पीला गुलाब / भाग 3 / प्रतिभा सक्सेना
ससुराल में ननदें आईं उतारने।
एक ने ठिठोली की, ‘वाह! चार साल पहले आनेवाली थीं, अब आईं हैं आप?’
दूसरी बोली, ’आना तो यहीं पड़ा न इसी घर में? चलो अच्छा है पहले बड़ी बन कर आतीं अब छोटी बन कर आई हैं।’
एक लड़की बोली, ’क्या इनकी शादी चार साल पहले से तय थी?”
ननद बोली, ’तय क्या? बरात तक चली गई थी इन्हें लेने। तब बड़के दादा के लिये।’
‘बड़के दादा के साथ? अच्छा!’
'अरे, बक-बक बंद करो अपनी, और ले जाओ इन्हें अंदर, ‘सामान उतरवाते बड़के दादा बोले।
'परछन की तैयारियाँ हो रही हैं। अभी बहू को बाहर ही रोक कर रखना, ‘जिठानी ने दरवाज़े पर आकर कहा।
पड़ोस के बाहरी कमरे में बहू के बैठने का इन्तज़ाम कर दिया गया।
‘रात भर का सफ़र करके आई है बिचारी। तनिक फ़्रेश होले। चाय वग़ैरा वहीं पहुँचा देना।’
जिठानी, बड़ी ठसकेदार ऊपर से कर्नल की बीवी। उनका कहा कोई टाल नहीं सकता। सारा प्रबंध उन्हीं को करना था।
बहू तैयार हो गई।
'अरे, अब छुटके कहाँ ग़ायब हो गये’
'शिब्बू, पहले ही घर में घुस गये। नहाय रहे हैंगे।’
‘अकेले घर में घुसने किसने दिया उन्हें? निकालो जल्दी बाहर, निकरौसी के बाद तो दुलहिन के साथ ही गृह-प्रवेश होगा।’
दरवाजे के अंदर परिवार की सुहागिनें स्वागत को तैयार। लड़कियों को पीछे धकेल दिया।’यहाँ परछन में तुम्हारा क्या काम? तुम जाकर दरवाजा रुकाई करना।’
कोई नहीं हट रहीं, आगे पीछे हो कर सब वहीं जमी हैं।
कुछ लड़कियाँ बाहर आ गईं, दूल्हा-दुल्हन के आस-पास।
एक तरफ़ परजा-पजारू सिमट आये (नाउन बारिन महरी आदि)निछावर वसूली करनी है न!
ठोड़ी तक घूँघट लटकाये नवेली दुल्हन खड़ी है, शिब्बू से गाँठ जोड़े।देहरी के
उस पार
आरती का थाल लिये इस पार महिलायें इकट्ठी। अगुआ हैं बूढ़-सुहागिन ताई।
'अरे, सिर पर मौर नही धरा !’,
शिब्बू भिनके, ’अब नहीं लगाना मौर।’।
बहू के तो पहले ही मौरी बाँध दी है लड़कियों ने। शिब्बू सुनते नहीं।
'धर देओ सिर पे, सगुन की बात है अउर का।’
बड़-बूढ़ियाँ बहू को घूँघट में से ही रोली -अक्षत लगाये दे रही हैं। मुँह -दिखाई के बिना कैसे चेहरा खोलें?
आरती- निछावर होने लगी।
अब जाने क्या-क्या दिखाया जा रहा है नवागता बहू को।
-ले बहू गुड़, गुणवंती हो।
ले बहू रुपया रूपवंती हो,
इत्ते में कोई बोली, 'और सतवंती के लिये क्या?
ताई ने सुझाया, ‘नेक सत्तू लै आओ।’
ताई की बहू हँस रही है , ’अरे वाह, बहू को सत्तू दिखा के सतवंती बनाओगी?’।
परिवार की पुरखिन फरक्काबाद वाली ताई को कुछ याद आ गया, आवाज़ लगाई, ’अरे, तनी मूसर तो लै आओ, बहुयें-बिटियां सब भूल जाती हैंगी।।।'
किरन ने दोहराया, ’अरे हाँ मूसल।!'
महरी की लड़की तुरंत बखारे में दौड़ी
ऊपर से बड़के भैया सीढ़ियों से उतर रहे थे।
'ये क्या हो रहा है?’
वह मूसल घसीटते ला रही थी बोली, ‘नई बहू की परछन के लै मँगाओ है।’
किसी महिला ने बताया, ‘मूसल देख लेगी घर में, तो दब कर रहेगी न!’
'ये कौन बात हुई?
'अरे, तुम काहे बोल रहे ये तो रीत है।’
'बेढंगी रीत... क्या तमाशा खड़ा किये हो। ’लड़की की ओर घूम कर बोले।’ले जा मूसल।’
पति की बात सुन किरन चट् से बोलीं, ’
'हमें मूसर दिखाओ तब तो कुछू नहीं बोले, उनके लिये बड़ा तरस आय रहा है!’
महरी की लड़की दीवाल से मूसल टिकाये ठिठकी खड़ी सबके मुँह देख रही है।
'अपनी शादी में कौन बोल पाता है। अब हम बड़ों में हैं।’
कहते कस के जो लड़की को देखा, वह मूसल घसीटती वहीं से लौट ली।
परछन के बाद मुँह-दिखाई। किसने क्या दिया, रुपया ज़ेवर सबका हिसाब रख रहीं थी पास बैठी बड़ी बहू। सब उठा-उठा कर चेक करती लिखती जा रही थी। बड़ी लंबी लिस्ट थी।
'पूछ तो सबका रही हैं, आप क्या दे रही हैं बड़ी भाभी?’
'मैने तो अपना देवर ही दे दिया।’
'हुँह, ये भी कोई बात हुई?’
देख लो, लिखा है सबसे पहले।’
झाँक कर देखा - मिसेज़ अभिमन्यु के नाम पर लिखे हैं हीरे के टॉप्स! मिसेज़ अभिमन्यु माने कर्नल साहब की पत्नी।
अगले दिन बात उठी सब रिश्तेदारों से बहू का परिचय करवा दो -पता नही कौन कब चला जाय।
परिचय अर्थात् खीर खिलाई। बहू अपने हाथों बनाई खीर परस-परस कर सब को देगी, उनके पास जाकर जैसे ननदोई से, ’जीजा जी, लीजिये।'कह कर चरण स्पर्श करती
और वे खीर लेकर उसे कुछ भेंट देंगे।
'अरे इतनी सी खीर? भई बड़ी मँहगी पड़ी।’
उसे भेंट या रुपये पकड़ा देते। वह सिर झुकाये झिझकते हुये ले कर, साथ परिचय देती चल रही ननद को पकड़ा देती।
'ये तुम्हारे ससुर जी हैं? क्या कहोगी पापा जी या बाबूजी?’
'जो सब कहते हैं वही तो कहेगी, ’जिठानी बोलीं।
'बाबूजी’कह कर उसने पाँव छुये।
उन्होंने सिर पर हाथ रखा, ’आज को तुम्हारी सास होतीं तो।।'
'अरे बाबू जी, ‘अम्माँ नहीं हैं तो क्या बहू बड़ी आदर्शवादी है। कुछ कहने समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।’
उन्होंने एक जोड़ कंगन पकड़ा दिये।’तुम्हारी सास ने दोनो बहुओं के लिये एक से बनवाये थे।’
उसने झुक कर दोनों हाथों से विधिपूर्वक चरण छू कर माथे से लगाये।
ये ताऊ जी, ये चाचा जी -ये जीजाजी, बरेलीवाले जे, ताऊ जी के मँझले बेटे।’
अरे, नाम बताओ। ऐसे कैसे याद रखेगी?’
'हाँ, इनका नाम सुरेन्द्र बहादुर। क्यों लल्ला जी, क्या बहादुरी दिखाई आपने?'
'कहाँ भौजी, बहादुरी दिखाने का ठेका तो कर्नल साहब का है। हम तो आपके सामने कलेजा थाम कर रह जाते हैं।’
ज़ोरदार ठहाका।
लोग छँटते जा रहे हैं।
'काहे भौजी, कंडैल साहब को कहाँ दुकाय दिया? कंजूस कहीं के।'
'काहे गँवारन की तरह कंडैल-कंडैल कहते हो? नई बहू तुम्हें अपढ समझेगी।’
'समझन देओ। बस तुम हमें समझती रहो, हम उसई में खुस।’
“ये तुम्हारे जेठ प्रिन्सिपल हैं, अपढ-गँवार मत समझ लेना। तुम्हें भी पढ़ाय देंगे!।
'चलो मनुआ हो! कहाँ खिसक लिये? बड़े कंजूस आदमी हो भाई "‘उन्होंने आवाज़ लगाई।
उसने सोचा था कर्नल साहब को अभि कहा जाता होगा पर घर उनका घर का नाम मनू है।
'हम तो आही रहे थे।’
'लल्ला जी, वो खिसके नहीं थे माल लेने गये होंगे।’
‘उन्हीं की ओरी लेंगी न!'
'देख लो भाभी, पहले तुम्हारी जगह यही आने वाली थीं।’
'तो हमने कौन रोक दिया था देवर जी! काहे नहीं आ गईं?
‘लिखी तो शिब्बू के नाम रहीं, उन्हें कइस मिल जातीं, ‘किसी बड़ी-बूझी की आवाज़ थी, ’तभी न दरवाजे से बरात लौट आई।’
'क्या बेकार की बातें लगा रखी हैं’कर्नल साहब ने चुप कर दिया सबको। वे रस्म के लिये आ कर खड़े हो गये थे
'उन्हें ये सब बातें अच्छी नहीं लगतीं, ‘जिठानी बोलीं’क्या फ़ायदा? जो हो गया खतम करो।’
खीर भरी कटोरी बहू के हाथ में पकड़ाती छोटी ननद बोली, ’तो भाभी, अपने जेठ के पाँव छुओ कहो जेठ जी!’
'जेठजी कौन कहता है? भाई साहब कहो, नहीं तो दादा जी।।', जिठानी का सुझाव था।
सिर झुकाये ही खीर की कटोरी उसने उनके हाथ में पकड़ाई, और झुक गई पांवों पर।कर्नल साहब ज्यों के त्यों सन्न से खड़े।
'अरे, उसे खीर खिलाई तो दो, ’जिठानी ने टोका तो वास्तविक जगत में आये। पत्नी ने जो हाथ में पकड़ा दिया लेकर उसकी ओर बढ़ा दिया और घूम कर चल दिये। लौटते-लौटते जेब से रूमाल निकाल कर पाँवों पर टपके दो बूँद आँसू उन्होंने धीरे से पोंछ दिये।
पीछे से आवाज़ आ रही थी, ’क्या दिया बड़के दादा ने?
‘जड़ाऊ पेन्डेन्ट।'
'अरे वाह, लटकन में कन्हैया जी लटकाय दिये हैं, ले ओ छोटी भाभी, मीरा बाई बन जाओ अब।’
‘वाह!’
आँसुओं से धुँधला गई आँखों से वह कुछ देख नहीं पा रही थी।
घूँघट से कितनी सुविधा हो जाती है!