पिया तोरा कैसा अभिमान / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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पिछले दिनों ट्रेन के सफ़र के दौरान इक सज्जन से बातचीत हो रही थी। उन्होंने बताया कि वे उम्र का लंबा सफ़र अकेले ही काट रहे हैं। पेशे से वो लेखक थे तो बात निकल पड़ी। उनकी शिकायत थी कि प्रेम सम्बन्ध तो बहुत बने लेकिन किसी भी महिला पर वो भरोसा नहीं कर सके। कोई भी उनके लायक नहीं थी। कोई उनके शब्दों से प्रेम करती थी, कोई उनके रंगरूप पर फ़िदा थी तो कोई उनकी शोहरत से प्रभावित थी। उनसे किसी ने प्रेम नहीं किया। वे हर महिला के साथ कुछ बरसों तक रहे और फिर अलग हो गए। वो कह रहे थे आप ही बताइये कैसे मैं उन चतुर चालाक महिलाओं पर भरोसा कर लेता और अपनी ज़िन्दगी नरक बना लेता। फिर वो बोले क्या आप मेरी दुःख भरी कहानी पर भरोसा करेगीं?

मैंने मुस्कुरा कर कहा, देखिये आप अजनबी है लेकिन मैं आपकी हर बात पर एतबार कर रही हूँ। आप अपनी महिला मित्रों या प्रेमिकाओं के साथ रहकर भी उन पर संदेह करते रहे। एतबार क्यों नहीं कर पाए? बोलिए? उनके पास जवाब नहीं था। जाहिर-सी बात थी उनका अभिमान बहुत बड़ा था।

अभिमान हमेशा आपको अकेला कर देता है। प्रेम और विश्वास आपके चारों ओर बस्ती बसाते हैं, फूल खिलाते हैं। वो सज्जन तो केवल एक उदहारण हैं। हमारे आसपास बहुत से लोग हैं जिन्हें अपने ज्ञान का अभिमान है। किसी को रूप का, किसी को दौलत का किसी को शोहरत का... आदि आदि। क्या है ये अभिमान?

अभिमान सदैव हमें डराता है। वह कभी भी हमें संवेदनशील नहीं होने देता। क्या आपने कभी सोचा है क्यों? इसलिए कि संवेदनशील होने के लिए आपको सारे आवरण हटा देने होते हैं। परत दर परत खुद को खोलना होता है... लेकिन अभिमान ये कभी नहीं होने देता। वो हमें रोकता है, व्यक्त होने से, खुलने से, नग्न होने से, आत्मीय होने से। हम भयभीत होते हैं। भय से हमेशा घिरे रहते हैं। कोई देख न ले, कोई जान न ले, कोई पहचान न ले। कोई चीज़ मेरे भीतर प्रवेश न कर जाये। कोई भीतर आने न पाए। ऐसा न हो कोई मेरे भीतर आकर मुझे नष्ट कर दे। मेरा वजूद खत्म कर दे। खुद को छिपाने के सौ हुनर आते है अभिमान को। अभिमानी हमेशा खतरों से घबराते हैं। वो जानते हैं किसी को करीब आने देने से सौ मुसीबतें साथ आएगी। अभिमानी व्यक्ति हमेशा कमजोर होता है। न वो किसी के भीतर प्रवेश करता है और ना किसी को अपने भीतर आने की अनुमति देता है।

वो हमेशा इक किले के भीतर बंदी की तरह रहता है। यह "किले बंदी" उसे सुकून देती है। सुरक्षा का आभास कराती है। वो अपने आसपास के लोगों के साथ संवाद बंद कर देता है। खासकर उन लोगों के साथ जिनसे वो प्रेम करता है। जैसे ही उसे ऐसा लगता है कि प्रेम हो रहा है वो तुरंत अपने किले में गुम हो जाता है। बड़े बड़े दरवाजों पर सांकल चढ़ा कर वो इत्मीनान से बैठ जाता है। ये अहंकार कवच बन जाता है... और कारागृह भी...

मुश्किल उस दम आती है जब, उन बड़े दरवाजों की दरारों से या "की-होल" से प्रेम झांक लेता है। अंदर प्रवेश कर जाता है। सूरज की किरण की तरह हौले से, चुपके से... और अपना निशान बनाता है। फूट पड़ता है। इक पतली रेखा के आकार में, उस समय अभिमान फिर से घबरा उठता है। उसकी सुरक्षा में सेंध कैसे लगी? वो गिर न जाए, इसलिए जमीन पर सोता है।

अभिमान हमेशा इतना भयभीत होता है कि वो अपनी मन रूपी सीता को, अपने इगो की जानकी को, लक्ष्मण रेखा के अन्दर ही रखता है ताकि उसका हरण ना हो पाए। ये अभिमान हमेशा अकेला ही जीता है। खुद को छिपाने के हुनर है उसके पास। छल हैं, करतब हैं, खुद को ढंकने के। उसे प्रेम अपनी मृत्यु लगता है। इसलिए अहंकारी कभी प्रेमी नहीं हो पाते।

ओशो ने बहुत सुन्दर बात कही है कि जीवन की गहराई में उतरना है तो असुरक्षित अनुभव करने को तैयार रहना होगा। खतरे उठाने ही होंगे। अज्ञात में जीना होगा। असुरक्षा जीवंत ही नहीं सुन्दर भी है। जबकि सुरक्षा कुरूप और मैली-सी होती है।

अभिमानी होकर हम अपने सभी द्वार, दरवाज़े, खिड़कियाँ, झरोखे बंद कर लेतेहैं। हवा, खुशबु, रोशनी का प्रवेश निषेध करते हैं। ये जीना हुआ या कब्र में रहना?

समन्दर इसलिए खारे हैं कि वे रहस्य छिपाते हैं, समेटते हैं सब भीतर ही भीतर। नदियाँ निश्छल भाव से बहती हैं। इसलिए मीठी हैं। मिठास घोलती हैं। तृप्त करती हैं। संतुष्ट करती हैं। समन्दर की एक बूंद भी तृप्त नहीं कर पाती और अभिमानी समन्दर एक दिन खुद ही अपनी पीड़ा के साथ खुद में ही डूब जाता है। घुट के, मरता है पल-पल... समन्दर में समन्दर को सहारा कौन देगा?

तो कैसे मिटे ये अभिमान ? सबसे पहले खुद को विशेष मानने का दंभ मिटाना होगा। सब मेरे जैसे और मैं भी सभी के जैसा हूँ। ये भाव हो।

सबसे पहले हवा को, खुशबु को महसूस करना होगा, खुद के भीतर उन्हें आने दें। इसके बाद प्रेम को भीतर आने दे। दरवाज़े खोल कर रखें। रास्ते बुहार कर रखें। प्रेम की किरण, अहंकार के ग्लेशियर को धीरे-धीरे पिघला देगी।

प्रेम को "हाँ" कहना सीखें। नहीं, कभी नहीं, कतई नहीं, ये अभिमान की भाषा है। स्वीकार कर लेना प्रेम है। अस्वीकार करना अहंकार है। प्रेम सहज है, अहंकार जटिल है। संघर्ष और प्रतिरोध करना अहंकार है जबकि स्वागत, मनुहार, मुस्कान प्रेम है।

जो तुम तक आता है, उसे विलीन होने देना प्रेम है। देख लेना, छू लेना प्रेम है, जबकि खुद को बचा लेना, सिकोड़ लेना, अभिमान है।

याद रखिये, अवरोध हमें असंवेदनशील बनाता है। अभिमानी लोग सबसे ज्यादा शिकायत करते हैं कि कोई उन्हें प्रेम नहीं करता। खुद को बंद कर लेने के बाद, सारे दरवाजे, खिड़की बंद कर लेने के बाद प्रेम कैसे उन्हें छुए?

सारा संसार भी अगर अभिमानियों पर अपना प्रेम उड़ेल दे; फिर भी वो प्रेम की एक भी बूंद महसूस नहीं कर पायेगे। उनका ये अभिमान ही उनकी सबसे बड़ी बाधा है। जिनके भीतर प्रेम प्रवेश नहीं कर पाता उनके भीतर परमात्मा प्रवेश कैसे करगें?

कितनी लहरें, सदियों से अभिमानी किनारों से एक ही बात पूछ रही हैं। कितनी मीठी नदियों ने समंदर में समां जाने से ठीक पहले पूछा होगा। रेत के कण ने, सीप से तड़प के पूछा होगा। समन्दर से बाहर कूद पड़ी मछली ने किसी मछुआरे से पूछा होगा। किसी ज्ञानी, किसी जोगी से किसी पगली ने पूछा होगा। मन्नत के धागों ने मन्दिर के देवता से... तो किसी दस्तक ने बंद दरवाजों से पूछा होगा कि... "पिया तोरा कैसा अभिमान?"