पीके नायर जो बहके नहीं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 26 सितम्बर 2012
शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने 'सेल्युलॉइड मैन' नामक वृत्तचित्र श्री पीके नायर के जीवन पर बनाया है, जिसे कोलोरेडो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सराहा गया है। पीके नायर ने पुणे फिल्म संस्थान में फिल्मों के राष्ट्रीय संग्रहालय को जन्म दिया और उसके रख-रखाव तथा विकास में अपने जीवन के तीन दशक लगाए। उन्होंने देश-विदेश की इक्कीस हजार फिल्मों को एकत्रित किया, उसका नियमित ध्यान रखा और फिल्म विधा की सेवा की। पुणे फिल्म संस्थान के छात्रों को उन्होंने विरल फिल्में देखने की सुविधा इस कदर दी कि आज ओमपुरी को दुख है कि डूंगरपुर उनकी आदरांजलि को अपने महान वृत्तचित्र के लिए ले नहीं पाए। पीके नायर की तरह फिल्मों को प्यार करने वाला कोई दूसरा व्यक्ति भारत में नहीं। यह उनका प्यार ही था, जिसने उनसे इतना परिश्रम कराया। उनके सेवानिवृत्त होने के बाद वह बेमिसाल संग्रहालय इस कदर अव्यवस्थित है कि उसे अटाला कहा जा सकता है। उन्होंने लापरवाही के खिलाफ आवाज उठाई, जिसका नतीजा यह है कि जब शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर अपने वृत्तचित्र के लिए संग्रहालय में कुछ शॉट्स लेना चाहते थे, तब नायर साहब को उस संग्रहालय में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई, जिसे उन्होंने वर्षों की तपस्या से गढ़ा था। यह नौकरशाही की मूर्खता व क्रूरता का एक उदाहरण है। बाद में श्याम बेनेगल के द्वारा दबाव बनाने पर उन्हें प्रवेश की अनुमति मिली। देश की संपूर्ण व्यवस्था में ही घोर हृदयहीनता है।
जब संजीव कुमार को सत्यजीत राय ने 'शतरंज के खिलाड़ी' के लिए अनुबंधित किया, तब उन्होंने पीके नायर की सहायता से सत्यजीत राय की फिल्में देखीं, जिसके लिए वे एक महीना पुणे में रहे। जया बच्चन को लड़कियों के हॉस्टल से रात में संग्रहालय आकर फिल्म देखने की अनुमति पीके नायर ने दिलाई।
श्री डूंगरपुर ने इस वृत्तचित्र के शोध और शूटिंग का खर्च स्वयं वहन किया। क्या कथा फिल्म के शताब्दी वर्ष समारोह में फिल्म का कोई संगठन या सितारा शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर की सहायता के लिए आगे आया? जिस माध्यम की महिमा से सितारों को करोड़ों रुपए कमाने के अवसर मिल रहे हैं, उस माध्यम की महान रचनाओं की देखभाल करने वाले की यह उपेक्षा! कुछ वर्ष पश्चात सितारों का कोई नाती या नातिन संग्रहालय में जाकर अपने पूर्वज की कृति देखना चाहे तो उस अटाले में उसे क्या मिलेगा? वह कैसे श्राद्ध की रस्म पूरी करेगा या करेगी?
दरअसल इस संग्रहालय की दुर्दशा उस वृहद बीमारी का एक हिस्सा है, जिसमें हम अपने देश की महान विरासत की ही रक्षा नहीं कर पाए। हमारी कितनी ऐतिहासिक इमारतें हमारी इस सामूहिक हृदयहीनता की शिकार बनी हैं? कुछ दिन पूर्व ही इस कॉलम में सरकारी पुस्तकालयों में जम रही धूल की बात की गई थी। दशकों से मध्यप्रदेश में ही पुस्तकालय अधिनियम कार्यान्वित नहीं हो पा रहा है और जिला स्तर तक सर्वत्र धूल ही धूल जमा हो गई है। संभवत: वैदिककाल से हमारे यहां साहित्य-संस्कृति की मौखिक परंपरा रही है, वह गांव-गांव चौपाल गाई गई है और संग्रहालय की अवधारणा ही हमारे अवचेतन में पंजीकृत नहीं है। इस सुनाए जाने की परंपरा के कारण ही मूल में अनाम रचित पद जुड़ते रहे हैं और वेदव्यास के आठ हजार श्लोक के ग्रंथ के अब कई संस्करणों में तीस हजार श्लोक मिलते हैं।
आज अगर इस तंत्र में कुछ महत्वपूर्ण फाइलें अदृश्य हो जाती हैं तो क्यों आश्चर्य करें। हमें तो विश्वास है कि हम बिगाड़ते रहेंगे, ऊपरवाला आकर ठीक करेगा। हमारी लापरवाही की तो यह हद है कि हम अपने श्लोक भी सुविधानुसार ही उपयोग में लाते हैं और यह भूल जाते हैं कि इंसान का काम इंसान को ही करना होता है। श्रीकृष्ण ने रथ चलाया था, शस्त्र तो अर्जुन ने ही चलाए।
बहरहाल पीके नायर साहब को शत-शत प्रणाम और शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर को सलाम।