पिंजरे का पंछी / गुरदीप सिंह सोहल
“वीणा के तारों को अत्यन्त ढ़ीला न करो, ऐसा न हो कि बज ही न सके तथा इतना अधिक भी मत कस दो कि वे टूट जायें, उनमें से कोई सुर न निकल पाये।” मोक्ष प्राप्ति के लिये महात्मा बुद्व ने मध्यम मार्ग अपनाते हुए सत्य ही कहा था, “शरीर को अत्यधिक कष्ट देनेसे किसी भी दशा में स्वर्ग नहीं मिल सकता, केवल नुकसान ही होता है। लक्ष्य प्राप्त करने में कठिनाई आती है।”
बीते दिनों की याद आते ही मेरी आंखें स्वतः ही नम हो जाती है। अपनों के लिये आंसू बहाते तो सभी को ही देखा है। परन्तु गैरों को रोते हुए चुप करवाना निश्चित रूप से बहुत ही मुश्किल काम है। खुदा करे मेरी उम्र भी मेरे उन माता-पिता को लग जाये जिन्होनें मुझे समय जैसी अमूल्य नीति की कद्र करनी सिखाई। मेरा उठना-बैठना, खाना-पीना, पढ़ना-लिखना और यहां तक कि मनोंरजन आदि सबका एक निश्चित समय होता था। सूर्य पश्चिम में उदय हो सकता था मगर उनके अमूल्य उसूल हमेशा दृढ़ रहते थे, वे कभी बदल नहीं सकते थे और बदलने की किसी ने हिम्मत भी नहीं की थी। क्या मजाल कि मैं पढ़ने के समय खेल लेता या खेलने के समय पढ़ लेता। कहते है ना कि सयाने के कहे और आंवले के खाये का असर हमेशा बाद में होता है। कड़वे आंवले का मीठापन भी एक बार मुंह जलने के बाद होता है। काम की बात हमेशा ही बुरी लगती है और नुकसानदायक बात हमेशा अच्छी। यह सब इसी समझ का फेर है। बाद में अपना असर दिखाती है अच्छी-अच्छी बातें। खाते समय आंवला भी एक बार कड़वा लगता है लेकिन बाद में पानी पीने के समय मुंह को चीनी की तरह मीठा कर देता है, देर तक मुंह में आंवले की मिठास कायम रहती है। ठीक उसी तरह उनके दृढ़ उसूल भी मुझे कुनैन की टिकिया की तरह जहर जैसे कड़वे लगते थे। कभी-कभी तो मैं सोचा करता कि कंही वे लोग मुझे पाबन्दियां लगा-लगाकर घड़ी जैसा ही न बना डालंे क्योंकि मैं जब कभी भी कुछ करने बैठता तो पड़ौसी समय का सही-सही अनुमान लगाने लगे। मेरा सारा का सारा कार्यक्रम घड़ी के 12 घण्टों में बदल गया। मैं फिर घड़ी में समा गया और घड़ी मुझमें। हम दोनों एक हो गये थे। आज मैं उन्हीं पाबन्दियों और उसूलों की बदौलत ही अधिशाषी अभियंता के रूप में एक राजपत्रित अधिकारी के पद पर आ चुका हूं। मेरा मस्तिष्क उनके प्रति श्रद्वा से झुक जाता है। कार्यालय से पहले और कार्यालय के बाद के समय में आज भी नित्य प्रति दो-दो घण्टे टहलना मेरे जीवन का अभिन्न अंग बनकर रह गया है।
एक रोज जीप में बैठा हुआ जैसे ही बाजार में से निकल रहा था, उस दृश्य को देखते ही अचानक मेरे पांव का दवाब एक्सीलेटर पर बढ़ गया व दुर्घटना होेते-होते बाल-बाल बची। एक भिखारी के बदन पर फटा - पुराना चोगा, बढ़-बढ़कर खिचड़ी हुए बाल और मुद्दत से न नहा सकने की वजह से बदन पर मैल की मोटी परत जमी हुई थी। इससे पहले कि वह किसी मुसाफिर द्वारा फैंके हुए केले के छिलके उठाकर खा पाता, किसी सफाई कर्मचारी ने उसकी कमर पर भरपूर ठोकर जमाते हुए एक भद्दी सी गाली देते हुए कहा था-
“पता नहीं कहां से चले आते हैं ये इतने-सारे भिखमंगे। जीना हराम कर दिया है इन जानवरों ने। अच्छी-खासी सेहत होते हुए भी काम नहीं करना चाहते हरामजादे। जरूरत ही क्या है काम करके खाने की भला मुफत का जो मिल जाता है सड़कों पर फैंका हुआ इन्हें। जिसे एक बार मांगने की आदत पड़ गयी वो क्या कभी काम कर सकता है।” अभी वह अच्छी तरह से उठ भी नहीं पाया था कि जाते-जाते उसने फिर एक भरपूर ठोकर रसीद कर दी। वह दोबारा सड़क पर औंधे मुंह पसर गया। चेहरा जगह-जगह से छिल गया और नाक से खून बह चला, केले के पत्तों को टोकरी में डालकर ले गया।
“जानवर भी मुंह नहीं लगाते इन पत्तों को। मगर ये हराम के पिल्ले हैं कि कुछ भी मिल जाये सड़कों पर पड़ा हुआ, चील-कौवों की तरह टूट पड़ते है।” नाक से बहा हुआ खून नीचे बह जाने की बजाय जूट की तरह उलझी हुयी दाढ़ी में समाने लग गया जैसे कि उसमें स्याहीचूस लगा दिया गया हो।
सड़क पर बड़ी मुश्किल से उसने चेहरा उठाया तो सहसा ही मेरे बदन में बिजली-सी कौंध गई। यादों के बादल गड़गड़ाने लगे। सैंकड़ों भिखारियों को आने-जाने वालों के आगे हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाते हुए देखा मगर उसने तो जैसे मेरे दिमाग में एक प्रकार का विस्फोट-सा ही कर दिया। वह मुझे पहचानने में असमर्थ रहा था। पहचानता भी तो कैसे भला ? बरसों पहले वह अपनी याददाश्त खो बैठा था। तुरन्त जीप रोककर उसे बिठाया और चल पड़ा। मेरे मानस पटल पर उसका बचपन चलचित्र की तरह उभरने लगा। मैं अपनी यादों और अनुभवों की मूसलाधार बारिश में भीगने लगा था।
मेरे देवतातुल्य पिताश्री किसी दफतर में आशुलिपिक के पद पर काम करते थे व माताश्री किसी पाठशाला की प्रधानाध्यापिका थी। परिवार में हम कुल ले-दे कर चार ही सदस्य थे। मेरी एक छोटी बहन थी। पढ़ाई-लिखाई का शौंक हम दोनों भाई-बहन को विरासत में ही मिला था और बचपन में हीहम दोनों पढ़ने में काफी बुद्विमान थे। हमारी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा भी माताश्री की देख-रेख में हुई। हम दोनों में से मैं काफी बड़ा था। हम अलग-अलग कक्षाओं में पढ़ने लगे। हमेशा अच्छे अंक लेकर ही पास होते, कक्षा में दूसरा या तीसरा स्थान लेते। पिताश्री हमारा काफी उत्साह बढ़ाते और कहते-
“देखों बच्चों ! जो तुम दोनों में से आगे जायेगा उसे सुन्दर-सी घड़ी मिलेगी।”
हमारी आंखों के सामने सुन्दर-सुन्दर घड़ियां नाचने लगती और परीक्षा व परिणाम दिखाती रहतीं। न खाने की सुध रहती न पीने की। बस घड़ी पाने की प्रतियोगिता में पुस्तकों के पीछे हाथ धोकर ही पड़ जाते। मैं आठवीं कक्षा में बाजी मार गया और पिताश्री ने अपने वचनानुसार घड़ी दिलवाते हुये कहा था-
“देखों भई अनिल! तुम्हें पता हो कि नहीं, अब तुम्हारे सारे-के-सारे विषय बदल जायेगें। आज तक तो तुम सभी विषय एक साथ पढ़ते आये थे लेकिन अब कला, वाणिज्य व विज्ञान के रूप में इन्हें अलग-अलग पढ़ा जायेगा। तुम्हें इनमें से एक अपनी इच्छा के रूप में, अपने-अपने शौक के रूप में न कि किसी की देखा-देखी, किसी भेड़चाल में। बोलो तुम क्या पढ़ोगे ?”
“जी। जी” मैं। जो आप कहेगें वही।” मैने हकलाते हुए कहा था।
“कितनी गलत बात है यह बेटे। पढ़ेगें आप और विषय का चुनाव करें हम। बिल्कुल नहीं। तुम ही बताओ, जो तुम्हें पसन्द हो।” पिताजी ने मेरा उत्साह काफी बढ़ाते हुए कहा था। वे नहीं चाहते थे कि मैं उनकी पसन्द का विषय पढूं।
“जी। मैं वो”“।”
“हां”’। हां, फटाफट बोल दो बस।”
“जी ! मैं विज्ञान में गणित पंढूगा।” मेरा उत्तर था।
“ठीक है। तब तुम आराम से छुट्टियां बिताने का कार्यक्रम बनाओ। जब भी स्कूल खुल जायेगें, कक्षाएं लगने लगेंगी। तब तुम्हारा पंसदीदा विषय भी दिलवा देगें।
“जी धन्यावाद।”
“लेकिन एक बात हमेशायाद रखना बेटा अनिल।”
“कहिये पिताश्री।”
“एक तो तुम किसी की देखा-देखी कोई भी विषय मत लेना। विषय वही लेना जिसमें तुम्हें रूचि हो और अगर अब लिया हुआ विषय समझ में न आये या कठिन लगे तो उसे तुरन्त बदलकर दूसरा विषय ले लेना। कहीं ऐसा न हो कि शर्म-शर्म में एक बार लिया हुआ विषय बदलना तो चाहो परन्तु बदल न सको और उम्र भर पछताते रहो या ठीक तरह से पढ़ न सको, फेल हो जाओ। दिल की बात किसी को भी कह न सको।”
“जी। अच्छा मैं ऐसा ही करूगां।”
“अच्छा अब जाओ। और कुछ मनोरंजन करो। पिक्चर देखो, पिकनिक मनाओ।”
नौंवी कक्षा में ऐसा भी सहपाठी आया जो मेरे पास-पड़ौस में ही रह रहा था और अपेक्षाकृत गरीब और अल्प शिक्षित परिवार से था। मां-बाप के कठोर से कठोर बंधन ने रमेश को इस कदर कमजोर और शर्मीला बना दिया कि पढ़ाई में अच्छा होते हुए भी वह कभी भी अच्छे और संतोषजनक अंक प्राप्त न कर सका बल्कि कभी थर्ड श्रेणी लाता तो कभी सप्लीमेण्टरी लाता। उन्हें रमेश की पढ़ाई-लिखाई से कोई भी वास्ता नहीं था। उन्होनें जब देखा और सुना कि मैं विज्ञान में गणित विषय ले रहा हूं तब वे उसे कहने लगे -
“देखों रमेश ! अनिल ने विज्ञान में गण्ति विषय लिया है तुम भी यही विषय ले लो।” वह उनकी पाबन्दियों से बहुत ही दबा हुआ था, आंतकित था।
“जी मैं इतना होशियार कहां कि विज्ञान में गणित जैसा कठिन विषय पढ़-लिख सकूं। मैं तो पहले से ही गणित में कमजोर हूं और मेरी इसमें कोई रूचि भी नहीं इसे पढ़ने की।” डरते हुए लहजे में उसने जवाब दिया था।
“तुम्हें अगर स्कूल जाना है तो गणित ही लेना पड़ेगा वरना स्कूल छोड़ दो।”
“आप कहते हैं तो मैं गणित जैसा मुश्किल विषय ले लेता हूं लेकिन मेरी रूचि तो केवल कला में है। मैं गणित ठीक से पढ़ भी नहीं पाऊंगा।” रमेश ने फिर वही रोना रोया। गणित से तो पहले ही डरा हुआ था।
“पगले कहीं के विज्ञान पढ़ने वाले डॉक्टर, इंजीनियर, सार्जेण्ट और न जाने क्या-क्या बन जाते हैं। कला वाले जिंदगी भर मास्टरगिरी करते हुए रह जाते हैं।” उस विषय को पढ़वाने के लिये कितने ही बेबुनियाद आधार बनते रहते थे।
“अगर मैने गणित विषय ही लिया तो मैं कुछ भी नहीं बन पाऊंगा।
“हम तेरा भला ही तो चाहते है, तू हमें समझने की कोशिश क्यों नहीं करता मूर्ख ? हम भी तो चाहतें है कि तू भी जिंदगी में डॉक्टर या इंजीनियर बने।”
“ठीक है जैसी आपकी इच्छा। आपकी बात मानकर मैं भी गणित पढ़ूंगा लेकिन मुझे विश्वास नहीं है।”
“शाबास बेटा। सदा सफल रहो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारा मार्ग-दर्शन करता रहेगा।” उसके पिताजी अक्सर यही कहते रहते थे। वह कितना सफल हुआ उन्हें बाद में मालूम पड़ा जब उनकी जिद के सामने रमेश की एक न चली।
कहते हैं जब सन्तान बचपन को त्यागकर जवानी की दुनिया में पर्दापण करने लगती है। जवानी उनका जोर-शोर से स्वागत करती है तो कई प्रकार से अंध विश्वासों से घिरे हुए कितने ही अनपढ़ या कम शिक्षित माता-पिताओं को अनन्त अज्ञात भय भी सताने लगते हैं कि पता नहीं उन्हें कैसा वातावरण मिलेगा, कैसी संगति मिलेगी, कैसे-कैसे दोस्त-मित्र मिलेंगें। कहीं उनका चरित्र ही न बिगड़ जाये, कोई उन पर झूठा इल्जाम ही न लगा दें। कहीं उनका चरित्र ही न बिगड़ जाये, कोई उन पर झूठा इल्जाम ही न लगा दे। न जाने इस प्रकार के कितने ही बुरे-बुरे सवालात और ख्यालात उनके डरे हुए दिल में घर बना जाते है। उन सबको हल करने का उनके पास सिर्फ एक ही प्रबन्ध है पाबन्दी की कैद। यानि सन्तान को घर से बाहर निकलने की मनाही। वे सन्तान पर पाबन्दियों का बन्धन इस कदर कसने लगते हैं कि जवान सन्तान घर के पिंजरे में परकटे परिन्दे की तरह फड़फड़ाकर रह जाती है, कैदी बन जाती है। उनका सारा वक्त घर पर ही कटता है। कब दिन होता है और कब रात उन्हें समय का बिल्कुल भी आभास नहीं रह पाता। कुछ ऐसा ही व्यवहार हुआ रमेश के साथ और उसे भी कभी भी मालूम नहीं पड़ा कि कब शाम ढ़ली और कब रात हुई।
“बेटा रमेश ! मैं नहीं चाहता कि कल को कोई तुम्हारी तरफ अंगुली उठाये, झूठी बात फैलाये, बदनाम करे या कुछ और। इसलिये बेहतर यही होगा कि तुम हमेशा घर पर ही रहो, पढ़ाई में व्यस्त रहो।” रमेश की आठों पहर कभी पिताश्री की तरफ से तो कभी माताश्री की तरफ से आदेश मिलता ही रहता। जो मिलते ही लागू भी हो जाता, उसके लागू होने में कोई छूट या टालमटोल नहीं होता था।
“कहां से आ रहे हो ?” हमेशा का यही एक प्रश्न होता।
“जी, अनिल के घर से।”
“क्या काम था ?”
“जी कुछ सवाल हल करने थे। कुछ और भी पूछना था।”
“तम्हारे दिमाग में कचरा तो नहीं भरा हुआ है जो बार-बार अनिल के पास जाने का बहाना करते रहते हो। पता नहीं क्या रखा है उस आवारा के घर। कितनी ही बार समझाया है कि घर में बैठकर ही पढ़ो। कभी बाहर मत निकलो। अब कभी दरवाजे पर या उस अनिल के घर दुबारा जाते हुए देख लिया तो टांगे तोड़कर चारपाई में डाल दूगां हमेशा के लिये। समझे। हट जाओ मेरे सामने से।” जब देखों बेचारे को हर तरफ से डांट पड़ती रहती है। पिताश्री ने तो केवल घूमने से मना किया था। लेकिन माताश्री तो उनसे भी दो कदम आगे निकल गई। हमेशा कहती रहती हैं -
“बस घर में ही पड़े रहो। पढ़ते रहो। सवाल आये या ना आये।”
“अनिल बेटा। खुदा के लिये तुम चले जाओ यहां से। मत आया करो यहां। तुम्हारे पीछे लगकर हमारा रमेश भी बिगड़ जायेगा। खुद तो तुम आवारा घूमते हो न पढ़ते हो और न पढ़ने देते हो। रमेश जब भी किताब उठाने लगता है कोई-न-कोई आ धमकता है। पता नहीं कैसे इसके सवाल हल होगें, कब सिलेबस खत्म होगा।” रमेश के पिताजी मुझे अक्सर कह देते थे। मुझसे हाजिर जवाबी के तौर पर कभी कुछ भी कहते हुए न बनता और चेहरा झुकाये चला आता। उनकी बातों का मैने कभी भी बुरा नहीं माना था। हालांकि मेरी दिनचर्या में कोई विशेष अन्तर भी नहीं आया था। अपना घरेेलू काम पूरा करके फालतू समय में जब कभी भी उनके घर मैं रमेश से मिलने जाता तो वे मुझे आवारा ही समझते थे क्योंकि वे नहीं जानते थे कि मैं अपना काम हमेशा पूरा रखता था। खेलने की बजाय बस टहलना प्रारम्भ किया था। ऐसे में कभी-कभार उधर चला भी जाता तो बार-बार उनके मुंह से वही बात सुनकर उदास हो जाता। बुरा तो रमेश को भी लगता था मगर बेचारा मूक बना सील गाय की तरह देखता रहता, प्यासी मछली की तरह तड़पता रहता।
घड़ी की सुईयां अपनी रफतार से चलती हुई सैकिण्ड्स, मिनिट्स, घण्टे, दिन, माह और यहां तक कि वर्ष पार करती हुई पचास बदलती रहीं। आज तक कुल कितने कैलेण्डर्स बदले गये कुछ पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। जब रमेश थर्ड और मैं प्रथम स्थान ले आया तब रमेश के पिताश्री ने कहा था-
“वह आवारा अनिल। पहला नम्बर कैसे ले आया ? जब देखो टहलता ही रहता है, सड़कों पर घुमता हुआ मिलता है सुबह शाम और तू हमेशा किताबों को पढ़ता हुआ। कहीं-न-कहीं कुछ तो गड़बड़ है ही नहीं तो तुझे प्रथम आना ही चाहिए था और उसे थर्ड। इतने कम नम्बर आने का मैं पता लगाकर छोड़ूंगा। परिणामों की पुनः जांच करवायी परन्तु अगर कंही गलती होती तो अवश्य ही मिल जाती। कब तक छुपती भला परीक्षकों की नजरों से। साथ पढ़ते-पढ़ते, कक्षाओं की सांप सीढ़ियां चढ़ते हुए हम दोनों कॉलेज में आ गये। रमेश पर माता-पिता का दबाव और आंतक दिन-ब-दिन बढ़ने लगा। अपनी समझ में तो वे उसका उज्जवल भविष्य बना रहे थे परन्तु उन्हें क्या पता था कि वहीं भविष्य कितना ज्यादा अंधकारमय होगा। उस हालत में तो वे उसके भविष्य का सही अर्थ ही नहीं लगा पाये और न ही उन्होनें कभी किसी से सलाह-मशविरा ही किया था। अनिल तो उनकी उम्र से काफी छोेटा था और उससे सलाह-मशविरा करना नहीं चाहते थे। अभिभावकों के बुने-बुनाये सबके-सब सपनें जब साकार होने से पूर्व ही रेत के किले की भांति मिट्टी में मिल जायें तो स्कूल के नाम से उनका विश्वास उठने लगा, स्कूल से उन्हें चिढ़ होने लगी। उनके लिये स्कूलों का महत्व कम होने लगा। उनका नजरिया बदलने लगा।
पढ़ाई की ज्यादती की वजह से रमेश की नजर कमजोर व दिमाग खराब होने की-सी स्थिति में अग्रसर हो रहा था। मेरे लिये उसके दर्शन ही दुर्लभ हो गये। अगर संयोग से कहीं पर मिल भी जाता तो पाबन्दियों के रोने रोता कहने लगता-
“अनिल ! मेरे दोस्त, मै घर रूपी पिंजरे में पालतू तोते की तरह मजबूर-सी जिंदगी जीने पर विवश हूं। पिंजरे की सलाखों के पीछे से जैसे पंछी को चुग्गा डाल दिया जाता है परन्तु दरवाजा नहीं खोला जाता ठीक वैसे ही मुझे कैदियों की तरह खाना डाल देते है। मैं अपनी इच्छा से सांस भी नहीं ले सकता। बन्द कमरों में हमेशा ही मेरा मन घुटता रहता है जैसे चारों तरफ कार्बनडाइ ऑक्साइड फैल रहा है उनकी पाबन्दियों का जहर भर रहा है किसी बन्द केबिन की तरह। शायद बहुत कम रह गयी है मेरी जिंदगी। बहुत ही मजबूर हूं मैं दोस्त। तू कभी बुरा मत मानना और हमेशा यही प्रार्थना करना कि ईश्वर मेरे माता-पिता को सद्बुद्वि दे ताकि ये लोग मेरा हाल जानने की दृष्टि पा सकें।” भावुकता में बेबस आंखे सावन की घटाओं जैसे बरसने लगतीं। अक्सर वह खोया-खोया सा रहता। उसी दौरान मैने प्री-इंजीनियरिंग टैस्ट का इम्तिहान पास कर लिया था। उसके दो छोटे भाई सब्जी का ठेला लगाने लगे।
संयोग से एक दिन जब मेरा उनके घर जाना हुआ उसके पिताजी विलख-विलख कर विलाप करने लगे-
“मेरा रमेश। मेरा रमेश। अंधे की लाठी, बूढ़े का सहारा चला गया। आंखो की ज्योति अंधकार में परिवर्तित हो गयी। बेटे अनिल मैं किसी को भी मुंह दिखाने के काबिल न रहा। लोग कहेंगें मैने उसे तंगी में घर से निकाल दिया मगर वह दिमाग के खराब हो जाने के कारण अचानक एक रात घर से निकल गया। अब मैं क्या कहकर अपने इस दिल को समझाऊं बेटे। इस घर का चिराग जाने कहां चला गया। जालिम जमाना मुझे जीने नहीं देगा।” जब दिल पर और अधिक काबू न रहा तो वे फूट-फूट कर रोये मगर जालिम दिल की भड़ास कभी भी नहीं निकलती।
दुख तो मुझे भी बहुत हुआ परन्तु उन्हें किसी भी प्रकार की सांत्वना दे सकने में नाकामयाब रहा। समाचार पत्रों में मय तस्वीरों के विज्ञापन भी देने के बावजूद सब कुछ व्यर्थ चला गया। खुदा जानेवह सागर-सी-दुनिया की भीड़ में कंहा खो गया, किस धारा के साथ बह गया, कहां-कहां बहकर गया।
रास्ते भर उसकी जिंदगी के भंवर में डूबता-उतराता मैं घर पहुंचा। नौकर को डॉक्टर बुलाने का आदेश देकर उसे नहलवाकर भला आदमी बना दिया। कुछ दवा देकर डॉक्टर ने उसे किसी अच्छे मानसिक रोग विशेषज्ञ को दिखलाने की सलाह दी। फिर अपने उस मित्र के पास ले गया जो केवल मानसिक रोग विशेषज्ञ ही था और जो दूर-दूर तक प्रसिद्व था। जिसके उपचार से रमेश ठीक हो सका, धीरे-धीरे उसकी खोई हुई स्मरण शक्ति लौटने लगी। उसे पिछली जिंदगी के बारे में सब कुछ याद आने लगा। कुछ दिन बाद वह सबकों अच्छी तरह पहचानने भी लगा।
“वह वृद्व पिता न जाने किसके सहारे जिंदगी की गाड़ी का बोझ ढ़ो रहा होगा। एक बार रमेश को अवश्य ही जाना चाहिए। जब जवान बेटे को देखेगें तो वे खुशी से पागल ही हो जायेंगें और मुर्दा बदन भी जिन्दा हो उठेगा।”
कितना मार्मिक बन पड़ा था वह दृश्य जब मां ने रमेश को अमरबेल की तरह लिपटा लिया था। लगता था जैसे मां-बेटा एक हो जायेगें। मेरे कानों में एक क्षीण आवाज पड़ी लेकिन वही आवाज कहना बहुत कुछ चाहती थी।
“और कौन है तुम्हारे साथ बेटा रमेश। वो कौन है खुदा का प्यारा जो तुझे वापस घर लेकर आया। ? जिसने हम सब पर, इस घर पर अहसान किया है।”
“मेरे साहब है पिताश्री। जिन्होनें सड़क से उठाकर मुझे कुर्सी पर बिठा दिया। इन्हीं के अधीन आज मैं कैशियर की नौकरी भी कर रहा हूं।” उसके वृद्व पिता ने मुझे पहचानने की असफल कोशिश की, अंधो की तरह टटोलते रहे, मुझे ही बोलना पड़ा।
“जी ! मैं आवारा अनिल। जो अक्सर इसे पढ़ने में सहायता देता था और हमेशा मदद देना चाहता था। लेकिन आपको तो वह हमेशा ही आवारगी लगी। आपको कभी भी यह अच्छा नहीं लगा कि रमेश मेरे साथ रहे, मेरी संगति में रहे।”
“क्या ? उन्होनें कुछ याद करने की कोशिश की थी।
“हां, मैं वहीं अनिल जो रमेश की पढ़ाई में हमेशा बाधा बनता रहा था, अब तो आपने दिन भर पढ़ने का अंजाम देख और भुगत लिया न, आपको तो मालूम और महसूस हो ही गया होगा। आप जान ही गये होगें पाबन्दियों का परिणाम।”
“मैं बहुत शर्मिन्दा हूं अनिल बेटे। मुझे क्या पता था कि ऐसा होगा। मैं कई अन्य विश्वासों में जकड़ा रहा। अब पता चला कि प्रत्येक काम समय पर ही अच्छा लगता है। मैं भावी अभिभावकों को यही परामर्श देना पसन्द करूगां कि वे अपनी सन्तान को न तो इतना अधिक बंधन में रखें कि वह घर का कैदी होकर पढ़ाई में रमेश की तरह पागल हो जाये और घर से भाग जाने जैसा साहसिक कदम उठाये तथा इतना अधिक खुला भी न छोड़ दें कि आवारा होकर लक्ष्यहीन हो जाये और किसी भी मंजिल तक पंहुचने में असमर्थ रहे। न घर का रहे न घाट का। उन्हें सदा महात्मा बुद्व के द्वारा बताये हुए मध्यम मार्ग पर चलना चाहिए जैसा कि अनिल के माता-पिता ने किया।”
और वे अपने आपको बहुत बड़ा अपराधी मानने लगे। दुख में इन्सान रोया ही करता है लेकिन कभी-कभी खुशी के अवसरों पर भी रोना पड़ता है। खुशी के उस सावन से कितनी वर्षा हुयी इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।
मैं भी अपने आपको, उस दृश्य को देखकर रोक न पाया था। न जाने उनके मुंह से कितने, कितनी देर तक आशीर्वाद निकले थे मेरी और मेरे माता-पिता की खातिर।
(दैनिक पंजाब केसरी के 15 अगस्त 1984 के स्वतन्त्रता विशेषांक में प्रकाशित)