पिताजी ने कहा था / बलराम अग्रवाल
पिताजी शरीर से पूरी तरह रुग्ण हो गए थे। इतने कि चल-फिर भी नहीं सकते थे। गोद में उठाकर उन्हें जहाँ बैठा दिया जाता, बैठे रहते। जहाँ लिटा दिया जाता, लेटे रहते। इधर से उधर और उधर से इधर करने के लिए मैं कभी उन्हें गोद में उठाता था तो कभी पीठ पर।
“मेरा यह जीवन सफल हुआ पिताजी!” एक दिन मैं उनसे बोला।
“किस तरह बेटे?” उन्होंने पूछा।
“आपकी सेवा का मौका पाकर।” मैं बोला।
“यानी कि तेरा जीवन सफल हो, इसके लिए मेरा अपाहिज और असहाय बन जाना जरूरी था।” वह सहज, परन्तु ढले-से स्वर में बोले।
“मेरा यह मतलब नहीं था पिताजी।” उनके इस आकलन पर मैंने शर्मिंदगी के साथ कहा।
पिताजी कुछ देर चुप रहे, फिर बोले,“सफल या असफल जीवन नहीं, जीवन-दृष्टि होती है बेटे। यह सब, जो तू कर रहा है, एक रोगी की तीमारदारी से ज्यादा और कुछ नहीं है। यह सब तो पैसे लेकर अस्पताल की नर्सें भी कर ही देती हैं…।”
मैं उनकी बातें सुनता रहा। मेरे कहने का मतलब वैसा कुछ नहीं था, जैसा कि पिताजी ने समझा था। लेकिन पिताजी जो कह रहे थे, वह भी बहुत सही बात थी।
“तू कह सकता है कि नर्सें सेवा कर सकती हैं, अपनापन भी जता सकती हैं; लेकिन वे वह संतोष नहीं दे सकतीं जो आदमी को अपने परिवारजनों या मित्रों की सेवा पाकर मिलता है।” पिताजी बात को स्पष्ट करते हुए बोले,“सच न होते हुए भी यह बात सच-जैसी लगती है क्योंकि अपने जीवन-स्तर और सोच को हमने इससे ऊपर उठने ही नहीं दिया है।”
पिताजी मेरे चेहरे पर नजरें गड़ाकर यह सब कह रहे थे। मैं ध्यान से उनका दर्शन सुनता रहा। इससे पहले इतना करीब होकर तो उन्होंने मुझसे कुछ कहा नहीं था।
“तू समझ रहा है न मेरी बात?” मुझे गुमसुम देखकर पिताजी ने पूछा।
“जी पिताजी, पूरी तरह।” मैं बोला।
“सेवा अलग तरह का धर्म है बेटे और पिछली पीढ़ी के अधूरे छूट गए कामों को आगे बढ़ाते रहना अलग तरह का।” आश्वस्त होकर पिताजी ने कहा,“अगर तूने वाकई मेरी बात समझ ली है तो मेरे बाद उस दूसरी तरह के धर्म को निभाने की कोशिश में लगे रहना…।”
इसके बाद कुछ-और नहीं बोल पाए थे वो। शायद जरूरत ही न समझी हो।