पीकू के आईने में परिवार और रिश्ते / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :06 मई 2015
'विकी डोनर' में सास और बहू दिनभर आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं और रात में अपने घर की बरसाती में दोनों साथ बैठकर शराब पीती हैं और इस समय उनके आपसी स्नेह को देखकर यकीन करना कठिन होता है कि सारा दिन ये शत्रुओं की तरह टकराई हैं। 'सास भी कभी बहू थी' की लिज़लिज़ी पारम्परिकता, नकली आदर और झूठे प्यार के इस सीरियल के ग्लीसरीन प्रभाव से मुक्ति दिलाती हैं 'विकी डोनर' की सास-बहू। टेलीविजन पर प्रस्तुत सास-बहू पूरे भारत में कहीं भी नहीं दिखाई देतीं, परन्तु 'विकी डोनर' की सास-बहू आपको कुछ परिवारों में दिखाई देती है, भले ही वे शराब नहीं शरबत पीती हों परंतु रिश्ते की साफगोई और आधुनिकता भावनात्मक ताप बढ़ाती है। क्या रिश्ते ऐसे हो सकते हैं? सच तो यह है कि साफगोई वाले और पाखंड से मुक्त रिश्ते परिवार की ताकत हैं। परिवार ढूढ़ते ही हैं, सदस्यों द्वारा बातें छुपाने के कारण। परिवार में भी अगर व्यक्ति को वह मुखौटा पहनना पड़े जिसे दिनभर ढोता है। फिर आप अपने को ही नहीं जान पाएंगे, तो अपनापा कहां से जन्म लेगा। अपनापा तो परिवार का आवश्यक गुण है। दरअसल, जीवन के संग्राम से परिवार वह खेमा है जहां योद्धा अपना ज़िरहबख्तर उतारकर अपने जख्मों पर मरहम लगाए, कुछ ठहाकों से सारे दिन की थकान मिटाएं और अगले दिन युद्ध के लिए तरोताजा हो जाए।
शूजीत सरकार की 'पीकू' ऐसी ही सच्चे रिश्तों की कथा दिखाई पड़ रही है जहां एक जैसे जिद्दी, हटी और अपने तौर-तरीकों से नहीं डिगने वाले लोगों के बीच भी गहरा प्यार है और उन्हें एक-दूसरे की चिंता भी है परंतु वे न तो प्यार का भोंडा प्रदर्शन करते हैं और न ही एक-दूसरे को अपने काम और स्वतंत्र विचार-शैली की कोई सफाई देते हैं। सच तो यह है कि संसद और विधानसभाओं में सरकारी पक्ष और विरोधियों को भी इस तरह का व्यवहार करना चाहिए। वह भी विशाल भारत का प्रतिनिधि परिवार ही तो है। भारत के पहले मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री नेहरू ने सात पद ऐसे लोगों को दिए थे जिनसे उनके विचार नहीं मिलते थे। दरअसल सच्चे गणतंत्र की पहली शर्त विरोधी के प्रति-सम्मान है और विभिन्न विचार शैलियों को पूरी तरह विकसित होने के अवसर देना है परंतु जाने कैसे अब इस तरह की सोच आ गईं है कि अगर आप वैचारिक या सैद्धांतिक तौर पर हमसे अलग हैं तो आप हमारे शत्रु हैं। पूरी मानव सभ्यता का विकास विविध और प्राय: विरोधी विचार शैलियों के एक साथ रहने के कारण संभव हुआ है।
हमारे साहित्य और सिनेमा में पिता-पुत्री कथाओं की अपेक्षा पिता-पुत्र कहानियों की बहुलता रही है, क्योंकि प्राय: माता-पिता के लिए पुत्र तलवार तो पुत्री सर पर लटकती तलवार मानी जाती है, पुत्री को 'पराया धन' कहना ही उसका अपमान है, वह तो शादी के बाद बिदा होने के बाद भी माता-पिता के मन-आकाश में सदैव उड़ने वाले चिरैया होती है। यह भेदभाव भारतीय मानस में गहरा बसा है और सारी आधुनिकता के बाद भई सूक्ष्म रूपों में उसके दर्शन हो ही जाते हैं। महेश भट्ट की फिल्म 'डैडी' से प्रेरित सीरियल 'दिल की बातों' में भी पिता-पुत्री संबंध हैं। कई वर्ष पूर्व अनुपम खेर द्वारा निर्मित व अभिनीत 'मैंने गांधी को नहीं मारा' नामक महान फिल्म में पुत्री अपने दिमागी तौर पर बीमार पिता की तीमारदारी करती है और इस रिश्ते के कारण अपने प्रेम के रिश्ते को भी छोड़ देती है। शाहजहां की सेवा ताउम्र उनकी बेटी जहांआरा ने की थी। 'पीकू' अनुपम खेर की फिल्म से जुदा है परंतु रिश्तों का तिकौन वैसा ही हैं। अमिताभ बच्चन, इरफान खान और दीपिका पादुकोण जैसे प्रतिभाशाली कलाकार और शूजीत सरकार जैसे निष्णात निर्देशक के कारण इस फिल्म से स्वस्थ मनोरंजन की आशा की जा सकती है और हम उम्मीद कर सकते हैं कि देश के भाग्य विधाता भी इस फिल्म को देखकर अपने गणतंत्र को प्रदूषण मुक्त करने का प्रयास करेंगे।