पीने वालों को / प्रमोद यादव
मैं आज तलक समझ नहीं पाया कि लोग ’पीते’ क्यूं हैं...देश में खाने का अकूत भंडार पड़ा है पर लोग हैं कि केवल पीने पर आमादा हैं. अरे पीना ही है तो चाय पियो, छाछ पियो, पानी पियो, गंगाजल पियो, शरबत पियो...इन पर भला क्या पैसा लगता है? पर दारु पीकर पैसा (और परिवार) बर्बाद करना कहाँ की बुद्धिमानी है...कभी-
कभी तो इतिहास खंगालने का मन करता है कि सबसे पहले किस शख्स ने पिया और किसने यह प्रोडक्ट बनाया-परोसा..तीनों के दर्शन करने को मन करता है...पर’गूगल’सर्च भी यहाँ फेल है..देवों के देव महादेव’भांग’के नशे के लिए प्रसिद्ध ( बदनाम ) हैं..पर गांजा- भांग पीने वालों को कोई तवज्जो नहीं देता..इसे नशा नहीं, प्रसाद माना जाता है..इस नशे को समाज ने’वैध’करार दिया गया है.. नशे की दुनिया का यह सबसे प्राचीन और कमसिन नशा है..इससे समाज का कोई खास नुंकसान नहीं होता..पर दारू तो आदमी के साथ-साथ समाज को भी लील रहा है.. दारू की खपत दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है और बढे जा रही है
महगाई की तरह दिन-ब-दिन. पियक्कड़ों की संख्या और सरकार है कि इसकी पाबन्दी पर कभी मूड नहीं बनाती, राजस्व की भारी हानि जो है...बस, एक पुलिसिया कानून भर बना दिया - पीकर जो हुल्लड करे , उसे घंटे दो घंटे के लिए (नशा उतरते तक ) अंदर कर दो और फिर बिना किसी जमानत के बेइज्जत कर हकाल दो...बचपन में जिस मुहल्ले में रहता था, पियक्कड़ों की भरमार थी वहाँ...रोज शाम को सात बजे नहीं कि शो शुरु हो जाता...काफी गाली-गलौज करते, शोर मचाते, हुडदंग करते..कभी-कभार किसी के कम्प्लेंट पर पुलिस आती तो धरकर ले जाती..लेकिन घंटे दो घंटे बाद ये फिर बजबजाते नाली के मुहाने में बडबडाते दिख जाते. तभी से मैं समझ गया था कि दारू पीना कोई संगीन अपराध नहीं...तब दारू बहुत सस्ती भी थी इसलिए लोग बारबार ये अपराध करते थे. उन्ही दिनों मैं यह भी जान गया कि दारू बड़ी कड़वी चीज है क्योंकि मुहल्ले में जब कभी भी नाच या जलसा होता ये रंगदार लोग (पियक्कड लोग) ही हीरो होते..बाटली खोल सामने बैठ जाते और अजीब-अजीब सा मुंह बनाते, आँखें भींचते, हलक में उतारते जैसे कोई कड़वी दवा पी रहें हो...मुझे नाच देखने में उतना मजा नहीं आता जितना कि उनके अजीब-अजीब हरकतें देखने में आता.
जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया पर दारू वहीँ की वहीँ... कड़वी की कड़वी . कड़वी है तो करोड़ों दीवाने, मीठी होती तो ना जाने क्या होता? कहते हैं- दारू दो तरह के लोग पीते हैं, एक- बड़े लोग..दूसरा- छोटे लोग... दारू दो स्थितियों में पी जाती है- एक- गम में, दूसरा - खुशी में... दारू दो तरह से पी जाती है- एक- नीट, दूसरा -सोडा-पानी के साथ.... दारू पीने का वक्त भी दो तरह का है- एक- वक्त से, दूसरा- बेवक्त. दारू पीने के कितने बहाने होते हैं, ज़रा गौर फरमाएं- एक से पूछा-’क्यों पीते हो?’उत्तर मिला-’मजे के लिए’हमने पूछा-’इसमें क्या मजा? मजा तो घर-परिवार में है ’ वह बौखला गया-’अरे यार...घर की याद दिलाकर सारा नशा ही उतार दिया..अब फिर एक अध्धी चढानी होगी...चलो..निकालो पैसे?’
एक और दारूबाज को टटोला-’आप क्यूं पीते हो?’उसका जवाब था-’गम गलत करने...’
‘क्या गम है आपको? उपरवाले ने तो सब कुछ दिया है जैसा कि मैं जानता हूँ..’
उसने रोनेवाले अंदाज में उत्तर दिया-’बहुत दुखभरी कहानी है दोस्त...बेहद प्यार करता था मैं उससे..’ मैंने बीच में टोका-’क्या नहीं मिली वो?’
अरे नहीं यार....उसी से मेरी शादी हो गयी...बस...इसी गम में पीता हूँ...’
एक और पियक्कड से जो कलाकार था, पूछा-’आपकी पेंटिंग के हजारों दीवाने हैं...आपके हाथों में जादू है..पर पी-खाकर सब गुड-गोबर कर देते हैं...पीना क्या जरुरी है?’कलाकार दारू ना पिए तो उसे कलाकार कौन कहे?..पीना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’
एक पियक्कड जो पीने के बाद तुरंत सो जाते हैं, से पूछा-’आप क्यूं पीते हैं?’
तो ऋतिक रोशन के अंदाज में उसने उत्तर दिया-’परम्परा.....मेरे दादाजी पीते थे...पिताजी पीते थे...इसलिए पीता हूँ... परम्परा का निर्वाह कर रहा हूँ...’
एक बड़े वर्ग के बेवडे से पूछा-’आपको तो भगवान ने सब कुछ दिया है...लाखों का व्यवसाय...शानदार कोठी..खबसूरत बड़े घर की बीबी..’उसने मेरी बात काटते कहा-’मेरा ये नौ हजार का जूता देख रहे हो? कैसा है?’मैंने कहा-’बेहद ही सुंदर..’ वह फटाक से बोला-’लेकिन अंदर से ये जो काट रहा है, उसे मैं ही भोगता हूँ...अब उस पर दारू का मरहम ना करूँ तो क्या करूँ?’मैं निरुत्तर हो गया.
इसी वर्ग के एक छुप- छुपकर पीनेवाले छुपेरुस्तम से पूछा तो उसने मानने से ही इंकार कर दिया कि पीता है. जब ढेरों ठोस सबूत पेश किया तो बड़ी ही शर्मिंदगी के साथ स्वीकार कर अपनी दुखभरी दास्ताँ बताया कि उसकी बीबी एक बड़े घराने से और’ओवर- क्वालिफाईड’है..सुहागरात को ही काफी भारी पड़ी वो...उसके सवाल-जवाब से उस रात ए.सी. में उसे पसीना आ गया...हर मामले में वह बीबी के मुकाबिले’जीरो’ था किसी तरह वह भयानक रात ( सुहागरात ) कटी..दूसरे दिन अपने एक खास दोस्त को ये हादसा बताया तो उसने मुझे एक’चपटी’दी और कहा, हर मर्ज की दवा है यह...बच्चों की तरह आँखें मूंद गटक जाओ..सारे दुःख बाहर...तब से नियमित गटक रहा हूँ. बड़ी मस्त चीज है यह....ना लूँ तो बीबी से बतिया भी ना पाऊं....अब तो आप समझ गए ना, क्यूं पीता हूँ. मैं क्या कहता, सिर हिलाया और चला आया.
निष्कर्ष ये है कि पीनेवाले ’मोस्टली’ गमजदा होते है...सबके अपने-अपने गम हैं.. अपने-अपने बहाने. खुशी से भला कौन पीता है - राम जाने. हर साल, नए साल के पहले दिन सोचता हूँ कि एकाध घूँट हलक में उतारकर देखूं- ये मस्त-मस्त चीज भला क्या बला है? पर डरता हूँ, अच्छा-खासा सुखी जीव हूँ- कहीं पेग के साथ कोई छोटा-मोटा गम’वाइरस’की तरह भीतर ना उतर जाए...बेवजह गम मोल लेकर मुझे नहीं मरना..वैसे भी दिलीप कुमार, राजेंद्र कुमार जैसे गमजदा लोग मुझे पसंद नहीं...बस इसी डर से आज तक नहीं पी. हर नए साल के पहले दिन फ्रिज में छुपाकर रखे सुरा का सिर खींचता हूँ, हथेली में रख अल्टी-पलटी कर निहारता हूँ और फिर अगले साल तक के लिए’टा-टा’‘बाय-बाय’कर वापस अंदर धकेल देता हूँ. इस तरह पियक्कड़ों की जमात में हर साल शामिल होते-होते चूक जाता हूँ. क्षमाप्रार्थी हूँ बेवडो.....इस साल भी....फिर मिलेंगे..