पीला गुलाब / भाग 4 / प्रतिभा सक्सेना
मां-बाबू निश्चिंत! ब्याह गई लड़की छुट्टी हुई। झटपट गंगा नहा लिये।
अम्माँ ने बोला था, बियाह जाए लरकिनी तो हे, महेस-भवानी, सीता राम जी, राध-किशन जी, घर में अखंड रमाइन का पाठ धरेंगी।
वही बाकी रह गई, सो भी निबटाये दे रहे हैं सारे काम सुलट गये, निचिंत हो कर जियेंगे वे।
पहली बिदा में लौट कर ब्याहली घर आई।
उसी दिन अखंड रामायण का पाठ था
कोलाहल-हलचल। रामायण चलेगी कल दुपहर तक। चाय-पानी, खाना-पीना होगा ही। बारी लगा ली है सबने दो-दो घंटे पढ़ने की।
उसी के कारण तो हो रहा है यह सब -आकर बैठ गई।
सब ने कहा, ’तुम आराम करो। अबै ससुरार से आई हो, थकी-थकाई होगी।’
विधि-विधान से चल रहा है पाठ।
लो, शिव-विवाह का प्रकरण आ गया। गँजेड़ी-भँगेड़ी दूल्हा। ऊपर से सामाजिक विध-निषेध से कोई मतलब नहीं। फिर भी गौरा ने तप किया उसी के लिये।
बरात आई, सब भौंचक!
हाय हाय मच गई - कहाँ हमारी गौरा और कहाँ यह विचित्र वेषी! ज़िन्दगी कैसे निभेगी!
माँ, मैना ने खुल कर विरोध किया। बरात लौटाने को तैयार।
रोईं-गिड़गिड़ायीं। लाख मना किया। पर उमा ने उन्हीं को समझाया -
'माँ, तुम दुखी मत हो। बेकार तुम्हीं को दोष देंगे लोग। किसी की जुबान पर कौन अंकुश लगा सका है?’
फिर सौ बात की एक बात कह दी -
'सुख-दुख जो लिखा लिलार हमरे जाब जहँ पाउब तहीं, ’
अड़ गईं इसी से विवाह करूँगी।
महिलाओं का मन भर आया है।इसे कहते हैं अटल- व्रत। किसऊ के कहे ते न टरीं, हिरदे में अइस अचल प्रेम रहा।
भारतीय दाम्पत्य की आदर्श हैं पार्वती। हर तीज-तौहार पे उनसे सुहाग की याचना करती हैं सुहागिनें।’पारवती सम पति प्रिय होऊ!’
इतना प्रेम और किसमें है पत्नी के प्रति?
मृत शरीर को काँधे पर डाल विक्षिप्त से धरा-गगन मँझाते रहे। और तो और आधे अंग मे धारण किये हैं!
एक गहरी साँस निकल गई।
बार-बार धिक्कार उठती है, मन कचोटता है।
मैं क्यों नहीं कह सकी थी।’, मातु व्यर्थ जनि लेहु कलंका।’
कित्ती सच्ची बात। जो सहना है वो तो जहाँ रहें झेलना ही पड़ेगा। कौन मिटा सका भाग की रेखायें।
कहा तो मैंने भी था।पर मैं क्यों नहीं जमी रह सकी
कह देती पढ़ी-लिखी हूँ, इतनी लाचार नहीं हूँ, माँ तुम पिता जी को समझा दो।
ये रिश्तेदार इस समय सब साथ हैं फिर सब अलग हो जायेंगे।
पर तब।सब बोलने लगे थे। माँ रो रहीं थीं। सब विरोध में खड़े थे।
मामा ने रौद्र रूप धर लिया था। पढ़ी-लिखी, कमाऊ लरकिनी का भाड़ में झोंक देंगे
अरे भैया, रो-रो कर जिनगी काटे उससे अनब्याही अच्छी।
तो अभी कौन फेरे पड़े हैं। कुआँरी है कन्या।
हाँ, और क्या, कँवारी को सौ वर।
पाठ चल रहा था -
'कत विधि सृजी नारि जग माँही, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।’
स्त्रियाँ चुप सुने जा रहीं। ज्यों अपने भीतर उतर गई हों, जहाँ शब्द मौन रह जायें !
उस दिन रुचि भी तो हिम्मत कर सामने आ बोल नहीं सकी थी।
यह भी तो नहीं मालूम था कि, आज की रात ही, यहीं के यहीं किसी दूसरी के साथ भाँवरें पड़ जायेंगी।
बरात लौटने से गहरी निराशा हुई थी पर दूसरे मोहल्ले में अपने वर के साथ किसी लड़की के फेरे लेने से मर्मान्तक चोट पहुँची थी।
कौन लड़की?
वही किरण! बचपन में पिता मर गये थे।
माँ बिचारी क्या करती मामा-मामी के घर पली।
हाई स्कूल पास थी किरन, देने को दान-दहेज नहीं।
मामा कितना करते? अपनी भी तो दो लड़कियाँ हैं -पढ़ाने -ब्याहने को। माँ बिचारी क्या बोलती?
मामी ने कहा, ’जिया, बढ़िया लड़का मिल रहा है। माँग कुछू नहीं। बस लड़की चाहिये। किरन के भाग से मौका हाथ आया है। फिर कहाँ जमा-जोड़ रखा है जो माँगें पूरी करती रहोगी। काहे किसउ दो-चार बच्चन के बाप दुहेजू से ब्याहो! भला इहै कि अभी कर दो।।, अच्छा घर-परिवार, राज करेगी। रही पीने की बात? सो का पता कौन पीता है कौन नहीं। हाथ-के हाथ ब्याह दो।’
'अरे!’किरन के चढ़ावे में आया जेवर- कपड़ा देख मामी की तो आँखें फैल गईँ, ऊपर से सास-ससुर का झंझट नहीं, आजाद रहेगी लड़की।
एक बार पछतावा भी हुआ कि काहे नाहीं अपनी विनीता ब्याह दी।
अब जो है, सो लड़की की किस्मत!
और सुरुचि की जगह किरन, अभिमन्यु से साथ फेरे डलवा कर कर बिदा कर दी गई थी।
एक अखंड रामायण चलती रही रुचि के मन में।
अपना ही मन नहीं समेट पाती। बार-बार विचार उठते हैं -लगता है। किन्नू को अपने पास बुला लेती। कह देती चुप रह हल्ला मत मचा। उसे किसी तरह समझा देती!
रह-रह कर पछताती है, मामा थे सबसे आगे। अपने मन की कह, चुप कर लेती उन्हें। या फिर खड़ी हो जाती -मेरे पीछे तमाशा मत खड़ा करो। मैं तैयार हूँ। जो होगा सम्हाल लूंगी।
भीतर से पुकार उठती है - क्या पता था अभी के अभी कोई और लड़की दुल्हन बन बैठेगी। !
सोचती ही रह गई थी किसी तरह बात सुलट जायेगी।
बार-बार समझाती है मन को, अब कहीं कुछ नहीं। सोचने से कोई फ़ायदा नहीं।
पर किसी का कहा कब सुना इसने?
बड़ी अजीब चीज़ है मन!