पिग / राजकमल चौधरी

Gadya Kosh से
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रूपा ने उसी तरह सारी बातें स्वीकार कर लीं, जैसे वह नदी में बहती हुई पत्थर की एक चट्टान है। और लुढ़कती चली जा रही है बगैर रोए, बगैर किसी से दिलासा मांगे हुए। बहुत ही शांत और सहनशील ढंग से रूपा ने सारा दुःख बर्दाश्त कर लिया था। इतना सारा दुःख...इतना सारा दुखद संयोग।

बेगमपुर चायबगान के मैनेजर ने मनोहरलाल के नाम थोड़े-से शब्दों में लिखा था-पिछले चौबीस अक्टूबर को जलपाईगुड़ी के रास्ते में कंपनी की ट्रक उलट गई। खड्ड में चली गई। ट्रक में कंपनी के लेबर सुपरवाइजर, बंसीलाल भी थे। उन्हें सिर में चोट आई। अस्पताल में उसी दिन लगभग चार बजे शाम को बंसीलाल... चार बजे शाम को उस दिन रूपा रेडियो स्टेशन में स्त्रियों के कार्यक्रम-विभाग की महिला प्रोड्यूसर श्रीमती पुष्पा पंतजली के सामने बैठी थी हाथ पर हाथ डाले हुए, क्योंकि पूरे चक्रव्यूह में पुष्पा ने पेंच पर पेंच लगाकर गिरहबंदी कर दी थी। अब वह खुद अगर रूपा के पक्ष में नहीं आ जाए और गिरहें नहीं खोले तो रूपा चक्रव्यूह के बाहर खड़ी धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे का तमाशा देखती रह जाएगी और उसकी आंखों के सामने उसकी कल्पना में सजाया गया ताजमहल बिखर जाएगा। चार बजे शाम को रूपा अपनी नौकरी का ताजमहल खड़ा करने की कोशिश में लगी हुई थी। उसने अपने सारे हथियार पुष्पा दीदी के सामने डाल दिए थे। अपने सारे हथियार और हैंड बैग, जिसमें वह हमेशा बंसीलाल की एक छोटी-सी तस्वीर रखती है।

बंसीलाल उससे बड़ा उसका सगा भाई था। चौबीस अक्टूबर को जलपाईगुड़ी के अस्पताल में उसका देहांत हो गया। बेगमपुर चायबगान के मैनेजर का लंबा टेलिग्राम मनोहरलाल को मिला था।

टेलिग्राम पढ़कर उसने एक बार दोनों हाथ जोड़कर, आसमान की ओर देखते हुए प्रणाम किया। अपने इकलौते बेटे का मृत्यु-संवाद सुनकर उसकी आंखों से एक बूंद भी आंसू नहीं टपका। बरामदे के एक कोने में खड़ी रूपा कपड़े बदल रही थी। शाम हो गई है, अभी एक बार पुष्पा दीदी के घर जाना होगा।

“किसका तार आया, बाबूजी?”

“...”

“भैया ने भेजा है?”

“...”

“भैया ने ही भेजा होगा! वह आ रहा है क्या?...कब तक आएगा? किस ट्रेन से?”

“हां!”

“भैया किस ट्रेन से आएगा?”

“...”

रूपा कपड़े बदल रही थी। टेलिग्राम लिफाफे में डाकर मनोहरलाल ने टेबुल पर रख दिया और बाथरूम में चला गया। जब तक रूपा घर में रहेगी, वह बाथरूम से बाहर नहीं आएगा। आने का साहस नहीं होगा उसे! टेबुल पर पड़ा टेलिग्राम पढ़ने के बाद रूपा की क्या हालत होगी। वह किस तरह चीखने-पुकारने लगेगी, कब बेहोश होकर फर्श पर बिखर जाएगी, मनोहरलाल जानता है। रूपा की चीख-पुकार और बेहोशी सहने की ताकत उसमें नहीं है। वह बेहद कमजोर आदमी...

रूपा ने पेटीकोट का इजारबंद बांधते हुए महसूस किया, वह मोटी होने लगी है। देह पर जगह-बेजगह मांस के पिंड जमने लगे हैं, परत पर परत चर्बी चढ़ी आ रही है। ‘लेकिन ऐसा होने से नहीं होगा!‘ उसने हैंगर के पास दीवार में लगे हुए शीशे के सामने खड़े होकर अपने-आपको बताया। टेलिग्राम टेबुल पर पड़ा था और रूपा की बिल्ली एक किनारे बैठी हुई इंतजार कर रही थी। रूपा तैयार होगी और बिल्ली को गोद में उठाकर एक मिनट प्यार करेगी। कहेगी, ‘टा-टा, मैडम नू, टा-टा!‘ और मैडम ‘नू‘ को अपने पलंग में डालकर बाहर चली जाएगी। अपने घर से बाहर!

यह बिल्ली और बिल्ली का यह कार बंसीलाल का दिया हुआ है। ‘मैडम नू‘ उसे अपने चाय बगान के एक अंगरेज अफसर से मिली थी। तीन किलोग्राम की नन्हीं-सी स्याह बिल्ली, माथे पर एक बड़ा-सा सफेद धब्बा। रूपा के माथे पर या देह पर कहीं कोई सफेद धब्बा नहीं है। बंसीलाल की इस बिल्ली की ही तरह वह काली स्याह है। नन्हीं-सी नहीं, लेकिन बहुत बड़ी और बहुत भरी हुई है रूपा।

मनोहरलाल ने घाटशिला जंगल की एक आदिवासी संथाल औरत से शादी की थी। उस जंगल में और कोई औरत उसे मिली नहीं। मनोहरलाल ईसाई था और जंगल विभाग में बहत्तर रुपए चौदह आने माहवारी तनख्वाह की नौकरी करता था।... कुल छह वर्षों तक वह संथाल औरत मनोहरलाल के साथ जंगल में बने जंगल महकमे के सरकारी क्वार्टर में रही। फिर एक दिन अपना कमरा अंदर से बंद करके उसने किरासन तेल का पीपा अपनी देह पर ढाल लिया। वह जलकर मर गई।

बंसीलाल पांच साल का था, रूपा दो साल की। अपनी मां का चेहरा रूपा को याद नहीं। बंसीलाल को याद था। वह रूपा से अक्सर कहता था, ‘हमारी अम्मा अपने क्वारेपन में घाटशिला जंगल की सबसे खूबसूरत संथाली मानी जाती थी। बड़े-बड़े अंगरेज अफसर, शिकारी और राजा-महाराज हमारी अम्मा की तस्वीरें खींचकर अपने साथ ले जाते थे।...वह चाहती तो पच्चीस बीघा धनहर खेत और जोड़े बैलों वाले किसी भी संथाली किसान से शादी कर सकती थी...चांदी के जेबरों से लद सकती थी। लेकिन उसने इस बदमाश आदमी के साथ भाग जाना ज्यादा अच्छा समझा! ....और इसीलिए वह मर गई। आग में जलकर भसम हो गई, हमारी अम्मा!‘ बंसीलाल अपने पिता से बेहद नफरत करता था।

उसे इस बात की तकलीफ थी कि वह मनोहरलाल का बेटा है। अपनी वाल्दियत से वह इनकार करना चाहता था।...लेकिन यह संभव नहीं था। यह संभव नहीं हुआ। मैट्रिकुलेशन से लेकर बी.एस.सी. तक की हर परीक्षा के ‘फार्म‘ में, नौकरी के लिए दिए गए हर आवेदन-पत्र में उसे लिखना पड़ा, ‘मैं बंसीलाल, वल्द मनोहरलाल, मजहब से ईसाई, कुमकुम दास लेन, पटना का निवासी...!‘ बेगमपुर चायबगान में नौकरी मिलते ही वह मनोहरलाल से अलग हो गया। बंसीलाल ने तय किया, अब वह इस जिंदगी में दुबारा इस आदमी का मुंह नहीं देखेगा। बेगमपुर जाने से दो दिन पहले, उसने रूपा को पास बुलाकर कहा, “तू चलेगी मेरे साथ?...चलेगी तू?” रूपा के लिए बंसीलाल से बेशकीमती चीज दुनिया में दूसरी कोई नहीं है। वह इतनी बड़ी और इतनी समझदार अपने बड़े भाई के चलते ही हो सकी है, मनोहरलाल के चलते नहीं। अपनी स्त्री की मृत्यु के बाद उसे अपने लड़के और अपनी लड़की से कोई मतलब नहीं रह गया था। उसने घाटशिला जंगल की नौकरी छोड़ दी थी और वापस पटना अपने घर चला आया था।

कुमकुमदास लेन का यह सदियों पुराना मकान मनोहरलाल की एकमात्र पूंजी रह गई है। उसके पूर्वज पटना की नवाबी सल्तनत में मुंशी थे। एक ही ढंग की तीन हवेलियां उन लोगों ने बनवाई थीं। आगे लंबा दालान, मेहराबदार दरवाजे और नक्काशी के फूलों से भरी हुई खिड़कियां...लेकिन गदर के बाद और नवाबी सल्तनत के लूट जाने के बाद कायस्थ मुंशियों की यह खानदारी हवेली धीरे-धीरे टूटने-बिखरने लगी। पत्थर की दीवारों में दरारें फटती रहीं। सात परदों में कैद रहने वाली औरतों ने बाजार में निकलना शुरू किया। फारसी के बदले घर के बच्चे अंगरेजी के सबक याद करने लगे। जब दो हवेलियां और चारों ओर की जमीन बिक गई, जब मुहल्ले के हलवाई कुमकुमदास ने डेढ़ लाख रुपयों के पुराने कर्ज की वसूली के लिए जजी अदालत में मुकदमा दायर किया, मुंशी आफताब राय एक सुबह चुपचाप अपन हवेली से इक्के पर चढ़कर निकले और एक क्रिश्चियन मिशन के चर्च में जाकर उन्होंने बपतिस्मा ले लिया। वे ईसाई हो गए।

मुंशी आफताब राय की तीसरी पीढ़ी में मनोहरलाल का जन्म हुआ। हवेली का आधा हिस्सा बिक गया था और वहां एक सोडावाटर का कारखाना खुल चुका था। कुमकुमदास लेन में घुसते हुए हवेली के लंबे दालान को तोड़कर छोटी-छोटी दुकानें उठ खड़ी हुई थीं। अब एक आंगन बचा था और चार कमरे बच गए थे। दो कमरे नीचे, दो कमरे ऊपर और एक घुमावदार सीढ़ी, जिसमें जगह-जगह से ईंट खिसक गई थीं।

नीचे के दोनों कमरे और आंगन किराए पर लगा दिए हैं। एक कमरे में चटर्जी बाबू का परिवार रहता है। दूसरे कमरे में एक मिड वाइफ रहती है, मिसेज डी. (धनवन्ती) सिंह। बंसीलाल के चले जाने से सीढ़ियों के पास का कमरा खाली हो गया है। अब उसमें कोई नहीं रहता। बंसीलाल के जाने के वक्त यह कमरा जिस हाल में था, अब भी उसी तरह है। रूपा कभी उस कमरे का ताला नहीं खोलती। उसे डर लगता है। वह सोचती है, एक बार इस कमरे में चली गई, तो वह पागल हो जाएगी। हो सकता है, यह वहम हो। लेकिन रूपा डरती है। इसी कमरे में उसने अपने बड़े भाई के साथ उम्र के बीस-बाइस साल काटे हैं... घने अंधेरे और कभी-कभी हल्की रोशनी के बीच बाइस लंबे साल।...

महीने के शरू में किराएदारों से मिले हुए सारे रुपए कहीं रास्ते में गंवाकर मनोहरलाल देशी शराब में डूबा हुआ अपने घर वापस आया है और बरामदे में कंबल बिछाकर सो गया है। रूपा जगी हुई है। बंसीलाल गुस्से में है। कभी कमरे में आता है, कभी बरामदे में चक्कर काटता रहता है। रूपा जगी हुई है और इतिहास की तारीखें याद कर रही है... कब सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया... रजिया बेगम किस दिन गद्दी पर बैठी...कब शुरू हुई पानीपत का तीसरी लड़ाई... किस तारीख को मुंशी आफताब राय चर्च में जाकर ईसाई हो गए...और किस मौसम में, किस साल, किस दिन, कितने बजे उसकी मां अपने देह में माचिस लगाकर मर गई...! कुछ तारीखें तो दुनिया के इतिहास की तारीखें होती हैं और कुछ तारीखें आदमी के अपने इतिहास की तारीखें। कुछ नाम सिर्फ अपने नाम होते हैं। कुछ नाम और कुछ देह...!

रूपा को अपनी मां का चेहरा याद नहीं है, नाम मालूम नहीं है। बंसीलाल कहता है, ‘हमारी अम्मा देखने में एकदम तुझ जैसी थी। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, लेकिन हमारा नौकर राम कहता था, रूपा बिटिया एकदम अपनी मां पर गई है! लेकिन हमारी अम्मा का नाम मुझे मालूम नहीं। बाबूजी कभी उसका नाम नहीं लेते!‘ लेकिन रूपा अपनी मां का नाम जानना चाहती है। क्या नाम था उसका? संथाली लड़कियों की तरह ही उसका एक छोटा-सा नाम होगा-सुखिया, फलवा, चांदो, चंपी या रूपाली...कोई भी एक छोटा-सा नाम। किसी फूल का नाम, किसी चिड़िया का, किसी नदी का नाम...!

नाम मालूम हो जाए तो अपनी मां के चेहरे की वह कल्पना कर लेगी। आंखें बंद करके रूपा अपनी मां को एक बार देख लेगी। अपनी मां को वह देखना चाहती है।... ...बंसीलाल सारी रात बरामदे में टहलता रहता है, क्योंकि कल से उसका इम्तहान है। और उसका पिता बरामदे में लाश की तरह सोया हुआ है और उसके खर्राटों की तेज और भद्दी आवाज उसे परेशान करती है।

इसी परेशानी में और घने अंधरे में कितने साल बीत गए। बंसीलाल नौकरी पर चला गया। रूपा इंटर पास करके बी.ए. में आ गई है और अब कोई एक पार्ट-टाइम नौकरी तलाश रही है। मनोहरलाल रोज रात में शराब पीकर वापस आता है और चुपचाप बरामदे में कंबल डालकर सो जाता है। रूपा अपने कमरे में अकेली पड़ी रहती है। जाने से पहले बंसीलाल ने हर तरह से कोशिश की थी कि रूपा उसके साथ बेगमपुर चली आए। मगर वह नहीं गई। ‘बाबूजी को अकेला छोड़कर, हम कहीं नहीं जाएंगे।‘ उसने अपने बड़े भाई से कहा था, और इतना कहकर फफक-फफककर रोने लगी थी। दरअसल वह बंसीलाल के साथ जाना चाहती थी। चाहती थी कि बंसीलाल उसे जबरदस्ती रिक्शे में बैठा ले और स्टेशन तक खींच लाए। वह जाना चाहती थी। लेकिन बंसीलाल उस पर जबरदस्ती करना नहीं चाहता था। उसने जबरदस्ती नहीं की।

नीचे के दो कमरों के किराए से कुल चालीस रुपए आते हैं। इतने रुपयों से बाप और बेटी का परिवार चलाया नहीं जा सकता। रूपा आदिवासी लड़की है, इसलिए उसे पढ़ाई के लिए सरकारी ‘स्कालरशिप‘ मिलता है। यह ‘स्कालरशिप‘ नहीं मिले, तो रूपा का पढ़ना-लिखना बंद हो जाएगा...। मनोहरलाल कोई नौकरी नहीं करता। जब बहुत गुस्से में होता है, तो शुद्ध अंगरेजी में कहता है, ‘आई ऐम ए पैरासाइट! मैं पैरासाइट हूं!‘ पहले रूपा ‘पैरासाइट‘ का मतलब नहीं समझती थी। बाद में, उसने अंगरेजी शब्द-कोश में इसका अर्थ देख लिया। मनोहरलाल ‘पैरासाइट‘ है, यह समझकर रूपा बहुत खुश नहीं होती। उदास हो जाती है।

रूपा उदास होकर पेटीकोट का इजारबंद बांधती है और फूलदान से उतारकर गुलाब के दो बासी फूल अपने जूड़े में लगाती है। कल शाम को नीचे के किराएदार चटर्जी साहब की बड़ी लड़की, अंजली उसे गुलाब का एक गुलदस्ता दे गई थी। बोली थी, ‘हमारा घर में रखने से बाबूजी हमको मारेगा।‘ बोलकर हंसने लगी थी अंजली की हंसी में इस बात की जरा भी कहीं कोई लाज-शरम नहीं है कि ये फूल उसे राममोहन ने दिए हैं। रामामोहन ने या किसी भी दूसरे लड़के ने। अंजली में कहीं कोई लाज-शरम नहीं है।

लेकिन मोहनलाल ने उसे बताया क्यों नहीं कि बड़े भैया ने क्या टेलिग्राम दिया है? क्यों नहीं बताया? बाहर जाने के लिए तैयार होकर रूपा टेबुल के पास चली आई। ‘मादाम नू‘ उसकी ओर प्यार से देखती हुई और जम्हाइयां लेती हुई एक किनारे बैठी है। मनोहरलाल बाथरूम में है।... नीचे मिड वाइफ के कमरे में एक औरत चीख रही है। पेट के दर्द से चीख रही है। रूपा उसकी चीख समझती है। श्रीमती डी. सिंह को पहचानने में उसे कभी कोई भूल नहीं हुई।...लेकिन, मनोहरलाल ने इस बात की कभी कोई कोशिश नहीं की, उसने कभी चाहा नहीं कि यह पेशा करने वाली बदमाश औरत धनवन्ती सिंह कमरा खाली करके चली जाए। मौके-बेमौके वह मनोहरलाल को चार-छह रुपए देती रहती है। उसका मुंह बंद रखने के लिए। चटर्जी बाबू कमरा छोड़कर चले जाना चाहते हैं, लेकिन कहां जाएंगे? इतना सस्ता और इतना बड़ा कमरा उन्हें पूरे शहर में कहीं नहीं मिल सकेगा। वे चुप रहते हैं। उनकी सदा-बीमार पत्नी और उनके छह-सात बच्चे सभी चुप रहते हैं। श्रीमती डी. सिंह के कमरे में बिस्तरे पर, फर्श पर, बरामदे में जवान औरतें चीखती रहती हैं। और नवाबी सल्तनत के मुंशियों की इस खंडहरनुमा हवेली के इस टुकड़े में रहने वाले सारे आदमी चुप रहते हैं, पुलिस में रिपोर्ट नहीं करते।

रूपा को गुस्सा आता है। अभी तुरंत सीढ़ियों से उतरकर वह सीधे धनवन्ती सिंह मिडवाइफ के कमरे में जाएगी और कहेगी, ‘कल सुबह तक यह कमरा खाली कर दो! जहन्नुम में चली जाओ! नहीं जाओगी तो मैं पुलिस बुला लाऊंगी।...तुम्हें थानेे भिजवा दूंगी।‘ रूपा को जब कभी गुस्सा आता है, वह पुलिस का नाम लेती है। दूसरा कोई नाम उसकी जुबान पर नहीं चढ़ता। पुलिस के सिवा और किसी की जिम्मेदारी नहीं कि उसे सुरक्षा दे और शांति से जीते रहने की स्वाधीनता! ईश्वर को वह नहीं जानती है, किसी भी प्रकार के ईश्वर को नहीं। धर्म-कर्म से उसका कोई लगाव नहीं है। सरकार उसे पढ़ने-लिखने के लिए आर्थिक सहायता देती है, और पुलिस इस बात की गारंटी देती है कि कोई भी आदमी उसकी मर्जी के बगैर उसके सामने अश्लील नहीं हो सकता है। कोई आदमी नहीं।...मनोहरलाल और बंसीलाल तक नहीं। एक बार अगर हथियारबंद पुलिस उसकी जान नहीं बचाती, तो मुरादपुर मुहल्ले के शोहदे-बदमाशों ने उसे किसी काम का नहीं रखा होता। उसे रिक्शे से खींचकर वे लोग गली के अंदर लिए जा रहे थे। मगर संयोग से पुलिस की गाड़ी उसी गली में आ गई। पुलिस जुए के किसी अड्डे पर छापा मारने जा रही थी।...रूपा बेबस थी, लेकिन जरा भी घबराई हुई नहीं थी। पुलिस को देखकर गुंडे-बदमाश भागने लगे तो रूपा ने एक साथ दो बदमोशों को पकड़ लिया। पुलिस के आ जाने तक वह उन दोनों को अपनी बांहों की गिरफ्त में दबाए रही।

रूपा ताकतवर लड़की है। जंगल की आग और जंगल का जादू अब भी उसकी नसों में कायम है। इसीलिए... शायद इसीलिए उसने टेबुल पर पड़ा बेगमपुर कंपनी के मैनेजर का लंबा टेलिग्राम पढ़ लिया और चुपचाप खड़ी हो गई। बेहोश नहीं हुई। धनवन्ती सिंह की मरीज औरतों की तरह फर्श पर ढेर होकर तड़पने-छटपटाने नहीं लगी। एक बार उसने बाथरूम के बंद दरवाजे की तरफ देखा, फिर अपनी आंखें बंद करके पत्थर बन गई। टेलिग्राम का कागज उसने लिफाफे में डालकर उसी तरह टेबुल पर रख दिया। बंसीलाल की बिल्ली टुकुर-टुकुर उसकी तरफ देख रही थी। और दिन यह ‘मादाम नू‘ के पास आ जाती थी। उसके पांवों पर लोट-पोट होने लगती थी। लेकिन आज वह चुपचाप एक किनारे बैठी हुई है...। उस एक क्षण में रूपा को महसूस हुआ कि बिल्ली टेलिग्राम की बात समझ रही है। समझ नहीं रही है तो इतनी दूर क्यों बैठी हुई है? रूपा की गोद में उछलकर क्यों नहीं आ जाती?

बिल्लियां समझती हैं। आदमी के मन की बात समझती हैं। रूपा का मन इस ‘मादाम नू‘ ने समझ लिया है। उसी दिन समझ लिया था, जब वह पहली बार रूपा की बांहों में आई थी।...पिछले साल दिसंबर में बंसीलाल पटना आया लेकिन अपने घर में नहीं ठहरा। स्टेशन के पास एक सस्ते-से होटल में ठहरा था और महिला कॉलेज के फाटक पर रूपा की प्रतीक्षा करता रहा था। वह अपने घर नहीं आया। मनोहरलाल का मुंह वह नहीं देखेगा। किसी हाल में नहीं। रूपा अपनी जिद पर अड़ गई,

“तुम्हें घर चलना होगा। होटल में क्यों रहोगे?”

“जिद मत करो! तुम मेरे कहने से बेगमपुर नहीं आई, मैं तुम्हारे कहने से कुमकुमदास लेन के उस मुसाफिरखाने में नहीं जाऊंगा!” बंसीलाल ने जवाब दिया और एक रिक्शा रोकने लगा। बंसीलाल इतने ही दिनों में एकदम बदल गया है। पहले से खूबसूरत और बातूनी! एक सिगरेट फेंकता है, दूसरा जलाता है। कहता है, साल-भर बाद वह सुपरवाइजर हो जाएगा। तनख्वाह बढ़ेगी। तीन कमरों का फ्लैट मिलेगा। जिंदगी बदल जाएगी साल-भर बाद। रिक्शे पर रास्ते-भर बंसीलाल अपनी नौकरी और बेगमपुर के लोगों के बारे में बातें करता रहा। रूपा का बड़ा भाई अब अफसर हो गया है, छोटी-सी तनख्वाह का छोटा-सा अफसर!

बंसीलाल अपनी बहन को अपने होटल के कमरे में ले आया। कमरे में काले ऊन के लच्छों का एक छोटा-सा गोला बिस्तरे पर पड़ा हुआ था। ऊन का गोला एक छोटी-सी बिल्ली। रूपा ने आगे बढ़कर ‘मादाम नू‘ को गोद में उठा लिया, जैसे पारिवारिक स्त्रियां अपने पहले बच्चे को दुलराती हैं, रूपा ऊन के उस गोले को प्यार करने लगी। बंसीलाल ने कहा, “यह बिल्ली तुम्हारे लिए लाया हूं। इसका नाम मैंने रखा है ‘मैडम नू‘। पसंद है?”

रूपा जब तक होटल के इस कमरे में रही, बिल्ली उसकी बांहों में चिपकी रही। उसने रूपा को पहचान लिया। रूपा ने उसे पहचान लिया। लेकिन यह टेलिग्राम पढ़ लेने के बाद रूपा इस बिल्ली को सम्हालना नहीं चाहती, भूल जाना चाहती है।

उसने टेबुल से अपना हैंड बैग उठाया और होटल की सीढ़ियां उतरकर नीचे गली में खो गई। कुमकुमदास लेन ज्यादा लंबी-चौड़ी नहीं है। गली पार करते ही सीधी सड़क मिलती है-अशोक राजपथ। सामने पटना कॉलेज की पुरानी पुर्तगाली स्टाइल की बड़ी बिल्डिंग है और बिल्डिंग के बाद गंगा नदी।

मोड़ पर आकर रूपा एक रिक्शे में बैठ गई और बोली, “राजेन्द्र नगर चलो!” पुष्पा पतंजली अब राजेन्द्र नगर की एक नई बिल्डिंग में रहती है। नई बिल्डिंग में और नई ‘फिएट‘ गाड़ी में रहती है। पुष्पा रेडियो स्टेशन की सामाजिक व्यवस्था और आंतरिक राजनीति में मजबूती से दखल रखती है। उसके बगैर रेडियो स्टेशन के अहाते में लगाए गए ‘युकीलिप्टस‘ के लंबे, सुडौल पेड़ों में पत्तें तो हिलते हैं, लेकिन उसके बगैर छोटे अफसर का तबादला नहीं होता...किसी नई लड़की को काम नहीं मिलता। पुष्पा एक ऐसी औरत है, सारे लोग पीठ पीछे जिसकी बुराई करते हैं, लेकिन अपना भारी-भरकम शरीर और बड़ी मुश्किल से सीखे गए अंगरेजी लहजों और विलायती कायदों में लिपटी हुई, जब वह आपके टेबुल पर आ खड़ी होती है, तो कमरे में बैठे हुए सारे लोग तरोताजा मुस्कुराहटों से उसका स्वागत करते हैं। स्वागत और सत्कार...‘सत्कार के बल पर ही दुनिया टिकी हुई है,‘ पुष्पा पतंजली मौके-बेमौके कहती है और खुद भी लोगों का स्वागत-सत्कार करना जानती है। जानती है कि कौन आदमी किस तरह के सत्कार से खुश होता है...।

इसीलिए जब पहली बार रूपा उसके पास आई थी, उसके टेबुल के सामने रखी कुर्सी पर सहमती हुई बैठ गई थी तो पुष्पा ने एक नजर उसकी तरफ देखकर ही रूपा का सारा किस्सा जान लिया था। मनोहरलाल की इकलौती बेटी रूपा!... बेहद काला चेहरा, कदंब के फूलों की तरह मोटे-मोटे होंठ, घनी बरौनियां...बड़ी-बड़ी आंखें, उदास और थकी हुई...और काले पत्थर की तराशी गई चट्टान-जैसी सुडौल देह...पुष्पा जान गई थी एक ही नजर में कि रूपा को नौकरी मिल जाएगी।

लेकिन उसने रूपा को यह बात उस वक्त नहीं बताई। वह अपनी फाइलें देखती रही। काफी देर बाद वह रूपा के साथ रेडियो स्टेशन के अहाते से बाहर चली आई। बोली, “मैं कोशिश करूंगी।... जब तुम मेरी सबसे नजदीकी दोस्त की चिट्ठी ले आई हो, मैं जाकर कोशिश करूंगी कि नौकरी तुमको मिल जाए।...मगर थोड़ी-बहुत कोशिश तुमको खुद भी करनी होगी।”

“मैं क्या कर सकती हूं?...मेरे पास तो कोई ‘सोर्स‘, कोई सिफारिश नहीं है। आपके सिवाय मुझे रेडियो के किसी अफसर से जान-पहचान नहीं है। मैं क्या कोशिश करूंगी?” रूपा ने अपना पल्लू सम्हालते हुए कहा। पुष्पा प्यार और अपनेपन की निगाहों से रूपा को देख रही थी...रूपा का शरीर जिसमें काले रंग के सिवाय, कहीं कोई दाग नहीं है...कोई ऐब नहीं। रूपा को नौकरी मिल जाएगी। सारा सिलसिला जोड़कर पुष्पा दीदी ने देख लिया है।

नौकरी देने की ताकत जिसके पास होती है, वह कुल तीन ही चीजों पर ध्यान देता है-सिफारिश, काम-काज का अनुभव और सत्कार! तीनों चीजें रूपा के पास हैं। वह बचपन से ही ‘स्टेज‘ का काम करती रही है। हीरोइन कभी नहीं बनी, क्योंकि वह गोरी नहीं थी, काली थी। लेकिन रंगमंच के लोग उसे हमेशा बंगाल की तृप्ति मित्रा जैसा सम्मान देते हैं। रूपा ऊंचे दर्जे की कलाकार है।...‘राजमुकुट‘ नाटक में वह पन्नादाई का रोल करती है और ‘मर्चेण्ट ऑफ वेनिस‘ में पशिया का रोल! रूपा हंसी-खुशी के रोल पसन्द नहीं करती, उदासी और दुःख-दर्द पसन्द करती है, खासकर ‘स्टेज‘ पर। वैसे अपनी जिन्दगी में भी वह ज्यादा चंचल और ज्यादा मौज-मजा करने वाली लड़की नहीं है। ‘स्टेज‘ पर काम करती है, मगर ‘स्टेज‘ की लड़की नहीं है, कुमकुमदास लेन की लड़की है। अनछुई और अनपढ़ लड़की...।

नौकरी उसे जरूर मिल जाएगी-पुष्पा पतंजली ने आखिरी बार फैसला किया। फिर उसने कहा, “देखो, रूपा, तुम कल शाम के वक्त मेरे घर आ जाओ। सात बजे के बाद...।”

बीस अक्टूबर की शाम को ठीक सात बजे रूपा राजेन्द्र नगर पहुंच गई थी पुष्पा पतंजली के फ्लैट में। आज ही उसे बंसीलाल का एक लम्बा पत्र मिला था कि उसने एक पहाड़ी लड़की को अपने यहां खाना पकाने और घर सम्हालने के लिए रख लिया है और अब वह ‘क्रिसमस‘ में पटना आएगा। बंसीलाल ने अपने पत्र में बार-बार अपनी ‘मैडम नू‘ को याद किया था और यह भी लिखा था कि यह बिल्ली बड़ी भागमन्त है। जिसके पास रहेगी, उसे आसमान में उठा देगी।...‘मैडम नू‘ की मां की बदौलत ही पीटर साहब एक पांव के लंगड़े और आधे पागल होने के बावजूद चाय बगान में इतने बड़े अफसर बने हुए हैं। पीटर साहब ने बड़े प्यार से यह बिल्ली बंसीलाल को दी थी। इसलिए, रूपा, तू ‘मैडम नू‘ को सम्हालकर रखना। थोड़े ही दिनों में ‘मैडम नू‘ बच्चे देने लगेगी। एक बच्चा तू मेरे पास भेज देना। यह ऊंचे नस्ल की बिल्ली है। पीटर साहब ने मुझे बताया है कि इसी ‘कारबियाजू‘ नस्ल का एक बिल्ला पटना शहर में डॉक्टर कृष्णन के पास है। प्यारी रूपा, तू ‘मैडम नू‘ को डॉक्टर कृष्णन के पास ले जाना। वे इसे देखते ही पहचान लेंगे।...रूपा जब पुष्पा पतंजली के यहां पहुंची थी तो वह इसी चिट्ठी और इसी बिल्ली के बारे में सोच रही थी।

वह ‘मैडम नू‘ के साथ डॉक्टर कृष्णन के घर आएगी, तो क्या कहेगी? कैसे कहेगी? रूपा अपने मन में एक वाक्य बना रही थी और शरमा रही थी। वह एक अपरिचित व्यक्ति, डॉक्टर कृष्णन से कह रही थी, “मेरी बिल्ली...यह मैडम...डॉक्टर साहब, यह ‘काबिजू‘ नहीं, नहीं, ‘कारबियाजू‘ नस्ल की बिल्ली है और आपके यहां एक...आपके यहां एक...बिल्ला है...!” नहीं, रूपा, यह बात नहीं कह पाएगी। ऐसे ही वाक्यों के कारण वह कभी किसी नाटक में नायिका, प्रेम करने वाली नायिका का अभिनय नहीं कर सकी है। उसके मुंह से ऐसे वाक्य निकल ही नहीं पाते। होंठ थरथराने लगते हैं, माथा शर्म से झुक जाता है और वह पत्थर की चट्टान बन जाती है। ‘मैं तुमसे प्यार करती हूं, राजकुमार! ...मैं तुम्हारी हूं।‘ ...‘मत जाओ, मुझ अनाथ को त्यागकर मत जाओ, मेरे नाथ! मैं मन, वचन, कर्म से तुम्हारी हूं!‘ ‘...ये हवाएं, मौसम और ये बलखाती हुई नदी...आओ, हम इस बजरे में बैठकर सारी रात बातें करते रहें, आओ, मेरे सपनों के बादशाह, आओ।‘

रूपा ये वाक्य अपने जीवन में कभी इस्तेमाल नहीं कर सकेगी। कभी नहीं! वह डरती है। वह इस तरह के हर वाक्य से डरती है। बंसीलाल कभी-कभी मजाक में कहता था, ‘विधाता ने जरा-सी गलती कर डाली, नही ंतो तू मर्द होती, रूपा! और जवांमर्द होकर तू फौज में चली जाती।‘ रूपा किसी अंग से मर्द नहीं है, हर बात में और हर बहाने में लड़की है। डील-डौल उसके शरीर का विशाल जरूर है। वह मोटी नहीं हुई है, सुडौल है। लेकिन लड़की है। सिर्फ एक बात में वह लड़की नहीं है कि उसे अपने बाबूजी और अपने बड़े भाई के सिवाय किसी दूसरे मर्द से कोई लगाव नहीं है, न प्यार का, न व्यापार का।

रूपा इस मानी में मर्द है कि वह किसी भी गैर मर्द से किसी भी चौराहे पर नहीं मिलती। वह डरती है। रूपा के इस डर को ‘साइकैट्री‘ या ‘साइको-एनेलिसिस‘ की पद्धति से समझा नहीं जा सकता। उसका यह डर दिमाग का डर नहीं है, शरीर का डर है। अपने बचपन की कोई घटना उसे याद नहीं है। जब से वह होश में आई है, वह इसी टूटी-बिखरी हुई हवेली के दो कमरों में अपने बीमार बाप और अपने समझदार भाई के साथ रहती आई है। कभी कोई घटना-दुर्घटना उसके जीवन में नहीं हुई। मां मर चुकी थी। मनोहरलाल नौकरी गंवाकर पटना आ गया था और उसके शाम के दो रुपए सैंतीस पैसे की एक ‘देशी बोतल‘ खरीदकर अपने बीते हुए दिनों को याद करता था। बंसीलाल तेज लड़का था। एक आदिवासी उपमंत्री से उसकी गहरी दोस्ती हो गई। उपमंत्री महोदय के साथ वह अक्सर दौरे पर जाने लगा। कालिज के दिनों में वह विद्यार्थियों का नेता बन गया। और रूपा हमेशा अपने बड़े भाई के बगल में दुबकी-दुबकी-सी खड़ी रही।

अब भी वह दुबकी हुई खड़ी है। बंसीलाल नहीं है, फिर भी वह बंसीलाल के बगल में खड़ी है और शरमा रही है। कदम्ब के फूलों की तरह लाल होठ, ...रेहू मछली की तरह आंखें...और आंखों में उदासी की नीली रेखाएं।

पुष्पा पतंजली के ड्राइंगरूम-कम-बेडरूम में दरवाजे के पास रखी स्टील की गोल कुर्सी पर रूपा चुपचाप बैठ गई थी। कमरे में कोई नहीं था। बाथरूम से पानी गिरने और साबुन लगाने की आवाज आ रही थी। रूपा चुपचाप बैठ गई। और तब कमरे के उस अकेलेपन में उसे महसूस हुआ कि बंसीलाल उसकी कुर्सी के बगल में खड़ा है। उसे ऐसा महसूस हुआ। वह कांप गई और बर्फ की तरह ठंडी हो गई। अपना ध्यान बंटाने के लिए वह ‘मादाम नू‘ के बारे में सोचने लगी। ‘मादाम नू‘ एक बिल्ली...।

बाथरूम का दरवाजा खोलकर पुष्पा कमरे में आ गई। वह सिर्फ एक तौलिया लपेटे हुए थी, और बहुत बदसूरत दिख रही थी। उसके समूचे शरीर पर चर्बी की मोटी-मोटी परतें जगह-बेजगह लटक रही थीं। सीना गोश्त के सूखे हुए लोथड़े की तरह था। रूपा ने अपनी आंखें बन्द कर लीं।

“तुम जरा बैठो, रूपा! मैं तैयार होती हूं। बाहर चलना है।” पुष्पा पतंजली ने कहा और तैयार होने के लिए अंदर के कमरे में चली गई। रूपा आंखें बंद किए बैठी रह गई। अपने भाई के बारे में सोचने लगी...रूपा बेगमपुर क्यों नहीं गई? रूपा अपनी बिल्ली को डॉक्टर कृष्णन के पास क्यों नहीं ले जाती है? मनोहरलाल बरामदे के कम्बल बिछाकर सो रहता है और रूपा अपने कमरे में इतिहास की तारीखें याद करती रहती है... कब लार्ड बायरन ने अगस्टा की मौत पर आंसू बहाए?...और किस तारीख को बादशाह शाहजहां ने अपने ताजमहल को और आकाश में तैरते हुए शरद पूर्णिमा के चांद को और पास बैठी हुई जहांआरा को अलविदा कहा, और आंखें बंद करके सो गया?

लगभग आधे घंटे बाद अपने पूरे मेक-अप में पुष्पा ड्राइंगरूम में आई। बोली, “चलो, रूपा! तुम्हें अपने ‘बॉस‘ से मिलाते हैं?”

“बॉस से?”

“हां !”

“क्या मतलब...?”

“हां, वही मतलब! ...उनसे एक बार तुम्हारा मिलना जरूरी है! शीतल बाबू चाहेंगे, तो कल सुबह तुमको ‘एपायंटमेंट‘ मिल जाएगा!”

“वे नाराज तो नहीं होंगे?”

“मैं साथ चल रही हूं!”

“फिर भी...।”

“फिर भी क्या? मैंने उनसे कह रखा है।...वे कोठी में हमारी राह देखते होंगे। ही इज ए ग्रेट मैन!”

“चलिए।”

रूपा ने हिचकते हुए कहा, “चलिए, मगर मैं दरअसल उनके यहां जाना नहीं चाहती।...खैर चलिए।” यह उत्तर सुनकर पुष्पा रुक गई। एक ही क्षण में उसके तेवर बदल गए। अभी वह प्यार कर रही थी। और अभी वह दुश्मन बन गई। उसने आंखें टेढ़ी करके कहा, “तुम जाना नहीं चाहतीं, तो मत जाओ।...क्योंकि, भाई, बात साफ है। तुम शीतल बाबू के पास जाओगी अपनी मर्जी से और नहीं जाओगी सो भी अपनी मर्जी से। तुम्हारी मर्जी नहीं हो, मत जाओ!”

दोनों औरतें बाहर बरामदे में चली आईं। एक गाड़ी नीचे खड़ी थी। ड्राइवर इंतजार कर रहा था। रूपा यह गाड़ी पहचानती है। बैरिस्टर रहमान की गाड़ी पहचानने में रूपा भूल नहीं कर सकती। पिछले दो-तीन वर्षों में पचीसों बार बैरिस्टर रहमान सबसे अगली कतार में बैठकर रूपा को नाटक करते देख चुके हैं। नाटकों, थिएटरों में काम करने वालों को इस गाड़ी कार नंबर तक याद है। वे नाटक करने वालों को प्रोत्साहन देते हैं।

रूपा और पुष्पा पतंजली गाड़ी की पिछली सीट पर बैठ गई। पुष्पा ने कहा, “मेरी गाड़ी गैरेज में है। इसीलिए रहमान साहब की गाड़ी मंगवा ली है।...क्यों रूपा, क्या तय किया तुमने? चलोगी?”

फ्रेजर रोड के चौराहे पर आकर रूपा ने पुष्पा दीदी का हाथ थामते हुए कहा, “आज नहीं जाऊंगी।...आई एम सॉरी! ...आज जा नहीं सकूंगी!”

रूपा नहीं गई। गाड़ी से उतरकर उसने रिक्शा किया और अपने घर चली आई। मनोहरलाल घर में नहीं था। दोनों कमरों की चाबियों का गुच्छा आलमारी पर रखा हुआ था। ‘मादाम नू‘ चटर्जी साहब के घर में थी, रूपा की गन्ध पाते ही ऊपर चली आई। वह डरी हुई थी...यानी वह बिल्ली। उसकी निगाहें चंचल थीं। उछलकर ‘मादाम नू‘ रूपा की गोद में चढ़ गई और चिपक गई। उसका कलेजा धड़क रहा था। ‘क्या बात है?...आज खाने को कुछ नहीं मिला? कुछ नहीं?...दूध नहीं पिया है?‘ रूपा ने उससे पूछा। वह बोली कुछ नहीं। आश्वस्त होकर वह बिल्ली धीरे-धीरे आंखें बंद करके रूपा की गोद में ही सो गई।

तब रूपा को ध्यान आया कि नीचे चटर्जी साहब के कमरे में अंजली और उसकी मां दोनों एक ही स्वर में रो रही थीं। शायद चटर्जी साहब भी घर में ही थे।...पुष्पा दीदी और उसके ‘बॉस‘ शीतल बाबू की सारी बात भूलकर रूपा उसी तरह ‘मादाम नू‘ को गोद में लिए सीढ़ियों से नीचे उतर आई। दबे-पांव बरामदे में आकर खड़ी हो गई। लम्बा बरामदा है अंधेरे में डूबा हुआ। धनवन्ती देवी अपने कमरे में है, रेडियोग्राम बजा रही है। गजल का एक टुकड़ा रूपा के आस-पास तैरन लगा-

....रात की झील अंधेरे में खो गई साथी, नींद के अबाबील पंख फैलाए हुए...

रेडियोग्राम बज रहा है। और चटर्जी साहब अपनी लड़की और अपनी पत्नी से कह रहे हैं कि वे कल सुबह की ट्रेन से वृंदावन चले जाएंगे और सन्यास ले लेंगे! अपनी मूर्ख पत्नी और अपनी पतित बेटी का मुंह नहीं देखेंगे।...छिः छिः बैकुंठपुर के चटर्जी परिवार की लड़की का यह चरित्र! हे दुर्गा, हे काली महारानी, यह पाप! मेरे ही घर में!

रूपा दबे पांव ऊपर चली आई। अपने बरामदे में रेलिंग के पास कुर्सी डालक बैठ गई। मनोहरलाल नहीं आया है। वह आएगा तो रूपा उससे कहेगी कि रेडियो स्टेशन वाली नौकरी उसे नहीं मिलेगी। उसके पास कोई सिफारिश नहीं है, इसलिए नहीं मिलेगी। पुष्पा पतंजली वाली बात वह अपने पिता को नहीं बताएगी। बताने का कोई फोयदा नहीं है।...थोड़ी देर में रूपा ने मिसेज डी. सिंह की जोरदार आवाज सुनी। वह बरामदे में आकर खड़ी हो गई थी और चटर्जी साहब की बीवी का नाम लेकर कह रही थी, “अंजू को मेरे घर में ले आओ, मंदिरा भाभी झूठी शर्म मत करो! घबराने की कोई बात नहीं। दो दिन में ठीक हो जाएगी।” यह सुनकर रूपा ने एक बार बंसीलाल के कमरे की ओर देखा। कमरे में बड़ा-सा ताला लगा हुआ था। दरवाजे की बगल में दीवार पर बंसीलाल ने शालीमार-पेण्ट से एक तस्वीर बनाई थी-‘सोया हुआ ईसा मसीह‘। तस्वीर अब धुंधली पड़ गई थी, लेकिन मसीहा के चेहरे पर अब भी नींद की वही करुणा कायम थी।

वह अपने कमरे का ताला खोलकर अन्दर चली गई। आज उसे खाना पकाने की तबीयत नहीं हुई। मनोहरलाल अगर खाना चाहेगा तो उसे दो रुपए दे देगी होटल में खाने के लिए। खुद नहीं खाएगी। भूख मर गई है... ।

कोई भूख नहीं है उसे। वह सोच रही है। जैसे कई लोग नींद में सपना सोचते हैं। सपना देखते हैं। अंजली धीमे कदमों से अपनी देह थामे हुए धनवन्ती देवी के कमरे में जा रही है। आसमान में लाल-हरे, रंग-बिरंगे बैलून उड़ रहे हैं, पैराशूटों की तरह और हर बैलून में पुरुष-शरीर के एक अंग-विशेष की तस्वीर बनी हुई है...! रूपा का अपना कमरा अचानक बहुत बदसूरत और डरावना हो गया है। मनोहरलाल कब आएगा...और कब आएगा बंसीलाल?

रेडियो स्टेशन के नाटक-विभाग की यह नौकरी रूपा के लिए जरूरी है। उसे पैसे चाहिए। वह अच्छी तरह आधुनिक ढंग से सजी-संवरी जिन्दगी बिताना चाहती है। नौकरी मिल जाए, तो वह कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी कर सकेगी और अपने पैसों से खरीदी गई ‘रा-सिल्क‘ की साड़ी भी पहन सकेगी।

...लेकिन अगले दिन वह रेडियो स्टेशन गई तो उसे मालूम होने में देर नहीं लगी कि तस्वीर का रुख बदल गया है। पुष्पा दीदी उसके खिलाफ नहीं हुई है मगर रेडियो स्टेशन का मौसम उसके खिलाफ हो गया है। इलाहाबाद की एक बंगाली लड़की ने रूपा के साथ ही ‘इण्टरव्यू‘ दिया है और अब ऊंट उसी ललिता सेन गुप्ता के करवट बैठने लगा है। अपनी कुर्सी की पीठ पर टिककर, चौबीस अक्टूबर की शाम को चार बजे पुष्पा पतंजली ने कहा, “लेकिन रूपा! मैं क्या करूं...मैंने तो तुम्हें रास्ता दिखाया था...!”

यह उत्तर सुनकर रूपा ने आंखें बन्द कर ली थीं। टेबुल पर वह थोड़ा आगे झुक गई थी। आंखें उसकी बन्द थीं, मगर उसने अचानक महसूस किया कि एक आदमी...एकदम अजनबी, जिसका सिर कुचला हुआ है, पूरे चेहरे पर खून, मिट्टी और गोश्त के लोथड़े जम गए हैं, आंखें दस-बारह इंच बाहर निकल आई हैं...एक आदमी उसके बगल में आकर खड़ा हो गया है...। वह आदमी नहीं है, लाश है...मगर वह रूपा की बगल में खड़ा है, रूपा के कन्धे पर उसने अपना दायां हाथ डाल दिया है।

बेगमपुर चाय बगान के मैनेजर का टेलीग्राम पढ़ने के बाद अब रूपा अपने घर से बाहर आ गई और रिक्शे पर बैठकर पुष्पा से मिलने के लिए राजेन्द्र नगर आने लगी तो रास्ते में उसने तय किया, पिछले दिन चार बजे शाम को बंसीलाल ही रेडियो स्टेशन में उसकी कुर्सी के बगल में खड़ा हुआ था, बंसीलाल उसका भाई। वह कांप गई...एक अव्यक्त भय से वह कांप गई। उसकी इच्छा हुई कि वह रिक्शा वापस करके अपने घर चली जाए और मनोहरलाल के गले से लिपटकर रोने लगे। कुमकुमदास लेन और राजेन्द्र नगर में कुल डेढ़ मील की दूरी है। लेकिन इसी डेढ़ मील के वक्त में रूपा एक साथ कई स्थितियों और कई इच्छाओं से गुजर गई। उसने महसूस किया कि उसने कोई कपड़ा नहीं पहन रखा है, वह एकदम नंगी होकर रिक्शे पर बैठी है और धीरे-धीरे उसका पेट और हाथ-पांव फूलते जा रहे हैं। वह नंगी है और फूल-फूलकर तेल के पीपे की तरह मोटी होती जा रही है। लेकिन धीरे-धीरे वह दुबली होने लगी। और तब उसे याद आया कि वह बेगमपुर चाय बगान के मैनेजर को एक चिट्ठी लिखे कि बंसीलाल की सारी किताबें और सारा समान उसके पास भेज दिया जाए। बंसीलाल दुनिया-जहान की अश्लील से अश्लील किताब अपनी घरेलू लाइब्रेरी में रखता था। रूपा वे सारी किताबें पढ़ चुकी है जिसके हर पृष्ठ पर एक नंगी औरत सोई रहती है और एक नंगा मर्द सोया रहता है। किताबों के अलावा एक खूबसूरत पंलग था बंसीलाल के पास। पी. डब्ल्यू. डी. के एक अमीर ठेकेदार ने यह गंगा-जमुनी पलंग बंसीलाल को ‘उपहार‘ के रूप में दिया था। यह पलंग बंसीलाल को अपने प्राणों से भी प्यारा था। उसकी पट्टियां और मेहराबों पर ‘कामसूत्र‘ की दृश्यावली को सिलसिले से अंकित किया गया था। वह बेगमपुर गया तो अपने साथ यह पलंग भी ले गया।

रूपा की इच्छा हुई कि वह इसी वक्त कोई ट्रेन पकड़कर सीधे बेगमपुर चली जाए और बंसीलाल के क्वार्टर में जाकर उस पलंग पर सो जाए...और सोई रह जाए हमेशा के लिए। जगे रहना उसे पसंद नहीं है। वह एक बीमार बच्चे की तरह उस पलंग की पट्टियां पकड़कर, तकिये में मुंह छिपाए हुए सो जाना चाहती है... लेकिन रिक्शा राजेन्द्र नगर में पहुंच गया और रिक्शेवाले को एक अठन्नी देकर रूपा ड्राइंगरूम में चली गई।

पुष्पा पतंजली अखबार पढ़ती हुई उसी का इंतजार कर रही थी। रूपा को देखते ही बोली, “चलो, पहले रहमान साहब के यहां चलते हैं। फिर शीतल बाबू के यहां जाएंगे।” रूपा सोफे पर बैठ गई। बेबस-सी आवाज में बोली, “पुष्पा दी, एक गिलास पानी चाहिए मुझे!...बहुत प्यास लगी है।”

रूपा रात में लगभग तीन बजे अपने घर लौटी। नीचे के दोनों कमरों में बत्तियां जल रही थी। बरामदे में नर्स-जैसी दिखती हुई एक दुबली-पतली औरत हाथ धो रही थी। चटर्जी साहब बहुत धीमे लहजे में अपनी पत्नी से बातें कर रहे थे।...रूपा तेज कदमों से सीढ़ियां चढ़ती हुई ऊपर चली गई।

मनोहरलाल बरामदे में रेलिंग के पास कुर्सी पर बैठा हुआ सिगरेट पी रहा था। पास में एक तिपाई पड़ी थी। रूपा ने करीब जाकर देखा, तिपाई पर ‘सोलन‘ का एक अद्धा और एक अधखाली गिलास पड़ा हुआ है। लेकिन वह अपने मुंह से कुछ नहीं बोली। आलमारी पर से उसने चाबियों का गुच्छा उठा लिया और बंसीलाल का कमरा खोलने लगी। मनोहरलाल उसकी ओर देख रहा था। बरामदे में अंधेरा था, लेकिन उसकी दोनों आंखें चमक रही थीं। इस चमक में हिंसा नहीं थी, दुःख भी नहीं, सिर्फ गुस्सा था। किसी दूसरे पर नहीं अपने-आप पर गुस्सा...।

वह बंसीलाल के कमरे में चली गई। अंधेरे में वह सोए हुए ईसा मसीह को देख नहीं पाई। कमरे में आकर उसने बिजली का स्विच जला दिया! उजाला फैल गया। उजाला और गंध। बहुत दिनों से बंद कमरे की काली गंध रूपा को परेशान करने लग गई। लेकिन वह कमरे में खड़ी रही, कमरे की एक-एक चीज देखती रही। दीवारों पर पुराने कैलेंडर जिनमें फिल्म-अभिनेत्रियों की तस्वीरें...एक कोने में किताबों और जूतों का रैक। बंसीलाल के पुराने जूतों के कई जोड़े रैक में पड़े हैं। बीच कमरे में एक गोल टेबुल है जिस पर पुरानी स्टाइल का एक ‘गिटार‘ रखा हुआ है टेबुल पर, फर्श पर, किताबों पर, हर जगह धूल की परतें जम गई हैं।

रूपा की इच्छा हुई कि झाडू ले आए और कमरा झाड़-पोंछकर अपना बिस्तरा इसी कमरे में लाकर यहीं सो जाए। काफी देर तक वह कई बातें सोचती हुई बीच कमरे में खड़ी रही। फिर अपनी साड़ी के आंचल से कुर्सी झाड़कर वह बैठ गई। उसने अपनी आंखें बंद कर लीं और रेडियो स्टेशन के बारे में सोचने लगी। सांची स्तूप के दरवाजे की शैली में रेडियो स्टेशन का दरवाजा बनाया गया है। ऊपर काली तख्ती पर सफेद अक्षरों में लिखा गया है- ‘सत्यमेव जयते।‘ लाल बजरी की एक पतली सड़क अंदर अहाते में चली गई है। फिर एक गोल पार्क है और पार्क के बाद आधुनिक डिजाइन के गोल स्तूपों वाली दो बिल्डिंगें पास-पास। रूपा इन बिल्डिंगों के आकार-प्रकार के बारे में सोचने लगी। लेकिन तभी उसकी आंखें खुल गईं। एक आदमी उसकी कुर्सी के पास खड़ा था।

“तुम सोए नहीं अब तक?” रूपा ने घूमकर पूछा और कुर्सी से उठकर खड़ी हो गई। मनोहरलाल ने उसका सवाल सुना ही नहीं, क्योंकि वह खुद एक सवाल लेकर आया था। उसने पूछा, “तुमने टेलीग्राम पढ़ा था?”

रूपा यह सवाल रात के इस वक्त सुनना नहीं चाहती थी।

“पढ़ लिया था।”

“बंसीलाल, माई सन...मेरा बेटा मर गया। ही वाज किल्ड।”

“...” वह चुप रही।

“तुम उसकी बहन थीं!”

“यस!”

“वह मर गया...”

“यस, बाबूजी!”

“ही वाज किल्ड! उसे मार डाला गया...मैं जानता हूं, ही वाज किल्ड!”

“...”

रूपा कमरे से बाहर चली आई। उसके पीछे-पीछे मनोहरलाल भी बदरामदे में आया। उसकी बातचीत खत्म नहीं हुई थी। तिपाई पर खाली बोतल और गिलास पड़ा हुआ था। रूपा ने गिलास और बोतल उठाकर आलमारी के अंदर रख दिया।

“ही वाज ए पिग!”

“कौन, बाबूजी?”

“बंसीलाल! वह सूअर की औलाद था।...ही वाज ए पिग!”

“मेरे भैया, बंसीलाल?”

“ही वाज ए पिग! ही वाज किल्ड! ...वह मारा गया। वह सूअर की औलाद...।”

इतना कहकर मनोहरलाल कुर्सी पर बैठ गया और चुप हो गया आलमारी बंद करके रूपा वापस, बंसीलाल के कमरे में चली गई।