पीला गुलाब / भाग 11 / प्रतिभा सक्सेना

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अचानक एक दिन सेना की वर्दी में कुछ अधिकारी उपस्थित हो गये।

सब सन्न!

क्या हो रहा है किसी की समझ में नहीं आ रहा। बस यह समझ में आया कि कर्नल साहब कभी देखने को नहीं मिलेंगे वे घर नहीं लौटेंगे।

रंजना-निरंजना सहमी खड़ी हैं,

'हमारे डैडी।।'

'बेटा तुम्हारे डैडी, ‘ऑफिसर, ’उठ कर उन तक गया, थपकता हुआ बोला, ’बड़े बहादुर आदमी थे।।देश के लिये बलिदान किया।। उन्होंने।।'

किरन सपाट स्वर में कह उठी’वे अब कभी नहीं लौटेंगे।'

रो उठी वह, मुख पर आँचल दबाए, दुर्वह वैधव्य का घुटा हुआ रुदन, विचित्र सी ध्वनि में उस मौन अशान्ति को तोड़ गया। सब के ह़दय तल तक काँप उठे।

लड़कियाँ माँ से आ लिपटीं।

वे लोग बहुत कुछ कहते रहे, बहुत तारीफ़ करते रहे कर्नल अभिमन्यु की, पर कुछ भी, किसी के मन तक नहीं पहुँच रहा।

यह सबको सुनाई दे गया कि कर्नल अभिमन्यु, की पार्थिव देह पूरे सैनिक सम्मान के साथ आ रही है।

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लोग आ-जा रहे हैं। मिलिट्री का बैंड बज रहा है।

गूँज आ- आ कर हृदय से टकराती है। अपना कर्तव्य निभा रही रुचि।

रो-रो कर निढ़ाल हुई जिठानी को एक कुर्सी खींच कर बिठा दिया, साथ होकर साध लिया उसने।

दोनो पुत्रियाँ एकदम विमूढ। चिपकी खड़ी है।

बहुत लोग आ गये हैं। व्यवस्थायें हो रही है।

'अब हम क्या करें?’

उसके कंधे पर सिर रख निरंजना अचानक रो उठी।

एक व्यक्ति बढ़ आया,

'बेटा, तुम्हारे पिता मरे नहीं अमर हो गये। घबराना मत मैं हूँ।’

‘हम हैं तुम्हारे साथ’

सांत्वना देनेवालों की कमी नहीं है।

रुचि ने आगे बड़कर दोनों को गले लगा लिया। वे रोती हुई सिमट आईं, 'चाची, अब आप ही अम्माँ को समझाओ।’

वे जानती हैं, माँ के लिये यह सब कितना भारी पड़ रहा है।

व्याकुल सा भरभराता स्वर फिर उठा, 'अब हम कैसे क्या करेंगे?'

'दीदी, हम हैं। बच्चों के लिये आप चिन्ता मत करिये’

'वो हमारी जिम्मेदारी हैं, हम करेंगे उनका सब कुछ’, शिब्बू ने साथ दिया।

दोनों अपने से लगाये रुचि कह रही है -

'आज से ये मेरी बेटियाँ। सारी जिम्मेदारी मेरी। अब आप कुछ नहीं कहेंगी इनके लिये!'

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किरन कह रही है, ’सब चले जायेंगे, सब भूल जायेंगे, बस मैं रह जाऊँगी बेबस अकेली। क्या करूँगी, कैसे बिताऊँगी ज़िन्दगी?’

'रास्ता मिलेगा दीदी, जरूर मिलेगा।'

शिब्बू बेचारे समझ नहीं पा रहे क्या कहें।

'हाँ, और क्या हम लोग हैं, फिर दादा की पेंशन भी तो। और हमारी जिम्मेदारी भी।’

'अरे, आगे की भी सोचनी है, ऐसे ही थोड़े बैठी रहेंगी।'

‘क्या मतलब?’

'मतलब, बेकार बैठे दुखी होंगी।, ‘उनकी ओर घूम कर बोली, ’दीदी, आप तो शादी के बाद इन्टर कर चुकी हैं?’

‘हाँ, उनका बहुत मन था मैं आगे पढ़ूँ, ट्यूशन रखवा दी थी, '

किरन को अब पछतावा हो रहा है।

'...कितना अच्छा होता उनकी सुन लेती। कुछ करने लायक हो जाती। वहाँ तो हमें घर के काम में लगा देती थीं मामी। अम्माँ हमारी बेबस थीं। टीचरें हमसे हमेसा खुश रहीं पर हमें पढ़ाता कौन! फिर बाद में तो मेरा मन नहीं लगता था पढ़ने में।'

‘अब।किसके सिर पड़ूँ। पहाड़ सी ज़िन्दगी कैसे कटेगी ? कहीं लग जाऊं। ढंग का काम कौन देगा मिुझे किसी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाने का न सही पानी पिलाने का और ऊपर का काम ही सही।'

'कैसी बातें करती हैं दीदी, चलिये मेरे साथ बी।ए का फ़ार्म भरिये। दो साल में बी।ए।’

‘मैं कुछ कर पाऊंगी क्या?’

'हो गया सो हो गया, आपमें कोई कमी थोड़े न।तब ध्यान नहीं दिया अब तो कर सकती हैं। खूब कर सकती हैं अगर चाहें तो।’

चुपचाप सोच रही है किरन।

'अब इत्ती उमर में? सब हँसेंगे हमारे ऊपर’

‘तो क्या? पता है हमारे यहाँ एक पचास साल से ऊपर की महिला ने एडमिशन लिया। किसी की परवाह नहीं की, और पता है, सबसे अच्छे नंबर उसी के आये।

हम लोगों ने खूब तारीफ़ की उसे हिम्मत दी। वो हमारे यहाँ लाइब्रेरी में है अब।'

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अभि के व्यक्तिगत सामान का बड़ा-सा बंडल आया है।

रुचि पर सारी जुम्मेदारी आ पड़ी है।

खोल कर देख रही है।

ड्रेस, मेडल, रोज़ के उपयोग का सामान।

देखती रही आँखें धुँधला आईँ।

एक लिफ़ाफें में बड़ा सहेज कर रखा हुआ कुछ!

क्या है यह?

रुचि खोल कर देखती है।

एक रुमाल में लपेटा हुआ पीला गुलाब - सूख गया था पर आकार लिये था।

।दोनो हाथों में रूमाल सामने किये रुचि देखे जा रही है।

बीती बातें अंतस् में टीस भरती उभर आईं

'दादा भी एक ही निराले हैं।’

शिब्बू ने कहा था। बराम्दे में बैठे शेव कर रहे थे, बग़ीचे में माली, गुलदस्ता बनाने को फूल छाँट रहा था।

'और सब रंग हैं बस एक कमी - पीले गुलाब की बेल यहाँ बहुत जमेगी’

‘नहीं लाला, ‘भाभी ने चट् जवाब दिया था, ’पीला गुलाब बिलकुल नहीं चलेगा यहाँ। माली ने चाव से लगाया पर, तुम्हारे दादा ने हटवा दिया था।’

कर्नल साहब को पीला रंग बिलकुल पसंद नहीं!’

खूब याद है रुचि को।

और आज समेटे खड़ी है वही फीकी पड़ गई पीली पंखुरियाँ!

हथेली में भर लेती है नाक के पास लाकर वास लेती है। बहुत मंद-सी गंध-शेष। यही है क्या - बहकी हुई प्रीत की महक!

उस प्रथम परिचय की भेंट, अनायास जुड़े प्रेम-बंधन की स्मृति, नये जुड़े संबंध का साक्षी वह पीला गुलाब, जिसे उन नेह भरे हाथों ने उसके केशों में टाँक दिया था।

उस सज्जा में सबके सामने कैसे जाती?

बगीचे से लौटती बार उसने खींच कर निकाला, अभि ने तुरंत हाथ बढ़ा कर थाम लिया था।

डंडी पकड़े नचाते हुये सबके सामने कहा था उसने , ’आपके बग़ीचे के ये पीले गुलाब बहुत दिलकश हैं, लिये जा रहा हूँ एक। ’

उसी फूल के अवशेष देखे जा रही है रुचि।

'क्या है इसमें?’शिब्बू आ कर खड़े हो गये थे।

‘पूजा के फूल लग रहे हैं, कहीं का प्रसाद, उन्हीं के सामान में रक्खे दे रही हूँ।'

बिखरी पंखुरियाँ उसी रुमाल में सहेज दीं उसने।

अभि, तुम नहीं हो, अब तुम मेरे जेठ भी नहीं हो। उस संबंध से मुक्त हो। पर मैं बँधी हूँ, वचन की डोर में, दो-दो वचनों की।

मैं दोनो ओर से बँधी हूँ।

एक चूक का परिताप सदा को पल्ले से बँध जाता है।

गालों पर बह आए आँसू पोंछ लेती है वह।

जो करणीय है वही करूँगी- राह बहुत बाकी है अभी!