पीढ़ी की पीड़ा / संतोष भाऊवाला
निकल जाओ घर से,
कोई इस तरह कहता है बेटा,
हाँ कहूँगा, जब मै आप लोगो को पर्याप्त पैसे भेज रहा था तो आपने गहने क्यों बेचे?
हमने नहीं बेचे,
बेचे नहीं तो गए कहाँ ...
हमें नहीं मालूम ..
नहीं मालूम तो क्या गहनों को धरती लील गयी या फिर आसमाँ निगल गया,
हमें इसकी जानकारी नहीं है, तुम रूपा (बहु ) को पूछो, हो सकता है उसी ने कहीं रखे हो ...
नहीं, अगर वह ले गयी होती या कहीं रख जाती तो मुझे बता कर जाती ....
तुम्हारा कहने का मतलब क्या है? क्या हम चोर है? अपने ही घर में चोरी करेंगे? पत्नी पर इतना भरोसा और माँ बाप पर रत्ती भर भी नहीं! छि …
मुझे कुछ नहीं कहना, जब तलक गहनों का पता न चले, आप घर में नहीं रह सकते ...
ऐसा न कहो बेटा ...
"अभी मै जिन्दा हूँ, ये घर मेरे खून पसीने की कमाई का है। देखता हूँ, कौन हमें यहाँ से निकालता है"
इतनी देर से मूक श्रोता की तरह बैठे बाबूजी, जो माँ बेटे का वार्तालाप सुनकर भी शांत बैठे थे, सहसा बीच में बोल पड़े... कभी था आपका, अब ये घर मेरा है।
इस भ्रम मे न रहना .....
आपने इसे गिरवी के लिए रखा था न, मैंने ही पैसे देकर छुड्वाया है।
अरे नामाकुल, कर्ज तो तेरी ही पढ़ाई के लिए लिया गया था, कुछ तुने भी चुकाया तो क्या हुआ?
वो सब मै नहीं जानता। बस आप लोग इस घर से इसी वक्त चले जाएँ। अब इस छत के नीचे निर्वाह होना नामुमकिन है।
ऐसा कैसे हो सकता है ...माँ बाबूजी इस बार एक साथ बोल पड़े!!
लेकिन बेटा तो अपनी जिद पर ही अड़ा रहा। किसी की भी सुनने को तैयार नहीं। बस एक पागलपन सा सवार हो गया था, माँ बाबूजी को घर से निकालने का .....
आखिर, बाबूजी ने विवश होकर NGO से मदद मांगी।
उनलोगों ने आकर बाप बेटे के बीच मे सुलह कराने की कोशिश की। उस दौरान पता चला कि गहने तो उसकी पत्नी, कनाडा जाते वक्त अपनी माँ के पास रखा गयी थी, एहतियात के तौर पर, और उसे बताना भूल गयी थी। ये सब जानने के बाद कुछ कहते नहीं बन रहा था, तब NGO वालों ने माँ बाप से कहा कि अब आपकी बारी है, क्या कहना है बेटे से .... माँ बाप क्या कहते "जग जीता पेट हारा"