पावन गणेश चतुर्थी पर महाभारत का स्मरण / जयप्रकाश चौकसे

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पावन गणेश चतुर्थी पर महाभारत का स्मरण
प्रकाशन तिथि :17 सितम्बर 2015


कोई ग्यारह वर्ष पूर्व सोनी टेलीविजन चैनल के उच्च अधिकारियों को मैंने 'महाभारत' जैसे प्राचीनतम ग्रंथ की मूल पाठ के निकट होते हुए भी आधुनिक समस्याओं पर तर्कपूर्ण प्रकाश डालने वाली नवीन व्याख्या सुनाई और लिखित कॉपी भी दी थी। पहले यथेष्ट रूप से चौंकते हुए उन्होंने सीरियल निर्माण का प्रस्ताव रखा था परंतु कुछ माह सोच-विचार के बाद उन्होंने महसूस किया कि आकल्पन की मौलिकता के कारण इसे आम दर्शक स्वीकार नहीं करेगा। दरअसल, हमारे देश की सरकारों को आम दर्शक के अवचेतन का अल्प ज्ञान है और वे उसी के आधार पर यह तय करते हैं कि अवाम को क्या पसंद है। यह पांच अंधों के द्वारा हाथी का विवरण है। अवाम में सब समझने की ताकत है, क्योंकि वह जीवन संग्राम में निहत्था ही अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों से लड़ रहा है और अब तक अपराजेय है, क्योंकि 'भूख ने उसे प्यार से पाला है।'

बहरहाल, इस लेख की सीमा में सविस्तार उस आकल्पन को लिखा नहीं जा सकता। यह संभव है कि आने वाले समय में विज्ञान यह संभव बना दे कि मनुष्य के सोचते ही प्रिंट आउट हाथ में आए जाए। जाने कितने कोरे पन्ने अवचेतन के 'कबाड़खाने' में पड़े रहते हैं। सबसे पहले वेदव्यास अमरत्व के मिथक को इस तरह तोड़ते हैं कि उस महासंग्राम में भाग लेने वाले शूरवीरों में केवल सबसे नीच व घृणित काम करने वाला अश्वत्थामा ही संदिग्ध अमरत्व पा सका, क्योंकि नींद में अबोधों को मारने वाले अश्वत्थामा को द्रौपदी का श्राप था कि वह कभी मरेगा नहीं और अनंत काल तक मृत्यु के लिए विफल प्रार्थनाएं करता रहेगा। मेरे परिकल्पन में कथा का प्रारंभ अश्वत्थामा के विफल आत्महत्या प्रयास से होता है और उसे रोकने में अपने को असमर्थ पाकर वेदव्यास कुरुक्षेत्र जाते हैं, जहां की धरती भीषण रक्तपात के कारण सदैव के लिए लाल हो गई है और किसान हल चलाने पर टूटे शस्त्र, बिखरी मानव हड्‌डियां ही खोज पाते हैं। वहां हमेशा घटाटोप बादल छाए रहते हैं परंतु कभी बरसते नहीं।

वेदव्यास राजधानी जाते समय टूटी हुई सड़कों पर कमजोर बच्चों, युवा विधवाओं और हताश बूढ़ों को देखते हैं और श्रीकृष्ण के शांति प्रयासों को विफल करने वाले वे व्यापारी, जिन्होंने युद्ध की संभावनाओं के कारण दिन-रात मजदूरों से काम कराकर युद्ध की सामग्री लाभ कमाने के लिए बनाई थी, अब अकूत धन होते हुए भी रोटी को तरस रहे हैं, पानी की एक-एक बूंद की कामना करते हैं, क्योंकि कुरुक्षेत्र युद्ध ने वृक्षों को नष्ट कर दिया, पहाड़ों को श्रीहीन कर दिया, नदियों को प्रदूषित कर दिया है। इतनी सदियां बीत गई परंतु शस्त्र बनाने वाले व्यापारी आज भी सक्रिय हैं। बहरहाल, राजधानी के कोष में धन ही नहीं है कि सड़कें सुधार सकें, कोई सार्थक विकास कर सकें, जो तब भी नारा था, आज भी नारा ही है, क्योंकि पर्यावरण की रक्षा के तहत ही विकास का प्रारंभ बिंदु गरीब मजदूर और भूमिहीन किसान होना चाहिए। श्रेष्ठि वर्ग को धन कमाने की सहूलियतें जुटाना या विदेशी पूंजी निवेश पर आश्रित होना अलग किस्म की गुलामी का शंखनाद है।

सब तरह से हताश वेदव्यास गंगा तट जाकर गंगा से प्रार्थना करते हैं कि उसी की गोद में सारे योद्धाओं की अस्थियां विसर्जित हैं। वे उन्हें मात्र एक दिन के लिए पुन: जीवन देकर तट पर भेजें ताकि विचार किया जा सके कि क्या वह युद्ध रोका जा सकता था और युद्ध का कारण क्या था?

गंगा के तथास्तु कहने पर पांडव व कौरव अपने पुराने तामझाम सहित धीरे-धीरे गंगा के तल से किनारे पर आते हैं और उसी समय कुछ लोग स्वर्ग से गंगातट पहुंचते हैं। वहां सबके दृष्टिकोण रखे जाते हैं परंतु मनुष्य शरीर मिलते ही उन महानुभावों के पूर्वग्रह और अहंकार भी लौट आते हैं और सारी विचार गोष्ठी का का अंत यह होता है कि पांडव और कौरव फिर झगड़ने लगते हैं, तब वेदव्यास गंगा से उन्हें वापस लेने की प्रार्थना करते हैं। सब योद्धाओं के गंगा में समाने के बाद कुछ आम लोग, जिनकी अस्थियां उन योद्धाओं के साथ मिल गई थी और वे भी गंगा तट आ गए थे, वेदव्यास से पूछते हैं कि उनका तो कोई दोष नहीं था, न पहले उनकी सुनी गई, न इस 'वापसी' में उन्हें बोलने दिया गया। यही आज भी हो रहा है।

हताश वेदव्यास श्रीगणेश से युद्ध का कारण पूछते हैं और श्रीगणेश का प्रतिप्रश्न है, 'आपने कथा पहलेलिखी या घटनाएं पहले घटीं और आप तो अपनी कथा के महत्वपूर्ण पात्र भी हैं?' अधिक असमंजस से ग्रस्त वेदव्यास को श्रीगणेश उनकी दुविधाओं से निकालते हैं, 'सोचा हुआ विचार कभी नहीं मरता, वह घटित होता है या सतह के नीचे प्रवाहित रहता है। जब मनुष्य का तर्कसम्मत विचार नष्ट होता है तब वह युद्ध करता है। सारे युद्ध धर्म के नाम पर लड़े गए और लड़े जाएंगे परंतु सच यह है कि धर्मांधता के कारण युद्ध होते हैं। धर्म तो सत्य है, प्रेम है, उजास है उसके लिए युद्ध नहीं होता। प्रेम तो अनंत शांति है। सबको एक जैसा सोचने पर मजबूर करना युद्ध को जन्म देता है।' ओम शांति! शांति!! शांति!!! अर्थात स्पष्ट विचार से जन्मी आनंद अवस्था।