पीला गुलाब / भाग 2 / प्रतिभा सक्सेना
नहीं, नकारा नहीं था मैंने!
मैं कैसे नकार सकती थी? मन’अभि-अभि’टेरता रहा, जितना हो सका कोशिश की थी। पर मेरी नहीं चली। कुछ नहीं कर पाई मैं।
मैं लाचार थी अभि मुझे माफ़ करना।
आँखें कैसी धुँधला आई हैं, क्या हो रहा है, कुछ समझने की सामर्थ्य नहीं है।
जो चाहा था नहीं हुआ, अब कुछ भी होता रहे क्या फ़र्क पड़ता है!
वह दिन था -
उस दिन भी मेंहदी लगी थी, शादी का जोड़ा पहना था,
बार-बार कानों में एक ही नाम गूँज रहा था -'अभि, अभि।'
मन में उमंगें, पाँव जैसे ज़मीन पर नहीं पड़ रहे।। लगता हवा में उड़ी जा रही है।
पर हुआ क्या?
वह जहाँ का तहाँ पड़ी रह गई और सब-कुछ हवा में उड़ गया।
चार साल बीत गए।
उस दिन शृंगार किए बैठी रह गई थी, आज फिर विवाह-मंडप में उपस्थित है -किसी दूसरे के लिए।
वस्त्राभूषण का चढ़ावा सम्हालती भाभी रुचि को लिवा ले गईं।
कर्नल साहब फिर सोने नहीं गए।
वहीं साइड में पड़े काउच पर बैठ गए। किसी से कुछ बात-चीत नहीं। वैसे भी उनके व्यक्तित्व से सब रौब खाते हैं।
दोनों पक्षों की हँसी ठिठोली चलती रही। उनके संयतगंभीर व्यक्तित्व के सामने किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि कुछ कहे। उन्होंने ने सूट की जेब से सिगरेट केस निकाल कर एक सिगरेट निकाली। छोटे बहनोई ने लाइटर से जला दी। वे चुपचाप शून्य में ताकते बैठे सिगरेट पीते रहे। ख़त्म होते ही दूसरी जला ली।
वर को लाकर बिठाया गया। रस्में पूरी की जाती रहीं। कन्या के पिता, कन्या के भाई, सबकी पुकार लगती रही। सब आ-आ कर अपना रोल निभाते रहे।
'कन्या को बुलाइये।’
कन्या की सखियाँ उसे मंडप में ले आईं।
उन्होंने तीसरी सिगरेट जला ली थी।
'नहीं अभी कन्या वामांग में नहीं, दाहिनी ओर बिठाइये।’
फूल माला जल, अक्षत, मधुपर्क, खीलें, कलावा -
सिगरेटें खत्म होती रहीं, जलती रहीं।
पाँचवीं सिगरेट!
ट्रे घूमती रही, कभी कोल्ड-ड्रिंक कभी चाय, कॉफ़ी।
कर्नल साहब, बिना देखे, सिर हिला कर मना करते रहे।
इधर -उधर बैठे लोग शादी की मौज में रमे रहे। कन्या-पक्ष की लड़कियों को छेड़ते रहे।
छोटे -बड़े बहनोई अपने साथियों के साथ बैठे हँसी-ठिठोली करते रहे। कन्या-पक्ष की बहुयें और लड़कियाँ हँसती-खिलखिलाती रहीं।
ये सातवीं सिगरेट है।
‘हमारे लड़के से तो सब कहलवा लिया पंडिज्जी, उनसे भी तो कहलवाओ।’
पंडिज्जी मुस्करा दिये -कन्या ज़ोर से कैसे बोलेगी?’
'क्या पता उनने प्रतिज्ञा की या नहीं एक बार तो’हाँ’कहला दीजिये।’
'हाँ, और क्या धीरे से ही कह दें, हम कान लगाये हैं।’
वर पक्ष के लड़के , कौतुक भरे मुख से , दुल्हन की ओर कान किये हैं।
पंडिज्जी हँस दिये बोले -
'कह दो बिटिया - हाँ।’
आवाज़ नहीं आई।
'भई, ये तो गलत है। एक से सब कबुलवाना, दूसरे से कुछ नहीं। '
'मौनं स्वीकृति लक्षणम्’, पडित जी ने व्यवस्था दी।
फिर हँसी मज़ाक हुआ।
सातवीं भी जल चुकी।
'लाजा होम के लिये कन्या का भाई आये, ‘पंडित जी ने पुकारा।
भाई ने आगे बढ। खींलो से भरी थाली उठा ली।’
‘इधर कन्या के पीछे रहना बेटा,। ।हाँ, दोनों जन खड़े हो जाइये, बस ऐसे, थोड़ा आगे-पीछे।'
भाई ने खीलें बहिन के हाथ में दीं
‘वर के हाथ में दे दो बिटिया। लाजा होम दो।।'
लाजा होम! रुचि ने सुना - किसके हाथ?
ओह, चुप हो जा मन!
सिर झुकाये उसने शिब्बू के फैले हाथ में।।लाजा सौंप दीं। तीनों बार!
कन्यादान, फेरे, सिंदूर-दान, सब कर्यक्रम चलते रहे, एक के बाद एक।
दसवीं सिगरेट फुँक चुकी।
अभी रात के सिर्फ।
दो बजे हैं। कितन सिगरेटें फूँकीं उन्होंने उस रात -गिनने की फ़ुर्सत किसे?
रिश्तेदारों में वही चर्चा चल रही है।
चार साल पहले भी यही बरात आई थी इसी लड़की के लिए।
कोई कह रहा था -जा रही है उसी घर में, पर चार साल बाद किसी दूसरे से गाँठ बाँध कर!
‘अच्छा!’
'पर हो क्या गया था?
हुआ क्या था? बारात का स्वागत हो चुका था। जयमाल पड़ चुकी थी।
पर बारात लौटा दी।
किसने?
लंबी कहानी है -होता वही है जो किस्मत में लिखा होता है। जाना उसी घर में था पर बड़े के बजाय छोटे से गाँठ जोड़ कर। '
कहानी वही सुन्दर पढ़ी-लिखी लड़की -ब्राह्मण परिवार की।किस्मत से संबंध तय हो गया अच्छे घर में, लरिका सेना में बड़ा आफिसर रहे -कोई माँग नहीं।काहे से कि लरिका के मन भाय गई थी।
हवाई जहाज़ से बारात आई। तब तक सब ठीक- ठाक रहै।
पर ऊ फौज के लोग, उनके दोस्त आये रहे। उन्हें कहाँ खाने-पीने से परहेज़।
बोतलें खोल लीं, बाज़ार से नॉनवेज मँगा लिया मस्ती कर रहे थे।किसी ने जाकर घर की औरतों को फूँक दिया। बस, हल्ला मच गया, शराबी-कबावी हैं। कैसे गुजर-होगी लड़की की।
शराब की लत में बर्बादी के जाने कितने किस्से याद किए जाने लगे। रोना-धोना मच गया।
और नतीजा ये कि कहला दिया लड़की ब्याह से मना कर रही है।
वो लोग पहले तो कहते-बताते रहे।
लड़के ने ख़ुद कहा एक बार सुरुचि को सामने बुला दो। वो आकर कह दे, हम चुपचाप चले जायेंगे।
पर इन लोगों ने लड़की को सामने लाने से से साफ़ मना कर दिया।
क्या करते बिचारे! दो-दो पेग और चढ़ा लिए, लौटने की तैयारी करने लगे।
पर होनी को कुछू और मंजूर रहै। बड़ेन को लगा बिना बहू बरात कैसे लौटे?
सोच-विचार होने लगा। बरात में जौन लोग हते, सभै हल सुझावै लाग। एक संबंधी हते तिनकी यहीं उनकी रिस्तेदारी में एक कुआँरी लड़की रही, बिन माँ-बाप की, अच्छी रहै, दहेज का भरना कौन भरे, सो बियाह नाहीं होय पा रहा था। मामा के पास पली बढ़ी रहे,
सँदेसा ले कर पहुँच गये उनके घर। भाग खुल गये उनके तो। चट् तैयार हुइ गये
आगे बढ़ के के ब्याह दी। आई है बरात में कर्नल पति के साथ!
और इहका जब एक धब्बा लगा लग गया।जहाँ जायें, बात चलायें सब इहै पूछैं बरात काहे लौट गई?बाम्हनन के दिमाग ठहरे। जरा में सनक जात हैं। बस इहैं बात अटक जात रही।
चार बरस बाद एक लरिका की खबर मिली लड़का मामूली क्लर्क रहे, वइसे कुल परवार सब दुरुस्त। सो का करते कब लौं लरकिनी बैठाए रखते।
बात चलाई ऊ तैयार हुइगे। कहे लाग हाँ, हाँ लरकिनी हमार देखी भई है। ई लरिका सराब छुअत भी नहीं। पक्का बिरहमन।
भवा का कि उहै आरमी ऑफिसर केर छोट भाई रहे।
अउर का!
‘हाँ कर्नल साहब का छोटा भाई है। '
उमर का कितना फ़रक है भाइयों में?’
'डेढ साल का। '
'अच्छा! पर जमीन -आसमान का फरक है दोनो में। '
'हाँ वो तो हई है। '
'वो थोड़े साँवले लंबे हर चीज़ के शौकीन। और ये रंग थोड़ा साफ़ है पर उनसे बित्ते भर छोटे। घर में बैठे रहेंगे कहीं आने-जाने से भी जी चुरायेंगे।’
'इसीलिये न खेलने में रहे न पढ़ने में। इस्कूल में किलर्क की
नौकरी लगी है, उसइ में परम संतुष्ट!’
'महतारी तबैं नाहीं रहीं थीं। इलात-विलात फिरत रहा, बड़ा हुइगा। कोऊ ध्यान न दिहा सो क्वाँरा रहै। उन्हका तो छप्पर फाड़ के मिला। सुन्दर लरकिनी, पढ़ी-लिखी जाने-बूझे घर की ऊपर से कमाऊ।काहे बारात लौटी रही, सोऊ सब जान रहे। ई भी तो इन्टरै कालिज में पढ़ाती हैं पिछले तीन साल से। चट्ट हाँ कर दिहिन।'
'कहाँ कर्नल साहब और कहाँ ई किलर्कवा सब किस्मत की बात।’
‘करनल तो अब भवा, ई सादी तय होवन के बाद।’