पिघला हुआ शीशा / हरिनारायण सिंह 'हरि'
सुमंत बहुत दिनों से ससुराल नहीं जा सका था। इस बीच जब-जब ससुराल से बुलावा आया था, उसका मन साले-सलहज से मिलने के लिए आतुर हो उठा था। लेकिन साला जब बीमार हैं, तो देखने के लिए नहीं जाना सुमंत का मन बहुत व्यग्र हो उठा।
ससुराल पहुँचने पर साले के दोनों बच्चे आह्लाद पूर्वक सुमंत से लिपट गये। सुमंत ने बच्चों को प्रेम से गले लगाया। पुचकारा, प्यार किया। बड़े लड़के ने दौड़कर अंदर माँ को खबर दी और कहा "माँ फूफाजी आये हैं। अच्छा-सा नाश्ता तैयार करो।"
माँ ने पूछा "राजू! फूफाजी तुमलोगों के लिए क्या लाये हैं?"
राजू मायूसी से बोला " वह तो खाली हाथ आये हैं।
राजू की माँ ने राजू के पापा को सुनाया "सुनते हैं? आपके बहनोई आये हैं। खाली हाथ दौड़े चले आये। यह भी नहीं हुआ कि बच्चों के लिए मिठाई और बीमार साले के लिए थोड़ा फल वल ले आते। यह भी नहीं सोचा कि पड़ोस के लोग क्या सोचेंगे कि भाई ने सुषमा को किस दरिद्र के घर में ब्याह दिया।"
सलहज के शब्द खंड-खंड उड़-उड़ कर सुमंत के कानों से टकराये और पिघले शीशे की तरह हृदय में उतर गये। वह सोचता रहा हमारे प्रेम-सम्बंध आज इतने खोखले हो गये हैं कि उनका मूल्यांकन भेंट उपहारों से किया जाने लगा है।
वह भारी कदमों से उठा और साले से मिलने की औपचारिकता निबाह तुरंत अपने घर को वापस हो गया।