पार्किंग शुल्क / पद्मजा शर्मा
मैं अक्सर पब्लिक पार्क वाली लायब्रेरी में पढऩे जाया करती थी। जहाँ एक नौजवान पार्किंग के नाम पर बीस रुपये शुल्क लिया करता था। रसीद देता, रुपये लेता और चला जाता। वह इधर-उधर भाग-दौड़ में ही रहता था। कभी-कभी पेड़ की छाया तले बैठा मिलता। मैंने उसे कभी किसी से बात करते न देखा और न सुना।
वह एक चिलचिलाती दोपहर थी। जब मैं पुस्तकालय से पुस्तकें लेकर लौट रही थी। वह तब भी किसी की गाड़ी पार्क करवा रहा था। मुझे देखते ही सधे कदमों से मेरे पास आया और नजरें झुकाकर बोला-
'दीदी, आप खुशकिस्मत हैं, जो आपको किताबें पढने को मिलीं। मैंने पढ़ाई नहीं की। आज बीस-बीस रुपल्ली के लिए यूं दौड़ता हूँ जैसे भूखा आदमी रोटी के टुकड़ों के लिए.'
पिछले तीन महीनों में पहली बार उस नौजवान की आवाज सुन रही थी। अगले पल उसने मुझे अचम्भित कर दिया यह और कहकर कि 'आज से आपका पार्किंग शुल्क माफ। आपके हाथों में किताबें देख कर मुझे खुशी मिलती है। वह खुशी ही मेरा शुल्क है।'
जब नौजवान कह रहा था तब उसकी आँखें नम थीं। स्वर भीगा था। गला रुंध रहा था और पेड़ सारी छाया उसी पर कर रहा था। उसे धूप से बचा रहा था और खिलखिला रहा था।