पीला गुलाब / भाग 8 / प्रतिभा सक्सेना

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'आजकल दादा की पोस्टिंग कश्मीर साइड में है, अच्छा मौका है, ‘शिब्बू ने कहा, ’चलो हम लोग उधर भी घूम आते हैं।’

और रुचि की गर्मी की छुट्टियों में अर्न्ड लीव ले ली।बस, आ पहुँचे दादा के पास।

वैसे भी छुट्टी लेना है, तो लेना है, पैसे काट लेंगे, काट लें। चिन्ता काहे की!

सात साल बीत गये रुचि की शादी को। दादा की पोस्टिंग के साथ कितनी जगहें घूम लीं। शिब्बू नई जगह जाये बिना रह नहीं सकते -'चलो! चाहे हफ़्ते भर को ही सही।’

रुचि की नींद बीच में कई बार टूटती है।

नई जगह का नयापन, अभ्यस्त होने में समय लगता है।

रात के डेढ़ बजे हैं।

सिगरेट की महक? कहाँ से, इस समय?

पानी लेने जाते देखा, उधर के अधखुले दरवाज़ों से धुएँ की कुछ भटकती लहरें बाहर आ रही हैं।

ठिठक गई। कुछ क्षण खड़ी देखती रही। फिर लौट आई।

जिठानी ने बताया था कुछ बताते नहीं।जब परेशान होते हैं तो यही करते हैं।

कभी-कभी चुपचाप अकेले टहलते हैं- कुछ सोचते-से।

'आजकल जाने क्या हो गया है इन्हें। कान पड़ी बात सुनाई नहीं देती।’

गति-विधि से लगता है कुछ गंभीर समस्या में पड़े हैं।’।

हाँ, वह देख रही है -अपने में डूबे से।

पर क्या कहे सुरुचि!

'लगता है कुछ गंभीर समस्या में पड़े हैं, आप परेशान होंगी इसलिये कुछ कहते नहीं होंगे। दीदी, पर आप ही पूछिये न! नहीं, जब सब खाना खाने बैठें तब पूछिये। हम सब होंगे न आपका साथ देनेवाले!’

अख़बार में खबरों पर बात छेड़ दी रुचि ने। बात पर बात निकलने लगी। सीमाओं पर आसार अच्छे नहीं हैं।लगता है कुछ हो कर रहेगा।

'हाँ, रंग-ढंग ऐसे ही बन रहे हैं। मेरा मन अजब सी चिन्ता से भरा रहता है।जाना तो है ही बुलावा आयेगा तो। ये लड़ाई लगता है बहुत आसान नहीं होगी।’

शिब्बू बोल पड़े, 'पाकिस्तान के सिर उठाने की बात कर रहे हैं?’

वे मुँह में रखा कौर चबाते रहे।

‘पिद्दी सा तो है। कितना खींचेगा पाकिस्तान! हमारे जवान ही धूल चटा देंगे।'

'किसी बल-बूते पर ही हिम्मत किये है... दुश्मन को कभी कम मत समझो, पता नहीं क्या दाँव खेल जाय। हम लोगों को तो तैनात रहना ही है।”

‘लड़ाई में जाने से पहले, घर की जिम्मेदारियों का ख़याल हर फ़ौज़ी को आता है।’

वे कह रहे थे-

'सैनिक की बीवी को अपने बल पर खड़ा होने को तैयार रहना होता है। मुझे चिन्ता होती है अपने बच्चों की। किरन पढ़ी-लिखी होती तो सम्हाल ले जाती।’

अंजना -निरंजना दस और ग्यारह की हो गईं, कान्वेंट में पढ़ रही हैं। कब कहाँ पोस्टिंग हो जाय, उनकी पढ़ाई में ज़रा भी व्यवधान नहीं देखना चाहते वे।

लड़कियाँ भी पास नहीं रहतीं। किरन अकेली पड़ जाती है।

'कौन हमारे बस में रहा कुछ।न पढ़ना-लिखना न और कुछ। बहू को देखो, अपना भला-बुरा ख़ुद सोच लिया।’

शिब्बू बोल पड़े, ’बात सेना में होने की नहीं, सराब पीने की थी, क्यों न?’

'क्या शिब्बू, फ़लतू बातें ले कर बैठ जाते हो।’

रुचि सिर झुकाये बैठी है।’

किरन व्याकुल हो बोल उठी -

मत करो ऐसी-वैसी बातें, मैं तो जनम की बेबस। ऐसी बातें सुन कर मेरा तो दिल बैठ जाता है।’

'सब आलतू- फ़ालतू बातें।सूत न कपास।’शिब्बू को बड़ी उलझन होने लगी थी।

'अंदर-अंदर लड़ाई तो चल रही है, कुछ ठिकाना नहीं कब खुल कर होने लगे।'

अभि के शब्द! रुचि चुप बैठी सुन रही है।