पीला गुलाब / भाग 5 / प्रतिभा सक्सेना

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चुप रहती है रुचि, पर मन में चलता रहता है कुछ-न-कुछ -

यह कैसा आकर्षण जो किसी भी उम्र में पीछा नहीं छोड़ता। अपने पर लाख नियंत्रण करो, मन ऐसा अकुलाता है और संयत होते-होते कुछ करने को विवश कर देता है। देखा है। लोग वार्धक्य में भी इसकी चपेट में आ जाते है। बहक जाना कह लीजिए। नितान्त वैयक्तिक अनुभव। पता नहीं स्थाई या अचानक ही सिर सवार हो जाने वाला।

एक कहानी पढ़ी थी कभी -

कालेज के ज़माने में साथ मरने-जीने की कसमें खाईं। पर होनी को कुछ और मंज़ूर था। जिम्मेदारियाँ पूरी करते उमर बीत गई। लड़की को कहाँ छूट उसे तो अपनी मरयाद निभानी है।

बुद्धि सदा प्रश्न खड़े करती है, औचित्य के प्रति सचेत करती है, और अंतिम विजय उसी की होती है। पर अंतिम के पहले, मन का रीतापन भरने की लालसा में जाने कितने पड़ाव अनायास पार हो जाते हैं। वह उद्दाम मोहकता ऐसा बहकाती है, कि सारी अक्लमंदी गुम, ख़ुद पर लगाई रोक-टोक बेकार !

और अंत में शेष बचती है रह-रह कर कसकती टीस ! अनुचित कर दिया हो जैसे, कुछ बराबर कचोटता है। न यों चैन, न वों चैन!

हाँ, तो वह कहानी! मन का आवेग बार-बार जागता रहा , अपने को समेटते वर्तमान को निभाता गया लड़का भी, गले पड़ा दुनिया-जहान का ढोल बजाते-बजाते रिटायर भी हो गया। एकदम खाली। एक दिन बिलकुल नहीं रहा गया। उस नगर में पहुँच गया। उसके घऱ के पास। कुछ देर आस-पास घूमता रहा यों ही।

देखा, घर से निकली, वह बदल गई पर वही थी, बच्चे से बात कर रही थी। उम्र के साथ बदली नहीं थी वह आवाज़।

बरसों बीत गये थे जिसे सुने, पर कैसे भूल सकता था। खड़ा देखता रहा। पास से गुज़र गई वह। सोचता रह गया दो मिनट, रोक ले, बात कर ले आगे निकल गई। कहाँ देखा होगा उसने, क्या मालूम होगा उसे।

बहुत मन किया एक बार आगे बढ़ जाये

एक बार पूछ ले, ’कैसी हो?’

कह देंगे, ’इस नगर आया था इधर से जा रहा था, तुम्हें देखकर पहचान लिया।’

बस, हाल-चाल ही तो पूछना हैं।

मन में उथल-पुथल चलती रही। पर नहीं कर सका। हिम्मत नहीं पड़ी। सोच लिया, ’मैं हूँ यहाँ’उसे बता कर क्या करना है।

ताल के शान्त जल में कंकड़ उछालने से क्या लाभ!

लौट आये चुपचाप वापस अपने घर।

होता है क्या ऐसा भी?

क्या पता? होता ही होगा, नहीं तो कोई लिखता कैसे!

कहते हैं जो मना किया जाय वही करने का चाव नारियों में अधिक होता है - वही आदम-हव्वा वाली बात!

एकदम स्वाभाविक है। वर्जित फल चखने का चाव नारी मन में ही तो जागेगा। पुरुष क्या जाने वर्जनाएं क्या होती हैं, और कैसी होती है उन्हें झटकने की छटपटाहट!