पीला गुलाब / भाग 6 / प्रतिभा सक्सेना
जहाँ दादा की पोस्टिंग किसी नई जगह में हुई, शिब्बू उत्साह से भर जाते हैं।
उनके के घर जाकर रहना बड़ा अच्छा लगता है उन्हें। शादी के बाद नई दुलहिन को ले कर वहीं पहुँच गये।
देवर-भाभी में पटरी भी खूब बैठती है।
दोनो बतियाते रहते है, रुचि सुनती रहती है बीच में बोल दी तो बोल दी, नहीं तो चुप। सबको स्वाभाविक लगता है। अभी नई-नई है थोड़ा तो समय लगेगा।
वैसे भी इन बातों में दखल देने से रही -बोले तो क्या बोले!
कर्नल साहब घर में बहुत कम टिकते हैं। कई कार्यक्रम रहते हैं उनके, बहुत व्यस्त रहते हैं।
बड़ी तारीफ़ है उनकी, लोक-प्रिय हैं। जन-कल्याण और सैनिकों के परिवारों के हित के लिये कुछ करने में कभी पीछे नहीं रहते। धाक है उनकी।
रुचि ने कमरे से सुना जेठ जी कह रहे थे’आज क्लब में चेरिटी शो के टिकट लिये बड़ा अच्छा संगीत का प्रोग्राम है शिब्बू, तुम लोग देख आओ।’
'क्यों दादा टिकट लिये हैं, जाओगे नहीं?’
'मुझे तो आज कुछ खास का निपटाने हैं और तुम्हारी भाभी का इस सब मैं कोई इन्टरेस्ट नहीं, ये रखे हैं टिकट।’
भाभी बोलीं थीं’और क्या! मार दो घंटे बैठो और कुछ मजा भी न आए। अरे, फड़कते हुए सिनेमा के गाने होते तो बात और थी। हमारे यहाँ तो लोग आर्टिस्ट के साथ सुर मिला कर स्टेज पर नाचने भी लगते थे।’
‘बहुत देखे हैं ऐसे पहुँचे हुये प्रोग्राम जब पढ़ते थे। किसका मन लगता है। सब गप्पों में मगन रहते हैं।’देवर ने सुर में सुर मिलाया।
रुचि कमरे से बाहर निकल आई।
जेठजी आश्चर्य से शिब्बू को देख रहे थे।
'कैसी बात करता है मुन्ना।कहाँ स्कूलों के चलताऊ प्रोग्राम और कहाँ ये इन्टरनेशनल फ़ेम के आर्टिस्ट?'
रुचि ने कार्ड पर लिखे संगीतज्ञों के नाम देखे’, इन के प्रोग्राम के लिए तो हमारे यहाँ सिर फुटौवल होती थी।’
'ऊँह वही आलाप जैसे कोई सुर भर भर कर रोये जाये, ये गाना है क्या!
हमें तो बोरियत होती है। हमें नहीं जाना। तुम चाहो दादा के संग चली जाओ।’
दादा पत्नी की ओर देख कर बोले, ‘तुम तो जाओगी नहीं। हमारी आज जरूरी मीटिंग है। हमें जाना होता तो तुम्हें क्यों देते?
रुचि तटस्थ है - जाओ तो ठीक न जाओ तो ठीक।
क्यों बीच में दखल देती फिरे!
शिब्बू मगन हो रहते हैं -क्या ठाठ हैं। एकदम साहबी ढंग!
'कुछ भी कहो भाभी, आर्मीवालों का रंग ही अलग है। रहन-सहन पहनना-ओढ़ना सब निराला। सबसे अलग चमकते हैं।’
'सो तो है।देखने वाले पर रौब पड़ता है। पर हमें सुरू-सुरू में बड़ा अजीब लगता था। बड़ी मुस्किल से इत्ता कर पाये हैं। उहाँ तो सब साथ में बैठ कर सराब पीती हैं।'
अरे भाभी, शराब मत कहो। ड्रिंक कहो, ड्रिंक!’
'हाँ, वाइन पीती हैं ऊ कोई शराब थोरे है।’
‘अउर का?’
'तुमने कभी नहीं पी।’
'अरे पी,। सबके साथ में पी थी।’
'अच्छा नहीं लगी?’
'मार कडुई, अजीब सा सवाद। पर पी ली सबके साथ।’
फिर रुक कर बोलीं, ’अब बहू को ही देखो, ड्रिंक करते देखा तो बरात लौटा दी और हम इनके यहां की पार्टी में वाइन पीने लगे। हमने अपने को ढाल लिया।’
शिब्बू गौरवान्वित अनुभव करते हैं, ’हाँ देखो न, दद्दा के मुकाबले हमें पसंद किया।'
दोस्तों में मौका मिलते ही बताने से चूकते नहीं।
'भाभी, भइया तो तुमसे स्लिम हैं।’
'आर्मी में हैं न। हमेसा चाक-चौबंद रहने की आदत। हम तो भई, आराम से रहने में विश्वास करते हैं।’
'हाँ और क्या? क्यों बेकार काया को कष्ट दिया जाय।’शिब्बू ने कहा और हो-हो कर हँस दिये - बड़ी मज़ेदार बात कही है न!
भाभी ने समर्थन किया।
'...और डांस, भाभी?’
देवर पूछे ही जा रहा है। क्या सभी कुछ पूछ कर दम लेगा!
'अरे लाला,। सब पूछ के ही रहोगे? पहले सुरू-सुरू में तो इनकी बाहों में डांस भी अजीब लगा -फिर तो धीरे-धीरे आदत पड़ गई।’
'अब तो मज़ा आता होगा भाभी?
'बेसरम! अपनी सोचो लाला "!
‘कोई ऐसा-वैसा शौक ही नहीं इन्हें, ऊँचे आदर्शोंवाली, गंभीर ये उस टाइप की नहीं हैं। और दादा की लाइफ़ ही अलग है!’
'हाँ सो तो हैं’, भाभी पूरी तरह सहमत।