पार गूँजते आत्मविश्वासी और अवरोही स्वर की कविताएँ / स्मृति शुक्ला

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अनुराधा सिंह समकालीन हिन्दी कविता की महत्त्वपूर्ण कवयित्री हैं। वे अपने संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ (भारतीय ज्ञानपीठ, 2018) से अपने पाठकों से अपार स्नेह और सराहना प्राप्त कर चुकी हैं। उनकी लेखनी मानवीय संवेदनाओं से आर्द्र और अनुभूतियों के ताप से सिक्त है। वे अपनी कविताओं में स्त्री के स्व को प्रतिष्ठित करती हैं और समाज में प्रचलित उन रूढ़ियों और अवधारणाओं से टकराती हैं जो स्त्री की गरिमा को ठेस पहुँचाती हुई उसके दायरे तय करती हैं और उसके विकास के मार्ग में रोड़े अटकाती हैं। उनकी कविताओं को पढ़कर पाठक यह बात गहराई से अनुभव करता है कि आज हम विकास के जिस ऊँचे पायदान पर खड़े हैं और अधुनातन शैली में जीवन जी रहे हैं पर अभी भी स्त्री को पूरी तरह से समानता का अधिकार नहीं दे पाये हैं। विज्ञान और टेक्नोलॉजी तथा नये नित गैजेट्स का उपयोग करने वाले और विकसित कहे जाने वाले समाज के बहुसंख्यक लोग आज भी स्त्री को लेकर सदियों पुरानी सोच को लेकर जी रहे हैं। हमारी समाज व्यवस्था में सदियों से स्त्री शासित रही है और पुरुष शासक । समाज के सारे नियम और कानून स्त्री के लिए ही थे जिनके अनुपालन में स्त्री अपने को खपा देती थी। ताउम्र पुरुष के अधीन रहने को बाध्य स्त्री का जैसे कोई वजूद नहीं था, न स्वयं की कोई इच्छा पूरी कर सकती थी, ना निर्णय ले सकती थी। निजी पितृसत्ता के अधीन रहकर वह अपने परिवार की सेवा करते हुए परिवार के मुखिया की अधीनता स्वीकार कर गुलाम की तरह जिंदगी जीती थी। सामाजिक पितृसत्ता भी स्त्री का दमन और अनेक स्तरों पर शोषण करती रही है। पूँजीवाद और पितृसत्ता दोनों में गहरा संबंध है। पितृसत्ता एक तरह से पूँजीवाद का सर्वथा और पोषण करती है। अनुराधा सिंह की अधिसंख्य कविताएँ इसी अन्याय और असमानता के खिलाफ एक वातावरण तैयार कर स्त्री की स्वतंत्रता, समानता और न्याय की जमीन पर खुशहाली की फसल उगाना चाहती हैं।

‘उत्सव का पुष्प नहीं हूँ’ संग्रह के ब्लर्ब पर प्रसिद्ध साहित्यकार अनामिका ने लिखा है कि ‘अनुराधा की कविताएँ अद्र्धनिमीलित आँखों की तरह धीरे-धीरे खुलती हैं। भीतर का अर्जित प्रकाश बाहर की चकाचैंध से सहज तादात्म्य नहीं बना पा रहा हो तो आँखें या कविताएँ धीरे-धीर ही खुलती है। आप बीती और जगबीती की विडम्बना कवि को अपने भीतर के गहनतम एकांत में डुबकी लगवा देती हैं, उसके बाद जब कवयित्री बाहर आती है, तब गहरे पानी में समाधिस्थ होकर ही बैठे रह गये नानकदेव की तरह कोई और होकर। इन कविताओं के संबंध जिस भीतर की प्रकाश की बात अनामिका जी ने कही है वह सहज ही प्राप्त नही होता गहन जीवनानुभवों के ताप से ही अन्तर्दृष्टि युक्त जो प्रकाश अनुराधा सिंह को मिला है उससे उन्होंने अँधेरे जीवन को प्रकाशित किया है। ‘मैं उत्सव का पुष्प नहीं’ संग्रह की कविताओं कों किसी विमर्श की हदबंदियों में बाँधा नहीं किया जा सकता न किसी वाद या विचारधारा के चश्मे से पढ़ा जा सकता है। संग्रह की प्रायः सभी कविताएँ स्त्री पर केन्द्रित होते हुए भी वृहत्तर मानवीय और सामाजिक परिवेश से जुड़ती हैं। उनकी कविताएँ मनुष्य होने की तमीज सिखाती हैं और मनुष्यता को ही सबसे जरूरी चीज मानती हैं। आज जब बाजार में हर एक चीज बिकाऊ हैं, क्रेता, विक्रेता और उपभोक्ता में बदल चुकी दुनिया तकनीक की गुलाम हो चुकी है। ऐसे समय में अनुराधा सिंह मनुष्य होने पर जोर देती हैं, वे चाहती हैं कि स्त्री को भी उसके रूप सौन्दर्य, शिक्षा-दीक्षा और गुण-अवगुण की कसौटी पर न कसते हुए उसे पहले मनुष्य समझा जाए-

श्वास लेते हुए ऑॅक्सीजन को हवा से कौन अलग करता है तुम एक स्त्री का सम्मान बस इसलिए नही कर सकते क्योंकि वह स्त्री है उसके रुधिर माँस-मज्जा को भी याद करना याद रखना कि वह एक मनुष्य है। XXX दुनिया की कोई किताब तुम्हें मनुष्य होना नही सिखा सकती किसी आधी रात सिहराने रखी अपनी बाँह में दौड़ते रक्त की सनसनाहट सुनना और याद रखना इसे किसी ईश्वर ने नही दो अनुल्लेखनीय विस्मरणीय मनुष्यों ने भरा है तुम्हारी देह में तुम मनुष्य होने के अतिरिक्त कुछ हो ही नही सकते।

अनुराधा सिंह अपनी कविताओं में स्त्री जीवन की उन छबियों को रचती हैं जो क्षण-क्षण में बिजली की तरह कौंधती हैं प्रेम की असाधारण स्थितियाँ और विलक्षणताओं को चुनती है, जिनकी उम्मीद एक स्त्री से बहुत कम की जाती है। उनकी कविता में कविता के मार्फत ही स्त्रियाँ अपने मन के कपाट खोलती हैं, जिनके भीतर सदियों तक पितृसत्ता द्वारा किए गए हजारों तरह के अन्याय, छल और प्रवंचनाओं के गहरे जख्म दर्ज हैं। अनुराधा सिंह ने ‘मै उत्सव का पुष्प नही हूँ’ संग्रह की कविताओं के माध्यम से हिन्दी कविता में एक नये अध्याय की शुरूआत की है। उनकी स्त्री प्यार में जितनी बार उपेक्षित होती है या छली जाती है वह उतनी ही सशक्त बनकर उभरती है, वह अपने स्त्री होने पर गर्व अनुभव करती है। उनकी स्त्रियाँ सजग दृष्टि से समाज को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखती हैं और यह अपेक्षा रखती हैं कि स्त्री को देखने और परखने का जो परंपरागत नजरिया है उससे परे भी स्त्री की सृजनशीलता को देखा-परखा जाये। सदियों से स्त्री के बाह्य सौन्दर्य पर उसकी पाककला, चित्रकला और अन्य कलाओं पर बहुत लिखा गया; लेकिन उसकी सृजनात्मकता पर शायद ही किसी ने लिखा हो तभी तो वे कहती है-

फिर मैंने कहा, आप/ सदियों से मेरे चमकदार खोल की

प्रशस्ति कर रहे हैं। जबकि लिखते-लिखते/ मेरी आत्मा

नीली-काली हो गई है। दयाकर, एक बार उसे भी पढ़ लीजिए।

आपने सही कहा मैं खाना अच्छा बनाती हूँ।

चित्रकारी उम्दा करती हूँ, बागवानी प्रिय है।

नौकरी में कर्मठ कही जाती हूँ

वात्स्यायन की मानें तो केलि और मैत्री के लिए सर्वथा उपयुक्त।

किन्तु आपके सामने बैठी मैं/ सिर से पैर तक एक कवि ही बस।

आइए, मेरी भी कविताओं पर बात करें।

यहाँ अनुराधा सिंह बताना चाहती है कि स्त्री अपने सौन्दर्य को नही अपितु अपने लिखे हुए को पढ़ने की कामना रखती है। अनुराधा की खासियत यह है कि अपनी कविता में बिंबों और प्रतीकों के सघन समुच्चय को रचते हुए वे स्त्री के दर्द को जिस शाइस्तगी से बयान करती हैं, वह विरल है। प्रिय गूलर के फूल की तस्वीर चाहता है, स्त्री भी चाहती है कि जीवन को व्यस्त और घमासान में वह प्रिय से अपनी याद का कातर क्षण ढूढ़ने को कहे –

तुमने पहली बार कुछ माँगा है

मैं जीवन भर इस कीटग्रस्त

पुष्पहीन वृक्ष को ताकती खड़ी रह सकती हूँ

प्रेम में मौन को सहमति मान ढँाढस रखा है मैंने

किन्तु जानती हूँ कि गूलर में फूल नहीं खिलते

इस कविता में प्रेम में एक स्त्री के समर्पण और पुरुष के प्रेम को गूलर के फूल जैसे बिलकुल नए प्रतीक और उपमानों के साथ अत्यंत खूबसूरती से विन्यस्त किया गया है।

इस सृष्टि की समस्त स्त्रियों के दुखों और यातनाओं को स्वयं अनुभूत करने वाले क्षणों में ही इस तरह की कविताएँ निःसृत होती हैं। समस्त स्त्री छबियों को स्वयं में विलीन कर एक चेहरा बना देना ही अनुराधा सिंह का रचनात्मक विनियोग है। अनुराधा सिंह जानती हैं कि स्त्री सदियों से एक देह के रूप में ही देखी जाती रही है। लड़कियों का साँवली, स्थूल और सुन्दर ना होना समाज विरोधी बात है। उसे मेकअप लगाकर सुन्दर बनाया जा सकता है लेकिन कवयित्री को यह एक संगीन अपराध लगता है कि एक बच्ची को दिमाग की बजाय देह बना दिया जाये -

पर यह कितना संगीन होगा कि

वह अविश्वास से तके मेरा मुख

सोचे, क्या दिमाग से काम लेना सिखाते-सिखाते

मैंने उसे देह बना डाला

वस्तुतः अनुराधा सिंह स्त्री को सजग करना चाहती हैं। वे नारी को आत्मचेतस बनाना चाहती है। ऐसा तभी होगा जब स्त्री अपने स्व को पहचान कर विचारवान बनेगी और देह को अपनी सबसे बड़ी शक्ति समझना बंद कर देगी। सघन संवेदनाओं की गझिन दृश्यबंधों की सुंदर बुनावट इन कविताओं में पाठक को सम्मोहित करने की क्षमता पैदा करती है। कवयित्री की तलस्पर्शी संवेदना और गहरी विचारशीलता के योग से जन्मी कविताएँ स्त्री और पुरुष के बीच सदियों से बनी खाई को पाटकर एक पुल निर्माण करना चाहती है। ‘कितनी पुरुष हो जाना चाहती हूँ’ कविता में वे लिखती हैं- माँ ने एक साँझ कहा संभव हुआ/ तो अगले जनम में मै भी इंसान बनूँगी XXX सबसे भीतर वाली स्त्री को फूल पसंद थे ताँत पान और किताबें भी/ यह उसके मनुष्य होने की कामना का विस्तार था/ और इतने गहरे दबा था कि बंजर हो चला था/ आजन्म माँ की दाईं आँख से एक निपूती औरत/ और बाईं से एक इन्सान झाँकते रहे/ तो सुनो दुनिया बस इतना पुरुष हो जाना चाहती हूँ/ कि तुम्हारे हलक में उँगलियाँ डालकर अपनी माँ के इंसान बनने की अधूरी लालसा खींच निकालूँ।

अनुराधा सिंह स्त्री को उसकी अन्दरूनी शक्ति पहचानने के लिए सजग करती हैं। वे चाहती हैं कि स्त्री ऐसे पुरुषों को जन्म दे सके जो अपनी संतान को स्त्री के कुल का नाम दे सकें। इस तरह वे उन परंपराओं और उस व्यवस्था को चुनौती देती हैं, जिसने स्त्री को दोयम दर्जे का समझा और पुरुष से दो दर्जा कम आँका। उनकी कविताओं में विविध अनुभवों को पढ़ना अनुभवों के सघन अरण्य से गुजरने जैसा है। इस अरण्य में कोमल लताएँ हैं, जो कुसुमित हैं, कँटीली झाड़ियाँ हैं, विशाल वृक्ष हैं और सिंह व्याघ्र जैसे हिंसक पशु हैं और इन पशुओं से डरे-सहमे खरगोश और हिरन जैसे निरीह प्राणी भी हैं। अनुराधा की कविताएँ ऊपर दिखते यथार्थ की अन्दरूनी परतों को भेदकर सच्चे यथार्थ को खोजकर लाती हैं, जो बाह्य से विलग है। ऐसी कविताओं का सृजन तभी संभव हो पाता है, जब प्रज्ञा और सघन संवेदना के साथ कवि के पास अपनी अन्तर्दृष्टि भी हो। अनुराधा ने कविताओं के माध्यम से ऐसे शब्दचित्र बुने हैं, जिनमें अनुभवों की आँच के साथ संवेदनाओं के रंग अभी तक गीले हैं। इस असंभव को संभव करने की सामथ्र्य उनके पास है। तभी, वे पितृसत्ताा के उद्भव और इतिहास को इतने कम शब्दों में अत्यंत लाघव और अर्थवान् प्रतीकों के साथ पूरी मार्मिकता से कविता में उतार पाईं-

स्त्री ने भूख को रोटी से और वासना को प्रेम से ढका,

अपने प्रेम को विवाह से ढकने के बाद वह

धूप ओढ़कर एक बच्चे को दूध पिलाने लगी

पुरुष ने दुनिया से लौटकर देखा कि

स्त्री की आँखें अनावृत थीं वह निराश हुआ और उसने

ईश्वर के पृथ्वी, आकाश, समन्दर और रात को एक घर से


फिर उसने स्त्री के वक्ष को कंचुकी से ढकने से पहले

उसके होने को अपने होने से ढक दिया

दरअसल अनुराधा सिंह की कविताओं की भंगिमा और कहन की शैली ऐसी है जिसमें वे बिंबों और प्रतीकों के मार्फत उन बिडम्बनाओं संघर्षों और समाज व्यवस्था में व्याप्त रूढ़ियों तथा पितृसत्ता के वजनी पत्थर के नीचे दबी स्त्री की आकांक्षाओं और रूढ़ियों को, स्त्री जीवन के संघातों और उनसे उत्पन्न स्थितियोंं को पूरी मार्मिकता से सामने लाती हैं। स्त्री के अस्तित्व, उसके स्वाभिमान और अस्मिता को प्रतिष्ठित करने वाली इन कविताओं में प्रेम और स्मृतियाँ सघनता से बुनी गई हैं। अनुराधा सिंह जानती हैं कि अपराधियों से कहीं अधिक मिथ्यावादी होते हैं प्रेमी, जैसे कि हिंसा अनिवार्य हो तो भी सुन्दर नहीं दिखती, जैसे अतिशय मोह सच्चा नहीं लगता और झूठे प्रेम में भी कुछ न कुछ सच्चाई का अंश होता है। प्रेम के इस अंतर्विरोध पर शायद ही लिखा गया हो पर अनुराधा सिंह के पास प्रेम की सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभूति है। वे प्रेम में अयस्क ही बने रहने की कामना करती हैं, पिंड से कार्बन और कार्बन से हीरा बनने की नहीं। प्रेम में वे नया सृजन चाहती हैं और यह सृजन मिट्टी में ही संभव है हीरे में नहीं। प्रेम में छूट गए प्रेमी को लौटने के कितने सारे रास्ते उन्होंने बता दिए हैं। प्रेम ऐसा हो जो क्षण भर के लिए सही पर स्त्री की देह से नहीं आत्मा से किया जाए। लौट आने के अनेक रास्ते बताने के बाद भी उन रास्तों पर यदि लौट आना संभव ना हो, तो वे चाहती हैं-

मिलन के छटपट अधूरे स्वप्न में भी यदि, न लौट सको किसी दिन

तो जीवन जिसकी ओर निरन्तर चलता है, उस मृत्यु की तरह

एक बार साथ ले जाने के लिये लौट आओ।

प्रेम में स्त्री के लिये आजीवन प्रतीक्षा ही है, प्रेम में चिर विरह वेदना स्त्री को ही झेलना पड़ती है, स्त्री ही है जो प्रेमी की आवाज सुनने के लिए ऐसे अनेक जीवनों में भी अपना फोन नंबर बदलना नही चाहती; लेकिन यही स्त्री जब पुरुष की ज्यामिति से बाहर निकली हुई रेखा बन जाती है, तो उजाड़ में भी बसंत खिला सकती है, जो असंभव को संभव कर सकती है।

अखिरेश, तुम्हारे गिलास की तली में बच रहा नशा नहीं

विक्टोरिया प्रपात से छिटक गयी बूँद हूँ

उग रही हूँ हरे रंग के जाम्बिया के जंगल में

नहीं डर रही पानी की विराट सत्ता से।

पुरुष की विराटता पानी की विराट सत्ता से न डरने वाली स्त्री का प्रतीक बूँद अपना प्रसन्नता का संसार स्वयं रच रही है। ‘वेटिंग रूम में सोती स्त्री’ जो हरे मखमली पत्तों में सहेजा गया चम्पा का शीलवान् पुष्प नहीं है। वह तो रेगिस्तान में यहाँ-वहाँ भटकते खुदमुख्तार रेत के बबूले की तरह है, जो रेलवे प्रतीक्षालय में बेसुध सो रही है। ऐसी स्त्री जो इस समाज की और परिवार की सामंती जकड़बंदी से छिटककर सदियों से कभी पूरी ना कर पाई निश्ंिचत नींद ले रही है। नियत कानून और कभी न खत्म होने वाले कामों के अकूत बोझ से लदी स्त्री आज तमाम लोकापवादों की परवाह न करते हुए पृथ्वी की छाती पर चित्त लेटी सो रही है। अनुराधा सिंह की यह कविता संभवतः समकालीन कविता की प्रथम कविता है जो रेलवे के वेटिंग रूम के एक साधारण दृश्य को आसाधरण दृश्य बनाकर स्त्री की समर्थ, खुदमुख्तार और समतामूलक छबि का उद्घोष करती है। कविता की अंतिम पंक्तियाँ इस कविता की मूल संवेदना और कवयित्री के मन्तव्य को प्रकट करती हैं-

वह औरतों के अकारण रातभर घर के बाहर रह सकने

की अपील पर पहला हस्ताक्षर है।

इस कविता पर हिन्दी के वरिष्ठ कवि-आलोचक विजय कुमार ने ‘आधिपत्य और अधीन के समीकरणों की कविताएँ (समालोचन 4 दिस. 23) शीर्षक से लेख में लिखा है- ‘रेलवे वेटिंग रूम में निढाल सोई स्त्री सिर्फ एक दृश्य चित्र नहीं। वह एक चुनाव है, एक हस्तक्षेप एक खामोश और अर्थगर्भित ‘कलोज अप’ है। ...... उस स्त्री के भीतर एक समय है, जिसे कोई नहीं जानता सिर्फ उसकी कल्पना की जा सकती है और यह कहा जा सकता है कि वह भीतर संचित समय के बाहर एक चुनौती है।’’

उत्सव का पुष्प नहीं संग्रह की ‘जाओ, तुम्हें सब याद रहे’, घुसपैठिया, निर्विकल्प, मैं उससे यूँ बिछड़ी, नर पपीता, फैक्टरी सेटिंग, याद-बेयाद, गले लगाना नहीं आता उन्हें, करो मुझे नजरअंदाज जैसी अनेक कविताएँ गहरी अर्थवत्ता लिये हुए हैं, जो पुरुष और स्त्री के सोचने के अलग-अलग नजरिये, प्रेम में पड़ी स्त्री की छोटी-छोटी चाहतों, जिन्हें हमेशा नजरअंदाज किया गया और स्त्री का समर्पण तथा पुरुष की प्रवंचना को बड़ी सूक्ष्मता और भावों को गहनता में अभिव्यक्त करती हैं। इन कविताओं में जीवन की सतह पर प्रवाहित होने वाला तेज धार का जल तो है ही; लेकिन इसके भीतर प्रवाहित होने वाली जल की मंद गति से प्रवाहित होने वाली महीन धाराएँ भी हैं, जो दिखती नहीं हैं; लेकिन उन्हीं से पृथ्वी पर आर्द्रता बनी हुई है। इस संग्रह में कवि का गद्य शीर्षक के अन्तर्गत अनुराधा सिंह की आमिर हमजा की प्रेरणा से लिखी सैंतीस गद्य कविताएँ भी संकलित हैं। इन कविताओं में कवयित्री ने रूपक आदि काव्यात्मक उपकरणों के साथ जिस अभिव्यंजना का प्रयोग किया है वह अद्भुत है। ये सारी कविताएँ अनुराधा सिंह के सूक्ष्म सामाजिक प्रेक्षण और काव्यात्मक विवेक की गवाही देती हैं। जीवन और मृत्यु का सुंदर दार्शनिक विवेचन करने वाली कविता ‘मृत्यु’ की पंक्तियाँ हैं-

सृजन का नहीं मृत्यु का देवता जन्म देता है, हमें इस मृत्युलोक में बहुत लोग चले गए इस बरस जो अपने थे, बहुत लोग आने वाले बरस चले जाएँगे। अब सोचती हूँ बस हमने काल की समिधा बनने के लिए ही जन्म लिया था, जैसे विरह का कारण प्रेम था, मृत्यु का कारण होना चाहिए जीवन।

अनुराधा सिंह की कविता में माँ और पिता बार-बार आए हैं। पिता जो शुगर होने के कारण मीठा नहीं खा सकते; इसलिए वे मीठे के लिए दिन रात मचलने वाले शिशु बन गऐ हैं और बेटी माँ। नींद, देह, स्पर्श, पेड़, एकांत, सरहद, चिट्ठी, जूते, आईना, भूख, स्मृति, साइकिल, चूल्हा, हिचकी, हाथ, मौन जैसे जीवन के सामान्य प्रसंगों और साधारण वस्तुओं पर अत्यंत निज कथनों में असाधारण अर्थ भरने वाली अनुराधा सिंह समकालीन कविता की विशिष्ट हस्ताक्षर हैं,जो अपने कवि कर्म की उज्ज्वलता के कारण कवियों की अग्र पंक्ति में समादृत हैं।

निष्कर्षतः अनुराधा सिंह के संग्रह मैं ‘उत्सव का पुष्प नहीं हूँ’ संग्रह की कविताएँ आज की स्त्री कविता में व्याप्त सन्नाटे को तोड़ती हुई स्त्री की गरिमा उसके स्वाभिमान, समानता और अस्तित्व को स्थापित करने की पुरजोर हिमायत करती हैं। ये कविताएँ स्त्री के हृदय और मन को समझने की कुंजी है, जो हमें लिये एक विवेकपूर्ण तथा संवेदनशील मनुष्य बनने की दिशा में प्रेरित करती हैं। संग्रह की कविताएँ केवल स्त्री की पक्षधरता नहीं करती; बल्कि स्त्री के रूप में संपूर्ण मानवता की पक्षधरता करती हुई, समाज को परिवर्तनकामी दिशा में ले जाती हैं। स्त्री-जीवन की विडम्बनाओं, संघर्ष और पीड़ा के बावजूद ये कविताएँ स्त्री के स्व को खोजकर उसे प्रतिष्ठित करती हैं।

इन कविताओं में बिम्बों और प्रतीकों में स्त्री का स्वविन्यस्त है। बौद्धिक धैर्य के साथ चेतना के अभ्यांतरों तक जाती कविताएँ, आदिकाल से लेकर सतत नवीन हो रही स्त्री जीवन की चुनौतियों से जूझती हैं। फिलवक्त की गहरी चिंताएँ कविताओं में दर्ज हैं। ‘उत्सव का पुष्प नहीं हूँ’ की कविताओं की भाषा में नदी की तरह निश्छल प्रवाह है। भाषा भंगिमा सहज; किन्तु विचारों से युक्त है तथा भावों को व्यक्त करने में समर्थ टटके बिम्बों से लैस है।

उत्सव का पुष्प नहीं हूँ - अनुराधा सिंह,वाणी प्रकाशन, प्रथम सं.: 2023, नई दिल्ली, पृष्ठः 152, मूल्यः 450/ -

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