पिच डॉक्टरिंग और चुनाव इंजीनियरिंग / जयप्रकाश चौकसे

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पिच डॉक्टरिंग और चुनाव इंजीनियरिंग
प्रकाशन तिथि : 27 नवम्बर 2012


भारत में टेस्ट क्रिकेट शायद सौ साल पूरे कर चुका है और प्रारंभ से ही जानकार कहते रहे हैं कि हमें तेज गति वाले विकेट बनाने चाहिए, क्योंकि अधिकांश देशों में विकेट इस तरह बनाए जाते हैं कि पहले तीन दिन बल्लेबाज और तेज गेंदबाज को समान अवसर मिलते हैं और आखिरी दो दिनों में स्पिनर को पिच से मदद मिलती है। हर देश अपनी जमीन और जलवायु के मद्देनजर पिच बनाता है। भारतीय जलवायु में केवल ठंड के महीने उपयुक्त हैं, परंतु जब से क्रिकेट व्यवसाय में बदला है, यह खेल बारहमासी हो गया है। तपते हुए जेठ में भी खेला जाता है। भारत के शक्तिशाली और अत्यंत धनाढ्य क्रिकेट बोर्ड ने हमेशा स्पिनर्स को लाभ देने के लिए विकेट बनाए हैं। नतीजा यह रहा है कि हम विदेशों के स्विंग को मदद करने वाले मैदानों पर मार खाते रहे हैं और भारत में जीत जाते हैं। इसीलिए हमें अपनी गली का शेर कहा जाता है।

विगत इंग्लैंड के दौरे में हम सारे मैच हार गए, अत: भाग्य से सुपरसितारा बने कप्तान महेंद्र सिंह धोनी और हमारे क्रिकेट बोर्ड ने बदले की भावना से पिच हमेशा से बदतर बनाए। टेलीविजन पर आंखों देखा हाल बयान करने वाले भी हर मुकाबले को प्रतिष्ठा का खेल बना देते हैं और खेल का वर्णन जंग की तरह किया जाता है। मुंबई टेस्ट में इंग्लैंड के स्पिनर और बल्लेबाज हमसे बेहतर साबित हुए और अपने अनुकूल गैर-खेलभावना की 'डॉक्टर्ड पिच' का पैंतरा उलटा पड़ गया।

इस तरह के उलटफेर को राष्ट्रीय अस्मिता से जोडऩा अनुचित है। राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी महत्वपूर्ण चुनाव के पहले अपने को लाभ पहुंचाने वाली 'प्रचार पिच' बनाते हैं। प्राय: चुनाव परिणाम उलटफेर लिए होते हैं और सारी कसरत व्यर्थ जाती है। जो लोग खेल में या जीवन में येन-केन-प्रकारेण जीतना चाहते हैं, वे सारे नियम, न्याय और परंपराओं को ताक पर रखकर 'अनुकूलता' रचते हैं। नेता वोट बैंक के भरम को मजबूत बनाते हैं और जनता भी जाति तथा धर्म के आधार पर भेडिय़ा धसान करते हुए 'वोट बैंक अवधारणा' को मजबूत बनाने की दोषी है। देश में व्याप्त तमाम दोषों के लिए व्यवस्था और नेताओं के साथ ही अधिकांश आम आदमियों ने यह खेल रचा है और लोकप्रियता की खातिर किसी केजरीवाल या अन्ना में यह साहस नहीं कि आम जीवन में नैतिकता के निर्वाह या राष्ट्रीय चरित्र के लिए आवाज उठाएं।

बहरहाल, हर व्यक्ति अपने लिए और अपने परिवार के लिए अनुकूलता की पिच रचता है और यह स्वाभाविक भी है। परंतु इस कार्य में राष्ट्र की हानि या अधिकतम के प्रति क्रूरता शामिल है तो यह 'डॉक्टर्ड अनुकूलता' उतनी ही गलत है, जितनी कि खेल के मैदान पर धूल धूसरित पिच बनाना। यह सारी चीजें 'चुनाव इंजीनियरिंग' के रूप में राजनीति में दिखाई देती हैं। सभी जगह उलटफेर भी हमें सबक नहीं सिखाता। क्रिकेट अपने न्यायपूर्ण ढंग से खेले जाने के कारण ही जैंटिलमैन का खेल कहलाता है और अंग्रेजी भाषा में किसी भी क्षेत्र में अन्याय होने पर कहते हैं कि 'इट्स नॉट क्रिकेट'। क्रिकेट की भाषा और मुहावरों में हम देश के मौजूदा हालात का वर्णन कर सकते हैं। सभी क्षेत्रों में आड़े बल्ले से खेला जा रहा है और न्याय की बात करने वालों को 'अपने अंपायर' द्वारा 'एलबीडब्ल्यू' करार दिया जा रहा है। क्रिकेट पिच की तरह ही देश धूल धूसरित हो रहा है और अराजकता का वातावरण बनाकर तानाशाही के लिए 'अनुकूलता' रची जा रही है।

मुंबई टेस्ट में इंग्लैंड ने भारत को लंदन में बसे भारतीय मोंटी पनेसर द्वारा शिकस्त दी। लगभग डेढ़ सौ साल तक हुकूमते बरतानिया ने भारतीय लोगों की सहायता से ही भारत पर राज किया था। कोड़े भी भारतीय हाथों में थमाए थे और पीठ भी भारत की ही थी। शोषण करते हुए अपनी न्यायपूर्ण छवि की खातिर ही उन्होंने गांधीजी की हत्या का विचार कभी नहीं किया। इसीलिए किसी भी जंग में आपकी जीत आपके शस्त्र-साधनों के साथ ही दुश्मन के शस्त्र-साधन और नीति पर भी निर्भर करती है। इसी का पूरा विवरण मैंने अपनी किताब 'महात्मा गांधी और सिनेमा' में दिया है।

आज भारत में कपिल देव, सुनील गावसकर, सौरव गांगुली, सैयद किरमानी, राहुल द्रविड़, दिलीप वेंगसरकर, अनिल कुंबले सरीखे विलक्षण भूतपूर्व खिलाड़ी मौजूद हैं, परंतु क्रिकेट बोर्ड का नियंत्रण नेताओं या दोयम दर्जे के लोगों के हाथ में है। मौजूद संगठन में किसी के पास साहस नहीं है कि धोनी को पिच डॉक्टरिंग के लिए प्रताडि़त करे या सचिन तेंडुलकर से स्पष्टीकरण मांगे। ठीक इसी तरह राजनीतिक दलों में भी खुलकर विरोध करने वालों को दल से निकाल दिया जाता है। जो कुछ देश में और खेल मैानों पर हो रहा है, उसे इस तरह बयान किया जा सकता है कि 'इट्स नॉट क्रिकेट, इट्स नॉट लाइफ'।