पिंजरों से बाहर / सूर्यबाला
सॉरी सर!
(जी हाँ, सर निरंजन मान सिंह! ...)
मेरी कल्पना में आप 'शटअप्प' कह रहे हैं!
मैं यह भी साफ-साफ देख रहा हूँ कि 'शटअप' कहते हुए आप अपनी अधपकी मूछों के ऊपर-ऊपर खफा हैं, नीचे बेहद आहत हैं और इन सारी चट्टानी सतहों की तली में हलकोरते मीठे पानी के सोते को, अपनी सख्त रोबदाब भरी शख्सियत के पीछे बड़े यत्न से, (स्त्रियों की तरह... खिक... सॉरी सर!) छुपाने की कोशिश कर रहे हैं... लेकिन मैं उसे हमेशा की तरह बखूबी महसूस रहा हूँ।
आप अभी तक अपनी सख्ती पर अड़े हैं। टस से मस नहीं हो रहे हैं कि-
क्यों आ गया मैं इस तरह अचानक घर से वापस? यह कैसी बेअदबी है कि एकदम से स्ट्रोली और शोल्डर बैग उठाया और निकल दिये साहबजादे। मॉम कह रही थीं, उन्होंने कितनी कोशिश की। ... सिर्फ़ चार दिनों के लिये ही तो आप अपनी गोल्फमीट पर गए थे। ... वह भी दोस्तों के बहुत इसरार करने पर वरना क्या मैं जानता नहीं कि मैं जब भी छुट्टियों में घर लौटता हूँ, आप ऊपर-ऊपर कुछ न कह कर भी, अपने सारे ज़रूरी इंगेजमेंट्स रद्द करते, टालते जाते हैं। (बगैर मुझे बताये... पता तो मुझे मॉम से लगता है कि इस दौरान आपने फलां-फलां कॉल्स, कॉन्फरेंस, मीटिंग और मीट कैंसिल की-)
जबकि घर रहते हुए ऐसा कुछ नहीं कि आपके साथ मेरी सुबह शाम की बैठकी का सिलसिला चला करता हो, ठहाके गूंजते हों, गप्प सड़ाके लगते हों, या आप मुझे हनी-शनी जैसे सम्बोधनों से नवाजते ही हों-याद नहीं पड़ता कि आपने कभी मुझे भींच कर गले से भी लगाया हो... वैसे, चाहते आप ज़रूर हैं, इसका अंदाजा मैंने अक्सर, शतरंज की बाजियों के बीच, मुझ पर टिकी आपकी निगाहों से लगाया है, या कभी सुबह देर से आंखें खुलने पर, आपको सामने खड़े पा कर...
आप कहेंगे, तो? तो? ... इसका मतलब यह तो नहीं कि हद के सिर चढ़े बेटे और खब्ती इंसान की तरह अचानक भाग लिये घर से! ... अरे मैं नहीं था, मॉम तो थीं? मेरी न सही, उनकी तो सोची होती... कैसा लगा होगा उन्हें! कितना लाड़ करती हैं वे तुम्हारा... छुट्टियों में तुम्हारे आने से पहले बनाई और मंगाई जाने वाली चीजों की कितनी चाव भरी लिस्ट मुझे पकड़ाई जाती हैं, कितने प्लान बनाये जाते हैं, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते तुम।
फिरकनी-सी नाची फिरती हैं मॉंम पूरे घर में, जब तक तुम रहते हो...
बेशक सर! सॉरी, डैड! ... इसमें तो कोई शक नहीं कि मेरे आने के दिन से, मेरे लौटने के दिन तक मॉम, किचेन, डाइनिंग से लेकर मेरे कमरे तक की देखभाल और साज-सजावट में लस्त पस्त किये रहती हैं अपने आपको। सुबह के नाश्ते से लंच, डिनर तक, इंडियन-ट्रैडीशनल-डिशेज से लेकर चाइनीज, जैपेनीज, कांटीनेंटल व्यंजनों की ऐसी-ऐसी नायाब किस्में डाइनिंग टेबुल पर सजी होती हैं। जिनमें बहुतों के, खाने की कौन कहे, हमने नाम भी नहीं सुने होते। ब्रेकफास्ट के फ्रूट्स से लेकर टी-टाइम स्नैक्स तक, एक-एक चीज मेरी पसंद की। आप अंदर से खुश, ऊपर से शिकायती लहजे में कहते हैं-बॉय! आयम जेलस ऑफ यू... तुम्हारी मॉम ने मुझे तो कभी ऐसे लजीज मोमो खिलाए नहीं...
मुझसे मिलाने के लिये मॉम जिस, तत्परता से फैमिली फ्रेन्ड्स की गेट-टु-गेदर, पिकनिक, पार्टिंयाँ, कॉकटेल्स आयोजित करने में व्यस्त रहती हैं, उससे कभी-कभी लगता है जैसे इस घर का बेटा नहीं, किसी मल्टीनेशनल कंपनी का कॉरपोरेट-हेड आया... लेकिन सच कहूँ तो मुझ पर लुटते मॉम के इस बेशुमार लाड़-मनुहार को देखकर, आपका अंदर-अंदर मगन और रिलैक्स्ड होते रहना मुझे बेहद अच्छा लगता है।
जानते हैं क्यों? जिस तरह आप मुझे खुश देखना चाहते हैं न, उसी तरह मुझे भी अपने 'सर' , सॉरी डैड को खुश देखना राहत पहुंचाता है। ... आपकी तो हर अदा, हर मुद्रा पर मैं कुरबान जाता हूँ... चाहे वह आपकी मूछों के नीचे से हल्के-हल्के मुस्कुराने वाली मुद्रा हो, चाहे सतर आंखों से बरजने वाला आदेश... और चाहे निचले होठों को भींच कर 'हम्म' करके चुप हो रहने वाली गुमसुमी। दरअसल बाहर तो आपका कभी कुछ आता ही नहीं न... लेकिन आपके अंदर की आहटों और सारे आरोह-अवरोहों को बखूबी महसूस करता रहता हूँ मैं और एकदम सच कहूँ तो आपकी इस खुशी की खातिर ही, परेशान होने के बावजूद, हर वेकेशंस में मैं मॉम की ओवर-लोडेड हॉस्पिटैलिटी बरदाश्त कर ले जाता हूँ।
वरना मैं तो अनायास यहाँ तक सोच गया हूँ कि जब मैं चला आता होऊंगा तो मॉम को सूना, सन्नाटा ज़्यादा लगता होगा या थकान से मुक्ति की राहत ज़्यादा महसूस होती होगी... कितनी फिजूल-खर्ची करती हैं मॉम मेरी खातिर!-लिविंग, बेडरूम के पर्दों, टेबुल के लिनेन सोफों के कुशन्स से लेकर, मेरी फिक्र और प्यार में इस्तेमाल किये गए बेपनाह शब्दों तक की फिजुल खर्ची... जैसे मल्लिका-मॉम, सॉरी, मॉम के लिये मैं कोई चैलेंज होऊँ... चुनौती... मुझे फतह किये बिना वे अपने हक और प्यार की लड़ाई नहीं जीत पाएंगी... जैसे मैं शर्त होऊँ... दांव। सांस रोक-कर फेंके जा रही हैं मॉम-एक पर एक, अब लगा, बस अब लगा निशाने पर...
उफ़, मैं यह क्या कह गया सर! ... सॉरी, डैड! सिर्फ़ डैड! मैं यह सब कभी नहीं कहता आपसे, अगर आज पहली बार, आप आधी-अधूरी बात के बीच, फोन पर ही कुछ लम्हों को, पूरी तरह रुद्ध, गुम न हो गये होते। मैं इस गुमी को पहचानता हूँ, ... बहुत बचपन से... फोन के इस पार से देख रहा था मैं... जैसे आपने हार कर हथियार डाल दिये हों... मैंने पहली बार निरूपाय और निहत्था महसूस किया था आपको।
क्या मेरे अवचेतन ने कोई बदला लिया था आपसे? ...
क्योंकि मुझे तोतले बचपन की वे अधियायी रातें कभी नहीं भूलतीं जब आपके अनजाने, बहुत आहिस्ते से बोले गए माँ के थरथराते शब्द, मेरे कानों में दर्ज हो जाते थे। सू-सू जाने के लिये माँ को जगाने को होता मैं, बेड पर ही फ्रीज हो जाता था-नाइट-लैंप की मद्धम रोशनी जैसे ही धुंधलाये उनके शब्द- -'मेरा... दोष... क्या... है?' -'नहीं जानता, (बताते भी कैसे आप, कुछ होते तब न...) -और अपना भी...'
शायद यह आप खुद अपने आप से लगातार पूछते रहे थे। ... जानता हूँ परुष, अक्खड़ जितने भी रहें हों आप... निदर्य नहीं हो सकते थे। तभी तो 'साथ' निभा रहे थे, अपनी अति सुघड़, संयत और अनिंद्य सुंदरी पत्नी का... लेकिन महसूस भी करते रहे थे कि 'साथ' के नाम पर कहीं सिर्फ़ औपचारिकताएँ ही तो नहीं निभाई जा रही! ... यह निर्वाह ज़्यादा हुआ या निर्वाह के नाम पर अन्याय? वैसे एक तरह से देखा जाए तो आखिर क्यों कोई पति, सिर्फ़ इसलिए अपनी पत्नी का साथ निभाने के लिए बाध्य हो, क्योंकि वह सारे दुर्गुणों से रहित है?
तो शादी? ...
वह बाध्यता थी।
(जो अपने हाथों में नहीं, उसके लिए क्या किया जा सकता है।)
लेकिन प्यार बाध्य होकर नहीं किया जा सकता! ... बेशक, पत्नी का पूरा दर्जा दिया जा सकता है।
उस पद्मिनी के साथ सुबह-शाम और रातें बितानी कैसे मुमकिन है जो यारबाश दोस्तों की महफिलों में बेलजियम-कटग्लास के छलकते पेगों और नॉनवेज जोकों वाले कहकहों के बीच से, चुपचाप उठ कर अपने बेडरूम में मिश्र भैरवी की ठुमरी सुनते हुए मेघदूत पढ़ना ज़्यादा पसंद करती हो... माणिक झील में, फिशिंग के लिये गए, आपके कांटे में फंसी, छटपटाती मछली को देख कर जिसकी आंखें छलछला आती हों और तंदूरी-मुर्ग बनने से पहले, पंख नोचे जाते मुर्गे की फड़फड़ाती चीख की याद भर जिसे, सजे-सजाए डाइनिंग टेबुल से भाग कर वाश-बेसिन में उल्टियाँ करने पर मजबूर कर जाती हो। ... (पर दावत का तो सारा मजा किरकिरा...)
इतनी भव्यता, इतनी तरलता और छुईमुई कोमलता को कहाँ तक फिट कर पाते आप अपनी शानदार, अलमस्त दिनचर्याओं में! इस इतनी भव्यता को तो बस पूजा जा सकता है! ... सच-सच बताइए, आपने कभी सोचा तो होगा ही कि काश! ये किसी और की पत्नी होतीं और आप दिल खोलकर सराहते उन्हें...
× × × -'बोलो... क्या... करूं?' ...
उन्होंने उत्तर देने की जगह मन ही मन शपथ ली होगी-...
आप नहीं... मैं ही कुछ करूंगी-
दोनों अभिशप्त हो, इससे अच्छा, एक तो शापमुक्त हो। ...
और सचमुच एक रात मुझे आपके पास दुबका कर, सूर्योदय से पहले चुपचाप अस्त हो गई थी मां।
जानता हूँ, आप रोए थे, उनके प्यार में न सही, सम्मान में। थोड़ी-सी आत्मग्लनि में भी। बराबरी की हंसी, कहकहे, शिकार, आखेट का साथ (वह भी एक दो नहीं चौबीसो घंटे का) , भले न हो पाया हो लेकिन सम्मान तो करते थे पदमिनी का! शायद सोच रहे हों आप उन क्षणों में कि कोई और रास्ता नहीं तलाशा जा सकता था क्या! जल्दबाजी कर दी पद्मिनी ने!
लेकिन अब तो खाली पिंजरा छोड़ कर उड़ गई थी मां!
आपने वह खाली पिंजरा कबाड़ में फेंका नहीं, अपने पास बड़े जतन से रख लिया। पद्मिनी अब सिर्फ़ एक स्मृति थी आपके लिए. ... स्तब्ध कर देने वाली स्मृति! ...
आपने बहुत कोशिश की होगी सर, पता लगाने की, जानने की कि आखिर कहीं भी हों, तो—कहाँ और कैसे रहना चाहेंगी वे... पद्मिनी। कुछ कर नहीं उठाते आप उनकी 'अन्य' सारी इच्छाओं की पूर्ति के लिए! बहुत कुछ करना चाहते थे, आप उनके लिए.
कहीं, आपको मुक्त कर गईं, इस एवज में तो नहीं! ...
छिः, क्या कह गया मैं! ... लेकिन सचमुच कहीं आप उनके सामने खुद को छोटा बौना तो नहीं महसूस करते थे? ... ये सब मेरे फितूर भी हो सकते हैं! ... बहरहाल, सच तो यह है कि आप पद्मिनी के लिए ही लगातार सोचते रहे थे।
मैं भी सर अक्सर यही सोच पड़ता हूँ कि क्या सचमुच माँ कहीं होंगीं! ... मेरे बारे में जानती या मुझे देखती भी होंगीं! मेरे कयास ढेर सारी बेतरतीबियों में छितर-बितर जाते हैं... और फिर जवाबों के मिलने से माँ तो नहीं मिल सकती न! जवाब, जवाब है, मां, माँ है। कभी-कभी चीख कर सोचता हूँ, काश उनका मृत शरीर ही तीसरे, चौथे किसी नदी, नहर में उतर आया होता तो मैं एक सदमे के धचके के बाद, उससे उबर भी लिया होता। एक बड़ी ग्रंथि से मुक्ति मिल गई होती। कितना मर्मांतक है यह खयाल कि मेरी मां, कहीं हो भी सकती हैं, नहीं भी हो सकतीं।
विश्वास कीजिए, अगर कभी वह मुझे मिलीं भी तो मैं उन्हें कभी माफ नहीं करूंगा, रो चाहे जितना लूं उनके साए में। कैसे छोड़ गई हांंगीं वे मुझे! ...
आपकी खुशियों की खातिर? ...
और मेरी खुशी? ...
(ये पॉइंट नोट किया जाए मी-लॉर्ड! क्योंकि यहाँ आकर हम पिता-पुत्र प्रतिद्वन्द्वी हो जाते हैं...)
लेकिन आप हैं कि अपनी जिद पर अमादा। एक अक्खड़ विश्वास, आपके तेवर के अनुकूल कि आप मेरे नुकसान की भरपाई कर के रहेंगे। ... और मल्लिका-मॉम पहचानती हैं, आपके हर संकेत को। जानती हैं कि सर निरंजन मानसिंह तक पहुंचने के सारे रास्ते उनके बेटे सौमित्र मानसिंह से होकर ही जाते हैं। इसलिए मेरे रहने तक, चाय बागानों के बीचो-बीच सफेद क्राइस्थम-सा खिला अपना बंगला, सरगर्मियों से खदबदाता रहता है। फ्रेंच-शिफॉन के रेशमी आभारंगों वाली साड़ियों में, मल्लिका मॉम मेरी आवभगत में जीजान से जुटी, खानसाने से लेकर धोबी, हजाम और माली को एक पर एक हुक्मनामे जारी किये जा रही होती हैं कि अभी तक सौमित्र बाबा के बाथरूम में फ्रेश टॉवेल नहीं डाली गई... आज तो फालसे के बैंजनी शरबत के लिऐ बोला था न! नहीं, शाम की चाय के साथ सौमित्र के लिये पालक-पैटिस मैं खुद बनाऊंगी... और आप सर! अति गद्गद्, अति कृतज्ञ, (अपराध बोध से मुक्ति की राहत से) आंखें मूंदे मुस्कुरा रहे होते हैं... कि सौमित्र बेटे को 'मां जैसी' कौन कहे, माँ से भी बढ़कर प्यार करने वाली 'मॉम' मिल गई.
अपराध मुक्त हुए आप! यूं अपराध आपने किया ही कहाँ था-पदमिनी ने तो स्वयं अपना निर्णय चुना था। आपने तो यथासंभव सारे अधिकार दिए थे उन्हें और स्वयं भी सारे दायित्व निभाते गए थे, पति के. सिर्फ़ प्यार पर ही वश नहीं था कि उठा कर दे देते। पदमिनी स्वयं तो मुक्त हो गई थी, लेकिन आपको तो आकंठ बेचैनी में डुबो गई थीं। मुक्त तो आपको मल्लिका मॉम ने किया था, उस गिल्ट से। इस तरह, व्यवहार में अतिकुशल, चपल और परिहासी होने के साथ-साथ जी-जान से मुझ पर खुलेआम प्यार लुटाने वाली मल्लिका-मॉम मेरी माँ ही तो हुईं... लौटा दी आपने मेरी मां... भरपाई कर दी। ... यह सोच कर अति संतुष्ट और लुब्ध हुए आप सर, निश्चिंत भी... (कि तभी मैं भाग लिया)
दरअसल कई बार, चाह कर भी आपसे नहीं पूछ पाता कि 'मां' जैसा क्या होता है डैड? या फिर 'मां' जैसा कुछ होता भी है क्या! ... यह नहीं कह पाता आपसे कि आप इस भ्रम से मुक्त हो जाइये कि किसी को भी उसकी माँ का विकल्प प्रदान किया जा सकता है और फिर, आपके पास जो है, पिता वाला प्यार... वह तो आप पूरा का पूरा मुझे दे ही रहे हैं... कभी आंखों से बरज कर, कभी मूंछों में छुपा कर, कभी बनावटी लहजे में तुर्श होकर और कभी सीधे-सीधे हड़क कर-हाँ, पिता का प्यार... 'पिता जैसा' प्यार नहीं...
फिर माँ वाले प्यार के लिए इतनी जबरदस्ती क्यों? जैसे 'प्यार' नहीं कोई शिकार हो और उसे पकड़ पाने की कोशिश में मल्लिका-मॉम बेदम हुई जा रही हों। ... सनी! कोई तकलीफ तो नहीं! देखो, शरमाना नहीं... आखिर मैं तुम्हारी मॉम हूँ बेटे! मुझसे नहीं कहोगे तो किससे कहोगे... और फिर यह तुम्हारा घर है, यहाँ संकोच की ज़रूरत नहीं...
ठठा कर हंस पड़ने को जी चाहता है सर! कहना चाहता हूँ कि मैं शरमा नहीं, उकता रहा हूँ आपकी अतिरिक्त देखभाल से मॉम! आपको कैसे समझाऊँ कि कोई भी मां, छुट्यिं में घर आये अपने बेटे को यह कह कर दिलासा नहीं देती होगी कि यह उसका ही घर है। शरमाये नहीं। बहुत मन है, आप दोनों की ही उपस्थिति में यह कहने का कि क्या ज़रूरी है, हर सम्बंधों पर बाकायदे टैग चिपकाये ही जायें, कुत्तों की नस्ल की तरह? ...
कितना अच्छा होता यदि 'मॉम' , 'मां जैसी' के नैतिक-भार से मुक्त होकर, मुझे सर मानसिंह की पहली पत्नी के पुत्र के रूप में ही स्वीकारतीं और उसी रिश्ते की शिष्टता निभातीं! मैं भी, मॉम को पिता की दूसरी पत्नी के रूप में भी तो सम्मान दे सकता था। प्रदत्त रिश्तों के बीच, हमारे आपसी बर्ताव शायद ज़्यादा सहज होते। कम से कम जो है, उसे झुठलाने और जो नहीं है, उसे मनवाने की जबरदस्ती तो हममें से कोई नहीं कर रहा होता। ... और आप भी डैड, मेरे प्रति, मॉम की उठापटकों की बदौलत, उन्हें हासिल हुए, जाली प्रमाण-पत्रों को, असली समझने के भ्रम न पालते होते!
हफ्ते भर पहले का ही टिकट बुक करा लेने के पीछे मेरी यही टीस, यही आक्रोश, या बगावती तेवर कह लीजिए... जो नहीं कह पाया, उसे कर दिखाने का। कहता कैसे कि डैड! मुझे माँ न होने का उतना दुःख नहीं, जितना माँ की भरपाई की होती हास्यास्पद कोशिशों का...
घर में रहते हुए कई बार अपनी देखभाल का तामझाम इतना अखरा कि मन किया जोर से चीख पड़ूं-स्टॉप ऑल दिस नॉनसेंस-
लेकिन जानता हूँ, उससे, आप समझते तो थोड़ा ही लेकिन उदास बहुत ज़्यादा हो जाते और मैं, आपके गुस्सैल तेवर तो बड़े फख्र से बर्दाश्त कर लेता हूँ लेकिन आपके उदास होने की कल्पना मेरे लिये दुसह्य है।
समझ लीजिए कि आप मुझे डपट कर, एक जोरदार 'हम्म' के हवाले से जितना प्यार करते हैं, उससे कम प्यार मैं आपको अपने घुन्नेपन से नहीं करता, यह जानते हुए भी कि मैं आपके और अपनी माँ के प्यार की निशानी नहीं हूँ। किन्हीं घटित, संयोगों की देन हूँ। ...लेकिन मैं उस पिता के वीर्य की उपज तो हूँ ही जो मुझे बेइंतहा प्यार करता है।
रुकिए, कहीं इसलिए भी तो नहीं आप मुझे इतना प्यार करते? कि आपके अंदरूनी प्रकोष्ठों में यह अपराधबोध बरकरार है कि मेरे जीवन का सबसे बड़ा लॉस ही आपकी ज़िन्दगी के सबसे बड़े लाभ की शर्त रहा है?
छिः, फिर आपका दिल दुखाया। ... बगावती बाप का बगावती बेटा जो ठहरा। लेकिन अगर आप ऐसा सोचते भी हैं तो मेरे लिये सबसे बड़ी आश्वस्ति यही कि मेरा नुक्सान, हमेशा आपके जेहन में दर्ज है। शुक्र गुजार हूँ मैं आपका सर! डैड!
दरअसल मैं आपसे तो नहीं लेकिन उस पिंजरे से डरता हूँ जिसमें आप अपने आपको बंद किये रहते हैं। वैसे पिंजरे तो हम सभी के पास हैं डैड, जिसमें हम अपने-अपने दुःखों को चुभकारते, पुचकारते दाना-चुग्गा देते रहते हैं। शायद मॉम के पास भी होगा ही होगा। ... क्या ही अच्छा होता, हम अपने-अपने पिंजरे की चाबियाँ एक दूसरे को सुपुर्द कर पाते कि लो यह मेरे वाले अपना पिंजरे को भी खोल देने की कोशिश और जिम्मा तुम्हारा-हम मुक्त कर दें, एक दूसरे को...
तो... सॉरी डैड! विश्वास दिलाता हूँ, अब कभी आपकी आवाज इस तरह बीचोबीच भर्रा कर गुम नहीं होने दूंगा... और हाँ, छुट्यिं के सात दिन पहले ही भाग लिया था न, तो सेकेंड सेमेस्टर के बाद जब आऊंगा तो पूरे एक हफ्ते ज़्यादा रहकर आपके (और अपने भी) नुकसान की भरपाई करूंगा।
शर्त सिर्फ़ एक, छोटी सी, इस बार उस घर में बस एक जोड़ी पिता-पुत्र होंगे, एक जोड़ी पति-पत्नी... इनके बीच कोई माँ (जैसी) नहीं होगी।
बेशक, मल्लिका-मॉम तो रहेंगी ही, उनके बिना घर कैसा!