पीला गुलाब / भाग 1 / प्रतिभा सक्सेना
देखा -सामने वही खड़े हैं।
प्रथम-दर्शन के पल आँखों में कौंध गये।
वे ही लोचन जिनकी दृष्टि से लज्जित हो उसने पलकें झुका ली थीं। हलके से आँखें उठाईं ।चार बरस पहले देखी मन-भावनी सूरत पहले से अधिक प्रभावशाली और गंभीर।
मन में गहरी टीस उठी। जी धक् से रह गया। आँखें तुरंत झुका लीं उसने। बिजली के अनगिनती लट्टुओं से सजा मंडप उसे अँधेरा सा लगने लगा। इच्छा हुई सब वहीं छोड़ कर भाग जाये।
एक बार अस्वीकार कर तो सब कुछ लुटा बैठी, अब भागने से क्या फ़ायदा?
शादी की रस्में चलती रहीं, वह सब कुछ करती रही -यंत्र-चालित-सी, भाव-शून्य।
वे आये। उन्होंने झुक करजोड़ा उठाया, उस पर आभूषण और रुपये रख कर दोनों हाथों से, चौक पर बैठी कन्या की गोद में रखा, झुके हुये माथे पर रोली का टीका लगाया और हाथ जोड़ दिये।
'और निछावर?'
'हाँ, निछावर।’उन्होंने हाथ जेब में डाला दस का नोट निकाला उसके सिर के चारों ओर घुमा कर ठिठके -’किसे दें’की मुद्रा में।भाभी ने ले कर साथ खड़ी लड़की को पकड़ा दिया।
नत-नयन सिर झुकाये बैठा रही वह। एक बार के बाद फिर दृष्टि उठाने की हिम्मत नहीं पड़ी।
भाभी ने जोड़े-जेवर उसकी गोद से उठाये बोलीं, ’कर्नल साहब, मुँह तो मीठा कराइये।’
मिठाई का डिब्बा उठा कर उन्होंने कन्या के आगे बढ़ा दिया। उसने न सिर उठाया न हाथ बढ़ाया ।भाभी ने ही मिठाई का टुकड़ा उसके मुँह में दे दिया।
एक-एक कर उन्होंने पाँचो जोड़े चढाये। आभूषण गोद में धरे और वधू पर निछावर करते गए, फिर सीधे हो कर चुप खड़े हो गये।
मेरा, रोल पूरा हो गया?’
‘बस हो गया। अब आप विश्राम करें! सोते से जगा कर आप को कष्ट दिया।’
उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया, सोने भी नहीं गये। वहीं मंडप के एक कोने में कुर्सी पर बैठ गये।
‘और कुछ? अब और काम तो नहीं मेरा?’
वही आवाज़ जो मन में उथल-पुथल मचा देती थी।
वह भूल सकती है क्या?-
अत्यंत कोमल और स्नेहिल स्वर में जो पूछा था किसी ने।
किसी ने क्यों। अभि ने पूछा था रुचि से, ’फ़ौज़ के आदमी के साथ निबाह कर लोगी?’
शब्द चाहे न मुखर हुए हों मन बार-बार कह रहा थ-अभि, तुम्हारे साथ कहीं भी निबाह लूँगी।'
शर्माते हुये उसने हाँ में सिर हिला दिया था।
चार साल बीत गये।
लड़की देखने आए लोगों ने, अपने लड़के की अनुकूलता समझ कर दोनों को अलग भेज दिया था दोनो आपस में बात कर लें।
माँ ने कहा था, 'रुचि, अभिमन्यु को अपना बगीचा तो दिखा लाओ।'
और वे दोनों क्यारियों के बीच आ खड़े हुए थे।
बात अभि ने शुरू की थी।
हाँ, फ़ौज़ की ज़िन्दगी सीधी-सादी नहीं होती, जानती है रुचि। पर अभि जैसा साथी हर राह को आसान कर देता है।
क्या सोच रही हो?
मैं हर जगह निबाह लूँगी, बस।।, आगे के शब्द कहते-कहते रुक गई।
'हाँ, सच, मनचाहा साथ मिल जाय तो जीवन कितना सुन्दर लगने लगता है।।।’
बोलते-बोलते अभि ने अपना लंबा-सा हाथ बढ़ा कर लतर से एक पीला गुलाब तोड़ लिया था और उसके केशों नें खोंस दिया, ’वाह!’
'यह तुम्हारे ही लिए खिला था। कैसाजँच गया है तुम पर।’
उसने धीरे से दृष्टि उठा कर देखा। वह नेहभरी दृष्टि उसके मुख पर गड़ी थी।
उसकी पलकें झुक गईँ।
'सैनिकों का जीवन है- साथ दोगी न मेरा, बडे-बड़े इम्तहान देने पड़ते हैं?'
‘मैं सारे इम्तहान देने को तैयार हूँ, तुम्हारे साथ’
पर कहां? कहां दे सकी?
लेने आये थे अभि, पर वह कहाँ गई!
वह शुरू में ही धोखा दे गई’।
आज फिर आये हैं वही, अपने लिए नहीं किसी, दूसरे के निमित्त वस्त्राभूषण की भेंट चढ़ाने।
सिर झुकाए बैठी है रुचि।साहस नहीं कि दृष्टि उठा कर देख ले। बस आवाज़ कानों में जा रही है।चारों तरफ़ क्या हो रहा है सबसे निर्लिप्त।
स्वर वही है पर वह भंगिमा कहाँ!
अंतर में कोई बोल उठा, आये हुये को नकार तो तुम्हीं ने दिया था। खड़े-खड़े लौटा दिया था, अब पछताने से क्या!
उस दिन भी शादी की गहमागहमी थी घर में। बेटी की शादी, बड़ा उत्साह! चारों ओर बातें हो रहीं थीं -
बुआ कह रहीं थीं, 'कुच्छौ नहीं माँगा। लरिका लेप्टीनेन है फ़ौज में।।'।
आँखों में सपने सँजोए वस्त्राभूषणों से सजी सखियों के बीच बैठी थी रुचि।
सोच रही थी, आज यहाँ है कल कहाँ होगी -वही प्रिय मुख सामने डोल गया । पुलक उठी भीतर से।
मामी बोलीं -’साच्छात लच्छिमी लग रही है।’
'दादी ने टोका चुप्पै रहो। काला टीका लगाय देओ। किसउ की नजर न लग जाय, ’
पर लगनेवाले की नज़र लग चुकी थी।
बाहर से हाँफता हुआ किन्नू आया, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रहीं थीं ।
'क्या हुआ? कहाँ से आ रहे हो?’
'जनवासे से'
'तो?’
'वो लोग बैठे-बैठे सराब पी रहे हैं ।हमे देख कर बोले’आओ, तुम भी आ जाओ।'
'हाँ, हमें देख ऊ सब हँसै लाग ।हमे तो लगा वे होस में नहीं हैं ।ऊँटपटाँग हरकतें कर रहे थे ।'
मामी काम छोड़ कर उठ आईं, बुआ सतर्क हो गईं सबके कान खड़े हो गए।
'ई किन्नू कौन खबर लाए हैं?’
सब एक दूसरे के मुँह देखने लगीं ।
'का भवा ठीक-ठीक बताओ।’
किन्नू वक्ता बन गए। सब खोद-खोद कर पूछ रहे है।
'पहिले तो बजार से मीट मच्छी मँगाई। -गाड़ी लेके खुदै चले गए थे। पैकिट भर -भर लाए हैं, सराब पी रहे हैं और हड्डियाँ चबाय-चबाय के डार रहे हैं ।
और उनके चाचा-ताऊ?
'बे लोग अलगै हैं।'
'बे तो हमें पुकारन लगे, ’साले साहब आओ, तुम भी आओ।हम तो मार डेरायगे। भाजि आये झट्टसानी ।’'
'हाय राम। जे कइसे बाम्हन?’ हल्ला मच गया मेहमान औरतें दौड़-दौड़ कर आ रही हैं। किन्नू से पूछ-ताछ कर रही हैं रही हैं, आँखें कपाल पर चढ़ीं, ‘हाय हाय, अब का होई!'
तरह-तरह की बातें
‘चच्चच-चच्चच्’
सहनुभूति...
'मुर्गा और बकरा खावत हैं ई लोग, ऊपर से सराब हो, राम जी, कइस निभाव होई।?'
'पछतावा चच्चचच्।चच्चचच्।'
'वह तो रोय रोय के कहे जा रही है -हमें का पता था?
ओहिक सहेली मीता बताये लाग, ‘जे फ़ौज के लोग ऐसेई होत हैंगे। पराये मरद-मेहरुआ सराब पी-पी के चिपट-चिपट के नाचत हैं!’
कुछू पूछो मती, पियनवारे को किसऊ को ध्यान नाहीं रहत।ऐसे-ऐसे घर बर्बाद भये हैं।।। का बतामैं। मामा, मौसा, फूफा सब आ-जा रहे हैं
'ये भी तो सोचो बरात लौट जायेगी तो फिर आगे क्या होगा लड़की की बात है?
'तो लरकिनी को का भट्टी में झोंक दें?’
लड़की की माँ रुबासी हो आई थी।
'पढ़ी-लिखी है दिन-रात रोवन से अच्छा है अभी मना कर दो, ’कौन बोझ बनी है किसउ पर!
'आपुन कमाय रही है।अरे दस मिल जइहैं लरिका। सादिउ हुइ जैहे ।’
'उससे का पूछें वो तो तबै से रोये चली जाय रही है।’
किन्नू ने जब से बताओ है कि बे नशे में धुत हैं। उसको तो मार चेहरा उतरिगा।