पिया पीर न जानी / मालती जोशी

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गतांक से आगे

सुबह उठी तो लगा, सर थोड़ा भारी है। शायद हरारत थी। वैसे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। महीने-भर से मैं अपने शरीर पर मनमाना अत्याचार कर रही थी। उसे घड़ी-भर भी चैन नहीं लेने दिया था। पहले रिश्तेदारों को ढ़ेर-सी चिट्ठियाँ लिखीं, फिर खरीददारी, निमंत्रण-पत्रों का वितरण, मेहमानों की आवभगत, फिर शादी की हड़बोंग, रिसेप्शन का सरंजाम। इसके बाद मेहनानों की विदाई का सिलसिला शुरू हुआ। सबके बाद बेटियों की रवानगी। कल सुबह पाँच बजे की जी०टी० से नूपुर नागपुर गई है। रात साढ़े दस बजे झेलम से पायल पुणे के लिए रवाना हुई।

और आज सौम्या और कुणाल गोआ जा रहे हैं। मैंने अपने कुनमुनाते शरीर से कहा- ‘‘भैया तीन-चार घंटे और सब्र कर ले। बच्चों को खुशी-खुशी हनीमून पर निकल जाने दे। वैसे भी बेचारे लेट हो गये हैं।’’ कुणाल के पिताश्री का सख्त आदेश था कि ‘घर में जब तक मेहमान हैं, ये लोग कहीं नहीं जाएँगे। इन लोगों को तो जिंदगी भर साथ रहना है, पर मेहमान रोज-रोज थोड़े आएँगे।’

उठने लगी तो अनजाने ही मुँह से एक कराह निकल गई।

‘‘क्यों, क्या हुआ ? तबीयत तो ठीक है ?’’ इन्होंने सिर से रजाई हटाकर औपचारिकता निभा दी।

‘‘तबीयत को क्या हुआ है !’’ मैंने चिढ़कर कहा- ‘‘सर्दी में बिस्तर छोड़ने का दिल नहीं कर रहा है, बस।’’

फिर मैं कमरे में रुकी ही नहीं। जरा भी अलसाती तो इन्हें संदेह हो जाता। किचन में आकर मैंने झटपट चाय बनाई। पंडित ईमानदारी से सुबह आ गया था। उसके हाथ कमरे में चाय भिजवाई, उसे मीनू समझाया और फिर नहाने चली गई।

पहला लोटा उँडेलते ही मेरी घिग्घी बँध गई। हे भगवान, कही सचमुच बुखार तो नहीं चढ़ रहा ! इससे तो अच्छा था कि नहाने की छुट्टी कर देती या फिर देर से नहा लेती। पर वह एक वहम-सा मन में बैठ गया है न कि कोई बाहर गाँव जा रहा हो तो नहाना-धोना पहले निपटा लेना चाहिए। मेरी सास तो बाद में कपड़े भी नहीं धोने देती थीं।

किसी तरह कपड़े पहने और बाहर आई। बिंदी लगाते हुए सोचा-बच्चों को अब जगा देना चाहिए। आवाज देते संकोच तो होता है, लेकिन नहीं दूँगी तो फिर लेट हो जाएँगी। पर बाहर आकर देखा, सौम्या उठ आई थी। गुलाबी साड़ी में वह ताजे खिले गुलाब की तरह लग रही थी। हैदराबाद मोतियों के इकहरे सेट को छोड़कर शरीर पर एक भी गहना नहीं था। कल रात ही वह सारे जेवर मुझे दे गयी थी। कुणाल कह रहा था-

‘‘ममा ! ये तुम्हारी बहू है या ज्वैलरी बॉक्स ? इसे लेकर तो मैं सिनेमा भी नहीं जा सकता, गोवा क्या जाउँगा।’’

इतने दिनों तक उसका गहनों से लदा-फँदा रूप देखने के बाद यह निराधार सौंदर्य बड़ा मोहक लग रहा था। मैं ठगी-सी उसे देखती ही रह गई। मेज पर नाश्ता लगाते हुए उसने पता नहीं कैसे मेरी अपलक दृष्टि को अनुभव किया। पलटकर उसने मेरी ओर देखा और झुककर मेरे पैर छू लिए। मैंने दोनों हाथों से उसका चेहरा थामकर माथे को हल्के से चूम लिया।

‘‘हाय मम्मी जी, आपको तो बुखार है !’’ उसने मेरे दोनों हाथ हाथों में लेते हुए कहा। मैंने जल्दी से हाथ छुड़ा लिए और कहा-‘‘डॉक्टरों को तो बस हर जगह पेंशेट ही नजर आते हैं। अब जिंदगी भर तुम्हें यही कहना है, लेकिन इन 8-10 दिनों में डॉक्टरी नहीं करोगी समझी। अब जाओ और उस लेट-लतीफ को जगाओ। नहीं तो प्लेन छूट जाएगा।’’

इसके बाद मैं नाश्ते के सरंजाम में लग गई और खुद भी अपनी नासाज तबीयत को भूल गई। उतनी सुबह मैंने इडली, बड़ा, साँभर बनवा लिया था। मिठाइयों का तो अंबार ही घर में लगा हुआ था। पूरी मेज डोंगो से खचाखच भर गई थी। ‘‘कुणाल तुम्हारी मम्मी को शायद पता नहीं है कि हवाई जहाज में नाश्ते का भी प्रावधान होता है।’’ इन्होंने चुटकी ली।

‘‘मुझे सब पता है। और वहाँ जैसा नाश्ता मिलता है वह भी मालूम है।’’ मैंने तुनककर कहा।

‘‘खाना तो डैडी, सब जगह मिलता है, पर मम्मी के हाथ का स्वाद थोड़े ही मिलता है। मेरा तो मन हो रहा है कि ऊँट की तरह 8-10 दिन का इकट्ठा ठूँस लूँ।’’ ‘‘ज्यादा मक्खनबाजी की जरूरत नहीं है। खाते हुए जरा घड़ी की तरफ भी देखते जाओ।’’ मैंने झूठमूठ की डाँट लगाई, पर भीतर से मैं पुलकित हो रही थी। अपने छौने पर प्यार उमड़ रहा है।

चलते समय दोनो ने पैर छुए तो छाती से लगाकर प्यार करने का मन हो आया पर डर गई। अगर सचमुच बुखार हुआ तो कुणाल फौरन पकड़ लेगा। फिर उसके पिता जी हाय-तौबा मचाने लगेंगे। जाते हुए बच्चों का मूड बेवजह खराब हो जाएगा। इन्हें तो बस चिल्ल-पो मचानी आती है। करेंगे-धरेंगे कुछ नहीं। अगर बुखार ज्यादा हुआ तो कुणाल को रोक भी लेंगे, कोई भरोसा नहीं है।


हवाई अड्डे से लौटते हुए इन्होंने पूछा-‘‘कहीं बाजार वगैरह जाना है या घर ही छोड़ दूँ, क्योंकि मैं तो अब सीधे दफ्तर ही जाऊँगा। लंच पर भी वेट मत करना।’’

‘‘बाजार में अब क्या रखा है। बहुत खरीदारी कर ली। मुझे तो आप घर ही छोड़ दीजिए। तबीयत कुछ भारी लग रही है।’’

‘‘बी०पी० तो नहीं बढ़ गया ? कुणाल से चेक करवा लेतीं।’’

‘‘क्यों, शहर में डॉक्टर नहीं हैं क्या ? जाते-जाते भी उन्हीं लोगों को बोर करती ?’’

‘‘इसमें बोर करने की बात नहीं है ? इट इज हिज प्रोफेशनल ड्यूटी।’’

‘और आपकी कोई ड्यूटी नहीं है ?’ मैंने मन-ही-मन भुनभुनाते हुए कहा- ‘यह भी तो नहीं होगा कि आधे दिन की छुट्टी ही ले लें।’


‘‘अच्छा, टेक केयर,’’ उन्होंने गेट के बाहर ही गाड़ी रोकते हुए कहा- ‘‘और लंच पर इंतजार मत करना।’’

‘‘सुन लिया कितनी बार बताएँगे।’’ मैं फिर भुनभुनाई। तब तक गाड़ी नजरों से ओझल हो चुकी थी।

इतने दिनों की गहमागहमी के बाद वह खाली घर एकदम भाँय-भाँय कर रहा था। भीतर पाँव देते ही लगा, यह सन्नाटा मुझे लील जाएगा। रसोई में झाँकने को भी इच्छा नहीं हुई। पंडित को सबकुछ समेटने के लिए कहकर दोपहर की छुट्टी दे दी और खुद कमरे में आ गई। कपड़े भी नहीं बदले और बिस्तर पर दुबक गई। लेटते ही झुरझुरी हो आई, फिर तो शरीर काँपने लगा, दाँत किटकिटाने लगे। इनकी भी रजाई ओढ ली, फिर भी ठंड थी कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मैंने सावित्री को आवाज दी कि बड़ी पेटी में से एक और रजाई लाकर डाल देना, पर वह शायद आँगन के बर्तन माँज रही थी। पंडित भी चला गया था। न मेरी आवाज निकल रही थी, न मुझमें उठने की हिम्मत थी। यों ही ठिठुरती हुई पड़ी रही। सोचा, बहुत होगा तो गद्दे के नीचे दुबक जाऊँगी। पर भाग्य से उतनी नौबत नहीं आई।

धीरे-धीरे मेरी कँपकँपी कम हुई। दाँतों का बजना कम हुआ और मैंने राहत की साँस ली। तब अचानक मेरे मन में एक विचार कौंधा और मैं काँप गई। कहीं मेरे शरीर में मेरी सास की आत्मा तो नहीं आ गई ? नहीं तो इस तमाशे का मतलब क्या है ? अगर चार घंटे पहले ही यह सब होने लगता तो क्या ये कुणाल को जाने देते ? या कुणाल के ही पाँव कैसे उठ पाते ? मैंने ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिया कि मेरी लाज रख ली, नहीं तो बहूरानी मुझे जिंदगी भर कोसती रहती (जैसे मैं परम पूज्यनीय अम्मा जी को कोसती हूँ) ।

मुझे अपने दिन याद आए। उस समय हनीमून पर जाने का रिवाज इतना आम नहीं था। यों जाने वाले जाते भी थे, पर हमारे घर में वह सवाल ही नहीं उठा। मैंनें भी खास बुरा नहीं माना। घर में एक अकेली सास ही थी। सोचा, अपना हनीमून तो घर में भी मन सकता है।

यह तो बाद में पता चला कि यह जो एक अकेली औरत है, पति की मुकम्मल दुनिया है (श्रवणकुमार के बाद इतिहास में इनका ही नाम लिखा जाएगा।) पहली बार सुबह-सुबह चाय बनाकर इन्हें जगाया तो फरमान मिला की सुबह की चाय अम्मा जी के कमरे में पी जाती है। रात के बासी कपड़ों में उनके सामने जाते संकोच हुआ। चाय मैंने उनके बेटे के ही हाथ भिजवाई और खुद डायनिंग टेबल पर अकेली बैठकर पीती रही रोमांस हवा हो गया।

खाना तो खैर सुबह-शाम ही होता था, पर चाय भी कभी अकेली पीनी नसीब नहीं हुई। शाम को ये दफ्तर से लौटते तो माता जी दरवाजे पर ही लपक लेतीं। फिर चाय-नाश्ता सब उनके साथ ही होता। दिन-भर के सारे हाल-चाल वे माँ को सुनाते, वे रस ले-लेकर सुनतीं। मैं तटस्थ श्रोता की भूमिका निबाहती। इसके बाद वे जब कमरे में लौटते तो रीत चुके होते। पस्त होकर पड़े रहते। दिन-भर की मेरी आतुर प्रतीक्षा व्यर्थ हो जाती कितना कुछ अनकहा रह जाता।

शाम को कहीं घूमने जाना हो या पिक्चर देखनी हो, उस समय माँ का अकेलापन इन्हें अपराध-बोध से भर देता। लिहाजा यथासंभव हम तीनों साथ ही बाहर निकलते या फिर घर में बैठकर रमी खेलते। अपवाद केवल उन शामों का होता था जब हम दोनों कहीं निमंत्रित होते थे।

महीने-भर में ही मैं इस रूटीन से ऊब गई। कहीं बाहर जाने के लिए मन फड़फड़ाने लगा। तभी पता चला ये किसी सेमिनार के लिए पटना जा रहे हैं। मैंने सोचा, न सही कश्मीर, मसूरी या कुल्लु-मनाली, अपन पटना ही चले जाएँगे। कुछ तो चेंज होगा। प्रतीक्षा करती रही कि ये मुझसे भी चलने के लिए कहेंगे। अम्मा जी से मेरे लिए औपचारिक अनुमति माँगेंगे। पर जब इन्हें अपना अकेले का सूटकेस जमाते हुए देखा तो अड़ियाकर पूछ ही लिया-‘‘हम भी चले ? ’’

‘‘कहाँ ?’’

‘‘आपके साथ।’’

‘‘मेरे साथ तुम वहाँ जाकर क्या करोगी ?’’

‘‘कुछ नहीं। बस यों ही घूम लेंगे। हो सका तो लौटते समय कलकत्ता हो आएँगे।’’

‘‘और अम्मा ? इतने दिनों तक क्या अकेली रहेंगी ?’’

‘‘इतने दिन कहाँ, हफ्ते-दस दिन की तो बात है। इतना अकेले तो वे पहले भी रह लेती होंगी।’’

‘‘पहले की बात और है। तब मजबूरी थी। वैसे भी मुझे लगता है, शी इज नॉट वेल। कल सारी रात खाँसती रही हैं।’’

इसके बाद कुछ कहना-सुनना व्यर्थ था। उसके बाद मैं मुँह फुलारक बैठी रही। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। जाते समय भी बार-बार अम्मा का ध्यान रखने को कह गए, जैसे मेरा कोई अस्तित्व नहीं था। उनके जाते ही मैंने अपने-आप को कमरे में बंद कर लिया और रोती रही। दो-एक बार अम्मा जी ने किसी कारण से आवाज भी दी तो मैं अनसुना कर गई। उन पर तो मुझे सबसे ज्यादा ताव आ रहा था। अपने बेटे की परम भक्ति को जानती तो हैं। आगे होकर खुद ही कह देतीं कि बहू को ले जाओ तो क्या बिगड़ जाता ? क्या दो दिन से मेरा उतरा हुआ चेहरा उन्होंने देखा नहीं होगा ? पर जानबूझकर अनजान बनी रहीं।

दोपहर को रामदेई कपड़े रखने आई तो बोली- ‘‘बहू जी ! अम्मा जी चाय के लाने बैठी हैं।’’

मन मारकर उठना ही पड़ा। अम्मा जी को चाय बनाकर दी और फिर शाम के खाने की तैयारी शुरू कर दी। उससे तो मुक्ति नहीं थी। अम्मा जी और रामदेई पूरे वक्त मेरी सूजी हुई आँखों को देखती रहीं, पर किसी ने कुछ नहीं कहा।

रात खाने के समय मेरी पेशी हुई। बोलीं- ‘‘इतना ही था तो साथ चली जातीं। नौकरों-चाकरों के सामने नौटंकी क्या अच्छी लगती है !’’

मुझे तो जैसे आग लग गई। तो मैं नौटंकी कर रही थी ! आदमी कम-से-कम भाषा का चुनाव तो ठीक से करे। गुस्सा तो बहुत आ रहा था, फिर भी संयम बरतकर कहा-

‘‘साथ जाने की बात तो थी पर जो अकेली रह जातीं, इसलिए.......’’

‘‘अरे हमारा क्या है। हम तो अकेलापन लिखाकर ही लाए हैं। तुम्हें आठ दिन का विछोह भारी पड़ रहा है और यहाँ चौदह साल से बैठे हुए हैं।’’


मैं तो स्तब्ध रह गई। ये कैसी महिला हैं ? किस प्रसंग की तुलना किस प्रसंग से कर रही हैं। बहू तो जैसी भी है पराई है, पर कम-से-कम अपने बेटे का अमंगल तो न सोचें।

पता नहीं क्यों मुझे उनसे एकदम वितृष्णा-सी हो गई। सोच लिया कि इस औरत के सामने कभी अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करूँगी। उन्हें दुबारा कुछ कहने का मौका नहीं दूँगी। मुझे तो बस उनके सुपुत्र की प्रतीक्षा थी। यह बात तो मैं उनसे जरूर कहूँगी। वे भी तो जान ले कि उनकी परम पूज्यनीय माताजी क्या चीज हैं। ये पूरे बारह दिन बाद लौटे। दिन-भर मैं कुलबुलाती रही, पर कुछ कहने-सुनने का मौका ही नहीं मिला। हस्बे-मामूल पहला मौका अम्मा जी को ही मिला। उन्होंने मेरी शान में काफी कसीदे पढ़े होंगे, क्योंकि ये रात को सोने के लिए आए तो भरे हुए थे आते ही बोले- ‘‘छीः ! ये क्या बचपना करती रहती हो। अम्मा ऑकवर्ड फील कर रही थीं। भला इसमें इतना रोने-धोने की क्या बात थी। मैं कोई विदेश तो गया नहीं था।’’

उनकी इस बात पे मैं इतना रोई, इतना रोई की रोते-रोते सुबह कर दी।

‘‘मेमसाब खाना नहीं खाएँगी क्या ? साब भी अभी तक नहीं आए, दो बज रहे हैं।’’

सावित्री मेरे सिरहाने खड़ी होकर पूछ रही थी। जैसे ही मैंने कुछ कहने के लिए रजाई हटाई, वह चौक पड़ी- ‘‘अरे आप तो रो रही हैं। बाबा की याद आ रही है ? यह बात ठीक नहीं है मेमसाहब ! अब को जी कड़ा करना होगा। अब तो बहुरिया आ गई है अब बाबा अपने अकेले के थोड़े ही हैं।’’

मुझे लगा, सावित्री अगर इसी तरह बोलती रही तो मैं सचमुच फफककर रो पड़ूँगी।

उसे टालने की गरज से मैंने कहा- ‘‘सुबह नाश्ता बहुत हो गया था न, इसलिए आज साहब भी नहीं खाएँगे, मुझे भी भूख नहीं है। तुम खा-पीकर हॉल में आराम करो। चाहो तो टी०वी० खोल लेना किसी का फोन आये तो बता देना, घर में नहीं हूँ। दो रातों की जागी हूँ। जरा सोना चाहती हूँ।’’

तबीयत खराब होने की बात मैंने जानबूझ कर नहीं की। अभी विक्स की शीशी लेकर बैठ जाती। उसके जाते ही मैंने चेहरे पर हाथ फेरा, सचमुच आँसुओं से भीग रहा था। मतलब यह तीन साल पुराना जख्म अब भी हरा है। अब तो ईश्वर की कृपा से सब कुछ सुख-चैन है, पर यह घाव जरा-सा छू जाए तो टीस उठता है।

और ऐसे घाव, ऐसे जख्म एक थोड़े ही है, कई हैं।


मेरी सास में अपनी बात मनवाने की, अलग अस्तित्व जताने की, अपनी महत्ता प्रतिवादित करने की अद्भुद क्षमता थी। कोई भी खुशी का मौका हो-या तो वे बीमार पड़ेंगी या रोने बैठ जाएँगी, या फिर लड़ पड़ेंगी। मुझे एक भी ऐसा तीज-त्योहार याद नहीं आता जब घर में उन्होने हंगामा न किया हो। उस समय मेरा भी बचपना था, नई-नई उमंगे थीं, शौक थे, अरमान थे। इसलिए निराशा भी बहुत होती थी, पर हर बार कुढ़न के सिवा कुछ भी हाथ नहीं आता था।

नूपुर का पहला जन्मदिन याद आता है। मेरी शादी के बाद घर में यह पहला आयोजन था जो मैं अपनी जिम्मेदारी पर कर रही थी। इसलिए मेरे उत्साह का अन्त नहीं था। मैंने बड़े कलात्मक निमंत्रण-पत्र बनाए थे। गुड़ियाँ के लिए सफेद फ्रिल वाली प्यारी-सी फ्राक बनवाई थी। नाव के आकार का केक बनवाया था। रात-रात-भर जागकर बच्चों के लिए रिटर्न गिफ्टस पैक किए थे। बहुत दिमाग खपाकर मीनू तैयार किया था। दो दिन पहले से मिठाइयाँ तैयार कर ली थीं। यहाँ-वहाँ से प्लेटें, चम्मच और गिलास आदि इकट्ठा कर लिए थे।

सुबह-सवेरे नुपूर को आशीर्वाद दिलाने के लिए अम्माजी के पास ले गई तो पता चला, तबीयत खराब है। बी०पी० हाई हो गया है। वे कुछ इस निस्पंद पड़ी हुई थीं कि इन्होंने तो प्रोग्राम कैंसिल करने के लिए कह ही कह दिया, पर भला हो डॉक्टर शर्मा का। वे बोले-‘‘ऐसी कोई बात नहीं है। थोड़ा रेस्ट ले लेंगी तो शाम तक ठीक हो जाएँगी।’’

खैर, उन्हें तो क्या ठीक होना था, शाम तक ये भी उस कमरे से बाहर नहीं निकले। दिन भर मैं अकेली ही लगी रही। आते-जाते अम्माजी का हाल-चाल पूछना भी जरूरी था। शाम को यह आलम था कि मैं मेहमानों से घिरी हुई, गुड़िया का हाथ थामें केक काट रही थी और उससे पापा अम्मा के सिरहाने बैठे पेपर पढ़ रहे थे। बाद में उस बी०पी० का राज मालूम हुआ। अंडे वाले केक पर तीखी प्रतिक्रिया थी। मैंने अपना सिर पीट लिया। यह बात पहले भी तो बताई जा सकती थी। लेकिन पहले बता देती तो फिर ये नाटक कैसे हो पाता। तर्क तो यह दिया गया कि कुछ अपनी अक्ल से भी तो काम लेना चाहिए। अक्ल तो मेरी सचमुच मारी गई थी, नहीं तो हर बात के लिए हाईकमान की मंजूरी न ले लेती ?

पायल हुई तो घर में मातम छा गया जैसे पता नहीं क्या हो गया है। मिठाई तो दूर किसी ने उसके लिए एक नई क्राक तक नहीं खरीदी। दो महीने तक बेचारी नूपुर की उतरन पहनती रही। आखिर एक दिन डरते-डरते मैंने उसके नामकरण के लिए पूछ लिया तो तुनकर बोलीं-‘‘कुछ भी रख लो, क्या फर्क पड़ता है।’’ ‘‘नहीं, मैं सोच रही थी कि इस बहाने कॉलोनी की औरतों को ही बुला लेती। कम-से-कम उसके नाम पर पाँच गीत तो बज जाते।’’

‘‘तुम तो ऐसा जश्न कर रही हो, जैसे लड़का हुआ है।’’ उन्होंने कसैले स्वर में कहा तो मैं चली आई। मेरे बाहर पाँव देते ही इनसे बोलीं, ‘‘इसलिए मैं इस रिश्तें के लिए मना कर रही थी। पर उस समय तो तुम कुछ सुनने की स्थिति में नहीं थे न। इसकी माँ के भी तीन लड़कियाँ ही हैं। पता नहीं अब हमारे यहाँ भी लड़का होगा या नहीं। नहीं तो पितर प्यासे ही रह जाएँगे।’’

वे और किसी कारण से मुझे मना करती तो मैं जिद न पकड़ती, पर इनकी इस आखिरी बात ने मेरा खून खौला दिया। हाँ, हम तीन बहनें ही थीं, पर हमारे माता-पिता ने हमें कभी यह अहसास नहीं होने दिया कि हम अनचाही संतान हैं। मैं भी अपनी बेटियों को यह अहसास कभी नहीं होने दूँगी।

और मैंने एक छोटा-सा आयोजन कर ही डाला। उस दिन अम्मा जी बीमार तो नहीं पड़ी, पर मंदिर चली गईं। रामदेई ने टोका तो बोली-‘‘वहाँ भागवत बैठी है उसे खंडित कर दूँ क्या ? इनके यहाँ तो अब रोज ही बच्चे होते रहेंगे। उनके पीछे मैं क्या अपना पूजा-पाठ छोड़ दूँ ?’’

कुणाल के जन्म पर मुझे सिर्फ इस बात की तसल्ली थी कि अब अम्मा जी खुश हो जाएगी उनके सारे गिले-शिकवे दूर हो जाएँगे, पर वे तो उसे गोद में लेते ही रो पड़ी। बोलीं- ‘‘तू कहाँ से आ गया रे ! मैं तो समझी थी कि तेरे दादा का वंश डूब ही जाएगा।’’

खुशी के मौके पर रोना उनका खास उसूल था। अपने स्वर्गीय पति की याद को जैसे वे गाँठ में बाँधकर रखती थीं। उसके बहाने वे किसी भी समय आँसू बहा लेती थीं। कुणाल का मुण्डन हो, जनेऊ हो- यहाँ तक कि उसके मेडिकल में दाखिले पर भी उनकी याद आ गई थी। इसके तो हर प्रमोशन पर अम्मा जी का आँसू बहाना लाजमी था। इस बँगले का जब ग्रहप्रवेश हुआ तो उन्हें रोना हुआ कि उनकी जिंदगी तो किराए के दो कमरों में ही पूरी हो गई। ये ठाठ उन्हें नसीब न हुआ। नई गाड़ी में बैठीं तो फफककर रो पड़ीं। बोलीं -‘‘तुम्हारे बाबूजी बेचारे आठ-आठ मील दूर तक साइकिल से जाते थे। एक स्कूटर तक हम लोग खरीद नहीं सके।’’ पता नहीं क्यों, उस स्वर्गीय व्यक्ति की कल्पना मैंने कभी अपने ससुर के रूप में नहीं की। न कभी वे मुझे कुणाल के दादा या इनके पिता के रूप में याद आए। मेरे लिए उनका वजूद सिर्फ अम्मा जी के पति के रूप में था। कभी-कभी उन पर बड़ा गुस्सा आता कि उन्हें दुनिया से भागने की ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी। कुछ दिन रह लेते तो कम-से-कम मेरे घर की हर खुशी में यह आँशुओं का खारापन तो न घुलता।

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
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