात सोचकर और कड़ा निश्चय करके मैं कॉलेज आई थी तो सामने पड़ते ही मीनू बोली,
‘‘कल आपके ससुराल गई थी मैं। मैंने बताया सर को कि आप हमें पढ़ाते हो।’’
सहज-सरल से इस वाक्य ने एक बार फिर मुझे घायल कर दिया। अपनी पीड़ा को छुपाकर और अपने गुस्से को जताकर मैंने दो-टूक कहा ‘‘देखो मीनू, ये कॉलेज है और मैं नहीं चाहती कि तुम मेरे घर-परिवार से जुड़ी कोई चर्चा मुझसे या किसी और से करो।’’ उसकी चेहरे पर नासमझी के भाव की परत मुझे भली लगी। हालांकि बाद में ठंडे मन से सोचा तो पाया कि क्या गलत कहा था उसने ऐसा। पर मुझे हर बार क्यों चुभती है उसकी बात? क्यों ये लड़की मुझे बार-बार मेरे कर्म के दायरे से धकेलकर घर में बंद कर देती है? क्या उसकी नज़र में मैं केवल एक पत्नी, बहू ,मां ही हूँ ? अब तक शिक्षक का मेरा स्वतंत्र अस्तित्व उसकी नज़र में कुछ भी नहीं है क्या ? पता नहीं वो इस बात को समझी कि नहीं पर उस दिन का असर ये हुआ कि मीनू ने फिर मेरे परिवार से जुड़ी बातों का जि़क्र नहीं छेड़ा। फिर जैसे-जैसे उसने मेरे परिवार से जोड़कर मुझे देखना बंद किया वैसे-वैसे वो और बच्चों की तरह मेरे करीब होती चली गई।
उस दिन बच्चों की फ्रेशर्स पार्टी थी। नए बच्चों के लिए आयोजित प्रतियोगिता को जांचने वाले तीन लोगों के निर्णायक-मंडल में मैं भी एक थी। जैसे ही मीनू का नाम पुकारा गया एक शोर-सा उठा। ये शोर यों ही नहीं उठा था, हरदिलअजीज़ मीनू के लिए उठने वाला शोर था, जिस पर कई टीचर्स ने उसकी लोकप्रियता के कारणों को मुस्कुराते हुए मौन समर्थन दिया। सबकी निगाहें उसी पर जमी थीं। निहायत सलीके से अपना परिचय देते हुए जब उसने कोई शेर कहा तो दाद देने वालों की तालियाँ न थमीं। पहले रांउड में अपने गजब के आत्मविश्वास से उसने बाज़ी मार ली थी अब पार्टी के सेकेंड रांउड की तरफ सबकी आंखें लगीं थीं। उसके नाम की पर्ची में उसे डांस करके दिखाना था। बेधड़क आवाज़ में बोली
‘‘म्यूजि़क....फुल वाल्यूम।’’
और ये क्या वो तो गाना शुरू होते ही फिरकी की तरह नाचने लगी। करीना पर फिल्माए किसी पॉपुलर गाने पर उसका ठुमका लगाकर थिरकना कभी भूल सकती हूँ क्या? बिना किसी बेढंगेपन के, लय के अनुकूल नाचना और तेज और धीमे संगीत के मुताबिक अंग-संचालन। पांच मिनट तक बिना हाँफे पूरी गरिमा के साथ वो नाची और मैं सोच रही थी कि करीना ने कितने री-टेक दिए होंगे इसमें और कितना टच-अप कराया होगा मेकअप का। वो दिन मीनू अपने नाम लिखवाकर ले गई। बिना कोई हिचक सबने उसे मिस-फ्रेशर चुन लिया। यही नहीं मिस टैलेंट का खिताब भी उसे साथ में मिल गया। पहले से बढ़ रही उसकी ख्याति और भी महक उठी। सबसे अच्छी बात तो ये थी कि उसका व्यक्तित्व इतना निराला था कि वो जलनप्रूफ और ईष्र्याप्रूफ था। फिर लोग भी उसके सरल स्वभाव और साफगोई पर जान छिड़कते थे। वो लड़ती-झगड़ती रहती तो भी कोई उसका दुश्मन नहीं था और पीठ पीछे भी कोई उसे बुरा न कहता था।
‘‘जैन साहब इलैक्शन लड़ लो इस बार।’’ पूरे विभाग की राय यही बन रही थी और सीट भी काफी सुरक्षित थी- ‘लैंगुएज रिप्रेज़नटेटिव’ की। मीनू ने हामी भी भर दी। नामांकन दाखिल करने की औपचारिकताओं से जुड़ा पहलू उसके दोस्तों ने संभाल लिया। सभी टीचर्स भी इस निर्णय पर संतुष्ट थे। सब जानते थे अपने स्वभाव और प्रभाव से जीतने पर कुछ बेहतर कर दिखाएगी मीनू। पर उसका सीनियर अनिल झा पिछले साल से इस सीट के लिए मन बनाए हुए था। दिक्कत उसके सामने ये भी थी कि अनिल के आने से सारा खेल उतना आसान नहीं रह जाता जितना मीनू के लिए था। उसे टक्कर देने वालों की कमी नहीं थी। मीनू के असर से संकोच के दरवाजों में कैद हो गई उसकी इच्छा न जाने किस खुली रह गई खिड़की से मीनू के पास तक जा पहुँची।
‘‘अरे सर आपने बताया क्यों नहीं मुझे? जानती होती तो ये सब होता ही न। आपका हक पहला है, वो तो अच्छा हुआ कि नॉमीनेशन फाइल नहीं किया था। इस बार आप ही आंएगे और जीत की गारंटी मेरी।’’
मीनू ने न केवल सीट अनिल के नाम कर दी बल्कि सारे वोट भी उधर खिसका दिए। और उम्मीदवार न होते हुए भी सबके दिल पर उसकी उम्मीदवारी तय हो गई। उसके खुलेपन और दोस्ताना रवैये ने उसे सबकी चहेती बना दिया था। उसे देखकर लगता था कि मानो ये अक्षय ऊर्जा का कोई स्त्रोत है। जब देखो -किसी पहर देखो, आंखों में वही चमक, आवाज़ में वही खनक। मन कहता ‘‘थकती नहीं है ये लड़की? हर काम को करने में गजब का उत्साह।’’ ऐसे बच्चे पूरे माहौल को ताज़गी से भर देते हैं। सालाना उत्सव में निबंध लेखन प्रतियोगिता से लेकर लोकगीत प्रतियोगिता तक सबमें उसकी काबिल- ए- तारीफ प्रस्तुति। उसी दिन लोकगीत की अदायगी से मैंने जाना कि मीनू राजस्थान से संबंध रखती है। कितना बढि़या गीत गाया था उसने।
‘‘मैडम आपके घर के पास आ गई हूँ मैं। यहीं पास में नवज्योति अपार्टमेंट्स में किराए का फ्लैट लिया है पापा ने। कभी आओ न घर आप।’’
‘‘हाँ ज़रूर कभी।’’ बच्चों की इस फरमाईश की आदत लगभग हर टीचर को होती है इसीलिए ‘फिर कभी’ जैसे शब्दों से एक अनिश्चयात्मक स्थिति रचकर अपना निश्चयात्मक रूख दिखाना हर टीचर को बखूबी आता है। सो मैंने भी वही किया। सोचा दो-एक बार कहेगी फिर सच जानकर कहना छोड़ देगी पर मीनू तो धुन की पक्की थी। अड़ गई और मुझे घर बुलाकर ही मानी। और एक तरह से अच्छा ही हुआ। मैंने देख लिया कि उसका परिवार काफी धार्मिक है। चार भाई-बहनों में मीनू तीसरे नम्बर पर थी और सबसे छोटा था भाई। एक बहन की शादी जल्दी ही होने वाली थी। मीनू के स्वभाव के प्रतिकूल घर बेहद शांत था। जगह-जगह उनके किन्हीं गुरू जी के चित्र लगे थे। घर क्या था मंदिर था। जूते बाहर ही उतारने पड़े थे। घर में कोई चप्पल भूले से भी नहीं दिख रही थी। बड़े संयमित ढंग का परिवार था और फर्नीचर भी सादा और बेहद कम। उसकी मां ने ही बताया कि साल में दो-तीन बार राजस्थान अपने गुरूजी के आश्रम में उनका जाना बरसों से जारी है। पिता छोटा-मोटा कोई व्यवसाय करते हैं। अकेले कमाने वाले हैं और कमाई ज्यादा नहीं है पर धर्मपरायण वो भी बहुत हैं। इसीके चलते खर्चे ज़्यादा भी थे, ऐसा उसकी मां ने ही बताया। हालांकि दूसरे नम्बर वाली बहन गणित में होशियार होने के कारण ट्यूशन भी पढ़ाती है। तीनों लड़कियाँ गुरूजी के आदेशों का पालन करती हैं। इसके अलावा पता नहीं कौन-कौन से व्रत-त्यौहार की जानकारी वो मुझे दे रहीं थीं जिनसे मैं आत्मा की गहराई तक ऊब रही थी।
‘‘आइये आपको अपना पार्क दिखाती हूँ।’’ मुझे बचाने का अच्छा बहाना बनाया उसने। जान बची तो लाखों पाए की तर्ज पर मैंने मुग्धभाव से जूते पहनते हुए उसे देखा। पार्क घुमाते हुए उसकी मस्ती फिर से तारी हो गई और मुझे लगा कि जाने किस कैद से छूटकर आए हैं हम दोनों। हैरत की बात तो ये थी कि मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि मीनू इसी परिवार की लड़की है या गोद ली गई है? कई फिल्मों में जन्म के वक्त बच्चों की अदला-बदली के दृश्यों को देखने के बाद मुझे लगने लगा कि मीनू भी शायद वही बदला हुआ बच्चा है। पर कमाल की बात है अपने चुप्पा भाई-बहनों के बीच भी वो अपनी लय में ही जीती थी।
देखते-देखते मीनू बेहद अच्छे नम्बरों से पास होकर दूसरे साल में आ गई। दरअसल उसके जीवन में घटनाओं की उथल-पुथल यहीं से शुरू हुई जिसके कारण कुछ भी सामान्य न रहा, न उसके जीवन में और न ही उससे जुड़े लोगों के जीवन में। नया सत्र शुरू ही हुआ था और मीनू लंबे समय तक कॉलेज नहीं आई। ‘‘मैडम फोन ही नहीं उठाती क्या करें?’’ बच्चों से पूछने पर पता चला।
मैं अतिरिक्त रूचि नहीं लेती तो पता ही न चलता। क्लास का कोई भी बच्चा उसके घर के बारे में कुछ नहीं जानता था। अपने घर की कोई बात नहीं करती थी कॉलेज में। वो तो एम.ए. में पढ़ने वाली वर्षा ही अकेली लड़की थी जो मीनू के घर आती-जाती थी शायद किसी पुरानी पहचान के कारण , उसीने बताया-
‘‘मैडम बीमार है वो।...उनके यहाँ कोई कठिन व्रत होता है वही रखा था उसने।’’
‘‘ एक दिन के व्रत में ऐसा क्या हो गया उसे?’’
‘‘एक दिन नहीं मैडम एक महीने का व्रत था। बेहद कठिन, चातुर्मास करके कुछ। कहीं आ-जा नहीं सकते और गरमी में भी गरम पानी पीना है। पूजा-पाठ और बुरे कामों से मुक्ति का संकल्प जैसा भी कुछ होता है इसमें। तीनों बहनों ने रखा था।’’
‘‘मीनू और उसकी बहनों ने ऐसे क्या बुरे काम कर दिए? बड़ी ही प्यारी बच्चियाँ हैं वो तो?’’
मेरी बात पर गौर किए बिना ही वर्षा बोलती गई,’‘पर व्रत के अंतिम दिन काफी खुश थी वो कि अब कॉलेज जा सकेगी। मुझे बुलाया था उसने, मेंहदी लगवाने जा रही थी।’’
‘‘वो किसलिए?’’
‘‘पता नहीं मैडम, रिवाज सा है उनके यहाँ, कन्याएँ व्रत के अंतिम दिन खूब सजती हैं या खुशी मनाती हैं, ऐसा ही कुछ। और उस दिन अपने करीबी लोगों से मिलती भी हैं। बस मैं तो इसी करके चली गई थी उसके घर। उसकी दोनों बहनों ने भी व्रत रखा था पर ये कितनी दुबली है पहले ही, सह नहीं पाई। कई दिन हॉस्पिटल में रही है। अब घर आ गई है। उसका हीमोग्लोबिन काफी कम है।’’
तो ये थे मीनू के गुरू जी के बताए नियम-कायदे, जिनकी कसौटी पर खरा उतरना था उसे और उसकी बहनों को। वो बीमार न पड़ती तो शायद इस रहस्य से पर्दा ही न उठता? या अगर वर्षा भी उसके घर न आती-जाती तो कुछ भी पता न चलता। बहरहाल कुछ दिन बाद मीनू लौटी। बीमारी की बात तो उसने बताई पर कारण गोल कर गई। मुझे लगा वो मुझे वास्तविकता बताने से कतरा रही है। उसकी व्रत-कथा पर पर्दा ही पड़ा रहा। पर अब मीनू में पहले जैसी ऊर्जा नहीं रह गई थी।
‘‘भाई भगा न मुझे, सांस भूलती है मेरी। ले मान ली मैंने हार अपनी।’’ क्लास के बाहर गलियारे में मीनू की ये बात सुनकर जहाँ उसका साथी जीत की खुशी में इतराने लगा, मेरा मन किसी आशंका से भर गया। क्या हुआ मीनू की हिम्मत को? हारना तो उसका स्वभाव ही नहीं था।
नए बच्चों के स्वागत की तैयारियाँ चल रहीं थीं। सभी टीचर्स चाहते थे कि शुरूआत मीनू के डांस से ही हो। उसने भी खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया। पर हैरानी की बात ये थी उसका ये कहना-
‘‘दो दिन के लिए कॉलेज में ही रिहर्सल की व्यवस्था करा दें आप। घर में पॉसीबल नहीं।’’
बात अजीब तो नहीं थी पर लगा शायद घर में उसे नाचने-गाने की अनुमति नहीं है। मैंने व्यवस्था तो करा दी पर घर के बारे में पूछने पर उसने बेहद नपे-तुले शब्दों में इतना ही कहा-‘‘बस ऐसे ही। पापा को पसंद नहीं।’’ मेरे मन ने प्रतिवाद किया, क्या ज़रूरत है पापा को बताने की? कौनसा वह सारे दिन घर में रहते हैं? और आखिर नाचने में ऐसी कौनसी बुराई है जिसे छोड़ा जाना चाहिए। क्या उसके पापा ने देखा है कभी उसका नाचना? शायद नहीं ,इसीलिए तो वे जान ही नहीं सके कि नाचते हुए उसकी खुशी सातवें आसमान पर होती है। बात करना चाहती थी मैं उससे खुलकर। चलकर समझाना चाहती थी उसके पापा को पर उसके कसकर भिंचे होंठो ने एक सीमा रेखा खींच दी थी जिसके पार जाने की अनुमति मुझे नहीं थी।
‘‘जल्दी चलिए मैडम, मीनू बेहोश हो गई है।’’
अगले दिन डांस की तैयारी के दौरान बच्चे बदहवास भागे आए। डॉक्टर ने बताया कि उसके शरीर में खून कम है और कम पोषण के चलते जान भी नहीं है। बच्चों ने एक और बात का भी खुलासा किया कि एन.एस.एस की ओर से लगे ब्लड डोनेशन कैंप से डॉक्टर ने इसे ब्लड डोनेट करने से मना कर दिया था। उस दिन ग्लूकोज़ चढ़वाकर मीनू को उसके घर लेकर गई। बाहर के गेट पर ही उतरते हुए बोली-
‘‘मैं खुद चली जाऊंगी और प्लीज़ मेरे घर में कभी किसी को न बताएँ कि मेरे साथ क्या हुआ। आप चलेंगी तो... कल तक ठीक रही तो डांस ज़रूर करूंगी।’’
आज सवाल उठा कि ये वही मीनू है जो मुझे घर बुलाने पर अड़ गई थी? दूसरे ही पल मैं कांप गई क्या मुझे घर बुलाने का कोई और मकसद तो नहीं था। उसके घर का धार्मिक अनुशासन और मेरी बातों में धर्म की रूढि़यों का तार्किक खंडन। तो क्या मीनू इसलिए मुझे...ओह ! हाँ,शायद इसीलिए। वैसे भी बच्चों के सामने डॉ सहज त्रिपाठी का जीवन खुली किताब ही तो था जिसने जीवन अपनी शर्तों पर जिया और किसी भी तरह की रूढि़ और पूर्वाग्रहों को कभी नहीं माना। पढ़ाई के विषय से लेकर जीवनसाथी के चुनाव तक का निर्णय उसका अपना रहा। इसीलिए मुझसे प्यार करती थी मीनू तो अब क्यों उसने अपने घर और मन के दरवाजे बंद कर लिए?
मेरा दिमाग उसके घर के रहस्य को खोलने में लगा था पर जुबान से यही निकला ‘‘ठीक है और तुम कल की चिंता न करो अपना ध्यान रखो बस।’’ इस घटना के बाद कॉलेज में मीनू का डांस छूट गया। अब कभी-कभी गाना गा देती थी। बड़ी टीस-सी उठा करती थी मेरे भीतर और सवालों के जंगल में उलझते-दौड़ते जब लड़खड़ाती तो मैं खुद से सवाल करती आखिर क्या है ये- हरदम मीनू, मीनू? मीनू के अलावा और भी तो बहुत कुछ है न जि़ंदगी में। होते हैं कई बच्चों के अपने सवाल जि़ंदगी के। हम किस- किसके सवालात हल करते फिरें आखिर? और हल तो तब करें न जब कोई शामिल करे अपनी परेशानी में।
इधर कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही थी कि जो मीनू हँसना-खिलखिलाना भूलती जा रही थी, उसकी हंसी फिर लौट रही है। शरीर से कमज़ोर होने के बावजूद मन से मजबूत हो रही थी। उसकी चंचलता, चुलबुलापन फिर से गलियारों में गूंज रहा था। पर ये क्या, अब एक नई मुसीबत। वो क्लास में अक्सर गायब रहने लगी। खोजने पर भी कारण नहीं मिला तो अपनी आदत के मुताबिक एक दिन क्लास से पूछ ही लिया-
‘‘मीनू नहीं आई क्या आज?’’
‘‘मैडम वो तो रोज़़ आती है पर...।’’ इस अधूरे जवाब के साथ कुछ दबी ध्वनियाँ भी क्लास में गूंजी जिन्होंने मुझे बेचैन कर दिया। कुछ चेहरों पर शरारती मुस्कुराहट, आंखों-आंखों में बच्चों का एक-दूसरे को देखना और फिर वो दबे से शब्द में प्रशांत का व्यंग्यात्मक धुन में गुनगुनाया गीत बहुत कुछ बयाँ कर गए - ‘‘आजकल पांव ज़मीं पर नहीं टिकते उसके।’’ पर मन ने माना ,हो सकता है ये बच्चों की खामाख्याली हो फिर ये मीनू का निजी मसला था और कॉलेज में ऐसा बहुत कुछ होता ही रहता है। दरअसल मेरी चिंता वो नहीं थी , चिंता इस बात की थी कि मीनू पढ़ाई के प्रति इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? उसके घर का माहौल फिर घर की माली हालत और मीनू का रवैया, सब कुछ परेशान करने वाला था। मीनू मिलती भी तो मैं उसे क्लास में आने के लिए ही कह सकती थी उस पर कोई दबाव नहीं डाल सकती थी।
‘‘आप मुझे पूछ रहे थे, मैडम़...कल ,क्लास में?’’
अचानक अगले दिन वो खुद मेरे सामने मेरे सभी सवालों का जवाब बनकर हाजि़र थी।
‘‘हाँ भई, कहाँ हो तुम?’’
‘‘फिल्म देखने गई थी...मैं और इमरान थे साथ में.....उसका जन्मदिन था न।’’ शुरूआती संकोच से निकले उसके बेधड़क शब्दों ने बहुत कुछ कह दिया।
‘‘दोस्तों का जन्मदिन मनाओ पर रो़ज-रोज क्लास से कैसी नाराज़गी?’’
बहुत सारे सवाल होते हुए भी संयमित रहना वक्त की ज़रूरत थी। और मीनू मुस्कुराकर चली गई। मामले की भनक तो लग गई थी मुझे पर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना अभी मुश्किल था। मीनू ने मेरी क्लास में आना दोबारा शुरू कर दिया पर बाकी लोगों के यहाँ वो गैरहाजि़र थी, दूसरे क्लास में वो इमरान के साथ ही बैठती। इमरान भले घर का अच्छा लड़का था और मीनू तो थी ही अच्छी पर ऐसा क्या था जो मुझे परेशान किए जा रहा था। वो शायद समय ही था जो उनके कच्चे मन पर भारी दस्तक दे रहा था जिसकी आवाज़ मेरे कानों में भी अपनी धमक के साथ गूंज रही थी। मेरे ही क्या कई कानों में गूंज रही थी और सबका मन यही कह रहा था-’‘ये कोई उम्र है भला?’’ पर बात कुछ और भी थी-‘‘क्या मीनू का परिवार इमरान को देख पाएगा मीनू के जीवन साथी के रूप में?’’ सवाल जटिल था पर बार-बार इसका जवाब बड़ी सरलता से मेरे सामने अपनी नन्हीं सी मुद्रा में आता-‘‘नहीं’’। दिक्कत एक ये भी थी कि मीनू इस सारे मामले को अपने तक ही सीमित रखना चाहती थी। अपने किसी दोस्त को भी उसने अपने प्रेम का राज़दार नहीं बनाया था, साक्षी को भी नहीं।
इधर इमरान-मीनू प्रेम-प्रसंग ने कॉलेज में नई हलचल भर दी थी। कुछ तो उसके बोल्ड स्टैप को भावी प्रेरणा की तरह पा रहे थे तो कुछ की प्रतिक्रिया बेहद साम्प्रदायिक और घृणा से भरी भी थी।
‘‘अरे ये ट्रेंड चल निकला है। लव-जेहाद के बारे में जानते हो क्या? अरे सोची-समझी साजिश है। ये लड़के ऐसे ही हमारी लड़कियों को बरगलाते हैं और उन्हें अपने धर्म में शामिल कर लेते हैं। अभी घर पर फोन खड़का दूं मीनू के तो सही रस्ते पर आ जाएगी।’’
प्रशांत के अशांत मन में चल रही बातों का खुलासा कुछ बच्चे मुझसे कर गए। पीठ पीछे प्रशांत के तीखे-तल्ख जुमलों और भद्दे शब्दों से इमरान-मीनू दोनों ही आहत थे। एक दिन दोनों के सामने ही क्लास के दौरान प्रकारांतर से मैंने धर्मनिरपेक्षता और समतामूलक समाज की नींव में धार्मिक संकीर्णता की बाधा और इस दिशा में अंतर्जातीय-अंतर्धार्मिक विवाहों की ज़रूरत पर बात की। हमेशा की तरह बहुत से सहमत हुए और कुछ उदासीन ही रहे। पर प्रशांत जैसे बच्चे आक्रामक होकर बहस करने लगे। मैंने कई बार उन्हें तर्क के रास्ते लाने की कोशिश की पर वे लकीर के फकीर की तरह बोले-
‘‘ये तो गलत होगा। हमारा धर्म तो सदियों से श्रेष्ठ रहा है। सबसे ऊपर, सबसे अच्छा। सब उन्नति का मूल। हमारी संस्कृति तो आधार है मैडम, इसे कैसे, क्यों और किनके लिए हिला दें? धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द सुनने में मधुर हैं, फैशनेबल हैं, वोट मिलते हैं इनसे पर इनके चक्कर में अपना धर्म नहीं छोड़ा जाता। मैडम ‘जाति कभी नहीं जाती’-सुना तो होगा आपने।’’
जिसने जीवन में इन बातों की परवाह नहीं की उसे ये बच्चे शायद जबरन समझाने की कोशिश कर रहे थे। यही नहीं एक दिन क्लास में घुसते हुए खौलते लावे जैसे शब्द भी कान में तैर गए-’‘ये सब साले पाकिस्तानी। खायेंगे यहाँ की और...। हम क्या चुप बैठे रहेंगे, पानी नहीं है खून दौड़ता है अंदर, दिखा देंगे।’’
फिर अचानक कॉलेज फेस्ट के दौरान किसी बात पर लड़कों ने इमरान को बुरी तरह पीट दिया। धक्का-मुक्की में मीनू को भी चोट आई और मौके का फायदा उठाकर उससे छेड़छाड़ भी की गई थी शायद। कुछ बच्चों का कहना था कि नाचते समय इमरान किसी से टकरा गया और कहते-सुनते बात बढ़ गई। कुछ का कहना था मीनू के साथ बद्तमीज़ी का विरोध करने पर ऐसा हुआ तो कुछ ने बताया इमरान को पीटने वाले लड़के कह रहे थे-‘मार के गाड़ दो साले को देख लेंगे सब बाद में।’ मैडम, दोनों को पहले से दी जा रही धमकियाँ कोरी गीदड़ भभकी नहीं थीं।’’ थोड़े दिन बाद स्थितियाँ शांत हुईं और निष्कर्ष निकला ‘‘फेस्ट-वेस्ट में तो ऐसा हो ही जाता है। शान मारने के लिए लड़के ये सब किया ही करते हैं।’’ पर इस सबके बीच उन दोनों के प्रसंग को बड़े ही वाहियात तरीके से हवा दी गई। आग की चिंगारी मीनू के घर तक पहुँच गई। अब मीनू क्लास से गायब रहने लगी और ठीक होने के बाद कॉलेज आया इमरान मुझे अकेला बैठा मिलता। उदास और परेशान। कोई नहीं जानता था आखिर हुआ क्या? इमरान ने बेहद संकोच भरे शब्दों में यही कहा ‘‘मैडम उसका फोन बंद है। मैं कुछ नहीं जानता। शायद वो बात ही नहीं करना चाहती मुझसे।’’
पहले तो मुझे लगा कि कुछ दिन मीनू का न आना ही ठीक है पर जब कई दिन बीत गए तो मेरा माथा ठनका। इस मसले पर अपने एक सीनियर साथी से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने कहा-
‘‘बी प्रैक्टीकल सहज। क्यों पड़ती हो इन चक्करों में नौकरी करो और खुश रहो। परिवार देखो अपना। किन झंझटों में फंस रही हो। ये बच्चे किसके सगे हैं?’’
सच ही तो कहा उन्होंने नौकरी करो और खुश रहो। हाँ नौकरी करने ही तो आते हैं हम। पर मन ने तुरंत प्रतिवाद किया क्या केवल नौकरी ही करने आते हैं हम? क्या हम भी किसी मंडी में बैठे हैं कि बस सामान को जल्दी से जल्दी बेचना और हर हाल में ग्राहक को खुश करते हुए उससे लाभ कमाना ही हमारा पेशा है। ऐसे ही गढ़ने हैं हमें ‘आदम के सांचे?’
‘‘मैडम मीनू दिल्ली में है ही नहीं, उसके पापा को बड़ा झटका लगा है बिज़नेस में। सब लोग दिल्ली छोड़कर राजस्थान चले गए।’’
वर्षा से सारा हाल मालूम होते ही मैं बौखला गई-
‘‘ऐसे कैसे? अब उसकी पढ़ाई? थर्ड ईयर है आखिर।’’
‘‘वो तो इमरान की बात के बाद ही खतम हो गई थी, मैडम। घर में मार पड़ी सो अलग। बहुत रोई थी मैडम वो। बहुत गिड़गिड़ाई कि पढ़ाई मत छुड़वाओ। रिश्ते की चाची के यहाँ रहकर पढ़ाई पूरी करने की भीख तक मांगी उसने पर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। ऊपर से उसके पापा ने कहा ‘पाप किया है तूने अब प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा।’ पता नहीं मैडम क्या-क्या हुआ होगा? फोन भी छीन लिया उसका। न कोई नम्बर है न कोई पता।’’
लोगों से भरी इस दुनिया से मीनू एकदम गायब कर दी गई। बिना पते और बिना फोन नम्बर के कहाँ ढूंढे उसे? मेरी तड़प यही थी कि काश मैं उसके माता-पिता को समझा पाती और किसी तरह मीनू बी.ए. पूरा कर लेती। सपनों से भरी एक लड़की अपने ही घर के आईने की किरचों में कहीं लहूलुहान पड़ी थी। उसके सपनों और उम्मीदों के पर नोंच डाले गए होंगे अब तक। उसका ख्याल मुझे किसी करवट चैन न लेने देता। परेशानी से भरे उन दिनों में एक मानस ही थे जो मुझे हौसला देते और दूसरी वर्षा थी जिसके होने से उम्मीद बंधती कि कभी न कभी तो वर्षा से उसकी बात होगी ही।
आज थर्ड ईयर का फेयरवेल था, मीनू की क्लास का। पर मीनू नहीं थी और इमरान ने आना लगभग बंद-सा ही कर दिया था। उस आयोजन में कहीं किसी ने उसका जि़क्र भर किया था और अब इसके बाद उसका जि़क्र भी हमेशा के लिए खत्म होने वाला था। दुखी मन से कॉलेज से निकल रही थी कि वर्षा मिल गई। ‘‘आपको चलना होगा मैडम मेरे साथ। अभी इसी समय।’’
‘‘कहाँ और किसलिए ?’’
‘‘मीनू आई है मैडम। दिल्ली में रहेगी कुछ दिन।’’
घबराहट में मेरे गले की सारी नसें तन गईं। अपनी सारी शक्ति समेटकर मैंने कहा,‘‘कहाँ है? जल्दी चलो। मम्मी-पापा को बिना बताए कुछ समय के लिए ही आई होगी न, हमसे मिलने। क्या इमरान भी पहुँच रहा है?’’
‘‘नहीं वो नहीं आ रहा। अब मीनू को किसी से छिपने-बचने की ज़रूरत नहीं है मैडम, उसे दीक्षा दिला दी गई है मैडम।’’
दुखी स्वर में निकले साक्षी के शब्द किसी वज़नी हथौड़े की तरह मेरे दिमाग में पड़े। जीवन से भरी, उमंगों में झूमती, सपनों के गीत गुनगुनाती, फिरकी की तरह नाचती, प्रेम के पंख लगाकर उड़ने वाली मीनू और दीक्षा धारण करने वाली साध्वी मीनाक्षी -दोनों में कौनसा सच था, पहचान जटिल थी। क्या यही था मीनू का फेयरवेल?
आज सोचती हूँ तो लगता है कि वर्षा से सच जानने के बाद मैं क्यों गई उससे मिलने? क्या बदल दिया मैंने? और क्या जान लिया नया ही कुछ? जितना उसका सच था साक्षी ने बता तो दिया ही था। फिर ऐसा क्या मिलने वाला था उसे देखकर? क्या वर्षा के कथन का जीता-जागता सबूत लेने गई थी मैं? साध्वियों की तरह सफेद साड़ी में लिपटी, शांत मीनू ने तो मेरी मीनू के वजूद को ध्वस्त कर दिया था। उस सत्संग में नन्हीं, किशोरी, जवान और वृद्ध साध्वियों की पंक्ति में बैठी मीनू को पहचान लेना आसान बात नहीं थी। थोड़ी देर का समय निकालकर मीनू हमारे साथ बैठी।
‘‘कैसी हैं आप?’’
भला अपनी मीनू को मरते देख क्या खुश होंगी मैं? कैसा सवाल है? उसके चेहरे में अपनी मीनू की पहचान का कोई अवशेष ढूंढने की कोशिश में मेरे अधूरे से शब्द बाहर आए-‘‘क्यों मीनू?...ये सब किसलिए?’’
‘‘सब हमारे कर्म का खेल है और क्या? भाग में लिखा था।’’ सरलता से कही उसकी बात मुझे बड़ी ही बनावटी और थोथी जान पड़ी। चीखना चाहती थी उसपर, एक तमाचा मारना चाहती थी उसे पर उसकी बात खत्म नहीं हुई थी-
‘‘परिवार के दुख का कारण बन गई थी। पढ़ाई छुड़वा दी गई, घर की हालत तो आप जानती ही थीं। उस घटना के साथ ही पापा का बिज़नेस भी डूबा, इसे कोई अनिष्ट मानकर पापा ने संकल्प लिया कि एक बेटी धर्म की राह पर जाएगी। फिर मुझे पाप का प्रायश्चित भी तो करना था।’’
उसके आखिरी शब्दों ने खुद को संयत रखने की भरपूर कोशिश के बाद भी व्यंग्य की रेखाएँ और रंगों को उभार दिया।
‘‘पर क्या यही रास्ता था?’’ मैं रोक न सकी किसी तरह अपने सवाल का तीर।
‘‘क्या करती बीच रास्ते में पढ़ाई छोड़ बैठी एक परनिर्भर, बेरोज़गार, कलंकित लड़की? मेरी तो कोई भी साध पूरी होनी ही नहीं थी इस हालत में, पर पापा की तो हो ही सकती थी न। धर्म भी रह गया और दीक्षा ने बाकी खर्चे और झंझट भी बचा दिए। पुण्य मिला सो अलग। अब कोई परेशान नहीं, सब खुश हैं...आप ही कहा करती थीं न तर्क से सिद्ध करो अपनी बात। है न मेरी दीक्षा में गहरा तर्क। अकारण कुछ भी नहीं है।’’
तार्किक होते हुए भी उसकी बातें क्यों मुझे भावुक कर रही थीं। भीतर के आवेग को रोकते हुए मेरा एक आखिरी सवाल अपनी पूरी उत्तेजना और जिज्ञासा में फूट पड़ा-
‘‘इतनी छोटी उम्र और इतना कठिन संकल्प?’’
आज मेरे हर सवाल का जवाब था उसके पास-’‘जो सबसे सरल लगता था जीवन में वही कठिन था मेरे लिए। इस जीवन में कैसी कठिनाई? देखिए न, यहाँ तो चार साल की बच्चियाँ भी ये कठिन संकल्प लिए हुए हैं और साठ-सत्तर साल की औरतें भी। फिर मेरे जैसी लड़की के लिए क्या मुश्किल है?’’
बेहद नाटकीय होते हुए भी यही मीनू की जि़ंदगी की हकीकत थी। और क्या गलत कह रही थी वो, चार साल की अबोध बच्चियाँ और साठ-सत्तर साल की अशक्त औरतें सभी तो थीं उसके साथ। फिर मीनू न तो अबोध थी न अशक्त। सफेद साडि़यों में लिपटी ये बच्चियाँ, जवान और वृद्धाएँ -इनमें से कितनी ही होंगी मीनू की तरह अपने अरमानों की गठरी में गिरफ्त, खुद ही अपनी इच्छाओं और जीवंत अतीत पर कसकर गाँठ बांधने वाली। औरों के लिए सबाब कमाने वाली बेजान गठरियाँ ही तो दिख रही थीं सब।
इस घटना के बाद बहुत कुछ बदल गया। मीनू से तो किसी मुलाकात की अब कोई उम्मीद थी नहीं पर एक नया परिवर्तन मेरे जीवन में ये आया कि साध्वियों से जुड़ी खबरों पर मेरा ध्यान विशेष रूप से जाने लगा। कभी झाबुबा में लंबे व्रत के कारण किसी साध्वी की मौत की खबर मुझे परेशान करती तो कभी महाराष्ट्र में बाल संन्सासिनों पर चलने वाले विवाद और कई न्यायिक मोड़ो पर, कभी देश के किसी भी इलाके में सम्पन्न हुई दीक्षा के भव्य आयोजन पर तो कभी साध्वियों के अपहरण और उनसे मार-पीट की वारदातों पर। शायद मैं इन सब में मीनू को ही खोजा करती थी। जैसे इन सबमें मीनू ही बसती थी? ऐसे ही एक दिन राजस्थान की किसी साध्वी के साथ बदसलूकी की खबर पर मेरी नज़र गई और मन ने तुरंत कहा-
‘‘कहीं ये मीनू तो नहीं है?’’
खबर ने उसकी उम्र बारह साल बताकर मुझे गलत ठहरा दिया। कुछ पल के संतोष के बाद मीनू का ध्यान मुझे फिर से एक गहरे असंतोष से भर गया। काश! ये खबर मीनू की ही होती। कम से कम अर्से से उसके साथ हो रही बदसलूकी की खबर तो आज सब तक पहुँच जाती। मन भी कितना अजीब है न...