पीटू / संजय अविनाश
छोटे भाई के बेटे ने एक बादामी रंग का पिल्ला उठा लाया था, उठा लाया था अर्थात समझ ही रहे होंगे। उसके द्वारा पिल्ला लाना और घर में चिल्ला-चिल्ली होना, आम बात हो गई. आज भी कुछ परिवार में कुत्ता पालना हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसी दृष्टिकोण के चंगुल में जकड़े खासकर माँ, पिता और पत्नी नीमा को कुत्तों से इर्ष्या थीं। मुझे मालूम नहीं क्या कारण रहा हो, लेकिन पूजा-पाठ में विघ्न समझ आता था। भतीजा राज उस पिल्ले को खाना खिलाकर घर के बाहर किसी खोह में छुपा देता था। समय बीतता गया और वह पिल्ला को आंगन में रखने लगा। उस पिल्ले पर मेरी बेटी की लालची नज़र लग गई थी। किसी-किसी रात को पिल्ला इतना चिल्लाने लगता कि नींद टूट जाती और माँ के साथ नीमा भी चिल्लाने लगती, "कुत्ता-बिल्ली पालने की चीज है? अरे! गाय पालते तो दूध भी देती...बच्चे दूध पीकर ह्रष्ट-पुष्ट होते।" इन लोगों की बातों को दरकिनार करते हुए सोचने लगा और समझ में आया कि पिल्ला का चिल्लाना भूख की ओर इशारा कर रहा है। घर से बाहर निकलकर आंगन आया और प्यार से उसे ढूँढ़ निकाला। दरअसल, ढूँढ़ना इसलिए होता था कि माँ और नीमा की आवाज़ सुनकर वह कहीं दुबक जाता था। उसे कुछ खाने के लिए देता, फिर वह चुपचाप बैठ जाता। मेरे सोने के पश्चात शनै:-शने: पास आ जाता और बिछावन के आसपास छुप जाता। कभी-कभार नींद में करवट फेरने के दरमियान उसका स्पर्श भयभीत कर देता तो गुदगुदी भी होती। फिर उसे अपनी चादर से ढँक देता ताकि ठंड न लगे। वह सुकून महसूस करता और सबेरे-सबेरे उसे बाहर भी कर देता था। इस प्यार को अधिक दिनों तक छुपा नहीं सका। बीच-बीच में नीमा देख लेती तो झुंझलाने लगती और धमकी भी देती कि माँ जी को बताती हूँ। पिल्ले की खातिर पत्नी को जवाब नहीं दे पाता और उसे अपनी बातों में उलझा लेता था। हमदोनों की बातें सुनकर अन्नू मजबूत होती जा रही थी और मन-ही-मन खुशी के साथ पिल्ला पर खुलकर स्नेह लुटाने लगती।
स्वाभाविक है जब तक मनुष्य का किसी से लगाव न हो, कशिश न हो तो वह वस्तु धूल समान होती है। लेकिन ज्यो ही अपनापन हो जाता है तो उसका नामाकरण करना सुखद नियति में शामिल हो जाता है। स्नेह-बंधन में बंध जाए तो प्यारा-सा नाम दिया जाता है। मैंने भी उस पिल्ला को "पीटू" नाम दिया। पीटू नाम से वह जाना जाने लगा। धीरे-धीरे घर के सदस्यों के बीच निर्भीक होकर रहता और कभी आंगन के बाहर तो कभी घर के अंदर टहलता रहता। हाँ, किसी दिन बाहर से मरे हुए जानवर के टुकड़े को लेकर आंगन में आ जाता तो इस वीभत्स दृश्य को देखते ही घर में बबाल मच जाता था। सब कोई डांटने लगते तो किसी से डंडा भी लगता। पीटू कभी टुकड़े को लेकर बाहर भाग जाता था तो एकाध बार आंगन में ही छोड़कर वह निकल जाता। उस दिन उसे घर में प्रवेश करने पर रोक लग जाती। पूरे घर-आंगन सफाई होती और इस सफाई में अन्नू बढ़ चढ़कर भाग लेती थी ताकि पीटू पर से गुस्सा कम हो। हाँ, डांटती अन्नू भी लेकिन जब पीटू की पिटाई होने लगती तो वह मायूस हो जाती थी। वैसे तो, डंडा देखते ही पीटू जमीन पकड़ लेता था। मानो, खुद का समर्पण कर दिया हो, अपनी गलती कबूल कर ली हो। फिर उसकी हालत देखकर एकाध डंडे से ही छुट्टी मिल जाती। संध्याकाल घर आते ही मुझे पीटू की हजार शिकायतें सुनने को मिलने लगतीं। पत्नी घर में प्रवेश करने से रोके रहती। इसलिए कि मेरे ठीक पीछे पीटू रहता था। जिस दिन पीटू की गलती रहती, वह दरवाजे के बाहर ही मेरे इंतजार में रहता था। मेरी आहट सुनते ही लल्लोचप्पो करने लगता और नजदीक आते ही अपने पैरों से शर्ट-पैंट को नेस्तनाबूद कर देता। फिर पीछे-पीछे घर में प्रवेश कर जाता था। उस दिन उसे देखते ही नीमा झुंझलाने लगी, "ई आज मरी लाया था। घर को नरक बना दिया। पहले से कहती थी, कुत्ता-वुत्ता नहीं रखने के लिए. कुत्ता तो छोटी जात के लोग पालते हैं। भला, अशराफी जात कुत्ता-बिल्ली पालता है?"
ज्योंही पीटू के पक्ष में बोलने को सोचा कि वह शुरू हो गई, "ठीक बोलती है छोटी बहू! इससे बेहतर तो बकरी है, साल में दो-चार बच्चे देती है, फिर बच्चे के बच्चे। यह दो-ढ़ाई साल में क्या दिया और ऊपर से घर का अनाज गीला?"
मैंने उसे समझाने की कोशिश की, "तुम तो देख रही हो, इसके रहने से कोई परेशानी तो नहीं है। जब से आया है, बच्चे भी खुश और व्यवसाय में भी वृद्धि हुई है और हाँ, कोई किसी के लिए नहीं बना है, न ही किसी के सहारे दुनिया चल रही है, हर कोई अपने भाग्य से खाता है। पूजा-पाठ करती हो, व्रत भी रखती हो, उसी किताब में तो लिखा है," प्रत्येक जीव ईश्वर के द्वारा बनाया हुआ है, हरेक प्राणी में ईश्वर वास करते हैं! ईर्ष्या किस बात की? "
मेरी बात सुनकर कुछ देर के लिए समझ जाती थी, लेकिन किसी-किसी दिन आग-बबूला हो जाती और बकने लगती। उसकी बातें सुनकर मैं भी आवाक रह जाता। फिर क्षणभर में नहाने की बात पर बातें खत्म होतीं। पीटू को चापानल पर ले जाता, उसे नहलाता और खुद भी नहाता। ठंडी हो या गरमी उसकी सजा को साथ-साथ भुगतना पड़ता था।
इस प्रकार पीटू के प्रति दुलार-प्यार बढ़ता गया। जब तक माँ और पत्नी पीटू को दुत्कारती रही तब तक राज और उसकी माँ मुस्कुराती रही थी। पीटू के प्रति स्नेह का बढ़ना उसे मायूस करने लगी। अनायास हमसबों के प्यारे बन गये पीटू को वह कब्जे में ले ली। राज पीटू को रस्सी से जकड़ रखा था ताकि मेरे पास न आ सके. मैं जब काम से लौट आता तो पीटू उछलने-फांदने लगता था, लेकिन वह तो बेचारा हो गया। छटपटा कर रह जाता। किसी-किसी दिन छुट्टा पाकर मुझसे लिपट जाता और अपनी जीभ से शर्ट-पैंट, बदन यहाँ तक कि चेहरे को भी चाटने लगता। फिर राज देखता और बुदबुदाता हुआ, लप्पड़-थप्पड़ मारते हुए ले जाता और मैं देखता रहता। इतने में घर से आवाज आई, "मैं अपने लिए पाली हूँ, पेटभर खाये या न खाये हम समझेंगे... औरों के यहाँ खीर-पूरी से हमें क्या मतलब।" आदमी को दाना न मिले और इसे साबुन से नहाना", मैं भूखी ही रहूँगी तो अपने घर में रहूँगी, दूसरों से कोई लोभ-लाभ नहीं।" उसकी बात सुनकर स्तब्ध रह गया, तो पीटू के नाम पर तंज को भी हवा में उड़ा देता। फिर भी उसकी बातें सुनकर बच्चों के साथ मुझमें भी मायूसी छाने लगती। आखिरकार उसका पिल्ला समझकर चुप हो जाता। पीटू भी मायूस रहने लगा। भौंक लेता था लेकिन काटना उसके हिस्से में नहीं। तब उसकी उम्र लगभग दो वर्ष की हो चुकी थी। किसी-किसी दिन तो आधी रात तक गायब। कभी भी आता और दरवाजा पीटना शुरू। दरवाजा पीटने की आवाज से समझ जाता कि पीटू ही होगा। यही समय था, जब पीटू को सहला सकूँ। झटपट दरवाजे के पास जाता और खड़ा हो जाता, उसकी समझदारी को दाद देनी होगी कि वह भी समझने के लिए चुप हो जाता और मैं भी चुप कि पीटू है या नहीं। फिर दरवाजा खोलता और खोलते ही उसकी शरारत शुरू... मुझे सुकून मिल जाता कि आज स्पर्श तो हुआ... सुबह होता तो अपने काम से निकल जाता, पीटू भी कहीं दुबका रहता था। घर से निकलते समय आवाज सुनाई पड़ी, "कुत्ता है कुत्ता, कोई मुर्गी नहीं जो दो-चार रूपये का अंडा भी दे...दे—फिर ई कुत्ता के लिए काहे का बैर...?"
उसकी बातों को अनसुना कर दूकान की ओर निकल गया। इस बीच सोचता रहा, मैं तो दिनभर काम में व्यस्त रहता हूँ लेकिन उसे तो कोई काम नहीं... न जाने वह कितना मायूस रहता होगा?
मुझे याद है, पीटू घर के सभी सदस्यों से हिलमिल गया था। बच्चों के साथ खेलना, खाते समय बगल में बैठे रहना, बीच-बीच में बच्चों के द्वारा रोटी देना, पूँछ हिलाना तथा दबी जुबान से गुरगुराना भी उसकी आदत में शामिल हो चुका।
किसी कारणवश मुझे दो दिनों के लिए जेल जाना पड़ा। ईर्ष्या के कारण झूठा केस में फंसाया गया था। उस दिन घर में मातम छा गया और पीटू की भी मायूसी बढ़ गयी। उसकी मायूसी साफ झलकने लगी थी। उसकी दशा देखकर सारे सदस्यों को अहसास हो गया कि पीटू किसी मनुष्य से कम नहीं। आत्मीयता का मजबूत उदाहरण बन गया था। घरवाले तो आगे-पीछे की बात सोच-समझकर धैर्य के साथ काम लेने में लगे थे। सभी लोग आपस में बातें करते तो पीटू टुकुर-टुकर निहारा करता, हरेक बातों को ध्यान से सुनता भी था। लेकिन जब सभी लोग खाना खाने लगते तो पीटू मुँह को दूसरी तरफ घुमाकर बैठ जाता। मानो, बीमार पड़ गया हो। किसी ने उसके सामने खाना दे दिया तो वह बाहर निकल जाता।
पिछले दिनों से पीटू की आदत देख उसपर झुंझलाते भी लोग, पुचकारने की बात दूर चली गई थी। कारण घर के कमाऊ का जेल जाना चिंता का विषय बन गया तो भला उसे कौन पुचकारता। इन सारी बातों को तब सुनने को मिली, जब दो दिन पश्चात जेल से छुटकर आया था।
रात के करीब नौ बजे आना हुआ था। साथ में एक चचेरे भाई और पिताजी थे। न्यायालय ने एक दिन बाद ही जमानत दे दी थी लेकिन कागजी चक्कर में दो रात रहना पड़ा। घर से कुछ दूर ही था कि कदमों की आहट ने उसे प्रफुल्लित कर दिया, वह दौड़कर करीब आया और रास्ता रोक लिया। मैं सोच रहा था कि जल्दी घर पहुंच जाऊँ, वह सोच रहा था, पहले मुझसे बात कर ले। वह उछल-फान किए जा रहा था, उसकी मंशा थी कि पूरे बदन को चाटूँ। उसे मैं रोक रहा था, लेकिन वह मानने को तैयार ही नहीं। आखिरकार उसके सिर पर हाथ रखा, उसे पुचकारा तब जाकर उसने माना और आगे-आगे पीटू, पीछे-पीछे मैंने घर में प्रवेश किया। न जाने वफादारी का पाठ किस पाठशाला में लिया था और उसके शिक्षक कौन थे? ईमानदारी की सीख किसने दी...? उसकी बानगी देखिए, जब कभी रात्रि में लघुशंका के लिए बाहर निकलता तो मानो, उसे भी लघुशंका की दरकार पड़ गयी हो। प्रत्येक दिन की यही कहानी थी, आगे-आगे वह चलता, पीछे-पीछे मैं। उसकी आँखें जैसी भी हों लेकिन आहट से किसी को पहचानना बड़ी गजब की अनुभूति दे गई. एक बार लघुशंका जाने के दरमियान पीटू चौंक गया था और अपने पैरों से जमीन को कुरेदने लगा तो क्षणभर में पीछे मुड़कर मुझे आगे बढ़ने से रोकने लगा। मैंने सोचा, वह बदमाशी करने पर तुला हुआ है। उसकी शरारत देख उसे डांटा, कारण लघुशंका की तीव्र इच्छा थी, मैं आगे बढ़ना चाहा। लेकिन वह इतना बदमाश कि आगे बढ़ने ही नहीं देता था। मैं रूक जाता तो वह पैर, मुँह जमीन पर रगड़ने लगता। उसी समय मेरी निगाहें जमीन पर गई और देखा कि एक दो-ढ़ाई हाथ का सांप भागा जा रहा है... तो इतना दूरदर्शी था, पीटू।
खुशी के दिनों में खुश तो विकटकाल में भी साथ देनेवाला मित्र, अभिभावक समान प्यारा पीटू। उसके साथ आत्मीयता का लगाव अटूट बंधन समान बँध गया। उसके बिना घर सूना-सूना लगता। बच्चे स्कूल से आते-जाते उसे ही ढूँढने लगते। भले वह किसी से न पूछे लेकिन जब पीटू नजर नहीं आता तो सर्वप्रथम उसे ढ़ूंढ़ लिया जाता, नहीं मिलने के पश्चात चर्चा होती कि पीटू कहाँ है?
वह दिन विस्मय वाला था, जब मोटरसाइकिल से देवघर गया था और दूसरे दिन लौट भी आया। घर से कुछ ही दूरी पर पटना-भागलपुर मुख्य सड़क है। सड़क किनारे ही देखा कि एक बादामी रंग का कुत्ता लेटा हुआ है। कुछ दूर आगे निकल गया था, फिर मन ने कहा देख लो, कहीं तुम्हारा पीटू तो नहीं...? मुझे भी जल्दबाजी थी, लौटकर उसे देखा और उसे पहचान नहीं सका। सोचा कोई होगा, ऐसे रंग के दर्जनों कुत्ते थे गाँव में। वहाँ से चलने के बाद मन में अजीब-अजीब तरह की बातें चलने लगीं, जिसमें एक बात अनहोनी की ओर भी इशारा कर रही थी। घर पहुंचा और देखा मायूसी ने घर को अपने कब्जे में कर रखा है। सबकी आँखें नम थीं। सर्वप्रथम नीमा बोली पीटू को देखे? उसकी बातों में बिछुड़ने की तड़प थी। जब तक मैं कुछ बोलता कि अन्नू दिखाई पड़ी। उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं। अब आश्वस्त हो गया कि सड़क किनारे पीटू ही है, जो अंतिम दर्शन के लिए पड़ा हुआ है। मेरे स्पर्श की प्रतीक्षा में है। पुनः मोटरसाइकिल स्टार्ट किया और चल दिया मृत आत्मा से मिलने। मानो, किसी अपनों के इंतजार में राह ताक रहा हो। उसके बादामी रंग में निखार था, नहलाया हुआ लग रहा था, कहीं कोई का धब्बा नहीं। उसे देखा और मन-ही-मन प्रणाम किया। उसकी आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से कामना की। मुझमें हिम्मत नहीं कि उस जगह पलभर ठहर सकूँ... चल दिया प्रकृति के नियम को भुनाकर... यही तो सच है, जो आया है; वह जाएगा ही!
उसे भूल गया और चल दिया अपने कार्यस्थल की ओर ।
अब ध्यान आया कि देवघर से लौटते समय मेरी भी दुर्घटना सुलतानगंज में हुई थी। संभालते-संभालते संभाल पाया था। अगर वह ओवरब्रिज न होता तो न जाने कहाँ होता... उसी ओवरब्रिज पर मेरी गाड़ी पत्थर से टकराई थी। गिर गया था, कोई क्षति नहीं। हाँ, पैर का अंगूठा फट गया था। स्थानीय लोग बोल रहे थे, "तोर माय खरजितिया कैलको।"
अपनी दुर्घटना और पीटू की मृत काया से उबरने में देर लगी। बुझे मन से संध्याकाल घर आया। घर में खाना भी नहीं बना था। मातमी सन्नाटा पसड़ा हुआ था। कुछ ही देर में पैर के अंगूठे पर घरवालों का ध्यान गया। उनलोगों के पूछने से पहले मैंने अपनी आपबीती सुनाई. अन्नू बीच में टपक पड़ी, "दस बजकर पांच-दस मिनट के बीच पीटू भी।" वह पूरी बात नहीं बोल सकी और मैं शून्य में विचरण करने लगा। खुद पर झुंझला रहा था, जिसने अपनी जान देकर मेरी जान बचायी, उस निर्लोभ पीटू को देखकर निकल गया? उसकी मृत देह को गाड़ियों से कुचलने के लिए छोड़ दिया। खुद को कोसने लगा और अपराध-बोध की दुनिया में उबडुब करने लगा। क्या मनुष्य की यही नियति है। मनुष्य होने का यही प्रमाण है। बुदबुदा रहा था। स्वर में चिंता थी। तभी अन्नू बोली, "पापा, पीटू बाड़ी (घर के पीछे) में है।" उसकी बात सुनकर असमंजस में पड़ गया। बिना कुछ पूछे चल पड़ा बाड़ी की ओर। धुंधली रोशनी में कहीं पीटू दिखाई नहीं दे रहा था। हाँ, धूप-अगरबत्ती की सुगंध आ रही थी। अनायास जमीन पर भुरभुरी मिट्टी से पैर का स्पर्श हुआ... अब समझ गया कि इसी के अंदर पीटू लेटा हुआ है। सोचने लगा, यही तो होनी है, न चाहते हुए भी साथ हो जाना होता है। मुझे क्या मालूम कि मुझसे अधिक पीटू चाहता था मुझे। मैं तो उसके बादामी रंग पर मोहित था। देह से माया था। उसके साथ कुछ देर के लिए सुकून महसूस करता था। लेकिन पीटू देह से नहीं, दो रोटी से भी नहीं, बल्कि आत्मा से लगाव रखता था। वफादार, ईमानदार और मानवीयता का प्रतीक था। मुझमें हिम्मत नहीं कि पूछ सकूँ, पीटू यहाँ कैसे? उसी समय मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी, "माँ जी कंधे पर उठाकर लाई थी, जब आप दूकान चले गये थे। हमसब एक नजर पीटू को देखना चाहते थे। पीटू का साथ नहीं रहना, हमेशा के लिए कष्टदायक होता। हमसबों ने मिलकर गड्ढे खोदे और यहीं स्थान दिया। अब हमेशा साथ रहेगा। मैं मग्न था कि पीटू पास ही है...सुकून महसूस कर रहा था। इसी बीच बाड़ी के ठीक बगल में कमरे की खुली खिड़की से आवाज आई," हूंह... ई सब दिखावटी है, देखेंगे न माय-बाप के लिए क्या करते हैं... जादा पढ़ा-लिखा लोग ऐसे सरंग में सीढ़ी लगाने की सोचता है... लेकिन रावण भी लगाने से रह गया। फिर दबी जुबान में आवाज आने लगी, "ह-ह-ह... ई सब से कुच्छो नहीं होनेवाला है, भला, कुत्ता-बिलाय के लिए..."
तत्क्षण आती आवाज दब गई, जब धुंधली रोशनी को चीरती हुई आवाज आई, "बेटा, आदमी मर जाता है तो कोई जीकर मरता है।"