पिशाचों की उर्वशी / दीपक श्रीवास्तव
आज चाय के समय स्टाफ रूम में अनिरुद्ध सिंह ने मुझे अलग बुलाया और हँसते हुए कहा, 'आपको पता है? लबनी मार दी गई!'
मैंने भी हँसते हुए कहा, 'अच्छा!'
हालाँकि यह मनोरंजक सूचना नहीं थी फिर भी बात हँस कर शुरु हुई थी, आगे भी उसी स्तर पर रहनी थी।
अनिरुद्ध सिंह की शादी पिछले साल मार्च में हुई थी। वहीं एक डांस पार्टी आई थी। लबनी उसकी एक सदस्य थी। इस तरह की डांस पार्टियाँ कैसेट या सीडी पर ही नृत्य करती हैं। इनमें दो से लेकर चार-पाँच महिला और एक दो पुरुष नाचने वाले होते हैं। लबनी के प्रति एक जिज्ञासा या कि जुगुप्सा कहिए, मेरे अंदर जरूर थी। इसीलिए मैंने एक-दो बार अनिरुद्ध से उसकी चर्चा की थी। अनिरुद्ध ने उसके कुछ और प्रसंग बताए थे। जो मुझे रोचक और सेन्सेशनल किस्म के लगे।
मुझे उसका नाम दिलचस्प लगता था। मेरी जानकारी में लबनी उस मिट्टी के बर्तन को कहते हैं जिसमें ताड़ी निकाली जाती है और पी जाती है।
अनिरुद्ध सिंह हमारे यहाँ रसायन विज्ञान विभाग में लेक्चरर हैं। मैं समाजशास्त्र विभाग में हूँ। अनिरुद्ध से पुराने ताल्लुकात हैं। बनारस के एक डिग्री कॉलेज में हम दोनों की नियुक्ति एकसाथ हुई थी। मैं और अनिरुद्ध सजातीय हैं। हम दोनों ने पूरब के विश्वप्रसिद्य विश्वविद्यालय से शिक्षा और सड़कों पर टहलाई साथ-साथ की थी। पीएचडी का अतिसंघर्षशील समय हमारा साथ का था। हम एक दूसरे को तभी से डाक्साहब कहा करते थे।
शादी छपरा में गाँव से होनी थी। अनिरुद्ध की शादी में जाने की मेरी बाध्यता थी, क्योंकि वो भी मेरी शादी में आए थे। हाँ-नहीं के तमाम विमर्श के बाद जाने वालों की फेहरिस्त में आखिरकार चार लोग बचे। मैं, सर्वेश तिवारी, ब्रजभूषण और अनुराग वर्मा।
छपरा और फिर गाँव जाने की मेरी इच्छा और कारणों से भी थी। मैं समाजशास्त्र पढ़ाता हूँ। कोर्स में वर्णित सामाजिक सिद्धान्तों, परिभाषाओं तथा उन पर बनाए गए नोट्स के अतिरिक्त मेरी सामाजिक समझ कूपमंडूक वाली है। अपने वैचारिक और सामाजिक समझ के दायरे को मैं विस्तार देना चाहता था, या ऐसा कोई मौका छोड़ना नहीं चाहता था। यहीं पर बताने लायक एक बात और है, जो इससे जुड़ी है - मेरी पीएचडी 'ग्रामीण समाज की लोककलाएँ' विषय पर है।
इस पीएचडी की भी एक कहानी है। मेरी गुरु-सेवा से प्रभावित होकर मेरे गुरुजी ने जब मुझे पीएचडी के लिए विषय का चयन करने के लिए कहा तो मैंने ये गुरुतर भार उन्हें ही सौंप दिया। तब उन्होंने अपनी विशेष आलमारी खोली और उसमें से एक थीसिस निकाली, जिसका विषय लोक कलाओं से संबंधित था। गुरुजी ने मुझे वात्सल्य भाव से यह थीसिस सौंपी तो मैंने भी उसे अत्यंत आदर भाव से सिर-माथे लगा लिया।
बहरहाल, तमाम बनते-बिगड़ते कार्यक्रमों के बीच, हम चार लोगों ने छपरा जिले के चौतारा गाँव सीधे पहुँचने का कार्यक्रम बनाया। वधू पक्ष के लोग वहीं के थे। तय यह हुआ कि बनारस से रात की गाड़ी पकड़ कर हम सुबह छपरा पहुँचेंगे। वहाँ, अनुराग वर्मा के रिश्तेदार के यहाँ सुबह की कार्यवाही संपन्न करके दोपहर के आस-पास चौतारा के लिए प्रस्थान करेंगे। चौतारा, छपरा मुख्यालय से सत्ताइस किलोमीटर की दूरी पर है।
हम अपने निर्धारित कार्यक्रम से ही चले। सत्ताईस किलोमीटर की यात्रा में मात्र तीन घंटे लगे। हम सीधे वधू के दरवाजे पहुँचे। तब तक मुख्य बारात के आने में काफी समय था। वहाँ थोड़ी हड़बड़ी-खलबली मच गई। हमलोग उनके होने वाले प्रोफेसर जामाता के प्रोफेसर मित्र थे। उस बारात में आने वाले संभवतः सबसे विशिष्ट और पढ़े-लिखे अतिथि थे।
वधू पक्ष के सभी संभ्रांत रिश्तेदार हमसे आदर-सादर मिले। सबने उच्च शिक्षा में अपने रिश्तेदारों की फेहरिस्त गिनाई। सब हमें प्रोफेसर ही कह रहे थे। ब्रजभूषण ने एक-दो बार एतराज किया कि हम लोग लेक्चरर ही हैं, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। हमारी सेवा-खातिर की गई। लड़की के एक मामा, जो धनबाद के केंद्रीय शोध संस्थान में तकनीकी सहायक थे, हम लोगों की इज्जत में फौरी तौर पर नियुक्त कर दिए गए। वे हमें जनवासे ले गए।
जनवासा एक प्राइमरी पाठशाला में था। दूल्हे और उसके खास रिश्तेदारों का इंतजाम थोड़ी दूर बने कमरों में था। आम बारातियों के लिए शामियाना लगा था। वहाँ कुछ चारपाइयाँ बिछी थीं। जमीन पर भी बिस्तर लगे हुए थे।
शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। मार्च का महीना था। धूप खत्म हो रही थी। स्कूल के चारों तरफ मैदान था, उसके बाद खेत थे। गेहूँ की फसल लहलहा रही थी। कहीं कहीं गन्ने के खेत भी दिख रहे था। हम लोग स्कूल के संभावित गंतव्य, जनवासे के कमरे की ओर बढ़ रहे थे, तभी मैंने देखा कि मामाजी, जो हम लोगों के साथ ही थे, छोटे-छोटे पत्थर उठा कर गालियाँ देते हुए कुछ बच्चों को भगाने लगे। बच्चे कमरे के चारों तरफ कौतूहल के साथ भीड़ लगा कर खड़े थे। उनमें से कुछ खिड़कियों में झाँक भी रहे थे। मामाजी की पत्थरबाजी से सारे बच्चे भाग गए।
हम पाठशाला के अंदर गए। उसमें दो कमरे थे। पहले बड़ा कमरा था। उसमें दोनों तरफ दो खिड़कियाँ थीं। उसी के बाद एक छोटा कमरा था, जिसमें कोई खिड़की नहीं थी। अंदर के कमरे में दरवाजा नहीं था, केवल चौखट ही लगी थी। मामाजी के साथ आए स्वयंसेवकों ने कमरे में तुरंत झाड़ू लगाई, फिर जमीन पर ही तीन बिस्तर लगा दिए। उनका औसत शायद दो लोगों पर एक बिस्तर का था, लेकिन हमारी स्थिति को देखते हुए हमें एक अतिरिक्त बिस्तर दिया गया था।
मेरी नजर अंदर के कमरे में गई, वहाँ तीन महिलाएँ और चार पुरुष सबकुछ से बेखबर सो रहे थे। मामाजी की तरफ प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने पर उन्होंने मुझे आँख मारते हुए बताया, 'डांसर पार्टी है। रात को मजा लीजिएगा।'
इसके बाद उन्होंने विदा ली और चले गए। हम लोग भी दिनभर की यात्रा से थके थे।
अँधेरा घिरने लगा था। कुछ देर बाद एक स्वयंसेवक एक गैसबत्ती रख गया। बारात के आने में अभी देर थी। बाहर हमें कुछ चहल-पहल की आवाज सुनाई पड़ी। निकल कर हमने देखा पचास-साठ लोग हमारे कमरे के बाहर ही चहलकदमी कर रहे हैं। उसमें हर उम्र के लोग थे। बच्चे भी, युवा भी और अधेड़ व बूढ़े भी। वे खिड़कियों से झाँक भी रहे थे। उनका इरादा डांस पार्टी की लड़कियों को देखने का था। उन्हें पता होगा कि डांस पार्टी इसी कमरे में रुकी है। किसी अनिष्ट की शंका हमारे अंदर जन्म लेने लगी।
हम कमरे के अंदर आ गए और दरवाजा बंद कर लिया। बाहर रुकने लायक नहीं था। घटाटोप अँधेरा छाया था। लड़की के घर से जनरेटर की भट्ट-भट्ट सुनाई दे रही थी। जनरेटर स्कूल पर भी था लेकिन बारात के आने के बाद ही उसके चलने की संभावना थी। बाहर भीड़ बढ़ रही थी। खिड़की पर भी भीड़ का दबाव बढ़ता हुआ लग रहा था। खिड़की की स्थिति कुछ ऐसी थी कि उससे अंदर के कमरे में कुछ देखा नहीं जा सकता था। इसलिए पूरी भीड़ के केंद्र में हमलोग आ गए। भीड़ में से कुछ लोग फब्तियाँ कस रहे थे, कुछ गालियाँ भी दे रहे थे। हमारी तरफ कुछ कंकड़ भी मारे गए।
हमारी स्थिति बड़ी विषम हो गई। कुछ देर पहले तक हम प्रोफेसर की पदवी पर आसीन थे, अब भाँड़ समझे जा रहे थे। लोग हमें डांस पार्टी का सदस्य समझ रहे थे। वो हमसे वैसा व्यवहार भी कर रहे थे। हम खिन्न-क्रोधित और दुःखी थे। हमारी स्थिति उस बंदर की तरह थी, जिसके पीछे गाँव भर के कुत्ते पड़ गए हों। भरसक, चादर सर तक ओढ़े हम सोने का नाटक करते रहे और कुढ़ते रहे।
रात आठ बजे जब बारात आई तब हमें इस स्थिति से निजात मिली। जनरेटर चलने लगा। माहौल में नाश्ता पानी, मीठा, नमकीन आदि की आवाजें तैरने लगीं। कहीं से एक बैंड पार्टी भी आ गई और पिपिंयाने लगी। हम भी तैयार होकर बाहर आ गए। उधर अंदर के कमरे में भी सुगबुगाहट होने लगी थी। डांस पार्टी भी तैयार होने लगी।
हम जाकर दूल्हे से मिले। अनिरुद्ध सूट पहने था और जँच रहा था। उसके नजदीकी रिश्तेदार वहाँ बैठे थे। अनिरुद्ध के पिता ने हमलोगों के वहाँ आने पर आभार प्रदर्शित किया। रस्मी तौर की बातचीत होने लगी।
अनिरुद्ध ने अपने चचेरे भाई से हमलोगों के लिए 'इंतजाम' करने को कहा। इस इंतजाम का मतलब शराब के प्रबंध से था। स्कूल के पीछे ही कुछ कुर्सियाँ लगाई गईं। हम लोगों के अलावा कुछ और गणमान्य लोग भी वहाँ बुलाए गए। शराब रम थी और घोड़ा मार्का थी। उसकी झार बेहद तीखी थी। हम लोग व्हिस्की के मुरीद थे। नाक बंद करके हम लोगों ने दो-दो पैग गले से नीचे उतारे। हमारे लिए इतना ही पर्याप्त था। शराब जल्दी में ही दी गई थी, इसलिए मात्रा भी काफी थी। वहाँ भीड़ भी बढ़ने लगी थी। हम एक बोतल में बची शराब और दो गिलास लेकर कमरे में आ गए।
अंदर की शराब, बाहर रखी शराब, उत्सव का माहौल, बाहर बजता बेतुका संगीत, विस्तार में फैला अँधेरा, अंदर कमरे में बैठी नाचने वालियाँ और रह-रह कर आती उनकी खिलखिल। माहौल हम पर हावी होने लगा। हम व्यवहार, बातचीत में अश्लील होने लगे। स्मृतियाँ हम सबको अपनी नंगी आवाजों के घेरे में लेने लगी। ऐसा हमारे साथ हमेशा होता है। हम अश्लील होने के कारण ढूँढ़ते हैं। स्त्रियाँ, बहुत सारी स्त्रियाँ, हमारी बातचीत में सहज-असहज भाव से जगह लेने लगीं। मेरे गुरु और गुरु-गृह की चर्चा अनुराग ने मुझे छेड़ने के लिए की।
बताते हैं कि कई साल पहले गुरुजी की इकलौती कन्या जब अंग्रेजी स्कूल के कक्षा दस में थी, तब एक कॉन्वेंट शिक्षित शोधार्थी को निर्देशित किया गया कि वह उसे अंग्रेजी व गणित पढ़ाए। अंग्रेजी-गणित पढ़ाते हुए वह कन्या को शरीर विज्ञान समझाने लगा। गुरु-माता को इसकी भनक लगी। फिर तो शोधार्थी का शोध तो ठप्प हुआ ही, भविष्य में किसी भी शोधार्थी का उनके अंतःपुर में प्रवेश निषिद्ध हो गया।
हम पीते रहे और बातें करते रहे।
बारात रात ग्यारह बजे जनवासे से उठी। हमें पहली बार डांस पार्टी की कला के दर्शन वहीं हुए। सीटियों, तालियों और शोर के बीच 'छम्मा छम्मा...' गीत पर नृत्य शुरू हुआ। महिला डांसर तीन थीं। इनमें से दो वयस्क थीं। वो मेकअप से लिपी-पुती थीं।
तीसरी कम उम्र की थी। वो लंबी और साँवली थी। उसकी आँखों में काजल लगा था, इसलिए और भी बड़ी दिख रही थीं। वही लबनी थी। लबनी टुकड़ों में डांस कर रही थी। बाकी दोनों महिलाएँ लगातार नाच रही थीं। दो लड़के भी हीरो के गेटअप में थे। वे फिल्मी हीरो की तरह नाच रहे थे। इसी समय बाराती भी जोश में आ गए। कैसेट और बैंड के उस बेसुरे-बेताल में ग्रुपों में उछलने-कूदने और नाचने लगे।
लड़की के घर से खाना खाकर हम एक बजे वापस अपने ठहराव पर लौटे। डांस पार्टी वहीं पर थी। उनके मैनेजर ने हमारा अभिवादन किया। उसने अपना नाम अनिल मंडल बताया। वह हमारे समवयस्क था। परिचय के लिए उसने अपनी डांस पार्टी के सदस्यों को बुलाया। सबने हमें सादर 'परनाम' किया।
कमरे के अंदर गैस की रोशनी में मैंने लबनी को ध्यान से देखा। उसकी उम्र सोलह-सत्रह से ज्यादा नहीं थी। वह लंबी थी लेकिन शारीरिक विकास की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई थी। उसकी आँखों में, चेहरे पर, हावभाव और व्यवहार में कच्चापन था। वह स्थिरचित्त नहीं थी। कभी वह अपने मिलाते हुए पैर के अँगूठे को देख रही थी, कभी बाहर की चहल-पहल। अपने दोनों हाथों की उँगलियाँ दाँतो से काटने का अभिनय भी कर रही थी या हममें से किसी को वह देखने लग रही थी। हर अवस्था या भाव परिवर्तन में उसकी पलकें एक विशेष तरह से झपक रही थी। नशे का सरूर मुझे महसूस हो रहा था।
कुछ ही देर में शामियाने से महफिल के लिए डांस पार्टी का बुलावा आ गया। वे लोग वहाँ चले गए। शामियाने में लगे स्पीकर से आती आवाजें हमे वहाँ की गतिविधियों का पता दे रही थीं। हमारे अंदर पड़ी शराब भी हमें बेचैन कर रही थी। हम उठे और शामियाने में पहुँच गए। अब तक महफिल अपनी रंगत में आ चुकी थी।
लबनी का नाच चल रहा था। एक जोशीला और तड़कता गीत बज रहा था। दूल्हा शादी के लिए जा चुका था। दूल्हे के रिश्तेदार महफिल में सक्रिय हो रहे थे। नृत्य अपने शबाब पर था। उसके साथ ही दर्शक भी अपनी उग्र उठान पर थे। लबनी के साथ नाचने की कोशिश में कई लोग प्रयासरत थे। समूह इसे पसंद नहीं कर रहा था, इसलिए वो डाँट कर बिठाए जा रहे थे। अश्लीलता उम्र के बंधनों को तोड़ रही थी। कई पुरानी उम्र के लोग अपने होंठों में नोट लगा और अश्लील इशारे कर लबनी को बुला रहे थे, इस अदा की कापीराइट उन्हीं के पास थी। हर तरफ से भद्दे इशारे हो रहे थे।
पूरे समुदाय पर एक नशा तारी हो रहा था। कैसेट बदले जा रहे थे। बीच-बीच में अन्य दोनों डांसर भी जा-आ रही थीं। लेकिन लबनी के बैठते ही लोग शोर कर और गाली देकर उसे ही नाचने को विवश कर रहे थे। कुछ बाराती बंदूक भी ले आए थे। जब-तब वे फायर भी कर रहे थे। हर फायर के बाद भीड़ का एक शोर उठता था जो ताकत और दबंगई का जयघोष होता था।
मेरे अंदर की शराब अब अपने पूरे जोर पर थी। ज्यादा पी लेने के बाद मुझे घबराहट होने लगती है। अभी भी ऐसा महसूस हो रहा था। सामने चल रहा नृत्य व गाने का शोर, दर्शकों की चीखती आवाज और रम का तड़कता नशा मेरे अंदर सोचने की ताकत को खत्म कर रहा था। मुझे सब धुँधला दिखने लगा।
बचपन में देखे गए एक नाटक का दृश्य मेरी आँखों के सामने उतर आया - इंद्र की सभा लगी है। अप्सराओं का नृत्य चल रहा है, लेकिन उसके चारों तरफ देवता नहीं, पिशाच नाच रहे हैं, उछल-कूद रहे हैं।
मैं लबनी को अपनी धुँधली दृष्टि से एकटक देख रहा था। यह शायद नशे का ही प्रभाव था। वह अभी नाच रही थी। मैं एक पिशाच की तरह महसूस कर रहा था। एक पिशाच जिसे नशे से नींद महसूस हो रही हो। मैं कमरे में आकर सो गया।
सुबह जब मेरी नींद खुली, तब तक मेरे मित्र उठ चुके थे। हम लोगों का जाना आठ बजे तय हुआ था। ग्यारह बजे छपरा से कोई एक्सप्रेस थी, जिससे शाम तक हम बनारस पहुँच सकते थे। सर्वेश, अनिरुद्ध से बात कर आया था। अनिरुद्ध ने हम लोगों को छपरा स्टेशन तक पहुँचाने के लिए एक जीप का इंतजाम कर दिया था। हम लोग जल्दी-जल्दी तैयार हुए। नाश्ते में कुछ देर थी। इसलिए हमने नाश्ता न करना ही उचित समझा। हम जीप पर बैठ कर जैसे ही चलने को हुए, तभी अनिल मंडल दौड़ता हुआ आया। वह हाँफ रहा था।
जल्दी-जल्दी बोला, 'साहब, हम लोगों को भी साथ लेते चलिए। हमको भी बनारस जाना है।'
किसी ने भी असहमति नहीं जताई।
पूरी डांस पार्टी जीप में लद गई। लबनी मेरे बगल में बैठी। उसके चेहरे पर अभी रात का श्रृंगार लिपटा था। साँवले चेहरे पर लाल रुज के धब्बे और होंठों पर धूमिल मैरून लिपिस्टिक उसके सौंदर्य से विलग था, अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व लिए हुए। रात में उसे छूने की अतृप्त इच्छा अब पूरी हो रही थी। नींद की खुमारी से वह पसरी हुई थी और जीप में संतुलन के लिए बहुत कुछ मेरी देह पर निर्भर थी। रात का पिशाच मरा नहीं था। छोटे रास्ते का लंबा सफर मुझे छोटा लगने लगा।
ट्रेन दो बजे आई। ज्यादातर डिब्बे खाली ही थे। हम थ्री टायर के बनारस कोच में चढ़ गए। सब लोग थके थे। एक-एक बर्थ पर आराम से लेट गए और सो गए लेकिन मैं और लबनी खिड़की के बगल में आमने सामने बैठ गए। लबनी ने बताया कि आज वो पहली बार रेलगाड़ी पर चढ़ी है। पूरे रास्ते हम दोनों जागते रहे। वह बेहद खुश थी - उसमें उत्साह भी था और उमंग भी। वो खिड़की के बाहर बेहद तन्मयता से भागती चीजों को एक बच्चे की तरह देख रही थी।
उसकी आँख की पुतलियाँ रेलगाड़ी के बाहर के दृश्यों के साथ चल रही थीं। बाएँ से दाएँ और वापस दाएँ से बाएँ। यह क्रिया लगातार चल रही थी। जैसे स्कैनर किसी चित्र (इमेज) को स्कैन करता है। लबनी की पुतलियाँ भी दृश्यों को स्कैन कर रही थीं। शायद अपने मानस में अपने पिछले दिनों के डांस पार्टी के जीवन को स्कैन कर रही हो! कभी-कभी मैं कवियों की तरह सोचने लगता हूँ। वैसे मै एक धूर्त व्यक्ति हूँ। पता नहीं, कवि धूर्त होते हैं या नहीं?
अपने समाजशास्त्रीय ज्ञान के लिए मैं उससे पूछना चाहता था कि जब तुम्हारे पिता या बाबा की उम्र के लोग तुमसे गंदे मजाक-भद्दे इशारे करते हैं, या फिर ऐसा ही कुछ कहते हैं तो तुम्हें कैसा लगता है? लेकिन मैं पूछ नहीं सका। यह अधिकार मेरे पास नहीं था। उससे यह पूछने का अधिकार पूरी सृष्टि में किसी के पास नहीं था।
मैंने लबनी के लिए रास्ते भर में एक पानी की बोतल, तीन चाय, एक झाल मूड़ी, दो समोसे, एक चिप्स और एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल खरीदी। उससे कोई बात करने की भावभूमि मेरे पास नहीं थी। उसने भी मेरे लिए कोई रुचि नहीं दिखाई, वह अपनी तात्कालिक आजादी का आनंद उठा रही थी। मै स्खलित नशे से थका था।
लबनी में मेरी फिर कोई मुलाकात नहीं हुई। होने की वजह भी नहीं थी। अनिरुद्ध ने बताया कि लबनी की हत्या हो गई! पिशाचों की भीड़ में नाचने वाली का यही अंत होना था।
पिशाच अभी भी हँस रहे हैं।