पारिजात / नासिरा शर्मा / समीक्षा

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विराट अनुभवों की महागाथा : पारिजात
समीक्षा:डॉ. आलोक कुमार सिंह

नासिरा के उपन्यास ‘पारिजात’ को श्रेष्ठ भारतीय पुरस्कार ‘साहित्य अकादमी’ से सम्मानित किया गया है। ‘पारिजात’ एक विराट कैनवास का उपन्यास है जिसे महाकाव्यात्मक उपन्यास की संज्ञा दी जा सकती है। यह उनके लगभग दस-बारह वर्षों तक किये गए अथक शोध के परिणाम है। ‘पारिजात’ केवल एक वृक्ष, कथा और विश्वास नहीं है, बल्कि यथार्थ की धरती पर लिखी एक ऐसी तमन्ना है, जो रोहन के खून में रेशा-रेशा बनकर उतरी है और रूही के श्वासों में ख्वाब बनकर घुल गई है। उपन्यास में ‘पारिजात’ एक रूपक नहीं, वह दरअसल नए-पुराने रिश्तों की दास्तान है। उपन्यास की कथावस्तु में इतिहास कहीं किरदार बनकर उभरता है तो कहीं वर्तमान और अतीत के बीच सूत्रधार की भूमिका निभाता आता है। उसकी इस आवाजाही में उपन्यास के पात्र कभी तारीख से गुरेंजा नजर आते है तो कभी उसको तलाश करते हुए खुद अपनी खोज में लग जाते है। उनकी इस कोशिश में बहुत से सन्दर्भ, शख्सियतें, घटनाएँ चाहे-अनचाहे अपना आकार ग्रहण कर लेती हैं और समय विशेष पर पड़ी धूल को अपनी उपस्थिति से खारिज कर एक नई स्मित की तरफ ले जाती हैं, जहां पर दुनियावी भाग-दौड़ के बीच रिश्तों की बहाली की जद्दोजहद अपनी सारी खूबसूरती और ऊर्जा के साथ मौजूद है।’ रोहन और रूही के माध्यम से वह भारतीय गंगा जमुनी तहजीब को रेशा-रेशा उकेरती हैं। रोहन की खोजी वृत्ति देखकर ऐसा लगता है कि उसके रूप में नासिरा ने स्वयं अपने संघर्ष को ही रचा है। यह बात वह स्वीकार भी करती हैं। उन्होंने आत्मकथ्य ‘वह एक कुमारबाज थी’ में लिखा भी है कि- ‘‘इस उपन्यास में रोहन दत्त का चरित्र उभर ही नहीं पा रहा था। बस इतना था कि वह हुसैनी ब्राह्मण है और रूही के प्रति उसके मन में झुकाव है। अब मसला हुसैनी ब्राह्मण का उठा और उपन्यास फिर रुक गया उन दिनों मुस्तफाबाद से इलाहाबाद और इलाहाबाद से लखनऊ इन तीन जगहों पर मेरे चक्कर गोलाकार लग रहे थे। बचपन में पढ़ी एक नज्म याद आ जाती थी- ‘नहर पर चल रही थी पनचक्की, धुन की पूरी थी काम की पक्की।’ वही हाल मेरा था। लखनऊ की गलियाँ थीं, छोटा-बड़ा इमामबाड़ा था। हुसैनी ब्राह्मण की खोज थी। अँधेरे में लालटेन उठाकर चलने की मेरी पुरानी आदत थी।’’ इसी अँधेरे में लालटेन उठा कर चलने की आदत का ही परिणाम ‘पारिजात’ के रूप में पाठक के सामने है।

इस उपन्यास की कथा के केंद्र में तीन परिवार और उन परिवारों का अतीत और वर्तमान है। कथा का नायक रोहन है जो पुरुष के रूप में होकर भी नासिरा के आत्मचरित्र सा लगता है। रोहन प्रो० प्रहलाद दत्त का एकलौता पुत्र है। प्रो० प्रहलाद दत्त, बशारत हुसैन और जुल्फिकार अली तीनों बहुत करीबी मित्र है। प्रहलाद की पत्नी प्रभा दत्त हैं। दूसरे बशारत हुसैन और उनकी पत्नी फिरदौस हैं, इनकी एक बेटी रूही और एक बेटा मोनिस है। मोनिस जो अपनी पत्नी और बच्चों के साथ विदेश में बस गया है। तीसरे जुल्फिकार अली और उनकी पत्नी नुसरत जहां हैं, जिनका बेटा काजिम है। रोहन नें एक अंग्रेज लड़की एलिसन से शादी की है। माता-पिता दोनों विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होने के नाते प्रगतिवादी और उदारवादी दृष्टिकोण वाले हैं। वह बेटे की पसंद को स्वीकार करते हैं, यह अलग बात हैं कि रोहन का फैसला गलत साबित होता है। एलिसन न केवल अपने और रोहन के बेटे टेसू (पारिजात) को लेकर घर छोड़ कर चली जाती है बल्कि रोहन को मार-पीट करने जैसे गलत आरोपों में गिरफ्तार कर जेल भिजवा देती है। वह आठ साल के शादी के इस रिश्ते को षड्यंत्रों की भेंट चढ़ा देती है। रोहन अंत तक एलिसन की चालों को समझ नहीं पाता है। उसके वकील नें कहा था- ‘इस पूरे हादसे के पीछे एक लंबी तैयारी थी, जो अरसे से चल रही होगी, जिसका अंदाजा आपको नहीं हुआ होगा, वरना पति-पत्नी में इस तरह की बहसें, सामान फेंका जाना और कभी-कभी हाथापाई घरेलू लड़ाई में शुमार होती हैं। उसमें किसी को ‘क्रिमिनल’ नहीं माना जाता है। …यह मामला गुस्से या रूठम-रूठी का नहीं है। वह आपको पूरी तरह खत्म करना चाहती है। तभी वह शहर छोड़ बच्चे को लेकर जाने कहाँ चली गई है।’ रोहन उपन्यास के अंत तक कुछ समझ नहीं पाता है और अपने बेटे पारिजात के लिए तड़पता रहता है। वह किसी तरह जेल से निकल कर भारत वापस तो आ जाता है लेकिन जीवन में घटी इस दुर्घटना के सदमें से निकल नहीं पाता है। रोहन की माँ यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाती है और अंततः उनकी मृत्यु हो जाती है। वह इसका जिम्मेदार भी स्वंय को ही मानता है। इलाहाबाद लौट के आने के बाद उसे पता चलता है कि उसकी बचपन के अजीज मित्र काजिम और उसके माता-पिता की भी मृत्यु हो गयी है। काजिम उसकी ही बचपन की मित्र रूही का पति भी था। रूही इस समय नौकर-चाकरों के साथ लखनऊ में अपनी विशाल कोठी में अकेली रहती है। पिता के कहने पर रोहन रूही से मिलने लखनऊ आता है। दोनों की स्थिति एक ही जैसी है, एक नें अपनी पत्नी और बच्चे को खो दिया है तो दूसरी नें अपने पति को खोया है। रूही को देख रोहन और भी ज्यादा परेशान हो जाता है। वह सोचता है- ‘वे दिन कितने अच्छे थे जब हम कागज की बनी नांव बारिश के बहते पानी में छोड़ते थे। भागती नाव की रफ्तार देख ताली बजाकर हँसना और इस बात की कतई परवाह न करना कि नाव की यात्रा कहाँ जाकर खत्म हुई है, वह नाव रह भी गई है या गीले कागज का चिथड़ा बन गयी है। मैंने भी नाव बनकर यात्रा की थी। जिंदगी का एक तजुर्बा किया था, जिसने मुझे हालात के बरसते पानी में एक भीगे टुकड़े की तरह बहने पर मजबूर कर दिया।’4 फिर भी रोहन इस सब से निकलने का प्रयास करता है और खुद को दूसरे अन्य कामों में उलझाने का प्रयास करता है। उधर रूही के ऊपर भी खुद को सम्भालने के साथ ही और जिम्मेदारियां आ जाती है। पहली तो ससुराल पक्ष की अकूत सम्पत्ति है, जो अव्यवस्थित सी जहाँ तहाँ पड़ी है, उसे समेटना आसान नहीं है। दूसरी उसकी माँ फिरदौस हैं, जो लखनऊ में ही अपनी अलग कोठी में रहती हैं। रूही का भाई अपनी पत्नी और बच्चों के साथ विदेश में ही बस गया है। चूँकि फिरदौस भी विधवा हैं और एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर हैं, इसलिए वह अपनी बेटी की तकलीफ को महसूस कर परेशान होती रहती हैं। वह चाहती हैं कि रूही दूसरा विवाह कर ले रूही भी उनके दर्द को अच्छी तरह महसूस करती है। इसी तरह के उतार चढ़ावों भरी घटनाओं के बीच कथा आगे बढती रहती है। नासिरा की अपनी एक विशिष्ट शैली है वह न केवल पात्रों को जीवित करना जानती है बल्कि उन्होंने इस उपन्यास में तो शहरों को भी जीवित कर दिया है। उनकी आँखों में सौन्दर्य की अलग ही परिभाषा है, चाहे वह इलाहाबाद का सौन्दर्य हो या लखनऊ का। इलाहाबाद तो वैसे भी नासिरा का जन्मस्थान होने के साथ ही प्रिय शहर भी है। उनके कई उपन्यासों और कहानियों की पृष्ठभूमि भी इलाहाबाद रहा है। इस उपन्यास में इलाहाबाद और लखनऊ हर्फ दर हर्फ बोलते दिखाई देते हैं। रोहन जब सऊदी से वापस इलाहाबाद पहुंचता है तो उसे अपना शहर वैसा ही दिखाई देता है जैसा वो पहले था। ‘वही गलियाँ, वही गंदगी, वही गरीबी, वही गोबर, वही गुब्बारे, वही गुड़ के सेव, वही गाय माता, वही श्रीगणेश। उसे यकायक महसूस हुआ कि वह तो कभी यहाँ से दूर गया ही न था। बाहर के माहौल ने अंदर की दुनिया को दस्तकें देकर जैसे जगा दिया था। उसने हँसती आँखों से चारों तरफ देखा और मन ही मन कह उठा, ‘इलाहाबाद तेरा कोई जवाब नहीं।’ या इलाहाबाद के अमरूदों का चित्रण हो- ‘इलाहाबादी अमरुद की इस खूबी के पीछे बागवानी के शौक, हुनर और तजुर्बे का एक लंबा इतिहास है। इसमें मेहनत का पसीना और रईसों का पैसा पानी की तरह बहा है। फल मीठे हों, इसके लिए सूना है, बीजों को घंटों शीरे में डुबोकर रखा जाता था। पैधों को फूलों की खाद और खुशबूदार पानी से सींचा जाता था। इसीलिए इलाहाबादी अमरुद की इतनी किस्में हैं।’ इतना ही नहीं। यह तो एक बानगी भर है, इसके बाद नासिरा दो-तीन पृष्ठों तक इलाहाबाद और यहाँ के अमरूदों का वर्णन करती हैं। यहाँ तक कि वह इलाहाबादी अमरूदों पर लोकगीत भी सुना डालती हैं। इसी तरह वह लखनऊ, वहाँ की इमारतों, गलियों, बाजारों और पकवानों का वर्णन करती हैं और अंततः निष्कर्ष निकालती हैं कि- ‘इस शहर की अपनी खुशबू है।’ कुछ नाटकीय और कुछ स्वाभाविक घटनाक्रमों से होते हुए उपन्यास अंततः रोहन और रूही के मिलन पर समाप्त होता है। यहाँ रोहन और रूही प्रतीकात्मक चरित्र बन जाते हैं जो भारतीय समन्वयवादी और प्रगतिवादी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह वह पीढ़ी है जो जाति और धर्म से परे भारतीय मानवीय मूल्यों पर विश्वास करती है। इन दोनों के विवाह का निर्णय कई परिवारों के लिए खुशहाली का कारण बन जाता है। यह मूल कथा है इसके प्रकारांतर लगातार अनेक प्रसंग उठते रहते हैं। मूल कथा समस्त घटनाओं के केन्द्र में रहती है। यह उपन्यास विराट आख्यान को अपने में समेटे हुए है, इसलिए इसमें पात्रों की अधिकता होना स्वाभाविक बात है। यही कारण है कि परिवेश और कथा का विस्तार करते हुये इसमें पात्रों की भरमार है। मुख्य तीन परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त इसमें निखिल, शोभा, सफीर, अन्ना बुआ आदि सशक्त और जरूरी पात्र है और यह कथा के विकास के साथ ही मुख्य पात्रों के चरित्र चित्रण में भी सहायक हैं। किन्तु कथा के कुछ अंशों के साथ ही कुछ पात्र तो कभी-कभी बहुत ही अनावश्यक से प्रतीत होने लगते है। यद्यपि ये कथा के विकास में कहीं भी बाधक नहीं होते हैं फिर भी एक ऊब सी पैदा कर देते हैं। फिरदौस जहाँ के यहाँ नौकर गफूर, उसकी पत्नी सलमा और बेटा साबिर है जो फिरदौस के अकेलेपन को दूर करते है। रूही सफेद कोठी में अकेले रहती है और उसके लिए नौकरों के रूप में अन्ना बुआ, शकूर, रमजानी, संतरा, मोसम्मी, शरीफ, ड्राइवर, सुन्दर शादाब, वंदना आदि तमाम पात्र है। इसके साथ ही गोपेश, रूना, रीता हमीद, इजा, लारा, सुमित्रा, सुन्दर, शादाब, अख्तर, गेंदा बी, फात्मा, गोपेश, शेखर दत्त, रियाज (रोहन का घर साफ करने वाला लडका), नंदलाल वर्मा (चाय की दुकान का मालिक) कर्नल बाली, सुभाष दत्त, योगेन्द्र दत्त, सतीश वैद, इंद्र कुमार वैद जैसे कम महत्त्व के पात्र भी हैं । जोहरा बी, सरस्वती, मारिया आदि के माध्यम से फिरदौस और रूही के एकाकीपन को दूर करने का प्रयास किया गया है। सरस्वती, आएशा, जोहरा बी जैसे पात्रों के माध्यम में समाज की उस स्त्री के एकाकीपन को रेखांकित किया है जो परिवार में अकेले रह गयी हैं, उनके बच्चे उनके पास नहीं रहना चाहते। वे या तो विदेश में बस गए है अथवा दूसरे किसी शहर में रह रहे हैं।

उपन्यास का एक पहलू यह भी है कि पूरे उपन्यास पर मृत्यु बुरी तरह से हावी है। प्रभा दत्त, बशारत हुसैन, जुल्फिकार हुसैन, नुसरत जहां, काजिम की मृत्यु की पृष्ठभूमि पर कथा का विकास होता है। एक ओर प्रहलाद के मित्र प्रकाश की मृत्यु है तो दूसरी ओर रूही की दोस्त मारिया के पति मेनन की मृत्यु भी है। यहाँ तक कि मिर्जा जाफर के बड़े पोते की गोमती में नहाते हुए डूबने से मृत्यु पर आठ से दस पृष्ठ का का मर्सिया उपन्यास में वर्णित है। इस घटना के बहाने मर्सिया पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। ऐसे अनेक प्रसंग उपन्यास में हैं। सफीर के साथ रोहन का बेगम अख्तर की कब्र पर जाने का प्रसंग भी ऐसा ही है। उपन्यास में एतिहासिक प्रसंगों की भी भरमार है। यह नासिरा के गंभीर शोध और एतिहासिक संदर्भो की मर्मज्ञ होने का प्रमाण है। बहादुर शाह प्रकरण, वाजिद अली शाह प्रकरण, दत्तों की खोज का विराट फलक पर प्रस्तुतीकरण उनकी अपार मेहनत और विषय के प्रति उनकी इमानदारी से ही सम्भव हो पाया है। यद्यपि कथा के विषय के अनुसार ही भाषा और शब्द चयन में सावधानी बरती गयी होगी किन्तु उपन्यास की भाषा कहीं-कहीं कथा के विकास में ही बड़ी बाधा उत्पन्न करती है। इसके लिए बस एक छोटा सा उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा। नासिरा लिखती हैं कि- ‘‘मरसिया’ की जदीद तर्ज मेरे अनीस के जमाने में रायज हुयी थी और उस वक्त से हिन्दू शोअरा ने भी इस जमीन में तबीआ आजमाई शुरू कर दी थी। अहदे कदीम में छफनूलाल ‘दिलगीर’ ने खूब-खूब मर्सिये कहे थे। वह अच्छे गजलगो भी थे, लेकिन गजल में ‘तर्ब’ तखल्लुस करते थे और ‘दिलगीर’ का तखल्लुस मर्सिये के साथ मखसूस था। दौरे आखिर में लाला नानकचंद ‘नानक’ बावजूद पढ़े-लिखे न होने के, मर्सियागोई और मर्सियाख्वानी में अपने जौहर खूब-खूब दिखा गए। इमामबाड़ा नाजिम साहब में उन्होंने आखिरी मजलिस पढ़ी थी, जिसके सुनने वाले अब तक मौजूद हैं उनकी आँखें उस मजलिस को याद करके बेसाख्ता नमनाक हो जाती है।’’ इस छोटे से कथन को सामान्य हिंदी का पाठक बहुत प्रयास करने पर भी पूरी तरह से समझने में अक्षम होगा। इसके साथ ही पात्रों के स्वभाव के अनुसार भाषा की बुनावट न होना भी एक अवरोध जैसा लगता है। जैसे रोहन आठ-दस साल बाद भारत वापस रहने के लिए आता है लेकिन उसकी भाषा में हिंदी से कहीं अधिक उर्दू के शब्द प्रयुक्त दिखाई देते हैं। रोहन रूही से कहता है ‘किसी अच्छे डाक्टर से मिलो वह तुम्हे इस कैफियत से जरूर निकालेगा। भरपूर नींद की तुम्हें सख्त जरुरत है।’ इस एक कथन में ही कैफियत, जरूर, सख्त जरूरत आदि हैं। इस तरह के अनेक संवाद हैं जो बहुत ही अस्वाभाविक प्रतीत होते हैं।

यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि यह उपन्यास लेखकीय विचारों के प्रवाह का स्वाभाविक प्रतिफलन नहीं है बल्कि सह एक वृहत्त शोध का परिणाम है। इस उपन्यास के मूल में कुछ विचार थे जो नासिरा शर्मा को दिमागी रूप से मथ रहे थे जिनमे से मुख्य थे- हुसैनी ब्राह्मण, मुताह या सीगा की समस्या, मोहयाल्स (दत्त) की जड़ों की जानकारी, कर्बला के जंग की दास्तान, मर्सियों का इतिहास आदि। और उन्होंने विस्तार से इस सब का उल्लेख भी उपन्यास में किया है। उपन्यास का नायक रोहन सफीर की मदद से मोहयाल्स के इतिहास को खोज निकालता है। इसके लिए नासिरा ने ऋषि भारद्वाज से होते हुए उनसे उत्पन्न सात जातियों और गोत्रों तक मोहयाल्स का बीज ढूंढें हैं। हुसैनी ब्राह्मण को ढूँढने के लिए जिस तरह से उन्होंने इलाहाबाद मुस्तफाबाद और लखनऊ के चक्कर किसी पनचक्की की तरह लगाए थे, और जिस तरह रोहन पेरिस से लेकर इलाहाबाद और लखनऊ की गलियों की खाक छानता रहता है कभी-कभी यह सब बहुत बेतुका सा लगा लगने लगता है। पूरे उपन्यास में उनकी दत्त महियाल की खोज बराबर चलती रहती है। वह लिखती हैं- ‘बाबर का बेटा हुंमायूं जब बुरी तरह बीमार हुआ तो सभी ज्योतिषियों नें एकमत होकर कहा कि यह आफत दत्तों की बद्दुआ से आई है, जिनका पनयाण की जंग में खून बहा है। इस ‘आह’ से मुक्ति का एक ही रास्ता है कि दत्तों के परिवार का कोई भी सदस्य यदि बचा हो तो वही इस रूहानी लानत से मुक्ति दिला सकता है। तब संभा में दोनों लड़कों का पता चला और उन्हें जमीन और घोड़ों से भरे अस्तबल देकर फिर से बसाया गया था। इस तरह शाह स्वरुप को तेरह गाँव गुरदासपुर में और डोहलन को सियालकोट में दिए गए। इस तरह से कणरुण और जफरवाल दत्तों का गढ़ बन गया और समय के गुजरने के साथ तेजस्वी दत्तों को सामने लाया गया। कहा जाता है, हुमायूँ भी ठीक हो गए थे।’ इसके साथ ही वह अनेकों एतिहासिक पौराणिक तथ्यों और गीतों के माध्यम से उनकी उत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास करती हैं। आगे वह लिखती हैं कि ‘दत्त नाम का स्रोत वहाँ से भी ढूंढा जा सकता है जब एलेक्जेंडर, जिसको हम ‘सिकंदर महान’ कहते हैं, जब वह मैसीडोनिया लौटने लगा तो उसके साथ दो ब्राह्मण थे दत्त और कालानास। राजा पोरस का दूत जो साथ गया था, वह दत्त था। राजा पोरस खुद मोहियाल था। ..सिकंदर की मौत के बाद दत्त कुछ साथियों के साथ बेबीलोन से हरिया बंदर जाकर वहाँ बस गए। समय के साथ दत्त बलवान बनते गए और कुछ वर्षों बाद एक छोटे से इलाके के राजा बन बैठे।’ यह उदाहरण तो एक बानगी मात्र है, इस तरह के अनेक उदाहरण उपन्यास के सैकड़ों पृष्ठों पर फैले हुए हैं जो मोहियालों (दत्त) की जड़ों की खोज में लगे हुए हैं।

‘पारिजात’ अनेक बड़ी और गूढ़ शोध का परिणाम है। चूँकि नासिरा को समाज की प्राचीन छुपी हुयी कुप्रथाओं की भी अच्छी जानकारी है और वह इस उपन्यास में दिखाई भी देती है। वह लिखती हैं कि- ‘गदर के समय ‘जनान बाजारी’ खूब पनपी। निचले और गरीब घर की औरतें अपने घरों की छत और खिड़की पर बैठने लगी थीं। इनको लखनऊ की जबान में कसाबियाँ और टकाबियाँ कहा जाता था। टकाबियाँ ज्यादातर चावल वाली गली, अकबरी दरवाजे के पास छोटे-छोटे घरों में रहतीं जो ज्यादातर खाने की दुकानों के ऊपर होते। जो इनसे बेहतर और साफ-सुथरी होतीं, साथ ही गा-बजा भी लेती थीं, वह ‘रंडी’ कहलाती थी। यह भी पेशेवर थीं। पुराने चौक बाजार की रौनक कभी इन रंडियों के चलते थी। ..इन दोनों तरह की औरतों से अलग ‘जनान खानगी’ का मामला था। यह शरीफ घरों की औरतें थीं, जो छुप कर पेट की आग बुझाने और खानदान पालने के चलते बेहद मजबूरी की हालत में यह कदम उठाती थीं। ..इनको गाने-बजाने, अदब और आदाब का वह फन नहीं आता था जो डेरेदार तवायफों या रंडियों का हिस्सा था। इनके घरों में आने वाला तीन घंटे से ज्यादा रुक नहीं सकता था। पिछवाड़े के चोर दरवाजे से आता और जिससे घर के बाकी लोग पर्दा करते थे। यह तबका गदर के बाद जिस बदहाली के तहत वजूद में आया था, उसी तरह माली हालत के संभलने के साथ खत्म भी हो गया।’ रंडी, तवायफ, जनान खानगी और लेस्बियन के साथ ही साथ वह प्रसंगांतर से हिजड़ों की समस्याओं का भी जिक्र करती हैं। हिजड़ा बनाये जाने का एक वर्णन करती हुयी वह कहती हैं कि- ‘वह रस्म बहुतों को हिलाकर रख देती थी, जब कढ़ाई में खौलता तेल हिजड़ा बनने वाले पर डाला जाता था तो वह रोता-चीखता और सारे जनाने खुशी में नाचते-गाते, पूरियां तल-तलकर खाते और खिलाते। रात-भर जश्न चलता। ..वक्त बदला तो यही लोग सस्ते में शादी-ब्याह की रौनक नाच-गाकर बढ़ाते। जनाने तो महलसरा के साथ गए, मगर अपने फन और खास तरह के गाने की जो शैली उन्होंने ईजाद की थी, वह जरूर नस्ल दर नस्ल हिजड़ों में आज भी चलती आ रही है..।’

इसके साथ ही लेखिका के मन में कहीं न कहीं समाज में स्त्रियों की एकाकी स्थिति की भी चिंता थी, जो उन्होंने रूही, फिरदौस, जोहरा बी, सरस्वती, अन्ना बुआ आदि के माध्यम से व्यक्त किया है। बहुत से ऐसे तथ्य है जो अत्यंत खोजपरक हैं, और उन्हें जुटाने में वर्षों अथक परिश्रम किया गया है, किन्तु कहीं-कहीं यह लगता है कि यह प्रसंग कथा में अनावश्यक रूप से फिट कर दिए गए हैं। उपन्यास में भावुक संवादों की भरमार है। कहीं रोहन कविता गा रहा है तो कहीं रूही कविता गा रही है। कहनी मर्सिया पढ़ा जा रहा है तो कहीं शेर, कहीं नात, कहीं कविता और शायरी पढ़ी जा रही है। यह कथा की घटनाओं के साथ पिरोये गये प्रसंग हैं। इसके साथ ही मोहर्रम, चेहल्लुम, शबरात, कर्बला, मर्सिया, ताजिया, कब्रिस्तान आदि का अत्यंत उबाऊ वर्णन है। कभी-कभी तो यह निरर्थक दुखड़ों का आख्यान लगने लगता है। एक ही बात का दोहराव अनेक-अनेक बार हुआ है।

नासिरा को मध्यपूर्वी देशों के रहन-सहन, रीति-रिवाजों के साथ ही वहाँ के कानून की भी बहुत बारीक जानकारी है। यह जानकारी ही इस उपन्यास की नींव कही जा सकती है। इस उपन्यास प्रकाशित होने के पहले ही नासिरा नें यह कहा थी कि- ‘उपन्यास पारिजात दरअसल नयी पीढ़ी के आपसी सम्बन्धों के साथ उस इलाके की गंगा-जमनी संस्कृति पर फोकस करना था। इसमें हुसैनी ब्राह्मण भी है और शिया परिवेश भी। इसके लिए इलाहाबाद, लखनऊ से बेहतर इलाका और कौन सा था, जो इन सभी अलामातों से भरपूर होता?’ बहुत स्थान पर ऐसा लगता है कि उपन्यास दार्शनिकता का पुट लिए हुए है। कुछ ऐसे कथन हैं जो हमें दूर तक सोचने के लिए मजबूर कर देते हैं जैसे- ‘इस दौर में कोई भी इंसान खुश नहीं है, मगर खुशी की तलाश में खुश रहने का स्वांग करना जरूरी है।’ जवान औरत के पास साथी न हो तो फिर धन-दौलत का अम्बार और शोहरत-इज्जत किस काम की ?’ ‘हर औरत की एक कहानी न एक होती है और न ही उसकी जिंदगी का चौखटा।’, ‘औरतें बाहर से जितनी सुन्दर और सुकुमार लगती हैं, उतनी ही अंदर से षड्यंत्री और जालिम होती हैं।’ ‘बेवकूफ का दिल उसकी जबान में होता है और होशियार की जबान उसके दिल में होती है।’ ‘हर अध्यापक का खजाना दरअसल उसके विद्यार्थी होते हैं।’ ‘लड़कियाँ भी माँ के लिए अमृत होती हैं..आबेहयात की बूँद।’ इनके साथ ही सूक्तिपरक कथनों की भी भरमार है, जैसे- ‘नदी के बहाव पर बाँध बाँधना’, ‘यह साली दुनिया पूरी कर्बला है’, ‘औरतें बड़ा सुख देती हैं’, ‘दर्द अपनी जमीन से ही फूटता है’, ‘आदमी गुजरा भूलना चाहे तो भी नहीं भूल सकता’ आदि।

सत्यदेव त्रिपाठी ने ओपिनियन पोस्ट के लेख ‘पारिजात से परीजाद तक…’ में लिखा है कि ‘कुल मिलाकर मूल कथा से इतर या अवांतर वर्णनों का लम्बे कथांशों की तरह बारम्बार आते जाना ही इस कृति की शैली बन गई है, जिसमें कथा व इन विविध विषयों के वर्ण्य भी साफ-साफ दिखते हैं, पर दोनों ही अलग-थलग होने से बिखर जाते हैं और पाठक भटक उठता है- अनायास। कह सकते हैं कि उपन्यास कथात्मक से अधिक वर्णनात्मक हो गया है, क्योंकि वर्णनों की रौ में कथा भी कथात्मक कम ही रह पाती है। उसे वर्णनों-विवेचनों (नैरेटिव्स) में कथांश बन-बन कर घुसपैठिये की तरह बच-बचाके आना पड़ता है। यह सब नासिराजी के ‘ठीकरे की मंगनी’ व ‘कुइयांजान’ जैसी सुगठित रचनाओं से नितांत अलग हो गया हैद्य’ इसके साथ ही वह आगे यह भी कहते हैं कि ‘पारिजात’ से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि बड़ी फुर्सत में (भले समय निकालकर) लिखा गया है। लेखिका को कृति पूरा कर देने या अपनी बात को कह देने की कोई जल्दी नहीं है। और उसकी अपनी बात सचमुच वही है, जो कथा-इतर है। इससे गति की जगह ठहराव ही उपन्यास का स्थायी भाव बन गया है। ऐसे में रचना से ‘कालिदासो विलासः’ वाला कला-विधान अपेक्षित होता है- जैसा द्विवेदीजी के ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘पुनर्नवा’ और मनोहर श्याम जोशी के ‘कसप’ या सुरेन्द्र वर्मा के ‘काटना शमी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से’ आदि में हुआ है। जिनमें कथा तो अल्प है, पर कृति में कथा से परे का पाठकीय सुख आने लगता है। लेकिन ‘पारिजात’ में वैसा बिल्कुल नहीं हो पाता। विलास के बदले विस्तार, जिसे फैलाव भी कह सकते हैं, का भार सर पर जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, ‘साहित्य अकादमी’ से नवाजे जाकर बहुचर्चित होने और बड़ी जहीन व प्रतिबद्ध लेखिका की महत्त्वाकांक्षी रचना होने की सम्मान्य छाप वैसे ही वैसे घटने लगती है और उन सबसे बनी पने की अगाध उत्सुकता और भीनी-भीनी साध कम होती जाती है। हारकर हम पन्ने पलट-पलट कर कथा खोजने लगते हैं, जो मिल भी जाती है और मजा यह कि कथा और पाठकीयता को कोई नुकसान भी नहीं उठाना होता।’ इस उपन्यास के विषय में यह ठीक ही कहा गया है कि ‘नासिरा शर्मा का यह उपन्यास उनकी अभी तक की सृजनात्मकता का निचोड़ है, जिसमें उनके विचार, बयान, भाषा, संवेदना और सरोकार बहुत संजीदा और धारदार बनकर उभरे हैं। किस्सागोई का पुराना फन उन्हें बखूबी आता है।’ इस प्रकार यह उपन्यास नासिरा की किस्सागोई की कला और उनकी अनुसंधान की प्रवृत्ति का मिला-जुला परिणाम कही जा सकती है।