पाप-पुण्य / सुरेश सौरभ
पूरे गांव में हलचल थी। प्रधान जी ने छोटी काशी भेजने के लिए ट्रैक्टर-ट्राली का इंतजाम करा दिया, साथ मेें खाने-पीने का भी इंतजाम था। सभी कांवरिये और शिवभक्त जाने को तैयार थे। शीलू और शीतल किशोरियॉ भी जाने को तैयार थीं। सभी ने कहा-दोनों किशोरियों को अगर शिव-पार्वती बना दिया जाए तो बेहतर रहेगा, और अगर वे ट्राली में बंधे डीजे पर डांस करते हुए चलेंगी तो बहुत ही भक्तिमय माहौल हो जायेगा।
किशोरियों की मॉ ने कहा-अगर सड़क पर नाचते गाते हुए चलेंगीं, तो लोग क्या कहेंगे। उनकीं चिंता पर पानी फेरते हुए भले लोगों ने कहा, " अरे! भाई ये तो पुण्य का काम है। बड़े भाग्यशालियों को ऐसा मौका मिलता है।
ट्राली चली। उसके पीछे कांवड़िये और सारे भक्त उछलते-कूदते चले... और डीजे पर नाचते हुए शंकर पार्वती भी चले।
दूसरे दिन छोटी काशी से ट्राली लौटी. शंकर-पार्वती फफकते हुए अपनी माँ से लिपट कर रोने लगे। मॉ ने बड़ी मुश्किल से उनकी व्यथा पता की, फिर चीख-चीख कर गरियाने लगी-अगर कोई नालायक कांवडियॉ मेरे दरवाजे आ गया तो जूतों से बात करूंगी। उसकी आवाज सुनकर अडो़सी-पड़ोसी आ गये पूछा-क्या हुआ?
माँ बोली-दोनों बेटियॉ छोटी काशी से पुण्य कमा कर आईं हैं, वही सब चीख-चीख कर बखान कर रही हूँ।
पड़ोसियों ने कहा-इसमें चीखने की क्या ज़रूरत है? और कांवरियों को गरियाने की क्या ज़रूरत है?
मॉ ने कहा-मेरा बस चलता तो सारे कावडियों को कच्चा खा जाती। ऐसा पुण्य बेटियों को दिया है जिसे न मैं निगल सकतीं हूँ, न उगल।