पिन्ने काणाम् / कमल
“देखो न मिस्टर सिंह, किसी ने पीछे से मुझे पत्थर मारा!”
लाल किले के सामने डी.टी.सी. की बस से उतर कर आठ-दस कदम चलते ही कासरागोड़े, केरल से आये आरक्षी अधीक्षक एम.वी.सोमसुंदरम की आवाज का कंपन झारखंड के प्रोबेशन पदाधिकारी मनजीत सिंह को उद्वेलित कर गया। हॉस्टल में पड़े रहने वाले सोमसुंदरम को वह बड़े मन से अपने साथ घुमाने लाया था। इसलिए उसका पारा तुरंत चढ़ गया कि दिल्ली में किसकी हिम्मत जो उसके साथी को पत्थर मारे। उसने तेजी से पलट कर पीछे देखा, परंतु उसके कठोर होने को तैयार चेहरे पर परिचय की मुस्कान फैल गई। ‘अरे भई ये तो अपने साथ ट्रेनिंग में महाराष्ट्र से आये जज पी.जे.जगदले और एस.पी.हायातंगारकर हैं।’
“अरे प्यारों हमें भी तो साथ ले चलो।” जगदले ने नाटकीय अंदाज में कहा तो सोमसुंदरम अपनी हंसी न रोक सका। पत्थर लगने का तनाव उसके चेहरे से पलक झपकते ही गायब हो गया।
“कब से हम आवाज दे रहे हैं। हमें भी तो घूमना है और आप लोग हैं कि हमें लिए बिना ही चले जा रहे हैं।” मुस्कराते हुए पी.जे.जगदले और एस.पी.हायातंगारकर उनके पास आ चुके थे।
सोमसुंदरम की बात ही छोडि़ए मनजीत को भी उन दोनों जजों के उतना हंसमुख होने का अनुमान न था। एन.आई.सी.एस.एफ. द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित ‘नशा समस्या’ के सप्ताह भर चलने वाले तीसरे पाठ्यक्रम में भाग लेने देश के लगभग हर राज्य से पुलिस, प्रोबेशन और न्यायिक सेवाओं के पदाधिकारी आये थे। पहले कुछ दिन तो एक-दूसरे को देखने में ही बीत चुके थे। दोपहर में एक घंटे के भोजनावकाश के अलावा सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक चलने वाली कक्षाएं इससे ज्यादा वक्त भी तो नहीं दे रही थीं। एक तो सुदूर दक्षिण भारतीय होना दूसरे हिन्दी में कमजोरी के कारण सोमसुंदरम से मनजीत की बातचीत हो पाती, इसकी संभावना तो बिल्कुल ही नहीं थी।वह तो पिछली शाम पालिका बाज़ार से लौटते हुए हॉस्टल के लोन लान में उसे अकेला देख कर मनजीत ने टोक दिया था,”हलो मिस्टर सोमसुंदरम, व्हेयर हैव यू गान दिस ईवनिंग (आज शाम कहां गये थे)?”
“नो व्हेयर, ओनली इन दिस गार्डेन (कहीं नहीं, बस इसी बाग में)।” सोमसुंदरम ने अपनी दक्षिण भारतीय शैली की अंग्रेजी में जवाब दिया। वैसे उसकी आवाज का उत्साह बता रहा था कि उसे यूँ पूछा जाना बड़ा अच्छा लगा है।
“क्यों? आई मीन व्हाई नो व्हेयर? और ये भी कोई गार्डेन है, जहां पूरी शाम बितायी जा सके?”
हर शाम पाँच बजे के बाद पूरा हाॅस्टल खाली हो जाता था। वह कहीं घूमने नहीं गया था, यह जान कर मनजीत को बड़ा आश्चर्य हुआ।
“वो... मैं नहीं जानता इधर का रूट... किधर को कैसे घुमने जाना ! नो फ्रेंड, आई मे बी लॉस्ट ।” सोमसुंदरम का स्वर उदास था। उसकी अटकती हिन्दी से भी ज्यादा उसके गुम हो जाने की बात सुन कर मनजीत को हंसी आयी और नो फ्रेंड वाली बात उसे कचोट भी गई।
“ओय बाश्शाओ नो फ्रेंड वाली बात मत बोलो। मैं हूं तुम्हारा फ्रेंड। कल शाम क्लास के बाद रेडी रहना, मैं तुम्हें दिल्ली घुमाऊंगा। कोई दिल्ली आकर दिल्ली न घूमे, भला ये भी कोई बात हुई !”
वे दोनों बातें करते हॉस्टल में घुस गये थे। ‘गुड नाईट’ बोल कर अपने कमरे की ओर बढ़ते सोमसुंदरम के चेहरे की चमक बढ़ गई। वह चमक अगले दिन भी उसके चेहरे पर थी जब वह और मनजीत डी.टी.सी. की भीड़ भरी बस में सवार हुए। सबसे पहले लाल किला देखना चाहिए और फिर पास वाला चाँदनी चौक का बाज़ार। वहां खरीददारी की जा सकती है मनजीत ने उसे रूट चाट समझाया था।
एक चौराहे पर सिग्नल के इंतज़ार में जब बस रुकी तो कुछ बच्चे अपने हाथों में थालियों पर पतली फांकों में कटे हुए नारियल लिये चढ़ आये। उन्हें देख कर सोमसुंदरम ने मनजीत से पूछा, “ये क्या?”
“दो-दो रुपये का, खाओगे ?” केरल का होने के कारण वह नारियल पसंद करेगा, यह सोच मनजीत ने पुरे उत्साह से बताया था।
उसका उत्तर सुन कर वह हैरानी से बोला, “इतना मंहगा ! इतना छोटा टुकड़ा ! इसमें क्या होगा, हमारे तरफ तो पूरा नारियल चाहिए खाने ! दो रुपये में तो सबसे अच्छा और इतना बड़ा नारियल मिलता उधर।” कहते हुए उसने अपने दोनों हाथों से आकार दिखाया।
मनजीत का उत्साह झेंप में बदल गया और नारियल वाले को बुलाने उठा उसका हाथ वापस नीचे आ गया। सिग्नल मिलने पर बस भी चल चुकी थी। वह सोमसुंदरम को दिल्ली घुमाने ले जा रहा था।
“आप लोगों ने ही पत्थर मारा था ना !” मनजीत ने पूछा।
“अपुन लोग तुम दोनों को कब से रुकने को आवाज दे रहा था । मगर तुम सुन ही नहीं रहे थे। और हां, आब्जेक्शन वह कंकड़ था पत्थर नहीं।”
“लेकिन आपने तो पत्थर कहा था ?” मनजीत ने सोमसुंदरम को देखा।
“अरे भाई आस-पास कुछ और नहीं मिला तो सड़क पर पडे़ कुछ कंकड़ फेंक मारे तुम्हें नहीं लगे एस.पी. साहब को जा लगे। अब इनका भाषा ज्ञान कंकड़ को पत्थर कह दे तो क्या हुआ ?”
“वाह, एक जज एस.पी. को कंकड़ मार रहा है और वो उसे पत्थर कह रहा है।” हायातंगारकर ने पहली बार बहस में हिस्सा लेते हुए कहा।
“तो ठीक है आपके कोर्ट में इनका ट्रायल करते हैं। प्रोबेशन ऑफ ओफ़ेंडर्स एक्ट में छुड़ाने के लिए मैं तो हूं ही।” मनजीत की बात पर सब हंस दिये।
पहले लाल किला देखा जाय या चाँदनी चौक इस बात का निर्णय इस तर्क से हुआ कि चाँदनी चौक का असल मजा रात की चाँदनी में है। अब चाँदनी न सही फिर भी सड़क पर लगी वेपर लाइट में वह मजा जरूर मिलेगा। वे चारों लाल किले की ओर बढ़ गये।
गेट पर प्रवेश टिकट लेने के बाद वे चारों भीतर आये, मुगलिया सल्तनत का एक विशाल और भव्य प्रमाण उनके सामने खड़ा था। लाल रंग के पत्थरों से बना लाल कि़ला, जिसे शाहजहां ने 16 अप्रैल 1639 को अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली ले आने के बाद बनवाना शुरु किया था। नौ वर्षों में बने उस कि़ले पर उस समय के एक करोड़ रुपये खर्च हुए थे।
तभी मनजीत का मोबाइल बजने लगा। नंबर देख कर उसके चेहरे पर रौनक आ गई, “अरे खुर्शीद तुमने भी क्या अच्छे टाइम पर फोन किया है। अभी हम लोग लाल कि़ला देख रहे हैं।”
“.....” उधर की आवाज केवल मनजीत सुन रहा था।
“क्या कहा, हम लोग कौन ? अरे यार केरल से सोमसुंदरम, महाराष्ट्र से जगदले और हायातंगारकर और कौन ? अगर तुम भी यहां होते तो हम सब का मज़ा तो बढ़ता ही, तुम भी इन लोगों से मिल कर बहुत खुश होते। अच्छा-अच्छा बाद में बात करते हैं।” कह कर उसने फोन रख दिया और उनको बताने लगा। मेरे बचपन का दोस्त है, हज़ारीबाग जिले में हम पले-बढ़े हैं। उसने बैंक ज्वाइन कर लिया और अभी पुरुलिया में पोस्टेड है। बहुत ही जिन्दादिल और मजेदार आदमी है।
“वह तो आप को देख कर ही पता चलता आपका दोस्त भी मज़ेदार होगा।” सोमसुंदरम ने कहा।
“आपकी हिन्दी बड़ी प्यारी है।” मनजीत बोला, “अगर मैं मलयालम बोलूं तो वह भी आपको ऐसी ही प्यारी लगेगी। अच्छा, मलयालम में ‘मैं तुमसे प्यार करता हूं’, कैसे कहेंगे!” मनजीत ने पूछा।
“उसे बोलते, ´यान निन्ने प्रेमिक्कुन्नु!”
“तुम यह जान कर क्या करोगे ?” जगदले ने टोका।
“क्या पता कभी कोई मलयाली बाला मिल जाए कम से कम एक बात तो काम की कर ही लूंगा !”
“मगर वो तो तुमको जवाब में कहेगी, अलविदा।” जगदले ने चुटकी ली।
“मिस्टर सोमसुंदरम अलविदा को क्या कहते हैं।” मनजीत ने फिर पूछा।
“उसे बोलते, पिन्ने काणाम्।” सोमसुंदरम के जवाब पर सब हंस पड़े।
शाम तक वे चारों किला देखते रहे। लाल किले से निकल कर सामने वाली मुख्य सड़क को पार कर चाँदनी चौक वाली सड़क पर चलने तक वेपर लाइटों से बहता क्रित्रिम प्रकाश चारों तरफ फैल चुका था।उस रोशनी और खरीददारों की उमड़ती भीड़ का हिस्सा बनते वे भी आगे बढ़ने लगे। जितनी दुकानें सड़क के दोनों ओर पक्की इमारतों में थीं उससे ज्यादा दुकानें पटरियों पर सजी हुई थीं।
“कहते हैं चाँदनी चौक के बाजार की रौनक हर काल में ऐसी ही रही है, चाहे मुगलों का जमाना रहा हो या फिर अंग्रेजों का।” मनजीत ने गाइड की तरह उन्हें बताया।
बातें करते वे चाँदनी चौक गुरुद्वारे के पास आ गये मनजीत गुरुद्वारे के इतिहास के बारे में बताने लगा, “यह गुरुद्वारा सच्चे सिक्ख गुरुओं के बलिदान की याद कराता है। अपने बूढ़े पिता को क़ैद करने वाला औरंगजेब अपने पूर्ववर्ती बादशाहों अकबर, जहांगीर और शहजहाँ जैसा नहीं था, उसने तो सारी हदें पार कर दी थीं। कश्मीर में औरंगजेब की अन्यायपूर्ण नीतियां और अत्याचार कड़ाई से लागू किये जा रहे थे। तब यह जानते हुए भी कि औरंगजेब की सैन्य शक्ति के सामने गुरु तेग बहादुर की सैन्य शक्ति कुछ नहीं हैं उन्होंने अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की। जिसके परिणामस्वरूप नवंबर सन् 1675 में उसी कट्टर औरंगजेब ने यहां गुरु तेग बहादुर का कत्ल करवाया था।”
“अपने पिता को क़ैद में डालने वाले औरंगजेब नाम के सभी कट्टर शासक ऐसा ही करते हैं।” एस.पी.हायातंगारकरने धीरे से कहा। दोनों महाराष्ट्र के होने के बावजूद जगदले और एस.पी.हायातंगारकर का बातें करने का स्वाभाव विपरीत था। जगदले जहां उन्मुक्त और बिंदास था, वहीं हायातंगारकर मितभाषी।
सोमसुंदरम चकित-सा चारों तरफ देख रहा था मानों सारे दृश्यों को आँखों से पी कर अपने भीतर समेट लेगा। “मिस्टर सिंह, तुम न होता, ये सब हम नहीं देख सकता। फुल क्रेडिट गोज टू यू। अपने शहरों में तो ऐसा कभी घूमने का मौका नहीं मिलता। यहां कितना अच्छा लग रहा, यहां हमको कोई नहीं पहचानता। हम सब कॉलेज स्टूडेंट के जैसा सड़क पर घूम रहा।”
मनजीत झारखंड से, सोमसुंदरम केरल से तथा जगदले और हायातंगारकर महाराष्ट्र से, वे सब अलग-अलग राज्यों से आये थे। लेकिन वे इतनी जल्द और इतना ज्यादा आपस में घुलमिल गये थे कि उन्हें देख कर दूसरा कोई भी यह फर्क नहीं जान सकता था। फुटपाथ से उन्होंने खरीददारी शुरू कर दी थी। उनके शहरों की अपेक्षा वहां चीजें सस्ती थीं या नहीं यह अलग बात है लेकिन दिल्ली के चाँदनी चौक पर खरीददारी करना ही उनके लिए अपने आप में एक उपलब्धि की तरह था। हंसी मज़ाक और अपनी मस्ती में उन्हें समय का पता ही नहीं चल रहा था। वैसे भी उन्हें आज जल्दी लौटने की फिक्र नहीं थी। वह शुक्रवार की शाम थी, ट्रेनिंग का कोर्स आज ही पूरा हुआ था। इधर-उधर काफी घूम लेने के बाद उनका मन अब सुस्ताने को कर रहा था।
“चलो फ्रुट-चाट खायी जाए।” जगदले ने प्रस्ताव रखा और वे सब ठेले की ओर बढ़ गये।
बस पर आते हुए सोमसुंदरम की बारी थी जब वह नारियल के बारे में बता रहा था। फ्रुट-चाट वाले ठेले पर अब बारी मनजीत की थी। सोमसुंदरम का मन चाट के एक पत्ते से नहीं भरा, यह वह जान चुका था। “डू यू वांट मोर ? (आपको और चाहिए) ?” उसने पूछा ।
“यस, यस कैन आई टेक वन मोर? (क्या एक और ले सकता हूं) ?” सोमसुंदरम उत्सुक था ।
“एक क्यों बाश्शाओ! जितना मन उतना खाओ।” कहते हुए उसने ठेले वाले को इशारा किया। वह तो मानों इसकी ही प्रतीक्षा में था।
“क्यों बाऊजी चटपटा खाओगे ?” इस बार ठेले वाला अपने ग्राहक के लिए कुछ स्पेशल करना चाहता था। मगर प्रिंसपल हिन्दी और वह भी जरा तंगी से समझने वाले सोमसुंदरम को उसकी बात समझने में कठिनाई हुई।
“हां, हां ज़रा चटपटा चाट ही खिलाओ इनको।” मनजीत ने उसकी मुश्किल आसान करते हुए कहा।
एक के बाद एक उसने पाँच पत्ते चाट ले कर खाये, तब जा कर उसके चेहरे पर संतोष के भाव आये। उसे खिला कर वैसे ही भाव मनजीत के चेहरे पर भी थे।
“ये सोमसुंदरम महाशय कह रहे थे कि कहीं दिल्ली में गुम न हो जाएं इसलिए घूमने नहीं निकलते थे।” मनजीत ने हंसते हुए कहा।
सोमसुंदरम ने सफाई दी, “वो तो मैं बोला, मैं जिन्दगी में बस दूसरी बार दिल्ली आया। आज से दस साल पहले जब एक क्रिमिनल का नार्को टेस्ट (लाई डिटेक्टर से ब्रेम मैपिंग) करवाना था, तब पहली बार मैं आया और अब इस ट्रेनिंग में। देखो तो दोनों ही बार सरकारी काम से।”
“पूरी जिन्दगी में केवल दूसरी बार ?” जगदले हैरानी से बोला।
“अगर आपको वह क्रिमिनल ना लाना होता और ना ही यह ट्रेनिंग लेनी होती तो आप कभी भी दिल्ली नहीं आते ?” जगदले ने पूछा।
“यस ! कभी नहीं।”
“इस हिसाब से तो आपके केरल और पूरे दक्षिण भारत में कई लोग होंगे जो अपनी जिन्दगी में कभी भी दिल्ली नहीं आते ?” हायातंगारकर ने आश्चर्य से कहा।
“यस यू आर राइट ! तो क्या हुआ, दिल्ली आना जरूरी है ?” सोमसुंदरम के जवाब पर सभी लाजवाब हो गये।
अगले दिन शनिवार और फिर रविवार को, सोमसुंदरम के शब्दों में कॉलेज गोईंग स्टूडेंटस् की तरह, वह चौंकड़ी खूब घूमी। कनाट प्लेस, पालिका बाजार, जंतर-मंतर, कुतुब मीनार, लोटस टैंपल, इंडिया गेट वे कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते थे। घूमते-घूमते जहां थक जाते वहीं आराम कर लेते, जहां भूख लगती वहीं खा लेते।
इडली-डोसा खा कर जहां मनजीत, जगदले और हायातंगारकर खुश होते तो सोमसुंदरम कहता भला यह भी कोई डोसा है। इसका सांभर है या पानी और चटनी में तो इतना कम नारियल है जैसे बनाने वाला नारियल डालना ही भूल गया हो। जब वे कुलचा खाते और सोमसुंदरम, जगदले तथा हायातंगारकर उसके स्वाद की प्रसन्नता से तारीफ कर रहे होते। मनजीत यह कह कर उनकी प्रसन्नता पर पानी डाल देता कि यह भी भला कुलचा है ? दुकान पर बोर्ड लगा है अमृतसरी कुलचा और इसे बनाने वाला कभी भी अमृतसर नहीं गया होगा। ये क्या बनाएगा अमृतसरी कुलचा ? ऐसे ही पाव-भाजी खाने पर जगदले और हायातंगारकर टिप्पणी करते कि पाव-भाजी खानी हो तो मुंबई की चैपाटी पर ही खानी चाहिए वर्ना कहीं नहीं। लेकिन तब मनजीत और सोमसुंदरम मज़े ले ले कर खा रहे होते।
इस तरह हंसते-बोलते, घूमते-फिरते उन लोगों को पता ही नहीं चला कब दिल्ली से वापसी का समय आ गया। सोमवार की भोर पांच बजे सबसे पहले सोमसुंदरम की फ्लाइट थी। जगदले ने उससे कह रखा था, वह जाने से पहले उससे जरूर मिले। लेकिन न जाने क्यों वह सुबह उसे उठाये बिना एयरपोर्ट चला गया। जब जगदले की आंख खुली और वह उठ कर उसके कमरे की ओर गया तो वहां ताला लटक रहा था।
मनजीत की ट्रेन दोपहर बाद दो बजे थी। इसलिए वह रात को ही सोच कर सोया था कि दस बजे से पहले नहीं उठेगा। वैसे भी जब कोई काम ना हो, फरवरी की ठंढी सुबह दिल्ली में काफी देर तक सुलाने वाली होती है। उसने दरवाजे पर ज़ोर की खटखटाहट सुनी तो बेमन से उठा।
“कौन है भाई इतनी सुबह-सुबह ?” फिर जगदले को देख कर बोला, “अरे आप, क्या हुआ ?”
“देखो ना सोमसुंदरम बिना मिले चला गया ।” जगदले उदास और चिन्तित था।
ओफो... इतनी सी बात। पाँच बजे सुबह न उठना पड़े इसी कारण उसने रात में ही सोमसुंदरम से विदा ले ली थी और यहां जगदले उसे उठा कर यह बात बता रहा है।
“अरे तो क्या हुआ हो सकता है उसे देर हो गयी होगी। आपको उठाता तो और देर हो जाती, उसकी फ्लाइट मिस हो जाती। इसीलिए बिना मिले चला गया होगा।”
“नहीं यार, यह बात नहीं है।” जगदले भीतर आ कर बैठ गया उसके चेहरे और आवाज में अजीब-सी खामोशी थी। “अभी सप्ताह भर पहले हम एक दूसरे से मिले भी नहीं थे। अब दो दिनों का परिचय इतना करीब ले आयेगा यह नहीं सोचा था।”
“क्या हुआ कुछ बोलिएगा भी ?” मनजीत की नींद उड़ चुकी थी।
“मेरी नींद खुलने पर जब मैं उसके कमरे पर गया और उसे वहां नहीं पाया तब उसके मोबाइल पर फोन किया। वह एयरपोर्ट पहुँच चुका था। उसने नहीं सोचा था कि मैं उसे फोन करूंगा। मैंने जब उसे जाने से पहले नहीं मिलने की शिकायत की और शुभ यात्रा कहा तो वह फफक कर रो पड़ा। कहने लगा, उसने कभी सोचा ना था, केरल से इतनी दूर यहां हिन्दी भाषी अनजान प्रदेश और अनजान लोगों में उसे हम जैसे लोग मिलेंगे। प्यार और अपनेपन से भरे ऐसे लोगों से जाने से पहले मिल कर विदा लेना उसके लिए बहुत कठिन था। अपनी पूरी जिंदगी में आज तक वह सिर्फ दो बार ही दिल्ली आया है, वह भी इस नौकरी के कारण जो बस और साल भर बाकी है। अगली गर्मियों में वह रिटायर होने वाला है, इस हिसाब से तो भविष्य में अब कभी हमारा मिलना नहीं हो पायेगा। वह बोलता जा रहा था और रोता जाता था। उसकी बातें सुन कर मेरा मन भी बड़ा खराब हुआ मैंने कहा कि मैं अभी एयरपोर्ट आता हूं मगर उसने रोक दिया उसकी फ्लाइट की घोषणा हो चुकी थी और रोहिणी से एयरपोर्ट तक जाने में दो घंटों से कम क्या लगते। कह रहा था, हमसे मिले अपनेपन को वह पूरी उम्र याद रखेगा अपनी अंतिम सांसों तक। उसने तुमसे, अलविदा... नहीं नहीं, पिन्ने काणाम् बोलने को कहा था !”
मनजीत का मन भी भींग गया, “यार, उसके हृष्ट-पुष्ट शरीर और डाई किये बालों से पता ही नहीं चला कि वह इतनी जल्दी रिटायर होने वाला है। मैंने नहीं सोचा था कि हमारे बारे में इतनी बातें उसके मन में थीं। आपसे बिना मिले और हमें इतना दुखी कर वह यूं अचानक ही चला गया।”
जगदले बोला, “... अगर बता कर और मिल कर ही जाता तो क्या यह दुख कम होता ! क़ाश मैंने उसे फोन ना किया होता। वह तो दुखी हुआ ही और हमें भी पूरी जिन्दगी के लिए उन्हीं दुखों में डुबो गया। वह जब-जब याद आयेगा, हमें रुलाएगा।”
“चलिये आज एक वादा करते हैं, हम कभी केरल जा कर कभी उससे मिलेंगे।” मनजीत बोला ।
“हाँ, उसे अचानक जा कर चौंका देंगे ठीक !” नौकरी की व्यस्तताओं मे ये संभव न होगा, यह जानते हुए भी जगदले ने हामी भरी।