पिता-पुत्र रिश्तों की दास्तां / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 12 सितम्बर 2014
नसीरुद्दीन शाह के पिता पारंपरिक विचारों के उसूल पसंद मध्यम वर्ग के व्यक्ति थे आैर वे चाहते थे कि बेटे भी पारंपरिक व्यवसाय या नौकरी करें परंतु नसीरुद्दीन शाह को रंगमंच आैर अभिनय से ऐसा प्यार था मानो वह इबादत की तरह हो। उसने अपने पिता से विद्रोह किया जबकि उसके बड़े भाई पिता की इच्छा के अनुरूप पारंपरिक कामकाज में लगे आैर अच्छे खासे कामयाब भी हुए।
नसीर ने पहले नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, दिल्ली आैर फिर पूना फिल्म संस्थान से अभिनय में प्रशिक्षण लिया। वे अपने पिता से प्रेम करते थे परंतु अपनी स्वतंत्रता के प्रति समर्पित थे तथा उनके पिता भी मन ही मन अपने विद्रोही पुत्र से प्यार करते थे। दोनों ही ने अपने प्रेम आैर आदर को कभी प्रगट नहीं किया। उनके पिता ने 'निशांत' देखी आैर पसंद की। नसीर ताउम्र उनके गले लगने की इच्छा को दबाते रहें आैर जब बांध टूटा तो देर हो चुकी थी। उनके पिता की मृत्यु के बाद उनकी मां बीस साल तक जीवित रहीं आैर नसीर ने पिता के बदले की सेवा भी उनकी की। गौरतलब यह है कि नसीर खुद स्वीकार करते हैं कि उनके चाहते हुए भी उनका व्यवहार अपने पुत्र से लगभग वैसा ही है जैसे उनके पिता का उनके साथ था आैर वे ये इच्छा मन में बड़ी कशिश से पाल रहे हैं कि उनका बेटा किसी दिन उनके गले लग जाएगा आैर यही काम वे चाहकर भी अपने पिता के साथ नहीं कर पाए थे।
युवा वय ही विद्रोह है आैर उस वय में युवा सोचता है कि उसके पिता उसकी इच्छा को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं परंतु यही बात वह उस समय जाने क्यों भूल जाता है जब वह स्वयं पिता होता है? क्या उम्र के अलग अलग दौर ही विचारों आैर व्यवहार को प्रभावित करते हैं? क्या मनुष्य स्कॉच की तरह उम्रदराज होने पर स्कॉच की तरह महंगा आैर परिपक्व नहीं हो जाता? जीवन के कड़वे अनुभव उसे यह सिखाते हैं कि सब स्वीकार करते चलो आैर विद्रोह करके कुछ हासिल नहीं हाेता। व्यवस्था ढीढ होती है, उल्टे घड़े के मानिंद होती है या नदी किनारे की चट्टान की तरह जिस पर लहरें अपना माथा कूटते हुए निढाल हो जाती हैं। शायद इसी कारण वह युवा के विद्रोह आैर नयेपन से घबराता है आैर उसे बचाना चाहता है गोयाकि जिंदगी के अनुभव उसे फॉर्मूले मे ढाल देते हैं, वह स्वयं फॉर्मूला बन जाता है। इन कारणों से अपने पुत्र की रक्षा के लिए उसे विद्रोह करने से रोकता है। वृद्ध अवस्था मसाला फिल्म है आैर युवा अवस्था लीक से हटकर बनी कला फिल्म है। वृद्ध अवस्था थमा हुआ पानी है जिस पर कोई जम जाती है। युवा वय बहता पानी है। नसीर साहब के मामले में यह कितनी अजीब बात है कि ताउम्र वे लीक से हटकर सार्थक फिल्में करते रहे आैर अपने पुत्र के मामले में वृद्ध अवस्था के फॉर्मूले की तरह बन गए। बहरहाल यह आम फहम बात है क्योंकि कुछ बूढ़े अपने पुत्रों से अधिक आधुनिक होते हैं आैर नया करना या तर्क पूर्ण आधुनिकता किसी उम्र विशेष का एकाधिकार नहीं है। सबसे बड़ी बात यह कि पिता डुप्लीकेट मशीन नहीं है आैर कोई पुत्र जैरोक्स कॉपी नहीं। दरअसल पिता आैर पुत्र के रिश्ते में मां सेतु की भूमिका करती है। वह पारस्परिकता के साथ आधुनिकता के प्रति भी आग्रह रखती है।
एक तरह से वह परंपरा की दाल में आधुनिकता का तड़का लगाती है। उसमें यह सामंजस्य स्वाभाविक है क्योंकि वह जन्म भी दे सकती है जिससे बड़ी कोई मौलिकता नहीं, जिससे बड़ी कोई आधुनिकता नहीं, जिससे बड़ी कोई क्रांति नहीं। यह बात अलग है कि आज मां बाजार के रंग में सुविधाभोगी हो गई हैं परंतु अभी भी उम्मीद बाकी है। प्रजनन पूरी विचार प्रक्रिया है। कई ब्लड कैंसर की रोगणियां गर्भवती होने से बीमारी से मुक्त हो गई हैं। जैनेंद्र जैन ने जैकी श्रॉफ के साथ इस पर फिल्म बनाई थी। बहरहाल रत्ना पाठक नसीर का संबल आैर सेतु रही हैं। पिता-पुत्र रिश्ता आैर अन्य मानवीय रिश्ते भी परिभाषा के परे हैं आैर भूमिकाआें का उलटफेर होता है। जब प्रोफेसर विश्व प्रकाश मृत्यु से लड़ते शिथिल हो रहे थे तब उनका पंद्रह वर्षीय पुत्र अनुराग विजयवर्गीय उनको प्रेरणा दे रहा था गोयाकि पिता की भूमिका में था।
नरगिस से अलगाव के बाद राजकपूर शराबनोशी में डूब गए थे। पृश्वीराज ने उनसे सिर्फ इतना कहा कि "अभागे होते है वे पिता जिनके कंधे पर जवान बेटा जाता है। यह तुम पर निर्भर करता है कि क्या मैं उन अभागों में शामिल हूं'। राजकपूर अवसाद आैर आत्मग्लानि से उभरे आैर "जिस देश में गंगा बहती है' बनाई। रुस्तम सोहराब की कहानी पिता पुत्र रिश्ते की कहानी है। उपनिषद खंडबारह में श्लोक का अर्थ है, "पिता आैर पुत्र का रिश्ता तीर-कमान का है आैर उनके तनाव से पुत्र का तीर सीधा जीवन के निशाने पर लगता है'।