पिल्ले / सुधाकर अदीब
धनपत रोज सुबह फटी कमीज और एक मैला सा तहमद पहने अपनी साइकिल मरम्मत की दुकान लगाता है। नीम के पेड़ के नीचे। उस चौराहे से उत्तर दिशा की सड़क पर धनपत का गाँव पड़ता है। धनपत रोज सुबह तीन किलोमीटर का रास्ता तय कर इस चौराहे पर आता है, अपनी रोजी-रोटी कमाने। यह चौराहा इस ग्रामीण अंचल में धनपत के लिए वरदान सरीखा है। चौराहे का अर्थ ही है चार-सड़कों अथवा चार दिशाओं का संगम। आने जानेवाले यात्रियों की अधिकतम संख्याओं और संभावनाओं का केंद्र स्थल। धनपत की अपनी जीवन-गाड़ी भी इस चौराहे पर किसी प्रकार से घिसट-घिसट कर चल रही है।
धनपत को तो यह भी नहीं मालूम कि उसकी जाति क्या है? मगर गाँव के बड़े-बुजुर्गों का कहना है कि वह एक आदिवासी माँ-बाप की संतान है। पड़ोस का आधा जंगल जब ठेकेदारों की मनमानी और वन विभाग के कर्मचारियों की मिलीभगत और उनकी हवस की भेंट चढ़ गया और आधा बचा जंगल प्राकृतिक आपदाओं की मार से लगभग साफ हो गया तो वहाँ बसे आदिवासी समाज के लोग अन्यत्र जंगलों में पलायन कर गए। उस दौरान धनपत के बाप ने लकड़कट्टे ठेकेदारों का विरोध किया तो एक दिन वह मारा गया। धनपत की माँ गर्भवती थी।
वह जान बचा कर भागी और इसी गाँव में आ बसी। मेहनत-मजूरी करते उसने इसी गाँव में धनपत को जन्म दिया। रेंगता-राँगता धनपत किसी तरह बड़ा हुआ। आगे चल कर वह भी खेत मजूरी करने, लकड़ियाँ बीनने और फिर साइकिल पंचर जोड़ने जैसे छोटे-मोटे काम करने लगा। फिर एक रैदास की बेटी कमली से धनपत का ब्याह हो गया। धनपत अब कमली और अपने बच्चों के लिए जीता-जूझता है। साइकिल मरम्मत की यह दुकान ही उसकी प्रमुख जीविका है।
किसी राहगीर की साइकिल का टायर पंचर हो जाने पर जब धनपत उस साइकिल को लिटा कर टायर में से ट्यूब निकालता है तो साइकिल मालिक को लगता है कि जैसे कोई बहुत बड़ा कुशल सर्जन मरीज के पेट की आँत बाहर निकाल कर उसका ऑपरेशन करने जा रहा हो।
धनपत साइकिल-साज के हाथ बड़ी तेजी से पंप से हवा भर कर उस बीमार रबर-ट्यूब को फुलाते हैं... धनपत हवा भरनेवाले पंप पर ऊपर-नीचे हुमक कर साइकिल मालिक की डूबती नब्ज में भी बराबर आशा का संचार करता है... अपनी बेपर की बातों से... या फिर कुछ न कुछ कहते सुनते कुछ कभी स्वयं से भी बतियाता... ससुरी कानी चिरैय्या की नानी...दहिजार की...तुमका तौ...हमै...ठीक करब....
यह धनपत की रोज की आदत है। सामनेवाले से नहीं तो स्वगत-संभाषण ही सही। अपने आप में अक्सर खोया खोया सा रहता है धनपत।
कुछ ही देर में एक लोहे की पुरानी पानी भरी परात में जब वह साइकिल के ट्यूब को घुमा-घुमा कर उसे दबा-मरोड़ कर डुबोता उठाता है तो उसकी चौकन्नी नजरों को तलाश होती है पानी के उन छोटे-छोटे बुलबुलों की, जो किसी भी क्षण पानी में से बुज-बुज करते हुए उठेंगे और संकेत करेंगे इस बात का, कि रबर-ट्यूब के उस हिस्से में कोई छेद है... जहाँ उसे पंचर जोड़ना है।
आँत का सड़ा हिस्सा मिल गया!... अब धनपत उसे दुरुस्त करेगा... साइकिल मालिक सोचता है और अपने कुर्ते की जेब में पड़े पैसे टटोलता है... कम से कम पाँच रुपया तो ले ही मरेगा ससुर।
धनपत एक रबर के टुकड़े को कैंची से गोल गोल काट कर उसकी चिप्पी तैयार करता है। अगर धनपत उतना कल्पनाशील होता जितना मास्टर चिरौंजी लाल शर्मा जी थे तो वह यह सोचता कि यह रबर की चिप्पी इस साइकिल ट्यूब में चिपक कर उसके भीतर की हवा को ही रोकने नहीं जा रही, बल्कि खुद उसके भीतर की प्राण वायु को भी यही चिप्पी इसी तरह सुरक्षित रखेगी।
ऐसा विचार आने पर धनपत उस चिप्पी में चिपकउआ सरेस लगाने से पूर्व उसे एक बार चूम अवश्य लेता। परंतु वह कोई मास्टर चिरौंजी लाल जैसा पढ़ा-लिखा इंसान थोड़े ही है। वह तो धनपत है, जिसके घर का चूल्हा उसी साइकिल की दुकान की बदौलत जलता है।
गाँव में धनपत के घर के चूल्हे पर उसकी घरवाली कमली जब अपने पाँच छोटे-छोटे बच्चों से घिरी रोटी के टिक्कड़ सेंकती है तो उनका सबसे छोटा बच्चा उसकी गोद में उसके सूखे स्तन चूसता रहता है और बाकी चार बढ़ते हुए कृषकाय-कुपोषित बच्चे बड़ी तन्मयता और व्यग्रता के साथ उस सिकती हुई रोटी की ओर इस प्रकार टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं जैसे किसी सर्कस में ऊँचे-ऊँचे झूलों पर झूलते हुए करतबबाजों को दर्शकगण मुँह खोले हैरत भरी नजरों से देखते हैं।
मास्टर चिरौंजी लाल। उनके रिटायर होने में अभी दो साल बाकी हैं। लंबा तपा हुआ मुखमंडल। सिर पर खिचड़ी बाल। हमेशा खादी का कुर्ता-पैजामा पहनते हैं। पैरों में काले रंग का कपड़े का जूता। कंधे पर हरे नीले रंग का चेकदार गमछा।
ये मास्टर चिरौंजी लाल शर्मा के अंगवस्त्र ही नहीं, बल्कि उनकी स्थायी पहचान हैं। उधर दिल्ली शहर में मास्टर जी की तीसरी पीढ़ी अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ रही है। मास्टर जी के दो पुत्र हैं। पुत्रों को उच्च शिक्षा दिलवाने में मास्टर जी ने अपनी सारी उम्र लगा दी। अब एक बेटा अमरीका में है। उसने एक अमरीकी स्त्री से विवाह कर लिया है और वहीं बस गया है। उसके कोई संतान नहीं है।
दूसरा पुत्र दिल्ली में बड़ा अफसर है। उसके दो बच्चे है। दोनों कॉन्वेंट में पढ़ते हैं। उनका घर एक बड़ी राजकीय कॉलोनी में है, जिसके सामने से एक फ्लाई ओवर और सड़के तेज रफ्तार जिंदगी का हरदम नजारा कराती रहती हैं। उनके घर में पले दो पॉमेरियन-डॉग्स मनपसंद दूध डबलरोटी खाते और घर भर का प्यार दुलार पाते हैं। उनके पड़ोसियों के घर में भी भाँति-भाँति के कुत्ते पलते हैं - अल्सेशियन, लेब्रॉडोर, डॉबरमैन, बॉक्सर, गोल्डेन स्पिट्ज इत्यादि। यह कुत्ते अक्सर अपने रुतबेदार मालिकों के साथ उनकी बड़ी-छोटी कारों में बड़ी शान से देश की राजधानी की खूबसूरत सड़कों पर भ्रमण किया करते हैं।
मास्टर चिरौंजी लाल धनपत साइकिलसाज के गाँव में उसके नियमित ग्राहक हैं। जहाँ वह रहता है मास्टर जी का वहीं प्राथमिक स्कूल है। मास्टर जी वहीं पढ़ाते हैं और आते-जाते धनपत से उसकी दुकान पर हालचाल पूछते हैं। जरूरत पड़ने पर अपनी साइकिल में हवा भी भरवा लेते हैं। धनपत भी बड़ी खुशी खुशी मास्टर जी की साइकिल में हवा भरता है। इसके एवज में महीने में एक बार उसे मास्टर जी से दस रुपयों की प्राप्ति होती है।
मास्टर जी का बस चलता तो वह धनपत और उसकी साइकिल की दुकान को पूरा का पूरा उठा कर गाँव में अपने स्कूल के पास उसी तरह स्थापित कर देते जैसे रावण ने महाशिवलिंग को एक बार कैलाश पर्वत से उठा कर लंका ले जाने का उपक्रम किया था। कम से कम साइकिल की वह दुकान स्कूल के निकट रहती तो उन्हें हवा मरम्मत आदि की और भी सुविधा हो गई होती...
परंतु रावण भी तो आखिर शिवलिंग कहाँ ले जा पाया था? ...मास्टर जी सोचते हैं और मजबूरन अपना यह बहुमूल्य विचार हर बार स्थगित कर देते हैं। यद्यपि धनपत की दृष्टि से वह चीजों को नहीं देख पाते है कि यदि धनपत अपने गाँव में बैठ कर पंचर जोड़ रहा होता तो उसे वह चार पैसे भी न मिलते जो किसी न किसी तरह वह इस चौराहे पर कमा लेता है।
'क्यों रे धनपत! कैसी कट रही है इन दिनों?'
मास्टर चिरौंजी लाल अक्सर उससे इसी तरह का कोई औपचारिक प्रश्न पूछते हैं और धनपत का उत्तर पूछे गए प्रश्न से प्रायः हर बार भिन्न होता है।
इस बार धनपत का उत्तर था 'इन दिनों...? अब क्या बताएँ मास्टर जी! ...गाँव में कलुआ की कुतिया ने पाँच पिल्ले दिए हैं... सारा दिन गाँव में 'कें-कें' करते मारे-मारे फिरते हैं... दो पिल्ले तो एक दिन एक साथ एक ट्रैक्टर के पहियों में दब कर टें हो गए... बचे तीन... उनमें से...'
धनपत हवा भरनेवाले पंप पर ऊपर नीचे हुमकता जाता और कहता जाता 'मास्टर जी! उनमें से एक गाँव की तलैया में गिर कर डूब गया... दूसरे को पड़ोस के लौंडे उठा ले गए... पिलिया थी वह ...बच गई तो ससुरी जहाँ जाएगी बच्चे जनेगी।'
मास्टर जी को धनपत की इन ऊलजलूल बातों से बड़ी ऊब होती है। पर वह है कि अपनी छेड़ी हुई हर बात को अंत तक पूरा करने का आदी है। बड़ा इत्मीनान है उसके पास। वह धीरे धीरे आगे बोलता जाता है -
'और जो... आखिरी पिल्ला बचा... उस अभागे को उसकी कुतिया महतारी हरदम दूध पिलाती रहती है और... जब तब चाटा करती है... कि पता नहीं कब वोहू किसी दिन गायब न हो जाए...।'
पहिए का टायर तीन अँगुलियों से दबा कर मास्टर चिरौंजी लाल उसका कड़ापन महसूस करते है 'बस-बस!!' उनके मुख से निकलता है।
'हाँ तो मास्टर जी!... बस ऐसी ही जिंदगी है हमारी।' धनपत अपनी बात और साइकिल में हवा भरना दोनों एक साथ खत्म कर देता है। वह झुक कर साइकिल के टायर में हाथ लगाता है।
'कैसी?... इस कठोर टायर ट्यूब की तरह?' मास्टर जी मुस्करा कर पूछते हैं।
'नहीं मास्टर जी!' धनपत जवाब देता है 'उस मरगिल्ली कुतिया के पिल्लों की तरह।'
मास्टर जी अवाक रह जाते है। वह अपने मोटे चश्मे के भीतर से धनपत के चेहरे की रेखाओं को पढ़ने की नाकामयाब कोशिश करते हैं और सोचते हैं कि यह शख्स उतना मूर्ख नहीं है जितना कि ऊपर से दिखाई देता है।