पितृदाय / मृणाल पांडे
दो हफ्तों से लगातार अस्पताल के जीने चढ़ते-उतरते, नर्सों-डॉक्टरों के पीछे लपकते, दवाइयों की दुकान के चक्कर लगाते, उमेश अब कतई पस्त हो गया था। यूँ पस्त तो आदमी दिन भर कॉलेज में पढ़कर भी हो ही जाता है, पर यह पस्ती उस पस्ती जैसी न थी। लाख उबाल हो या खीज उठे, फिर भी उसमें कुछ देर के लिए एक ऐंची-तानी खुशी तो मिल ही जाती है, जब कभी पानवाला प्रोफेसर साब कहकर कम-से-कम एक पान खाते जाने का अनुरोध करता है, या कि बहन की चिट्ठी आती है, जिसमें कहा गया होता है कि जहनी काम हर किसी के बूते का नहीं और इसे करनेवाले को अच्छी गिजा लेनी ही चाहिए। इस पस्ती का तो ओर छोर ही नहीं था। सत्तर को पार की हुई बाबू की उम्र पंद्रह साल पुराना ब्लडप्रेशर, मधुमेह और अब कालिज का यह जोरदार हमला। किसी भी डॉक्टर ने उनके ठीक होने की पक्की आशा नहीं बँधायी थी। उसने भी नहीं, जो बहन का मेडिकल कॉलेज में सहपाठी रह चुका था और इस नाते हर राउंड पर एक बार झाँक जाया करता था। सिर्फ दूर के रिश्ते की एक बुआ ने, जो शुरू में खबर पाकर भरी दुपहरी में बस से अस्पताल आयी थीं, कहा था कि कहीं से शेर की चर्बी....मिल जाये, तो सुनते हैं सुन्न अंगों में उसकी मालिश से शर्तिया लाभ....
बहन को उसने चिट्ठी में सब हाल लिख दिया था। छुपाने जैसा उनके बीच कुछ था भी नहीं और उसके पत्र पाकर बहन के तड़प उठने या कलपने जैसा भी कुछ रह कहाँ गया था ! कम-से-कम अब इस वक्त जबकि वह अपने पेचीदा तलाक के मसले से उलझती, दूर फिलाडेल्फिया की परदेसी कचहरियाँ खटखटा रही थी। उसका नीग्रो पति, जो सिर्फ बेकारी का सरकारी मेहनताना खा रहा था, अपनी डाक्टर पत्नी से तलाक के अवज में भरपूर हरजाना ऐंठने पर उतारू था और बहन कुछ अपने चुप्पेपन और कुछ पति के काँइयाँ पेंचों के मारे जरूरी हमदर्दी का वातावरण नहीं बना पा रही थी। वैसे लिखा था बिचारी ने कि कुछ खर्चा भेजेगी, पर उसे खास उम्मीद न थी।
‘क्या हाल हैं अब ?’’ कॉलेज में उसे देखते ही सब हमदर्दी से पूछते तो वह सुकड़ता हुआ बुदबुदा देता कि वैसे ही हैं। इतनी नर्म, दयालु हमदर्दी और कुतूहल अभी तक उसने अपने ऊपर कभी नहीं झेले थे। ऐसे क्षणों में उसे अपना दो कमरे का घर बहुत याद आया करता। घर, जैसाकि वह माँ के जाने और बाबू के वापस आने का दरम्यान था। अपने सारे पपड़ियाये रोगन और मकड़ी के जालों के बावजूद। चुप्पा, प्रश्नहीन, आकांक्षाहीन, अपेक्षाहीन अपने नंबर ग्यारह के चश्मे और पीठ के हल्के कूबड़ को लिये दिये जिसकी ठंडी चूनेदार गहराइयों के गुड़प होने को वह कतई आजाद था। आह ! कब जा पायेगा वह वापस रहने को उस घर में ? रात को वह करवट लेता तो अस्पताल की चारपाई पसलियों की तरह चुभती थी। और सुबह ठीक साढ़े-पाँच बजे जमादार जगा जाता था-‘‘टट्टी-पेशाब का बर्तन निकालना सा’ब !’’
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