पार्टियों में क्यों नहीं / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
मैं यदि पार्टियों से भड़कता हूँ तो उसकी यह एक बहुत बड़ी वजह है। आज तो मैं पार्टी लीडरों को देशभक्त मानता हूँ और कल ही किसी पार्टी में घुसा कि बाकियों को गद्दार समझने की नादानी ही करनी पड़ी! कम-से-कम इस बात का'गुरु मंतर' तो उस पार्टी में दिया ही जाना शुरू हुआ। यह रंगीन दृष्टि बहुत ही खतरनाक है। मैं इससे डरता हूँ। यह समझ में आने की चीज भी नहीं। समझ में आए भी कैसे?पार्टीवाले व्यक्तित्व एवं व्यक्तिगत समझ को तो खत्म ही कर देते हैं। पार्टियों में इसके लिए गुंजाइश नहीं! वहाँ तो घुसते ही व्यक्ति ठेठ समष्टि बन गया! यह अजीब जादू, निराली कीमिया, विचित्र जड़ीबूटी है जो छूमंतर करती है। हम पार्टी में गए और हमारीस्वतंत्रताही गायब,हालाँकि हमारा सबसे पहला लक्ष्य है यहस्वतंत्रता ही। चालीस कोटि जनों की स्वतंत्रतातो हम जरूर चाहते हैं! मगर इसके लिए जरूरी है कि अपनी स्वतंत्रता,अपने सोचने-विचारने और बोलने कीस्वतंत्रता को गँवा दें-समष्टि की, पार्टी कीस्वतंत्रतामें व्यक्ति की,व्यष्टि की यह आजादी हजम करवा दें। मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति इतना बड़ा त्याग करने की हिम्मत नहीं रखता कि जिस स्वतंत्रता के लिए लड़े-मरे उसे ही अपने लिए खत्म कर दें, अपने को निरी मशीन बना दें और इस तरह' बहुत ढूँढ़ा उसे हमने न पाया। अगर पाया पता अपना न पाया'वाली वेदांतियों की बात चरितार्थ करे। मैं मानता हूँ कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कुछ हद तक मिटाए बिना कोई संस्था नहीं चल सकती। मगर यह भी मानता हूँ कि ब्योरे की बातों में ही यह बात संभव है और होनी चाहिए। सिध्दांत की बातों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता रहनी ही चाहिए। यह दूसरी बात है कि उस मामले में भी,हम संस्था या समष्टि का खुल के या संगठितविरोधन करें,खासकर ऐतिहासिक और युध्द के समय जब कि जीवन-मरण की बात हो। हम अपना व्यक्तिगत खयाल जाहिर करके चुपचाप बैठजाए और सक्रियविरोधन करें,यह तो समझ की बात है। मगर विचार ही खत्म कर दें यह भयंकर बात है।