पितृऋण / आलोक कुमार
"तुझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा, मेरा नाम करेगा रौशन, जग में मेरा राज दुलारा"
आँगन में घूम रहे रामनरेश बाबू की गोद में संजय अधमुंदी आँखों के साथ उस थपकी को महसूस कर रहा था जो अनवरत एक नियत अंतराल पर उसकी पीठ पर पड़ रही थी। पता नहीं ये उस थपकी का असर था या उस लोरी का, उसकी आँखें बार-बार नींद के बोझ से बंद हो रही थी। गाने का अर्थ तो उसे पता नहीं चल रहा था लेकिन ये पता था कि जब भी उसके बाबूजी उसे प्यार करते थे, लोरी की तरह ये गीत खुद-ब-खुद उनके होठों से निकलने लगते थे। इस बीच उसे कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला।
"उठो, ऑफिस नहीं जाना है क्या?" एक मद्धिम-सी आवाज़ उसके कानों में गूंजी।
उस लोरी के साथ ये आवाज़ कुछ मेल नहीं खा रही थी, लेकिन जब आवाज़ तेज होती गयी तो उसकी तन्द्रा भंग हो गयी।
संजय की धर्मपत्नी उसे जगा रही थी।
"उठो लेट तो रोज़ ही करते हो, आज छुट्टी करनी है क्या? सवा छः बज गए हैं। जल्दी तैयार हो जाओ मैं नाश्ता तैयार करती हूँ।"
"ओफ्फोह आज फिर लेट हो गए"
संजय की बुदबुदाहट शायद ज़्यादा ही तेज हो गयी थी।
तभी तो उसकी पत्नी बोली–"ये कौन-सी नयी बात है?"
अपनी दोनों हथेलियों से पूरे चेहरे को दो तीन बार पोंछकर कुछ वर्तमान में लौटा संजय। न जाने क्यों आज तक ये लोरी उसे कल की बात लगती थी। वह थपकी आज भी उतनी ही गरम, उतनी ही आर्द्र महसूस होती थी।
दिल्ली की भीड़-भाड़ वाली ज़िंदगी के बीच अगर सुकून वाले क्षेत्र में सरकारी क्वार्टर मिल जाय तो किसी स्वर्ग से कम का एहसास नहीं होता। एक मंझले स्तर की नौकरी में भी संजय खुश रहने की पूरी कोशिश करता था। एक अच्छी-सी बीवी, एक प्यारा-सा बेटा, गुजर बसर करने योग्य एक ठीक ठाक सरकारी नौकरी, अगर गाँव में रहने वाले की नज़र से देखें तो एक भरा पूरा संभ्रांत परिवार था उसका। "परिवार" ! हाँ यही तो है आज का परिवार। स्वयं, बीवी और बच्चे। ठेठ गाँव में रहने वाले संजय को थोड़ा अटपटा लगता था। बिना दादा-दादी, चाचा-चाची के भी कोई परिवार होता है, ऐसी बचपन में कल्पना भी नहीं की थी उसने। तभी तो जब पहली बार संजय घर से बाहर पटना, कॉलेज में पढ़ने आया था तो कुछ चीजें उसकी समझ के बाहर थी। अगर वह किसी से पूछता कि 'आपका घर कहाँ है' और जवाब में कोई 'पटना' बोलता तो वह संतुष्ट नहीं होता। उसका अगला सवाल होता 'नहीं-नहीं पटना में तो आप रहते हैं' , असली घर कहाँ है आपका? पटना में ही पले बढ़े किसी लड़के के लिए ये एक अटपटा-सा सवाल होता था। लेकिन संजय का अपना ही दर्शन था। उसकी सोच में लोग शहर में नौकरी करने आते हैं पर असली घर तो वही होता है जहाँ पूरा परिवार यानी दादा-दादी सभी रहते हैं। अपनी कार ड्राइव करते हुए संजय इस बात पर मुस्कुराये बिना नहीं रह पाता। ऑफिस शायद नज़दीक आ गया था। उसने अपना सारा ध्यान पार्किंग पर केंद्रित कर दिया। लेट ऑफिस पहुँचने पर कार सही जगह पार्क करना भी अपने आप में किसी उपलब्धि से कम नहीं होता।
ऑफिस में घुसते ही अपने पास के क्यूबिकल में बैठे सक्सेना जी पर निगाह पड़ी। मोटे थुलथुल से सक्सेना जी अपनी तरह के अकेले जीव थे। ज़िंदगी बड़े ही संतुलित तरीके से जीते थे। किसी अधिकारी की मजाल कि उनकी मर्जी के खिलाफ कोई उनसे काम करा ले। ऑफिस से बीच-बीच में भागते रहने के तरीके तो उन्होने संस्कृत के श्लोक की तरह रट्टा मारकर याद किये थे। उनका मानना था कि नौकरी की भर्ती प्रक्रिया में चयनित होकर उन्होने अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी है। अब जब निमंत्रण पत्र (नौकरी के विज्ञापन को वे निमंत्रण पत्र ही बोला करते थे) देकर बुलाया है तो खतिरदारी तो करनी ही पड़ेगी। सरकारी महकमा था, बर्खास्तगी की कोई गुंजाईश नहीं थी अलबत्ता ऑफिस की सारी ऊर्जा बचाकर घर ले जाते थे और अपनी श्रीमतीजी के साथ (सेवा में कहना ज्यादती होगी) खर्च कर देते थे। आय और व्यय का पूरा संतुलन था। कॉलोनी की सारी औरतें अपने पति को हमेशा सक्सेना जी की मिसाल दिया करती थी। कार्यालय में उनकी जो भी छवि हो, दाम्पत्य जीवन बड़ा मधुर चल रहा था। संसार में जीने की उनकी इस फिलॉसॉफी के सभी मुरीद थे, हाँ प्रैक्टिकली कोई सक्सेना जी वाली फिलॉसॉफी अपना नहीं पा रहे थे। कारण वही दकियानूसी विचार कि ऑफिस में लोग क्या सोचेंगे? इन घिसी पिटी अवधारणाओं से सक्सेना जी काफ़ी ऊपर उठ चुके थे।
संजय ने नज़र मिलते ही नमस्ते किया और हाथ मिलाने को बढ़ाया। सदा कि भाँति ऊर्जा से भरपूर सक्सेना जी ने उसका हाथ ज़ोर से दबाया और उत्साहित होकर बोले 'यार मज़ा आ गया। क्या जगह है मनाली? अभी' साले साहब'सपरिवार आये थे, उन्हीं के साथ प्रोग्राम बना था। कल फोटो दिखाऊंगा। वाकई मस्त जगह है'। 'मैं तो कहता हूँ तुम भी घूम आओ'। उन्होंने अपना फ़ैसला सुना दिया। संजय थोड़ा उनके करीब हो आया और धीरे से बोला,
'सक्सेना जी आजकल एक बात नोटिस की है कि ज्यादातर गेस्ट बीवी के मायके वाले ही होते हैं। सबका देखो एक ही हाल है। कभी बच्चों के नाना-नानी, कभी मामा-मामी, कभी मौसा-मौसी, यार चाचा-चाची, दादा-दादी ये सब बहुत कम दिखते हैं'।
सक्सेना जी सिरे से भड़क गए, बोले 'संजय जी आख़िर यही लोग तो हैं जो हमें अपना समझते हैं वरना ये घर वाले तो लूटने के चक्कर में रहते हैं।' बात शीशे की तरह साफ़ थी लेकिन ये थोड़ा नया दर्शन था।
संजय ने जिज्ञासा भरी निगाह से उन्हें देखा और पूछा–'वो कैसे' ?
बोले 'अब देखो तुम जब भी घर जाओ इनकी कुछ न कुछ फरमाइश रहेगी। न दो तो मुँह फूल जायेगा। इधर उधर की सुनाकर ताने देंगे सो अलग। अब ससुराल जाओ, ख़ूब खातिरदारी भी करेंगे और आते वक़्त ढेर सारा उपहार। कुछ पाने का लालच नहीं, बस असीम प्यार और अपनापन। टोकरी भर कर इज़्ज़त अलग से। ये घर वाले शादी के बाद बदल जाते हैं।' सक्सेना जी अपनी ही रौ में बहे जा रहे थे। आगे बोले अभी पिछली बार बाबूजी आये थे, यहाँ से जाते वक़्त बोले,
'तुम्हारे बेटे की साइकिल बड़ी अच्छी है, इस बार घर आना तो भैया के लड़के को भी एक खरीद देना। बेचारा नौकरी नहीं करता है'।
'अब बोलो वह नौकरी नहीं करता है ये मेरी गलती है'। उनके सटीक तर्क के आगे संजय नतमस्तक था।
संजय ने आखिरी दाव खेला, बोला-'यार इसी दिन के लिए तो माँ-बाप बच्चों को बड़ा करते हैं। कैसे-कैसे कष्ट सहकर बच्चों को पढ़ाते हैं'।
'ताकि बड़ा होने पर उसका खून चूस सके' , वाक्य शुरू तो संजय ने किया था लेकिन पूरा सक्सेना जी ने किया। सक्सेना जी वहीं नहीं रुके, लेकिन अब संजय की ताकत जवाब दे चुकी थी। बाबूजी का वह बचपन वाला गीत कानों में गूँज रहा था, जिसे न जाने उसने कितनी बार सुना होगा।
" आज उँगली थाम के तेरी, तुझे मैं चलना सिखलाऊँ, कल हाथ पकड़ना मेरा, जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ
तू मिला तो मैंने पाया, जीने का नया सहारा, मेरा नाम करेगा रौशन जग में मेरा राजदुलारा"
अंत में केवल एक वाक्य सुनाई दिया, 'भाई कहाँ खो गए, ये घर वर का मोह जितनी जल्दी छोड़ दो तुम्हारे लिए अच्छा रहेगा।' संजय ने हामी भरी क्योंकि उसके अंदर तर्क करने लायक कुछ बचा नहीं था।
ऑफिस से घर लौटते वक़्त संजय, सक्सेना जी द्वारा कही गूढ़ बातों का अर्थ समझने की कोशिश कर रहा था, '
क्या सक्सेना जी के बाबूजी उनको उतना प्यार नहीं करते थे जितना मुझे, फिर ये विरक्ति क्यों? '
अबूझ पहेली था ये संजय के लिए।
उसे याद है कि उसकी कैसी-कैसी ज़िद को उनके बाबूजी पूरा करते थे। एक बार पटना में कोई रैली थी। सभी शिक्षक उसमें जा रहे थे। संजय ने ठान लिया और निश्चयात्मक लहजे में बोला कि 'आपके साथ मैं भी पटना जाऊंगा'। बाबूजी ने लाख समझाया कि वहाँ ट्रेन में भीड़ होगी, रहने की कोई ठीक-ठाक जगह नहीं होगी तुम्हें बहुत कष्ट होगा। लेकिन संजय तो बस पटना के चकाचौंध की कल्पना मात्र से रोमांचित हो रहा था। आगे होने वाले कष्टों का आभास मात्र नहीं था उसे। बाबूजी उसकी ज़िद के आगे झुके। पता नहीं कितने कष्ट सहकर वे उसे अपने साथ ले गए। वह तो ट्रेन पर थोड़ी देर बाद ही सो गया। पर बाबूजी ने शायद पूरी रात उसे गोद में सुलाते हुए जागकर काटी।
रैली में जब उनके कोई साथी पूछते कि इसको इतनी भीड़-भाड़ में क्यों लाये तो वह बोलते–
'-जी, इंदिरा गाँधी को नेहरू जी अपने साथ विदेश ले जाते थे। मैं पटना तक तो ला ही सकता हूँ।'
तब संजय शायद ये बात न समझता हो लेकिन आज तो वह अपने बाबूजी के उस असीम प्यार को समझ ही पा रहा था। ऐसे न जाने कितने वाकये थे जो बाबूजी के उस अगाध प्यार के किस्से बयाँ करते थे। संजय भीतर से आहत महसूस कर रहा था। उसे लगता था कुछ तो उसका अपना ही दोष है कि वह बाबूजी के लिए वैसा कुछ नहीं कर पाया जिसकी उसने कभी कल्पना कि थी। उसे हमेशा लगता था उसकी बीवी भी उसके घरवालों को उतना ही प्यार करेगी जितना वह ख़ुद करना चाहता था। लेकिन उसे कभी अपनी बीवी की आँखों में अपने परिवार के लिए वह प्यार नज़र नहीं आता था। उसे लगता था कि वह अपनी बीवी और अपने घरवालों दोनों को एक समान प्यार करे लेकिन आज तक वह ऐसा करने में असफल ही रहा था। इसलिए वह कभी खुलकर अपने घरवालों के लिए कुछ कर नहीं पाता था। उसे लगता था कि मैं कुछ ऐसा करूँ जो आज तक किसी बेटे ने किसी पिता के लिए नहीं किया हो और इसमें बीवी की भी सहमति हो। परन्तु उसे प्रतीत होता कि वह नदी के दो किनारों को मिलाने की कोशिश कर रहा था। इस वज़ह से वह कुछ खिंचा-खिंचा रहता और इसका सीधा प्रभाव उसकी गृहस्थी पर पड़ रहा था। उसका बेटा जब भी उससे बातचीत करने की कोशिश करता वह कुछ बहाना बनाकर टाल देता। अपने बेटे अर्णव के लिए उसके मन में अपराध भाव भी था कि उसकी इस मनोव्यथा के चलते सबसे ज़्यादा अर्णव ही पिस रहा था, लेकिन सबकुछ जानकर भी वह ख़ुद को लाचार पाता।
गर्मियों की छुट्टियाँ चल रही थी। संजय सपरिवार अपने घर गया हुआ था। एक दिन रात में छत पर बैठे हुए वह चाँदनी रात में बहुत दिनों के बाद चाँद को निहार रहा था।
'कुछ भी तो नहीं बदला है आज तक'—संजय मन ही मन बुदबुदाया। आज भी चाँद वैसे ही रोशनी फैला रहा है। शहर में कभी इतने सुकून से उसने चाँद को देखा ही नहीं। बचपन में जब थोड़ी देर के लिए पढ़ाई के बीच आकर दादी के पास आँगन में लेट जाता था तब चाँदनी कितनी प्यारी लगती थी। लगता था काश अभी पढ़ना नहीं होता तो कितने आराम से दादी के साथ लेटे-लेटे बादलों के साथ चाँद की अठखेलियाँ देखता। आज वह नौकरी करता है, फुर्सत के क्षण भी हैं उसके पास, लेकिन चाँद की तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं जाता है।
'जब चाहत थी तब सनम नहीं था, आज सनम है तो चाहत नहीं बची।' वाकई भगवन की माया वही समझ सकते हैं।
'संजय! बेटा सो गए क्या?' बाबूजी की आवाज़ थी। संजय ने लेटे-लेटे ही पीछे की तरफ़ देखा। माँ-बाबूजी दोनों छत पर अपनी ओर आते दिखाई दिए।
वह उठकर बैठ गया।
'लेटे रहो बेटा, कोई बात नहीं' ,
लेकिन संजय तबतक उठ चुका था। पास बैठते हुए माँ बोली–'
बेटा मन लग रहा है न, तुम तो आजकल कुछ खोये-खोये रहते हो, क्या बात है? 'संजय बोला' कुछ नहीं माँ' , ऐसी कोई बात नहीं है।
'देखो बेटा सफ़ाई से झूठ बोलना भी एक कला है। तुम तो ठीक से झूठ भी नहीं बोल पाते हो।'
संजय सोचने लगा—उसकी बीवी भी उसे यही बात कहती है 'झूठ मत बोला कीजिये आप'—आपके चेहरे से सब पता चल जाता है। '
बेटा अगर कुछ समस्या है तो मुझे बताओ'
'नहीं माँ दरअसल, ऐसी कोई बात नहीं है, बस कभी-कभी ये सोचता हूँ कि बचपन में कितना सोचता था कि बड़े होकर आप लोगों के लिए ये करूंगा, वह करूंगा, लेकिन मिला जुलाकर कुछ नहीं कर पाया मैं'। संजय का स्वर उदासी में डूबा हुआ था।
'आपको और बाबूजी को लेकर ऐसे इमोशंस हैं कि लगता है आप दोनों को एक बड़े से सिंहासन पर बिठाकर पूजा करूँ। अपनी पत्नी से भी यही उम्मीद करता था, लेकिन उसकी अपनी ही सोच है, आज तक मैं उसे नहीं बदल पाया। इस कारण मैं भी खुलकर आप लोगों के लिए कुछ नहीं कर पाया। मुझे लगता था वह मुझे समझ पायेगी, लेकिन अब तो मैं हिम्मत हार चुका हूँ'—संजय की आवाज़ भर्रा गयी थी।
माँ बाबूजी शायद संजय की दुविधा समझ चुके थे।
माँ बोली-'बेटा बुरा मत मानना, गर्ज करो शादी के बाद तुम ससुराल जाकर बस गए होते तो क्या अपने सास ससुर से उतना ही लगाव रखते जितना मुझसे रखते हो?'
उन्होंने अपनी बात जारी रखी-बोली 'बेटा जिनके साथ तुम्हारी यादें न जुड़ी हो उनके लिए तुम्हारे मन में औपचारिक आदर तो हो सकता है लेकिन प्यार, जुड़ाव या लगाव नहीं हो सकता। तुम तो हमारे लिए बहुत कुछ कर पा रहे हो। बहू की सोचो, वह तो अपने माँ पिताजी के लिए कुछ नहीं कर पा रही होगी। बोलते-बोलते माँ अपने अतीत में जा चुकी थी। बोली–' मैं जब छोटी थी तभी मेरे पिताजी गुजर गए थे। माँ ने बहुत कष्ट झेलकर मुझे पढ़ाया-लिखाया। ख़ुद की रोटी मुझे खिलाती थी। मेरे मन में तब आता था कि अगर बड़ी होकर कुछ बनी तो-तो माँ को वह सारे सुख दूँगी जिसकी वह हक़दार है। संयोग देखो मैं शिक्षक बन भी गयी लेकिन तब तक मेरी शादी हो चुकी थी। मेरे सारे पैसों पर ससुराल का हक़ हो गया और मैं चाह कर भी अपनी माँ के लिए कुछ नहीं कर पायी। माँ का गला रुँध चुका था। अपने आपको संभाल कर फिर से बोली–'बेटा शादी के बाद पति ही पत्नी के लिए सब कुछ होता है। ऐसे में अगर पति इस ज़िद में कि' वो मेरे घरवालों से उतना प्यार नहीं करती है जितना मैं चाहता हूँ' , उससे कटा-कटा रहे, घर का माहौल बिगाड़ कर रखे, बच्चे को भी नेग्लेक्ट करे तो पत्नी के दर्द को कौन समझेगा?
'पुरूष की ये मानसिकता पत्नी को कितनी पीड़ा पहुँचाती है, इसका शायद अनुमान नहीं है तुम्हें। एक औरत होने के नाते मैं तुम्हें ये बता सकती हूँ। मैंने बहू से बात की है, वह बहुत अच्छी है, मुझे इज़्ज़त देती है, और मुझे क्या चाहिए?'
बाबूजी बहुत देर से चुपचाप बैठे थे-बोले 'बेटा ये जो माँ ने बताया, ये सत्य जानते-जानते आदमी बूढा हो जाता है। तुम जिस दौर से गुजर रहे हो, उससे सभी मर्द गुजरते हैं, लेकिन समझदार जल्दी संभल जाते हैं। बेटा आज मैं तुम्हें वह सत्य बताता हूँ जो कभी मेरे पिताजी ने मुझे बताई थी।'
संजय अचरज भरी मुद्रा में उनकी ओर देखने लगा।
वो बोले 'बेटा पितृऋण कैसे अदा किया जाता है, पता है' ?
उसके न में सर हिलाने पर वह आगे बोले।
'अपनी जैसी एक संतान पैदा करना और उसे वैसे ही प्यार से पालना-पोषणा और संसार में जीने योग्य बनाना, जैसा उसके पिताजी ने उसके लिए किया था। अगर सभी बेटा अपना परिवार छोड़कर माता पिता को ही उनका प्यार वापस देने लगे तो सृष्टि का चक्र रुक जायेगा। गंगा हिमालय से एक नाले की तरह निकलती है, लेकिन जब मैदानी इलाकों में आकर जवान होती है तो हिमालय से प्राप्त जल, मिटटी और औषधिक गुण वापस हिमालय को नहीं लौटाती है बल्कि मैदानी भूभाग को दे देती है। इसीलिए तो अपने शास्त्र में लिखा है कि' पितृऋण'अपनी संतान को लायक बनाने पर ही अदा होती है। तुम अपना सारा ध्यान अपने परिवार पर लगाओ और अर्णव को उसके हिस्से का प्यार दो, यही तुम्हें मेरे ऋण से मुक्त करेगी।'
संजय का अपने बच्चे के प्रति अंदर का अपराधभाव और ज़्यादा गहरा हो गया था।
'बाबूजी दरअसल मैं' भर्राई आवाज़ ने संजय को आगे बोलने से रोक दिया। उसे अपनी पत्नी और अपने बच्चे के प्रति किये गए तिरस्कार के भाव याद आने लगे कि कैसे अर्णव को बार-बार वह टाल देता था। अपने बाबूजी का प्यार उसे आज तक याद था लेकिन उसी प्यार से उस मासूम को मरहूम रख रहा था। उसका मन किया ज़ोर जोर से रोयें लेकिन आवाज़ गले से निकल नहीं पाई। बेजान-सा वह छत पर लेटा रहा।
रात को सोते समय अनायास उसका हाथ अर्णव के सर पर गया और वह उसे सहलाने लगा। भावुकता में उसके गले से वही गीत निकल पड़ा जो कभी उनके बाबूजी सुनाया करते थे।
' मेरे बाद भी इस दुनिया में, ज़िंदा मेरा नाम रहेगा, जो भी तुझ को देखेगा, तुझे मेरा लाल कहेगा
तेरे रूप में मिल जायेगा, मुझको जीवन दोबारा, मेरा नाम करेगा रौशन, जग में मेरा राजदुलारा'
अर्णव ऐसे प्यार का आदी नहीं था, कुछ सहमकर और कुछ आश्चर्यमिश्रित स्वर में बोला 'ये क्या गा रहे हैं पापा?'
'कुछ नहीं बेटा "पितृऋण" चुका रहे हैं'।
संजय को लग रहा था मानो उसके अंदर उसके बाबूजी की आत्मा घुस गयी हो। अर्णव उसे अपने बचपन का प्रतिविम्ब लग रहा था। उसने अर्णव को ज़ोर से भींच लिया और अपनी छाती से चिपका लिया।