पीढ़ियाँ / अन्तरा करवड़े

Gadya Kosh से
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"मैंनाबाई! आज यहीं खा लो! प्रसाद तो जितनों के मुँह लगे उतना अच्छा।"


"जी बाई!"


कविता की त्यौरियाँ चढ़ गई थी। पहले ही इनसे सस्ते में मिल रही बाई को हटवाकर मैंनाबाई से आज की पूजा का खाना बनवाया था। अब माँ-जी न सिर्फ इन्हें खाना खिलाएँगी¸ साथ ही घर भर का टिफिन भी बाँध देंगी। तभी तो ये सभी काम के वक्त नखरे दिखाते है। कम काम में इतना सब कुछ जो मिल जाता है।


सब कुछ निपटाकर¸ ब्राह्मणों को दान दक्षिणा के साथ विदा कर¸ सास बहू भोजन करने बैठी। माँ-जी ने कविता का मन जान लिया था। वे जान बूझकर मैंनाबाई का विषय निकाल बैठी। उसका पति अपाहिज है। तीन बच्चे पढ़ रहे है आदी।


असल में माँ-जी स्वयं भी परिस्थिति की मार के चलते¸ अपने प्रारंभिक दिनों में कुछ घरों में जाकर पूजा का खाना बनाया करती थी। घरवालों से झूठ कहती कि आज फलां के यहाँ सुहागिन जीमने जाना है। और उस घर जाकर पूरा खाना बनाने का काम किया करती। उनकी यजमान सरस्वतीबाई को यह बात मालूम थी। वे आग्रह कर उन्हें खाना खिलाती¸ साथ बाँध देती और खान बनवाई के जो पैसे मिलते सो अलग। तीन चार सालों तक ऐसे ही झूठ से माँ-जी ने अपनी गृहस्थी खींची थी। उसी के बल पर आज घर में सुख¸ वैभव¸ शांति है।


"कविता! मैंनाबाई के घरवालों को भी आज यही भ्रम है कि वे आज हमारे यहाँ सुहागिन जीमने आई है।" माँ-जी ने मुस्कुराकर कहा।


कविता के सारे अनपूछे प्रश्न अपना उत्तर पा गये थे।