पीला गुलाब / भाग 10 / प्रतिभा सक्सेना
'एक तो दो-दो लौंडियाँ, ऐसी चढ़ा के रक्खीं बिलकुल अपने मन की हो रही हैं। ऊपर से अंग्रेजी इस्कूल में दाखिल करवा दीं’- जिठानी की शिकायत पर रुचि समझा देती -
'बदलते हुये समय के साथ नहीं चलेंगे तोो अपने बच्चे पिछड़ जायेंगे, दीदी, लड़कियाँ हैं तो क्या। वे भी खुश रहें, आप भी तो यही चाहती होंगी।'
‘हमारे कौन जमा-पूंजी धरी है। इत्ता चढ़ जायेंगी तो कहाँ लड़का मिलेगा। हम तो इसी में परेशान हैं कि शादी कैसे होयगी।’किरन कहती रही।
कर्नल साहब अपनी बेटियों को किसी से कम नहीं देखना चाहते। होस्टल में रह कर पढती रहीं दोनों।
'और क्या करते दीदी, जहाँ उनकी पोस्टिंग हुई वहाँ, अच्छे स्कूल नहीं थे, कैसे साथ रखते बच्चों को!
'तो क्या वहाँ की लौंडियाँ पढ़ती नहीं। अरे, पैसे जोड़ते शादी के लिये।’
किरन को याद आता है कित्ता दबा रखा गया था उसे।
'रुचि, तुम्हीं अच्छी रहीं।हम तो गाय थे, जहाँ हाँक दिया चले आये!’
शिब्बू कहते हैं, ‘किस्मत सराहो भाभी, ऐसा घर-वर पाने को तरसते हैं लोग।’
‘तो तब इनने किसी वजह से ही तो।।।?’इशारा रुचि की ओर
अब, इसका जवाब किसके पास!
पिछली बार जब शिब्बू, दादा के पास आये थे तब की बात।
इस लड़ाई के कोई आसार नहीं थे तब। यों ही बातें चल रहीं थीं।
अचानक अभिमन्यु कह उठे -
तुम भी बी.ए. कर लेतीं किरन तो मुझे संतोष हो जाता। परिस्थितियाँ बदलते देर नहीं लगती। और फिर सेना में होने का मतलब।'
किरन से रहा नहीं जा रहा, ’मत कहिये नहीं, कुछ भी मत कहिये। भगवान ऐसे दिन न दिखाए।
सब चुप हैं।
कर्नल सा. कह उठे थे, ‘अपनी बेटियों को काबिल बनाना चाहता हूँ, उन्हें कभी बेबस न होना पड़े।'
'दादा, तुम बेकार परेशान होते हो। हम लोग भी तो हैं न।’
'तुम्हारी ढंग की कमाई होती तो।'
'मैं नहीं हूँ क्या? रुचि बीच में बोल पड़ी, ‘निश्चिन्त रहिये आप।’
‘पर कल को तुम्हारे अपने भी तो। ।।'किरन बीच में बोल पड़ी।
‘अरे, हमारे न सही, लाला तुम्हारे एक लड़का हो जाता। वंश का नाम तो चलता।’
सात साल में दो बार आस बँधी पर निष्फल चली गई।
'यहाँ अपना बस कहाँ चलता है, भाभी। "
रुचि चुप कैसे रहे -
'अपने अलग नहीं चाहिये हमें। निश्चिंत रहिये। इनके लिये जो अरमान हैं दिल में, ज़रूर पूरे होंगे।’
वे चुप उसका मुँह देख रहे हैं।
'कुछ मत सोचिये।।, मेरे होते इनके सामने कोई बाधा नहीं आयेगी।’वह कहती चली गई, ’जीवन में और चाहे कुछ न कर सकी होऊँ, पर यहाँ पीछे नहीं हटूंगी।'
आज पहली बार जेठ के सामने रुचि इतना बोल गई।
कर्नल ने उसकी ओर आँख भर कर देखा था - परितृप्त दृष्टि!
'अपना भी जीवन जीना साथ में, सुरुचि, बिलकुल अकेली मत पड़ जाना।’।
देवर -भाभी चकित। आज पहली बार दोनों को बोलते सुना।
'और कुछ कहाँ कर सकी, इतना तो संतोष रहे।’
चाय के बर्तन उठा कर चलती रुचि की आँखें भर आईँ थी।
दिन बहुत धीरे-धीरे बीत रहे हैं।
इस साल तो पिछले ग्यारह सालों का रिकॉर्ड टूटा है। बहुत सर्दी पड़ रही है। उड़ाने कैंसिल, ट्रेनें सब लेट। धुंध के मारे दिखाई नहीं देता। एक्सीडेंट भी तो कितने हुये हैं।
जीवन जड़-सा हो उठा है। क्या करे कोई?
कैसे-कैसे कुविचार उठते हैं।
निश्चिंत कहाँ रह पाता है मन!
इधर कोई खबर नहीं आ रही।
रेडियो की ख़बरों पर ध्यान लगा रहता है सबका। सीमा पर एक विमान दुश्मन ने गिरा दिया। झटका-सा लगा था सबको
शीत-लहरके कारण स्कूलों में छुट्टी। लड़कियाँ घर आ गई हैं।
पर्वतों पर हिमपात और कोहरा,
हेलिकाप़्टर और प्लेन यथास्थान लौट आयें तभी निश्चिंत हो पाते हैं सब।
कभी -कभी पता ही नहीं मिलता। खोजना भी मुश्किल।
अभिमन्यु कहाँ हैं, कैसे हैं, किसी को पता नहीं।
इस कठिन समय में वह जिठानी के पास बनी है।