पाप / परेश पटनायक / दिनेश कुमार माली
परेश पटनायक (1960)
पता :- पूर्णसरोज,प्लॉट न॰ 38/12,लेन-1,जगन्नाथ विहार,बरमुंडा,भुवनेश्वर -751007
प्रकाशित गल्प-ग्रंथ :- छाया चरित्र,चरित्र चरित्र
उस दिन मैंने अपनी माँ से कहा, “मैं स्कूल जा रही हूँ।” माँ ने कहा, "नहीं, बेटी, आज स्कूल मत जाओ । "
मैंने उससे पूछा, "क्यों?"
मेरी माँ ने कहा, "तुम्हारे पिता ने मना किया है."
मैं समझ नहीं पाई इस बात को क्योंकि आज तक तो किसी भी दिन पिताजी ने मुझे ऐसा कुछ नहीं कहा। उन्होंने मुझे कभी भी स्कूल नहीं छोड़ा था । कभी मेरे लिए किताबें और कपड़े नहीं खरीदे थे। एक बार भी उन्होने स्कूल में शिक्षकों से किसी भी तरह की बातचीत नहीं की थी । अचानक आज क्या हुआ? उन्होने मुझे कभी नहीं पूछा था, “ तुम किस कक्षा में पढ़ती हो?”
आज फिर ऐसा क्या हुआ था कि उन्होने मना कर दिया। माँ को कहकर गए है कि मुझे स्कूल नहीं छोड़ेगी।
मैं सुबह जल्दी उठकर घर का सारा काम करती हूँ। छोटे भाई सना को पकड़ती हूँ। और फिर बड़े भाई बना को खाना देती हूँ। उन दोनों की हर बात मैं जानती हूँ। सारा दिन वे बहन-बहन करते है। हर हालत में मुझे हर सुबह स्कूल जाते-जाते दस बज जाते है।
माँ ने किसी भी दिन न तो मुझे इनकार किया न ही मुझे कुछ कहा था ।
मैं क्या वास्तव में स्कूल जाती हूँ?
मैं,साबी और सेंतेरी, तीनों एक साथ इकट्ठे होते है। हम स्कूल नहीं जाते हैं बल्कि फलों के बगीचे में भाग जाते हैं। जहां पर हम दोपहर तक कौड़ी खेलते हैं। हम मिर्च के साथ हरी इमली पत्तियों की टिकिया खाते है। आम के दिनों में कच्चे आम तोड़ते है। नहीं होने पर, जामुन या झाड़ियों में फल खोजते हैं। शाम होने से पहले हम घर लौट आते हैं।
घर में घुसते-घुसते मैं अकसर जान बूझ कर कहा करती हूँ, "हे माँ, आज स्कूल में हमे बहुत पढ़ाया!"
माँ को पढ़ाई से क्या लेना-देना है । उसे क्या समझ में आता हैं। वह मुझसे कहती है, "ठीक है, ठीक है। जितना पढ़ना था, पढ़ लिया। अब जल्दी कर। घर के कामकाज में मदद कर। बकरियों और गायों को लेने जा। उसके बाद घर और आंगन में झाडू लगा। सना बना को खिला। "
मैंने माँ की किसी भी बात को कभी मना नहीं किया।
और अपने आप इन सभी कामों में लग जाती थी।
स्कूल में मेरा अभी-अभी दाखिला हुआ था। लेकिन मैं स्कूल में महीने में केवल एक या दो बार जाती थी। वह गदा मास्टर बहुत चुगली करता था। कहीं उसने तो पिता जी को मेरे स्कूल नहीं जाने के बारे में बता दिया? लेकिन मेरे पिताजी का क्या जाता है कि वे मेरा स्कूल बंद कराना चाहते है?
मेरे पिता जी अपनी मस्ती में मस्त है। सुबह उठते ही गाँजा पीते है। और फिर वह काम करने जाते है। शाम को पेट भर शराब पीकर आते है। घर में हल्ला-गुल्ला करते है। और मेरी माँ को मारते है। मुझे, सना और बना को गालियाँ देते है। मैं तो उनके पास कभी भी नहीं जाती हूँ। मेरी माँ भी उनके पास जाने से मुझे मना करती है। शराबी आदमी, कौन जानता है कब क्या कर लेगा !
माँ मार खाती रहती है। रोती है फ़िर भी कुछ नहीं कहती। बाप लड़ाई करके इतना थक जाता है कि वह जमीन पर एक कटे पेड़ की तरह गिर जाता है और वहीं बाहर सो जाता है। रात ज्यादा होने पर माँ उसे उठाकर खाने के लिए कुछ देती है। नींद से उठकर वह किसी से भी झगड़ा नहीं करता है। एक अच्छे बच्चे की तरह खाकर फ़िर सो जाता है।
वह अपने जीवन को अपने तरीके से जीता है। हमारे रास्ते हम।
उन्होने कभी भी मेरा, सना और बना को स्नेह-सत्कार नहीं किया। उनका दारू और गाँजा अच्छा तो वह अच्छे ।
एक दिन अपने स्कूल के छात्रों को खोजते-खोजते गदा मास्टर हमारे घर आया और माँ को कहने लगा, "स्कूल में छात्रों की पर्याप्त संख्या नहीं है। बच्चों को स्कूल के लिए आना चाहिए, अन्यथा सरकार गांव से स्कूल उठा लेगी " वह मेरी माँ को मुझे स्कूल भेजने के लिए समझाने लगा।
मेरे पिता तब घर पर नहीं थे परन्तु क्या फर्क पड़ता है जो वे किसी दिन घर पर रहते है क्या?
मेरी माँ ने कहा, " स्कूल अगर बंद भी हो जाए तो हमारे घर का क्या जाएगा? "
गदा मास्टर ने कहा, " यदि स्कूल बंद हो गया तो मेरी नौकरी चली जाएगी। मेरे बच्चे और पत्नी अनाथ हो जाएंगे।” उसकी इस बात ने मेरी माँ के दिल को छू लिया और वह राजी हो गई।
और कहने लगी, " लड़की को पढ़ाने से क्या होगा? "
गदा मास्टर कहने लगे , "हम इसे बाद में देखेंगे। पहले स्कूल तो चले। यहा स्कूल होने पर तुम्हारे दोनों बच्चे बड़े होकर पढ़ेंगे नहीं क्या? "
यह मेरी माँ के लिए अपील थी। वह सहमत हो गई और कहने लगी, "ठीक है, यह स्कूल जाएगी। लेकिन मैं उसकी पढ़ाई पर एक भी पैसा खर्च करने में सक्षम नहीं हूँ। "
मास्टर ने कहा, "आपको कुछ भी खर्च नहीं करना है! सरकार सब खर्च वहन करेंगी। यदि वह अच्छी तरह से पढ़ती है तो उल्टा सरकार उसे पैसे देंगी। "
उसके बाद मैंने स्कूल जाना शुरू कर दिया ।
प्रारंभ में, मैं नियमित रूप से स्कूल जाती थी। लेकिन मैं किताबें, नोट्स, चाक या एक स्लेट भी नहीं खरीद पाती थी। शिक्षक चिढ़ने लगे। मगर माँ ने कहा, "मैं कुछ भी नहीं खरीदूँगी। सरकार सारा खर्च वहन करगी। "
गदा मास्टर ने उससे कहा," शिक्षा मुफ्त में है, मगर आपको स्लेट और चाक तो खरीदना ही पड़ेगा ! "
किसी ने पिता से कहा कि हम स्कूल नहीं जाकर बगीचे में कौड़ी और खपरा खेलते है? कौन परवाह करता है? मेरे पिता ने मुझे कभी याद नहीं किया। मैंने कितनी कौड़ियाँ खेली या कितनी इमली की पत्तियां खाईं?
लेकिन मैं अपनी माँ की बात मानकर कहीं भी नहीं गई।
मैं घर पर बैठी रहती।
सेबी मुझे खोजती- खोजती आई और कहने लगी,” चल जाएंगे। “
मैंने कहा, "नहीं, आज नहीं, मैं नहीं जाऊंगी! मेरे पिता ने मुझे मना किया है। "
सेबी ने पूछा, "क्यों?"
मैंने कहा, "मुझे क्या पता? "
सेबी ने कहा, " बगीचे में जामुन पके है। "
मैंने कहा, " कल जाऊँगी। "
सेबी चली गई।
एक घंटे बाद सेंतेरी आई।
पूछने लगी, " आज नहीं जाओगी? "
मैंने कहा, "नहीं."
उसने पूछा, "क्यों?"
मैंने कहा, "मुझे नहीं मालूम।"
उसने कहा, "मैं बढ़िया अचार लाई हूँ। "
मैंने कहा, "यह कल के लिए रख दो। "
उन्होंने कहा कि "पुरानी ताश का एक पैकेट मिला है।"
मैंने कहा, "हम कल खेलेंगे। "
तब तक मैं नहीं जानती थी कि कल का दिन मेरे लिए कैसा होगा?
उस समय मेरे पिता घर पर पहुँच गए। आज क्या वह अपने काम पर नहीं जाएंगे? जैसे ही उनको देखा, सेंतेरी चुपके से भाग गई।
मेरे दोस्त भी मेरे पिता से बुरी तरह डरते हैं।
सेबी मुझसे कहती है, "यह तेरा पिता है या यम? "
सेंतेरी कहती हैं, "उनकी आँखें मंदार फूल की तरह लाल-लाल हैं।"
सेंतेरी कहती हैं, "उनकी जीभ इतनी अशिष्ट है।मुंह अश्लील शब्दों का भंडार है। “
सेंतेरी मुझसे पूछती," यह तुम्हारे पिता कैसे हो सकते हैं ? ”
मैं उत्तर देती, “ मुझे पता नहीं। “
पिता घर पर पहुँच गए और उनके साथ एक बदसूरत बूढ़े आदमी ने भी हमारे घर में प्रवेश किया। वह बूढ़ा आदमी संदेह की दृष्टि से इधर- उधर देखने लगा। मेरी तरफ इस तरह देखने लगा, जैसे वह मुझे कच्चा खा जाएगा।“
पिताजी ने मुझे से कोई बात नहीं की। वह मेरी माँ के पास गए और उसके कान में कुछ फुसफुसाए।
माँ ने मुझे घर के अंदर बुलाया।
मैंने पूछा, " क्या है?"
उसने मुझे आदेश दिया, "तू उस बूढ़े आदमी के साथ जाकर आ। "
मैंने पूछा, "कहाँ? क्यों जाऊँगी? "
माँ ने कहा " तुझे जो बताया है, वह कर। बहस क्यों कर रही हैं? "
मैंने जोर देकर कहा, "आप मुझे बताओ? मैं क्यों जाऊंगी? "
माँ ने कहा, "तुझे तो अपने पिता का पता है। वह बहुत गुस्सैल है, अभी मारपीट करेगा। "
मैं चुप हो गई।
माँ ने कहा, " तुम अपना सामान और कपड़े बांध लो। और तेजी से बाहर आ। "
मैं तब तक नहीं समझ पाई कि वह बूढ़ा आदमी कौन है? और यहाँ मेरे पिता के साथ उसका क्या काम? मुझे उसके साथ कहाँ और क्यों जाना होगा? मैं वहाँ क्या करूंगी? और कितने दिन के लिए जाऊँगी?
मेरी आँखों में आंसू आ गए।
मेरे आँसू देखकर मेरी माँ का चेहरा दुःख से भरा दिखने लगा। "नहीं, तुम मेरे बच्चे रो मत। तुम्हारे पिता को अब समझ में आएगा। “
मैंने तिरछी निगाहों से पिता को ओर देखा। और उसके चेहरे पर दाढ़ी उग आई थी। बाल बिखरे हुए। आँखों में लालिमा। वह एक फन उठाए साँप की तरह फूंफकार रहा था। हाथ में पकड़ी हुई थी एक लंबी लाठी।
माँ ने मुझसे कहा कि मैं अपना सामान बांध लूँ, लेकिन मैं क्या बांधती? मैं अपने साथ क्या-क्या ले जाती? मैं कितने दिन के लिए जाउंगी ? मैं केवल कपड़े लूँगी या अलता, साबुन? मैं एक मुट्ठी कौड़ी ले जाऊँ या इमली के कुछ बीज? सुराही, थाली लूँगी या माचिस की पेटी? मैं उलझन में थी। और कुछ भी नहीं सोच पा रही थी। बहुत दूर तक कोई अनुमान भी नहीं लगा सकती थी।
मैं एक मूरत बन कर खड़ी हो गई। छाती वेदना से भर गई। मैं कहां जाऊँगी? और क्यों जाऊंगी?
फिर भी मेरी माँ काम के लिए बाहर निकल गई। क्या- क्या भगवान जाने,एक पुरानी साड़ी से लपेटकर एक गठरी बनाई। मेरे हाथ में पकड़ा दी। और कहने लगी "तैयार हो जाओ। जल्दी करो. "
मुझे नहीं पता था कि उस गठरी में क्या रखा है !
पिता ने उस गठरी को देखकर कहा, "तुमने क्यों इतनी बड़ी गठरी बना दी है? लोग तरह-तरह की बातें करेंगे। "
माँ ने कहा, "मैंने तुम्हारी सभी चीजें बांध दी है। जाओ, उन्हें ले जाओ। "
मैंने मेरी बांह के नीचे गठरी डाल दी। मेरा सारा सामान बस इतना? क्या ये हैं मेरी सारी चीजें? मैं अपने सारे सामान को लेकर कहां जाऊँगी?
पिताजी ने कहा, " खबरदार ! खबरदार अगर जानव का कोई भी पूछता है, तो कुछ भी नहीं कहोगी। "
माँ ने कहा, " क्यों नहीं कहेंगी? कहेंगी अपने मामा के घर जा रही हूँ। "
मेरे मामा का घर कहाँ है, मुझे पता नहीं। मैं वहाँ कभी नहीं गई। मेरे कौन नाना है या मेरे कौन मामा है, मैंने कभी नहीं देखे। वे भी कभी हमारे घर नहीं आए। हम भी कभी कहीं नहीं गए। बचपन से देखती आ रही हूँ पिता की आंखों में लालिमा और मेरी माँ की पिटाई और गाली-गलौज। मेरे मामा के गांव से इस बूढ़े आदमी का कोई संबंध है? फिर इतनी बातें क्यों छुपाई जा रही है?
पिताजी आकर बूढ़े आदमी के पास खड़े होकर कहने लगे, " इधर से अब निकल जाइए।”
बूढ़े के साथ बड़े सम्मान के साथ बात कर रहे थे पिताजी। बूढ़ा भीतर बैठा हुआ था। हाथ में एक लाठी पकड़ी हुई थी। वह लाठी के सहारे खड़ा हो गया।
माँ ने मुझे गुड़िया की तरह पकड़ लिया। फिर मुझे दूर धक्का देते हुए कहने लगी, “ जितने दिन तकदीर में लिखे थे, पास में रख लिया। अब तुम्हारी किस्मत। “
मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया ।
तब इतना अवश्य समझ में आया था कि माँ मन-ही-मन बहुत रो रही है। मगर पिता के डर से न रो पा रही है, न आँसू गिरा पा रही है। फिर मैं कहाँ जाऊँगी? माँ क्यों रो रही है? मैंने दोनों हाथ सना बना को गले लगाने के लिए आगे बढ़ाए, पिता ने मुझे खा जाने की दृष्टि से देखा और उसने आदेश दिया. "जाओ, देर हो रही है। "
हमें कहां जाना होगा? हमारी मंजिल क्या है? और हमें क्यों देर होगी?
बूढ़े आदमी ने आगे- आगे चलना शुरू किया।
मैं उसके पीछे-पीछे चलने लगी। मेरे पिता मेरे पीछे।
मैंने मुड़कर जब पीछे देखा कि मेरी माँ ने मेरे भाइयों को कसकर पकड़कर रखा है, जैसे कि बहुत बड़ा खतरा आने वाला हो। मेरे पिता ने मुझे गुस्से से देखा। मैं उनकी बड़ी- बड़ी आँखों से डर गई। और फिर पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं हुई।
हमने गांव पीछे छोड़ दिया। मैं मायूस होकर चल रही थी। सौभाग्य से, हमें गांव में किसी ने नहीं देखा। क्या होता अगर कोई जानने वाला हमें देख लेता? अगर कोई मुझे कुछ पूछता तो मैं क्या उत्तर देती?
गांव के अंत से हमने खेतों की मेड़ पर चलना शुरू किया। मेरे पिता वहाँ पर रुक गए। कुछ समय बाद मैंने पीछे देखा। वह पहले की तरह वहाँ खड़ा था। हाथ में थी छह फुट ऊंची लाठी। वास्तव में वह ऐसे खड़ा था मानो वह गांव की रखवाली कर रहा हो ! मैं और अब वापस गाँव नहीं जा सकती थी। मैंने चेहरा मोड दिया।
बूढा आदमी आगे-आगे चल रहा थ। जमीन पर लाठी ठक- ठक करते। वह कुछ नहीं कह रहा था। मैं भी चुप थी।
हमारा गांव जैसे किसी गहरे गड्डे में धंस गया हो। बालुकेश्वर मंदिर का ध्वज अब दिखाई नहीं दे रहा था। गांव के किनारे के बरगद के पेड़ भी आँखों से ओझल हो गए थे। मैंने हिम्मत जुटाकर बूढ़े से पूछा, "हम कहाँ जा रहे है? "
उसने कहा, "मेरे घर। "
मैंने पूछा, "कितनी दूर?"
उसने कहा, " और चार मील दूर "
मैंने पूछा, " आप मुझे क्यों ले जा रहे हो? "
उसने कहा, "वास्तव में तुम्हें कुछ भी पता नहीं? "
मैंने कहा, 'नहीं, मुझे नहीं मालूम। "
उसने कहा, "तुम्हारे पिता ने तुम्हें मुझे बेच दिया हैं। "
मैं रुककर खड़ी हो गई।
मुझे बेच दिया? कितने में? क्यों बेच दिया? क्या मैं बकरी या मुर्गी हूँ? क्या मैं कांसे या एक पीतल का बर्तन हूँ? क्या मैं केले का गुच्छा या आम का पेड़ हूँ? इस बूढ़े आदमी ने मुझे क्यों खरीदा?
क्या मैं अपने गांव कभी वापस नहीं जा सकती? सेबी और सेंतेरी के साथ और नहीं खेल पाऊँगी? कभी अपने भाइयों को मैं गले नहीं लगा पाऊँगी? मैं अपने पिता के डर से घर के अंदर नहीं छुप सकती? मुझे क्यों बेच दिया गया?
बूढा आदमी पोपले मुंह से मुस्कारने लगा। वह एक घृणित मुस्कान थी। उसने कहा, "परेशान मत हो। मैं तुम्हें रानी की तरह रखूँगा। "
रानी की तरह रखेगा? वह राजा है? रानी बनाकर रखेगा कहकर क्या उसने मुझे खरीदा है?
मैंने कुछ भी नहीं कहा। हमने फिर से चलना शुरू किया। रास्ते में एक गांव के मुहाने पर बनी दुकान से मूढ़ी खरीदकर खाई। बूढ़े आदमी ने चाय पी। बूढ़ा मुझे पान दे रहा था, मैंने मना कर दिया। फिर हमने कुछ देर के लिए एक पेड़ के नीचे विश्राम किया।
उसने पूछा, " मन दुखी है क्या? "
मैंने कुछ भी नहीं कहा।
वह धीरे-धीरे मेरा दिल जीतने की कोशिश कर रहा था।
उसने कहा कि हमारे गांव में हमारा अलग घर है। हम अलग रहेंगे । तुम्हें गांव में किसी के साथ ज्यादा मिलना नहीं है और ना ही किसी से ज्यादा बातचीत करनी है। अगर कोई पूछता है, तुम मेरी क्या हो, क्या कहोगी? "....
उसकी बात आधी रह गई।
मैंने पूछा, "मैं क्या कहूँगी? "
बूढ़े आदमी ने थोड़ा दम लिया।
कहने लगा, "कहोगी ... नहीं, तुम कुछ भी नहीं कहोगी। "
बूढ़े के घर पहुँचते समय हमें साँझ हो गई। उसका घर गांव के अंतिम किनारे पर था। घर पर ताला लगा हुआ था। उसने घर का दरवाजा खोला। घर में घुसकर डिबरी जलाई। काफी बड़ा घर। लेकिन कोई भी नहीं था। मैं डर गई। इस घर में मुझे रहना होगा। कितने दिन रहना होगा, कौन जानता है?
मैंने पूछा, "मुझे खाना बनाना होगा? "
उसने कहा, "नहीं, नहीं, मुझे खाना पकाना आता है। "
मैंने पूछा "तो फिर मुझे घर में झाडू लगाना होगा?".
उसने कहा, "नहीं, नहीं। जाओ कुछ आराम कर लो। तुम बहुत लंबी दूरी चलकर आई हो, थक गई होगी। "
वह मुझे एक कमरे में ले गया। जहां अंधेरा था। उसने डिबरी दिखाई। फिर भी घर में साफ दिखाई नहीं दे रहा था। मैं टटोल-टटोलकर घर के भीतर चली गई। वहाँ एक खाट थी । उसी खाट पर मैंने अपनी गठरी रख दी। और वहीं पर सिमटकर सो गई।
देर रात को बूढ़े आदमी ने मुझे जगा दिया। उसने रसोई में जाकर खाना बना दिया था। और मैंने नींद में ही जो मिला सो खा लिया। मैं भूखी थी सो खाने के बाद फिर से सो गयी .
सुबह उठकर मैंने घर को अच्छी तरह देखा। बहुत बड़ा घर। हमारी छोटी सी कुटिया की तरह नहीं। घर में खाट, बिस्तर, पलंग, अलमारी सभी थे। अनाज का भंडार भी था। जहां चावल के बोरों की थप्पियाँ लगी हुई थी। घर सामान से भरा था। आंगन में एक कुआं था। लेकिन नित्य-कर्म के लिए खेत की तरफ जाना होगा।
बूढ़े आदमी ने सुबह उठते ही रसोई बैठा दी।
मैं जाकर वहाँ बैठ गई।
बूढ़े ने कहा, "गांव के लोग अच्छे नहीं हैं। ज्यादा बाहर मत जाना। "
मैंने पूछा, "आपके और कोई रिश्तेदार नहीं है? "
उसने कहा, " थे, लेकिन अब कोई नहीं हैं"
मैंने पूछा, " कहाँ चले गए हैं?"
उसने कहा, "मेरी पत्नी की मृत्यु हो गई। मेरे दोनों बेटें असम चले गए और कभी वापस नहीं आए। "
मैंने पूछा, "क्या वे अभी भी वहाँ है?"
उन्होंने कहा, "कौन जानता है! कोई खबर नहीं है। दस साल हो गए है इस बात को। "
मैंने कहा, "घर खाली लग रहा है। "
उसने कहा, " अब और नहीं लगेगा। अब जब तुम आ गई हो ! "
मैंने पूछा, "मुझे क्या करना होगा?"
उसने कुछ नहीं कहा। चूल्हे में लकड़ी का एक टुकड़ा डाला। चूल्हा धधक कर जलने लगा।
जब मैं बाड़ी की तरफ बाहर निकली तब उस गली की महिलाएं और बच्चे इकट्ठे होकर मुझे देखने लगे। वे मुझे कई इधर- उधर की बातें पूछने लगे। लेकिन बूढ़े आदमी ने मुझे पहले ही चेतावनी दी थी। इसलिए मैं चुप रही।
वे खाली पूछ रहे थे। बात कर रहे थे।
"तुम्हारा घर कहां है?"
"बूढ़े आदमी को तुम कहाँ मिली? "
"तुम्हारी उम्र क्या है?"
"क्या तुम इसकी घरवाली हो? "
"कैसे तुम्हारे माता-पिता ने इस बूढ़े आदमी के साथ तुम्हें छोड़ दिया?"
मैंने उत्तर में कुछ भी नहीं कहा। सिर्फ उनकी तरफ खुली आँखों से देखती रही। वहाँ उनकी बातें सुनाई दे रही थी।
"अरे, यह मूर्ख लड़की है."
"देखो, यह गूंगी है।"
"यदि यह गूंगी या बहरी नहीं होती तो उसके माता-पिता उसे इस बूढ़े आदमी के साथ क्यों छोड़ देते? "
"अरे, छोटी बच्ची इस मनहूस बूढ़े के साथ? "
उन्होने इधर- उधर की बातें सुनाई। मैंने सब कुछ सुना। सब समझ में आ गया। फिर भी मुंह से एक शब्द भी नहीं निकाला।
मैं घर के अंदर आई। घुम-घुमकर घर में अन्न भंडार, आंगन और कुएं को देखने लगी।
बूढ़ा आदमी कहीं बाहर चला गया था । वह सब्जियों का थैला लेकर घर लौटा।
उसने मुझे फिर से चेतावनी दी, "ध्यान से सुनो। खबरदार, अगर तुमने यहाँ किसी से कोई बातचीत की। "
मैंने कुछ नहीं कहा।
लेकिन धीरे- धीरे यह बात पूरे गांव में फ़ैल गई। शाम को गांव में ग्रामीणों ने एक बैठक बुलाने का निर्णय सुनाया। गांवों में ऐसा ही होता है। मेरे गांव में भी ऐसा ही होता है। मुझे यह सारा कारोबार बिलकुल समझ में नहीं आया।
शाम के समय पंचों की बैठक बुलाई गई। बूढ़े आदमी को इस अदालत में पेश किया गया। घर से थोड़ी दूरी पर ही यह बैठक आयोजित की गई थी।
मैं दरवाजे की फांक से झाँककर सब कुछ सुन रही थी।
बूढ़े से पूछा गया, "यह कौन लड़की तुम्हारे घर में रह रही है?"
बूढ़े आदमी ने कहा, " एक लड़की, और कौन? "
प्रश्न उठा "तुमने अपने घर में उसे क्यों रखा है?"
उसने कहा "वह घर का कामकाज करेगी। "
प्रश्न उठा "उसके साथ तुम्हारा क्या रिश्ता है?"
बूढ़े आदमी ने कहा "मैं अकेले रहता हूँ। घर का कामकाज करने के लिए इसे लाया हूँ। इससे दूसरों को क्या समस्या है? "
बूढ़े को कहा गया, "यह तुम्हारे अच्छे के लिए ही कहा जा रहा है, क्योंकि इससे पहले भी तुमने ऐसी कई घटनाएँ की है। तुम्हारे स्वभाव के बारे में गाँव वाले बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। "
बूढ़े के पक्ष को उपेक्षा की दृष्टि से सुना जा रहा था।
मगर मैं बूढ़े की प्रकृति के बारे में नहीं समझ पा रही थी। पहले भी बूढ़े ने किस- किसको खरीदा है? कौन सी ऐसी घटनाएँ घटित हुई है? वे सब कहाँ चली गई?
गाँव की सभा समाप्त हो गई। आधी अधूरी होकर।
उसके बाद इस तरह की कोई खास घटना नहीं घटी।
दिन के बाद दिन बीतने लगे ।
उसके बाद जब भी मैं बाड़ी की तरफ जाती, मुझसे बात करने के लिए, मेरे बारे में पता करने के लिए, मुझसे कुछ सुनने के लिए गांव की लड़कियां और महिलाएं बहुत उत्सुक हो जाती थी। वे मुझे बार-बार पूछती थी, लेकिन मैं उनका जवाब नहीं देती थी। पता नहीं, कब तक इस तरह दिन बीतेंगे ... या आखिर में क्या होगा !
कोई मुझसे पूछता "तुम कहाँ सोती हो? खाट पर या फर्श पर? "
कोई पूछता " अकेलापन महसूस नहीं करती हो? "
कोई पूछता है "बूढ़ा तुम्हें कैसे रखता है? पत्नी के रूप में या बेटी के रूप में? "
कोई लोग कहते, "वह एक अच्छा आदमी नहीं है। "
कोई- कोई पूछता, "तुम इस बूढ़े आदमी को क्या कहकर बुलाती हो? "
मैंने इन प्रश्नों में से किसी का जवाब नहीं दिया। जवाब नहीं देने के लिए भी कहा गया था। लेकिन मैं सोचने लगी, इस बूढ़े आदमी को क्या कहना चाहिए? क्या कहकर बुलाऊंगी इतने दिन? मेरा क्या कहना ठीक रहेगा? मैं नहीं जानती, मैं बूढ़े की क्या लगती हूँ?
फिर एक दिन गांव में बैठक बुलाई गई। जब बैठक बुलाई गई, तब सारा गाँव चुपचाप चला गया। महिलाओं में स्नान घाट पर,, पासा खिलाड़ियों में। गांजा पीने वालों में बात चली और विचार - विमर्श हुआ। हर कोई सहमत हुआ कि घोर अनाचार हो गया है। अब और सहन नहीं किया जा सकता है।
बूढ़े आदमी को फिर से बुलाया गया।
उसने साफ कह दिया "मुझे कुछ नहीं पता। "
गाँव वालों ने कहा "तुम्हें पता नहीं? इसके बारे में पूरा गांव जानता है, क्या तुम्हें पता नहीं? तुम्हारे घर कोई नहीं जाता है, और न तुम किसी के घर जाते हो। तुम्हारे घर में घटना घट रही है, और अब तुम कह रहे हो कि तुम्हें कुछ पता नहीं? "
उसने कहा "मुझे सीधे बताओ, क्या हुआ है?"
उसे कहा गया, " जो लड़की तुम्हारे घर में रह रही है, उसके पाँव भारी है। किसने यह पाप किया है? "
उसने कहा: "मैं कैसे कह सकता हूँ? मैं 80 साल का बूढ़ा आदमी हूँ। वह केवल एक दस साल की लड़की है। आप उससे पूछो। "
गाँव के पंचों ने फैसला किया है कि मुझे बैठक में बुलाया जाए। और बुलाया भी गया। मैं अंदर से थर-थर कांप रही थी।
मैंने पूछा था: "तुम्हारी इस हालत के लिए कौन जिम्मेदार है? इस पाप का भागीदार कौन है? "
मैं सिर पकड़कर देखने लगी। मैंने बूढ़े आदमी की तरफ देखा। उसकी आँखें अंगारे की तरह जल रही थी।
मैंने गाँव के लोगों की तरफ देखा। वे सब एक भीड़ की तरह दिख रहे थे। मेरे चारों ओर हंगामा बढ़ रहा था। अन्याय! ....... अन्याय! .... अनाचार ! …. अनाचार ! पाप.......घोर पाप ! ये सब गांव में नहीं चलेगा । इस पर विचार किया जाएगा। दंड दिया जाएगा, कठोर दंड।
मैंने कांपते- कांपते अपना मुँह खोला।
मगर कुछ भी नहीं कह पाई।
क्योंकि मेरी जीभ काट दी गई थी। कुछ दिन पहले।