पिता / विमलेश त्रिपाठी
'The child is the father of a man.'
- William Wordsworth
तेईस साल के उस युवक की बातें एक साथ सैकड़ों बरछे की तरह उनके सीने में चुभ गईं थीं। वे इतने असंयत कभी नहीं हुए थे - जैसे सिनेमा की रील घूमकर अचानक बहुत जमाने पहले के समय में चली गई हो - समय का सीना चीरते हुए - कि समय की सिली पर कोई बेदर्द आरामशीन चला दी गई हो।
स्मृतियों के बुरादे झर-झर निकल रहे थे। समय पटरियों की तरह कई भागों में कटकर सपाट पड़ा हुआ था।
युवक के शब्द बार-बार उनके जेहन में गूँज रहे थे। उन्होंने सिगरेट सुलगाई और ताबड़तोड़ कई-कई कश खींच गए - उन्हें लगा कि एक पर एक कई कश उनके दिमागी तंतुओं को निष्क्रिय कर देगा। लेकिन गूँज थी कि बार-बार कानों में धाँय-धाँय बजती चली जाती थी।
घर मद्धिम अँधेरे में डूबा हुआ था। पत्नी शयनकक्ष में बेसुध सोई पड़ी होगी। उन्होंने सोचा। पता नहीं कितने समय से उसके घुटनों में असह्य दर्द था। ओम्नाकोटिल-10 की दो काली और चौकोर गोलियाँ उन्होने अपने हाथों से खिलाई थी और नींद के लिए एक मटर जैसी गोली एलजोलम-0.25 भी दे दिया था साथ में। असंयत की अवस्था में वे कई बार बेडरूम का चक्कर लगा चुके थे - हर बार पत्नी का मुँह बेहोशी में खुला हुआ दिखा था और साँस की घरघराहट के बीच भी वे कई बार उसके चेहरे पर झुक-से गए थे। वे उसके सामने चीखना चाहते थे - अपनी बेबसी पर फूट-फूट कर रोना चाहते थे। पूछना चाहता था उनका संपूर्ण पुराना शरीर कि क्यों??? उनकी परवरिश में कहाँ गलती हुई - किस अपराध की सजा है यह जो देकर चला गया वह तेईस साल का लड़का।
लेकिन हर बार वे किसी पराजित योद्धा की तरह लौट जाते थे।
और एक के बाद एक यह चौथी-पाँचवीं सिगरेट थी जो होठों से होती हुई मेज के कोने पर पड़ी निःशब्द सुलग रही थी। कई बार बदहवासी में उन्होंने फ्रीज का दरवाजा भी खोला था - रोजमर्रा की चीजों के बीच बोदका की आधी खाली बोतल बार-बार आँखों में चुभ जा रही थी। लेकिन ज्यों ही उसे उठाने के लिए उनके हाथ आगे बढ़ते थे, डॉ. अरूप साहू की हिदायत कान में किसी जरूरी सूचना की तरह बजने लगती थी कि एक बूँद शराब भी आपको मौत की अँधेरी खाईं में धकेल सकती है। धड़-धड़ की आवाज से खुलती-बंद होती फ्रीज और डॉ. साहू की हिदायत के बीच के किसी पतले धागे पर वे सवार हो जाते - कई-कई बार।
सचमुच की और आभासी दुनिया के बीच तेईस साल का वह लड़का।
कितना कुछ कह गया था वह - उनके आज तक के अस्तित्व को किसी गंदे कीड़े की तरह मसलता-रौंदता। कहते हुए उसके चेहरे पर शर्म और अपराधबोध की छाया तक न थी - और एक पिता का आज तक का देखा और समझा हुआ समय राख हो गया था।
समय ऐसे ही राख में बदल जाता है - शरीर और आत्मा की तरह!!
एक बार उन्होंने दीवार पर लटक रही अपनी पिता की तस्वीर को हताश-पराजित नजरों से देखा। उस हल्की मुस्कुराती तस्वीर के पार पीड़ा के पता नहीं कितने अदृश्य क्षण झिम-झिम जल रहे थे।
पिता समय की लंबी पगडंडियों के पार तुम्हारी पीठ पर लदी एक बच्चे की देह - पिता क्या माफ कर दिया तुमने उस बच्चे को। उसे, जिसे तेईस साल का एक किशोर कटघरे में खड़ा कर के निकल गया है। क्या यह तुम्हीं थे आए हुए मुझसे बदला लेने। बदला?? क्या इसे महज बदला कह देना ठीक होगा पिता??
ऐसे ही राख होता है समय और मानुष के साथ मानुष होने की गंध। ...!!! मेरा निर्णय सच था पिता - तुम्हारे पितरों की करोड़ों वर्षों की मान्यताओं से अलग होकर भी - मेरा सच। वह एक मेरा सच, जिसकी आँच में तुम्हारा देखा और समझा हुआ असंख्य वर्षों का समय मोम की तरह पिघल चुका था - पानी बनकर जमीन में कही गहरे धँस गया था। ...और वह निर्णय बेहोश सी पड़ी महज उस औरत के कारण नहीं था। क्या इसे अब भी नहीं समझ सके तुम...??
उफ्फ पिता उसके बाद तुम न बोले - मैं तुम्हारी देह की खाक से और जलकर झाँवर हो गई अस्थियों से चीख-चीख कर पूछता रहा - माफ किया पिता तुमने मुझे?? उफ्फ पिता उसके बाद तुम न बोले - और यह मेरा अपना खून क्या बोल गया वह?? उसके जन्म का कारण सिर्फ मजा...??
तुम न बोले थे। रूई की तरह सफेद तुम्हारी मूँछों के पीछे छुपी जीभ न बोली थी। राख और हड्डियाँ क्या बोलतीं!!!
उफ्फ पिता उसके बाद तुम न बोले - और यह मेरा अपना खून क्या बोल गया वह?? उसके जन्म का कारण सिर्फ मजा...?? और क्या कुछ नहीं...
उनका बूढ़ा मन अतीत के पार से लौट आया था। तस्वीर वैसे ही लटक रही थी दीवार पर। माला के नकली फूलों पर धूल की परतें थीं। मटमैली दीवार के सपाट समतल के बीच मुस्कराती - पीड़ा की आँच में झिम-झिम जलती।
मद्धिम अँधेरे की देह काली और खौफनाक रात की शक्ल में ढल गई थी।
वोदका की आधी खाली बोतल अब टेबल पर जिंदा खड़ी थी। शीशे के झक-झक सफेद गिलास का तरल साँसों के बुलबुले छोड़ रहा रहा था। सिगरेट अब भी सुलग रहा था कि समय के पृष्ठ पर स्याही के सैकड़ों निशान सुलग रहे थे साथ-साथ।
उस अँधेरे समय के बीच गिलास का पूरा जिंदा तरल कई-कई बार उनकी देह में उतरा था। वोदका की बोतल समय के किसी खास टुकड़े की तरह एकदम खाली थी - खाली और अपनी पीड़ा ? में एकदम बेपरवाह।
बेचैनी के एक झोंके को सम्हालते हुए जब वे उठे तो उनके पैर लड़खड़ा रहे थे। लड़खड़ाते कदमों की आहट पाकर बीच में वर्षों पहले कहीं छूट गया एक लोरी की बंदिश अभी-अभी उनकी जीभ पर आकर बैठ गई थी - समय की किसी पगडंडी से चलकर...। ...सो जा... सो ...जा ... सो जा मेरे मन... और उसके बाद खाँय-खाँय की एक रतवारू खाँसी।
लोरी की बंदिश के साथ वे लड़खड़ते कदमों से उस तेईस साल के लड़के के कमरे में पहुँचे। कमरे में सन्नाटे की साँय-साँय गूँज थी। और अँधेरे में भी बड़े फ्रेम की एक तस्वीर के सामने वे मुखातिब थे।
कितनी रातें ऐसे जागकर बीती हैं बच्चे। नींद और जागरण के बीच तुम्हारी वह किलकारी और चिचियाहट बेतरह। और तुमने कहा कि मजे के लिए.....।।
उनका मन कसैला हो आया।
तस्वीर में कई चेहरे साथ थे। तेईस साल का वह लड़का तस्वीर में अधनंगा था। लड़खड़ाते कदमों वाला वह बूढ़ा तस्वीर में एक जवान हँसी के साथ एकदम जिंदा लगता था।
बच्चू!!! तुम्हारी औकात क्या है - मैंने अपने इन हाथों से तुम्हारा गुह साफ किया है। - हँसी का एक कमजोर और बूढ़ा लम्हा चेहरे पर डोल गया था और इसके पेश्तर हिकारत के सैकड़ों सूअर एक साथ उनकी छाती पर दौड़ गए थे।
...और खाँय-खाँय के बीच लोरी का वह खुरदरा टुकड़ा - सो... जा... सोजा मेरे मन।
उस कई शक्लों वाली तस्वीर को उन्होंने एक लाश की तरह उठाया। काँपते हाथ और लड़खड़ाते कदमों की आहट के बीच उसे पिता की पुरानी तस्वीर के साथ लटका दिया।
इसके बाद एक तेज खाँसी उभरी थी और उसने उन्हे जोर से अँधेरे फर्श पर पटक दिया था - अचेत।
शायद उनकी बेचैन आत्मा दो साल के एक शिशु और तेईस साल के एक युवक के पीछे दौड़ कर गई थी। युवक बादलों की कई परतों के बीच हवाई जहाज में बैठा किसी दूर देश को जा रहा था। बादलों की कई-कई परतों के पार स्वर्ग जैसी किन्हीं जगहों के बीच दो साल का एक शिशु कि तेईस साल का एक युवक जहाज के भीतर बैठा हुआ और उसका लागातार पीछा करती एक पिता की आत्मा।
और पता नहीं कितने समय तक या कितनी सदी तक याकि कितनी सहस्त्राब्दी तक यह पीछा करने का खेल लागातार चलता रहा।
पता नहीं शायद ...।