पीछा करती आँखें / रूप सिंह चंदेल
उसने खिड़की खोली तो रेशमी धूप का छोटा-सा टुकड़ा छाती पर आकर पसर गया। उसने सिगरेट सुलगा ली और कश खींचकर धुआं छत की ओर उगल दिया। छ्ल्लाकार धुआं उसके और छत के मध्य रेंगने लगा। क्षण भर में ही छल्ले धुएं का आभास और सिगरेट की गंध मात्र छोड़कर हवा में विलीन हो गये। कुछ देर बाद वह भी जाता रहा। उसने दूसरा कश खींचा और धुआं खिड़की की ओर छोड़ दिया। इस बार वह क्षण मात्र में ही विलीन हो गया.
वह सोचने लगा, ’क्या इन्सान का जीवन भी सिगरेट की भांति ही नहीं है। ---- जन्म के बाद जीवन-पर्यन्त वह संघर्ष करता हुआ एक दिन चुपचाप विदा हो जता है ---- संघर्ष जो स्वतः जन्म लेते हैं उसके जीवन में ---- और वे संघर्ष जो दूसरों द्वारा पैदा किए जाते हैं---- आम आदमी का जीवन तो संघर्षों की श्रंखल्लाबद्ध कहानी होता है, जिसे दूसरे अपने सुख का आधार बनाकर धुएं की तरह उड़ा देते हैं---- कम से कम इस देश के बहुसंख्य तो ऎसे ही हैं, जिनके अथक श्रम से बीस प्रतिशत लोग अपने ऎश के चारागाह उगा रहे हैं और अधभरे पेट उन सबका जीवन अभावों के मरुस्थल में भटकने के लिए अभिशप्त हैं। वह स्वयं भी तो उन्हीं में से एक है, जिसका जीवन एक वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करने वाली एक स्त्री के कारण नारकीय हो उठा है.
उसने जल्दी-जल्दी दो-तीन कश खींचे और सिगरेट खिड़की से बाहर फेंक दी। उसने घड़ी देखी, चार बज रहे थे। वह उठ बैठा। लेकिन निर्णय नहीं कर सका कि जये या न जाये। दो घण्टे पहले एक लड़का आकर सूचना दे गया था कि बहन सख्त बीमार है सफदरजंग अस्पताल के ’इमरेजेन्सी ’ में है और बिडम्बना यह कि वह उसको देखने जाने-न जाने के निर्णय पर त्रिशंकु की भांति अधर में झूल रहा है।
एक तरह से एक महीने से वह इस बरसाती के एक कमरे में कैद है। किसी जरूरत की वस्तु लेने के लिए पार्क के पास की दुकानों और कमरे के मध्य सिमट कर रह गया है उसका जीवन। प्रतिक्षण आतंक उसका पीछा करता रहता है। आज भी उन दिनों मिली यातना से बदन की रग-रग पके फोड़े की भांति दुखती है। सिर पर हाथ फेरते ही लगता है जैसे हजारों सुइयां एक साथ चुभने लगी हैं। रात में भयावह दुःस्वप्नों के कारण वह भली-भांति सो नहीं पाता। उस समय वह अपने को चार सिपाहियों के बीच घिरा पाता है, जिन्हें पास खड़े इन्सपेक्टर रणवीरसिंह के निर्देश की प्रतीक्षा है। इन्सपेक्टर निर्देश देगा और उनमें से एक सिपाही उस की ओर बढ़ेगा ---- और उस पर लाठी प्रहार का अनवरत सिलसिला शुरू हो जायेगा---- या बर्फ की सिल्ली पर उसे लिटा दिया जायेगा------या---- और उसकी नींद खुल जाती है---- उसके बाद वह कभी सो नहीं पाता----- आकाश में किसी तारे के टूटने की प्रतीक्षा करता रहता है सुबह तक.
प्रतिदिन शाम का धुंधलका छत पर उतरने के साथ ही उसके ह्रदय की धड़कन तेज होने लगती है। कान दरवाजे पर दस्तक सुनने के लिए सशंकित रहते हैं और वह बेचैन-सा कमरे में टहलता रहता है। उसे लगता है वे कभी भी आ सकते हैं उस दिन की तरह । उनको रोक भी कौन सकता है। खाकी वर्दी और कंधों पर चमकते बिल्ले देखकर कुत्ते भी रास्ता छोड़ देते हैं । आजादी से कितनी भी स्वतन्त्रता क्यों न मिली हो लेकिन उनकी क्रूरता कम होने के बजाय बढ़ी ही है। अपने शिकार को सताने के नये-नये तरीके उन्होनें ईजा़द कर लिये हैं, जिसके बल पर एक शरीफ को भी वे चोर घोषित कर दुनिया को हत्प्रभ कर सकते हैं। उनकी यातना किसी को कुछ भी सिद्ध कर सकती है। व्यक्ति इतना विवश हो जाता है कि वह स्वयं उनकी भाषा बोलने लगता है। उसके साथ भी तो यही हुआ था।
उस दिन रात का अंधेरा पीले मकानों से नीचे उतर ही रहा था कि उसके दरवाजे पर दस्तक हुई थी। उसने बत्ती जलाई और एक झटके से दरवाजा खोल दिया । वे चार थे। वह हत्प्रभ था और कहने ही वाला था कि ’शायद आप लोग गलत जगह आ गये हैं’, लेकिन केवल इतना ही कह सका, "कहिए ?"
चारों ने एक-दूसरे की ओर देखा, फिर एक ने, जिसकी मूंछें लम्बी, नाक मोटी ब्रेड रोल की तरह और चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे, बोला, "तुम्हारा ही नाम प्रकाश है ?"
"जी---कहिए---।"
"आपको----थाने चलना है।"
"क्यों ----किसलिये----कौन-सा गुना? ." घबराहट में वह इतना ही कह सका.
"गुनाह----?" उनमें से एक अन्य ने, जिसने गर्म कमीज के ऊपर जर्सी भी पहन रखी थी और दूसरों की अपेक्षा अधिक चुस्त-दुरुस्त दिखाई दे रहा था, बीड़ी सुलगा ली थी और धुंआ उसकी ओर फेंकता हुआ गुर्राकर बोला, "गुनाह पूछ रहा है---- मोटी रकम----वी०सी०आर० मार कर भी पूछता है ---- गुनाह क्या किया है?"
"आप क्या कह रहे हैं----मैं----मैं---।"
"मैं के बच्चे----"तीसरा, जिसने रायफल लटका रखी थी, आगे बढा़ और उसे कालर के पास पकड़कर कमरे की ओर धक्का देता हुआ चीखा, "निकाल----सब कहां है?"
उसका सिर दीवार से टकरा गया और वह सिर पकड़कर बैठ गया। वे उसे वहीं छोड़कर कमरे में उठा-पटक करने लगे। एक-एक सामान-- किताब-कपड़े----उन्होंने कमरे में बिखेर दिया। आल्मारी से उसके वेतन के बचे बारह सौ रुपये उनके हाथ लग गए थे---- जिन्हें पाकर एक बोला था, "ये तो केवल बारह सौ ही हैं----।" दूसरे स्वर ने जोड़ा था, "इन्हें जेब के हवाले कर---- और वो घड़ी भी।"
वे चारों सामान बिखेरकर बाहर निकल आए। प्रकाश को कालर के पास पकड़कर चेचक दाग वाले ने एक बार फिर दीवार से टकरा दिया और चीखा, "बोल कहां छुपा रखा है चोरी का माल ?"
प्रकाश ने चीत्कार को अन्दर ही घोंट दिया और तटस्थ स्वर में बोला, "आप किस चोरी की बात कर रहे है.....!" "कितना घुटा हुआ बदमाशह है----यह आसानी से नहीं बतायेगा, " जर्सीवाले ने कहा, "अभी भी वक्त है, बता दे----हम तुझे बचा देंगे---- लेकिन एक बार थाने जाने के बाद ----चमड़ी तो जायेगी ही ---दमड़ी भी जायेगी।"
"आप यकीन करें----।"
"मतलब यह कि तू यह कहना चाहता है कि तूने मिसेज जैन के यहाम चोरि नहीं की ?"
"मिसेज जैन -----कौन मिक्सेज जैन ?"
"मिसेज दीपिका जैन।’
"उनके यहां चोरी----आप यकीन करें ----मुझे कुछ नहीं मालूम----मैं पांच बजे तक दफ्तर में था तब तक तो----।"
"मैनेकह ा नक ि इसके साथ उलझने से समय व्यर्थ में बरबाद होगा---- थाने मेम अपने आप सब कबूल देगा।" वह अन्दर ही अन्दर कांप उठा।
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थाने पहुंचने पर उसे बताया गया कि मिसेज दीपिका जैन ने, जिनकी ट्रेडिंग कम्पनी में वह मैनेजर है और जिसका छोटा-सा दफ्तर उनके घर पर ही है, जहां वह सुबह दस बजे से शाम पांच बजे तक बैठता है, शाम साढ़े पांच बजे रिपोर्ट दर्ज करायी थी कि वह उनकी शेल्फ से दस हजार रुपये और ड्राइंग रूम से वी०सी०आर० चोरी कर ले गया है। इन्सपेक्टर रणवीरसिंह ने मूंछें ऎंठते हुए कई बार उससे कहा, "भलाई इसी में है कि तुम सब कुछ बता दो---- वर्ना----!"
"सर, आप विश्वास करें-----चोरी करना तो दूर ----मैं इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता----मुझे उनके यहां काम करते हुए मुश्किल से दो महीने हुए हैं और आज तक दफ्तर के कमरे के अतिरिक्त मैं उनके घर के अन्दर नहीं गया-----मुझे तो यही नहीं मालूम कि उनका ड्राइंग रूम है कहां?"
"बकवास मत कर----चोरी तूने ही की है यह शरीफ लेडी का विश्वास है---- मैं जानता हूं---- वह झूठ नहीं बोल सकती।"
"इन्सपेक्टर साहब----धनी हो जाने से न कोई शरीफ हो जाया करता है और न ही वह झूठ बोलना छोड़ देता है---- हां उसके झूठ का रंग सफेद अवश्य हो जाता है।" उत्तेजित स्वर को कुछ धीमा कर वह बोला,"सर, मैं दफ्तर से सीधे घर गया---- मेरे कमरे की पूरी छानबीन आपके सिपाही कर चुके हैं---- इससे अधिक सफाई मैं क्या दे सकता हूं।" इन्स्पेक्टर कुछ नहीं बोला। अपनी चमकती आंखों से उसे घूरता रहा और सिगरेट का धुंआ उड़ाता रहा। वह कुर्सी पर उढ़ककर बैठा हुआ था और पैर मेज पर रखे हुए था. रह-रहकर वह पैरों पर पड़े जूतों को हिला रहा था. थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा रेंगता रहा. कुछ देर बाद इन्सपेक्टर ने कछुए की भांति अपने पैर समेटे और तनकर खड़ा हो गया. नीचे को खिसक आई पैण्ट ठीक कर अंगड़ाई ली, फिर दूर खड़े चारों सिपाहियों को बुलाया और कहा, "ले चलो इसे---- डाल दो साले के ----डण्डा----चीखकर कबूल देगा।"
और वह उन सिपाहियों से घिरा चल पड़ा था उस यातना-गृह की ओर जहां चार दिनों तक अनवरत उनके जुल्म उसे सहने पड़े थे। उन्होंने उसे रात में भी सोने न दिया था। उसकी चीख-पुकार का कोई प्रभाव उन पर नहीं हुआ था। पिटते-पिटते जब वह बेहोश हो जाता ---- वे उसे होश आने तक के लिए छोड़ देते---- उसके बाद फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता था।
प्यास लगने पर गिलास में दो घूंट पानी दे दिया जाता उसे----- बस्स वह भूखे पेट वह पिटता रहा था। जब मारने के बावजूद प्रकाश चोरी से अस्वीकार करता रहा तब उन्होंने खतरनाक अपराधियों के लिए प्रयुक्त होने वाला ’फार्मूला’ अपनाना शुरू किया। और अन्ततः टूटकर यातना से मुक्ति पाने के उद्देश्य से उसने स्वीकार कर लिया कि उसने ही चोरी की थी और सामान गुप्त स्थान में छुपा रखा है. जब सिपाही उसे अनजान स्थान की ओर ले जाने लगे तब लड़खड़ाते कदमों से चलते हुए टूटे स्वर में उसने इन्सपेक्टर से अनुरोध किया कि वह एक बार मिसेज जैन से मिलना चाहता है.इंसपेक्टर ने उस पर इतनी मेहरबानी की.
उसने मिसेज जैन के सामने हाथ जोड़ दिए और बोला, "मैंने चोरी की है या नहीं----मैं दस हजार रुपये और वी०सी०आर० एक महीने के अन्दर देने का वायदा करता हूं मिसेज जैन ---- बस आप मुझे पुलिस से मुक्ति दिला दें. मैं आपका यह एहसान कभी न भूलूंगा."
लेकिन मिसेज दिपिका जैन ने चीखते हुए कहा, "इंसपेक्टर हम इस व्यक्ति की शक्ल भी नहीं देखना चाहती---- इसे आप तुरंत यहां से ले जाएं।"
उसने फिर कुछ कहना चाहा, लेकिन सिपाही उसे धमियाते बंगले से बाहरे ले आये. अब उसे उन्हेम उस गुप्त स्थान की ओर ले जाना था, जिसका पता स्वयं उसे भी नहिमतथा. रास्ते में उसने इंसपेक्टर से वास्तविकता प्रकट की तो उसकी भृकुटि फिर तन गयी. उसे वापस उसी यातनागृह मॆं पतक दिया गया और वही सिलसिला शुरू हो गया था.
पता नहीं कितने दिन तक वह सिलसिला जारी रहता---शायद तब तक ---- जब तक उसका शरीर निर्जीव न हो जाता---- क्योंकि पुलिस कस्टडी में ऎसी मौतें तो होती ही रहती हैं। लेकिन इसे वह संयोग ही समझता है कि वह यमराज के घर से जीवित बच आया था। इसके लिए वह उस अज्ञात व्यक्ति का शुक्रगुजार था, जिसने एक स्थानीय समाजसेवी चमनलाल को फोन कर सूचित किया कि मिसेज जैन के यहां जिस चोरी के अपराध में उनकी ट्रेडिंग कम्पनी के मैनेजार प्रकाश को फंसाया गया है, वह चोरी प्रकाश ने नहीं, मिसेज जैन के बेटे प्रदीप ने की है, और प्रदीप इस समय अपनी एक प्रेमिका के साथ होटल मैरीना में है। चमनलाल तुरंत इंसपेक्टर रणवीर सिंह से मिले थे और जब इंसपेक्टर ने उनकी बात पर यकीन करने से इंकार कर होटल मैरीना में छापा मारने से इंकार कर दिया तब चमनलाल ने उसे पुलिस कमिश्नर से मिल उसकी शिकायत की धमकी दी थी. विवश इंसपेक्टर को उनके साथ होटल जाना पड़ा था। और प्रदीप तथा उसकी प्रेमिका वहीं मिले थे। थोड़ा धमकाने के बाद प्रदीप ने चोरी स्वीकार कर ली थी.
इंसपेक्टर ने मिसेज जैन को बुलाया था। जब इंसपेक्टर ने वास्तविक चोर को उनके सामने किया तब किंचित भी हत्प्रभ हुए बिना बेटे के हल्की-सी चपत मारती हुई मिसेज जैन बोली थीं, "तुझे पैसे चाहिए थे तो मांग लेता, चोरी क्यॊं की थी----" फिर इंसपेक्टर की ओर मुड़कर कहा था, "आपको बहुत कष्ट दिया इंसपेक्टर ----क्षमा करेंगे."
"और आपने जो कष्ट प्रकाश को दिया उसके लिए----." चमनलाल ने कहा तो मिसेज जैन ने उन्हें आग्नेय नेत्रों से घूरकर देखा और प्रदीप तथा उसकी प्रेमिका कोलेद् कर बाहर निकल गयीं.
इंसपेक्टर ने बिना खेद व्यक्त किए उसे छिड़ दिया था. जब वह चलने लगा, उसे एक ओर ले जाकर वह बोला, "यदि कहीं शिकायत की-----किसी नेता, अफसर या प्रेस को---- तो याद रखना जिन्दा न बचोगे---- जीप या ट्रक के नीचे कुचल डाले जाओगे."
बिना कोई उत्तर दिए वह लड़्खड़ाते कदम थाने से बाहर निकल आया था. चमनलाल जी कुछ दूर तक उसके साथ आए थे. मिसेज जैन के विरुद्ध कोर्ट में केस करने और मुआवजा दिलाने के लिए समझाते रहे थे उसे. लेकिन उसे बार-बार इंसपेक्टर के शब्द याद आते रहे थे. उसने उन्हे धन्यवाद दिया था और कुछ भी करने से इंकार कर दिया था.
थ्री व्हीलर लेकर वह सीधे डॉक्टर के पास गया था। हाथ, पैर और सिर में चोंटे थीं. लेकिन डॉक्टर को उसने वास्तविकता न बतायी थी. बताया था कि दुर्घटना में चोट आइ है.
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अब तक तो उसे बहन के पास पहुंच जान चाहिए था. सभी क्या कहेगें सोचेगें---- बदल गया है---- या यह सोचकर नहीं आया कि कहीं कोई जिम्मेदारी न सौंप दी जाये---- उसे अब चल ही देना चाहिए---- उसने जल्दी से कपड़े पहने और कमरे से बाहर निकल आया. लेकिन ताला बंद करते समय एक बार उसके हाथ रुक गये, ’कहीं वे मिल गये और समझ बैठे कि कहीं उनकी शिकायत करने --- तो-----पता नहीं क्या कर बैठें----जीप -ट्रक या मोटर साइकिल चढ़ा सकते हैं उसके ऊपर ---- दोबारा गिरफ्तार भी कर सकते हैं."
’जो कुछ होगा----- देखा जायेगा-----लेकिन उसे बहन को देखने जाना ही चाहिए।’
ताला बन्द करके वह बाहर निकल आया। स्टॉप पर आकर बस की प्रतीक्षा करने लगा . उस समय उसके दिमाग में विचार बहुत तेज गाति से दौड़ रहे थे और उतनी ही तेजी से उसकी आंखें चारों ओर घूम रही थीं। वह यह भी महसूस कर रहा था कि इस प्रकार जल्दी-जल्दी इधर-उधर देखना लोगों को अस्वाभाविक लग रहा होगा। उसने सिगरेट सुलगा ली और जिधर से बस आनी थी उधर देखने लगा। तभी उसे लगा कि किसी ने पीछे से उसको कन्धे के पास स्पर्श किया है। तेजी से मुड़कर उसने पीछे देखा। बस की प्रतीक्षा करते कुछ यात्रियों के पीछे उसे एक सिपाही दिखाई पड़ा। उसे लगा जैसे वह मुस्करा रहा है और बिल्ले जैसी चमकती आंखों से उसी को घूर रहा है।
’तो क्या उसी ने उसे स्पर्श किया था ? लेकिन पलक झपकते ही वह इतनी दूर कैसे जा खड़ा हुआ!’ उसकी ओर से नजरें हटाकर वह फिर उधर देखने लगा जिधर से बस आनी थी. उसका दिल तेजी से धड़कने लगा था और मध्य दिसम्बर की ठण्ड के बावजूद उसके चेहरे पर पसीना आ गया था । उसने जेब से रूमाल निकालकर चेहरा पोंछा और समाप्तप्राय सिगरेट फेंककर दूसरी सिगरेट सुलगा ली. वह दिमाग से पीछे खड़े सिपाही के विचार को झटककर सोचने का प्रयत्न करने लगा कि बस भी कभी-कभी कितना बोर करती है---- और ऎसे क्षण प्रतीक्षा करना ----- जब वह पीछे खड़ा उसे ही घूर रहा है----.’
उसे फिर लगा कि किसी ने कन्धा थपथपाकर कुछ पूछा है। चौंककर उसने पीछे देखा। एक व्यक्ति माफी मांगते हुए लाइटर मांग रहा था। उसे लाइटर देते हुए एक बार फिर उसकी नजर उस पर जा टिकी। वह उसी प्रकार मुस्करा रहा था और बिल्ले जैसी आंखों से उसी तरह उसकी ओर देख रहा था।
सिगरेट सुलगाकर उस व्यक्ति के लाइटर वापस लौटाते ही वह फिर उधर देखने लगा जिधर से बस आने वाली थी। और तभी उसकी प्रतीक्षित बस आकर रुकी। वह लपककर चढ़ गया। उसके पीछे कुछ और लोग भी चढ़े । उसे अच्छा लगा कि वह सिपाही उनमें नहीं था. टिकट लेकर जैसे ही वह आगे बढ़ा , वह बिल्कुल आगे की सीट के पास खड़ा दिखाई पड़ा उसी तरह उसे घूरता हुआ. वह जहां था वहीं रुक गया. पीछे की सवारियां बार-बार उसे आगे बढ़ने के लिए कह रही थीं, लेकिन वह उन्हें रास्ता देता हुआ वहीं जमा रहा. बस के चलते ही उसे लगा कि वह कुछ पीछे की ओर खिसक रहा है. वह भी वहां से हटकर यात्रियों को धक्का देता पिछले दरवाजेके पास जाकर खड़ा हो गया. बस में भीड़ के अधिक होने के बावजूद वह उसे भलीभांति देख सकता था. तभी उसने देखा कि वह हाथ का इशारा कर एक यात्री से कुछ कह रहा है---- क्या कहा उसने----- वह सुन नहीं सका---- लेकिन उसे लगा कि अवश्य उसने उसी के बारे में कुछ कहा होगा.
उसका दिल फिर तेजी से धड़कने लगा और चेहरे पर पसीने की बूंदें छलछला आयीं. तभी बस अगले स्टॉप पर रुकी. वह एक क्षण भी नष्ट किए बिना पीछे से चढ़ती भीड़ को ठेलता हुआ नीचे कूद गया और तेजी से सड़क पारकर दूसरी ओर पान की दुकान के पीछे जा खड़ा हुआ. दिल अभी भी उसका तेजी से धड़क रहा था और चेहरा पसीने से तर-बतर हो चुका था.