पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजऋषि / पूजा रागिनी

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सबसे पहले ग़ज़लगो गौतम राजऋषि जी को उनके ग़ज़ल संग्रह पाल ले इक रोग नादाँ के लिए शुभकामनाएँ। इस ग़ज़ल संग्रह का नाम ही फ़िराक़ साहब की याद दिलाता है-

पाल ले इक रोग नादाँ ज़िंदगी के वास्ते
सिर्फ़ सेहत के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं

ग़ज़ल पढ़ते समय अक्सर पाठक सोचता है कि उसे उर्दू का विशेष ज्ञान हो, क़ाफ़िया रदीफ़ की पहचान हो, तब ही ग़ज़ल से जुड़ाव होगा, लेकिन गौतम जी की ये रचना ये धारणा तोड़ने में सफल रही।

इस संग्रह को पढ़ने के लिए ज़रूरी नहीं है कि उर्दू का बहुत ज्ञान हो। शिल्पी बनकर गौतम जी ने जिस सरलता से अपनी सोच, भावनाओं, अहसासों को आकार दिया है वो बधाई योग्य है।

दर्द की इंतहा से लबरेज़ उनका ये शेर मेरा पसंदीदा शेर है-

दर्द- सा हो कोई दर्द तो कहूँ कुछ तुमसे मैं
चोट की हर टीस अब तो एक नयी सिसकी हुई

जंग से हल न निकलने की पेशकश करते हुए कहते है-

मुट्ठियाँ भींचे हुए कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से

सिपाही की पीड़ा व्यक्त करते हुए लिखा है-

मिट गया इक नौजवाँ कल फिर वतन के वास्ते
चीख़ तक उट्ठी नहीं इक भी अख़बार से

कितने दिन बीते कि हूँ मुस्तैद सरहद पर इधर
बाट जोहे है उधर माँ पिछले ही त्योहार से

यादों के झरोखों से झाँकते हुए उन्होंने लिखा है-

चाँद उछलकर आ जाता है जब कमरे में रात गए
दीवारों पर यादों के कितने जंगल उग आते हैं

आम बोलचाल की सरल भाषा में गौतम जी ने अपने भावों को बखूबी आकार दिया है, जो पाठक आसानी से समझ सकता है। उनकी ग़ज़लों में बोलचाल के शब्दों का प्रयोग पाठक को अपने करीबी के ग़ज़लगो होने का अहसास दिलाता है-

जब से मुझको तू ने छुआ है
रातें पूनम दिन गेरुआ है
ऐसा इश्क़ का बीज पड़ा के
नस-नस में पनपा महुआ है
तेरे चेहरे की रंगत से
मेरा हर मौसम फगुआ है
फेर ली तुमने नज़रें जब से
बहने लगी तबसे पछुआ है

 (2)
दिन भर ड्यूटी पर सहमी रहती है
लेकिन शाम ढले
फ़ोन की एक घण्टी पर धड़कन
सौ-सौ बाँस उछलती है

आजकल के इश्क़ पर तंज करते हुए लिखा है-

हुआ अब इश्क़ ये आसान बस इतना समझ लीजे
कोई हो आग का दरिया, वो होवे पर चुटकी में

ग़ज़ल में हमकाफ़िया (तुकांत) की परंपरा को छोड़कर भी बेहतरीन अश्आर गढ़े गए हैं-

हुई राह मुश्किल तो क्या कर चले
क़दम-दर-क़दम हौसला कर चले
उबरते रहे हादसों से सदा
गिरे, फिर उठे, मुस्कुरा कर चले
खड़ा हूँ हमेशा से बन कर रदीफ़
वो ख़ुद को मगर, क़ाफ़िया कर चले

महबूब से शिकायत पर लिखा गया शेर-

मैं रोऊँ अपने कत्ल पर या इस ख़बर पे रोऊँ मैं
कि क़ातिलों का सरग़ना तो मेरा यार है

संघर्ष, आशा-निराशा, चुनौतियों, संवेदनाएं, उदासी जैसे भावों से जुड़ी तमाम रचनाऐं पाठक तक पहुंचने में सफ़ल हुई है। व्यंग्यनुमा तीखापन और कोमलता एक साथ लिए हुए उनकी रचनाएँ गागर में सागर भरने का काम करती हैं-

धूप के तेवर तो बढ़ते जा रहे हैं दिन-ब-दिन
अब रहम धरती पे हो, अब बारिशों की बात हो
कीमतें छूने लगीं ऊँचाइयों आकाश की
दौर ऐसा है कि क्या फ़रमाइशों की बात हो
यूँ ही चलता है ये कह कर कब तक तलक सहते रहें
 कुछ नए रस्ते, नयी कोशिशों की बात हो

गौतम जी की रचनाएँ प्रेम के विभिन्न पक्षों, सम्बन्धों, व्यक्त अहसास और अव्यक्त प्रेम की अभिव्यक्तियों का चित्रण बेबाकी से करती हैं। मोबाइल, कॉल, ज्वालामुखी, फिल्में, बाइक, साड़ी, कॉफ़ी, कैडबरी रैपर ऑफिस जैसे शब्दों के प्रयोग के कारण गौतम जी के अश्आर युवा पीढ़ी से जुड़े हुए प्रतीत होते हैं। आम बोलचाल की भाषा के प्रयोग के कारण इनकी ग़ज़लगोई में नयापन देखने को मिलता है।

उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती और सलीके से ग़ज़ल और शाइरी को पढ़े-लिखे वर्ग के दायरे से निकालकर आमजन तक पहुँचाने का प्रयास किया है-

न मंदिर की ही घण्टी से
न मस्ज़िद की अज़ानों से
करे जो इश्क़ वो समझे जगत
का सार चुटकी में

'पाल ले इक रोग नादाँ' की तमाम गज़लें वयस्कों के साथ-साथ युवा वर्ग को भी पसन्द आयेंगी। पाठक वर्ग को रुमानियत और रूहानियत के लिए ये संग्रह याद रहेगा। गौतम जी के एक हाथ में बंदूक (फ़ौजी) है जो सख़्ती का पर्याय है, दूसरी ओर कलम के सिपाही है जो अहसासों का पर्याय है। बंदूक और कलम का बेहतरीन संगम है गौतम जी।

मुनव्वर राणा साहब जी का बयान कि ग़ज़ल परम्परा महफ़ूज़ हाथों में है, ये बात शत-प्रतिशत सत्य है। गौतम जी को पढ़कर महसूस हुआ कि सिर्फ़ मुनव्वर राणा साहब ही नहीं दुष्यंत कुमार साहब की ग़ज़लगोई भी महफूज़ हाथों में है।