पीला गुलाब / भाग 9 / प्रतिभा सक्सेना

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सीमा पर तनाव कम नहीं हुआ। युद्ध की नौबत आ गई।

उधर घमासान मचा है।

कर्नल अभिमन्यु जा चुके हैं फ़्रंट पर।

परिवार अपने निवास पर भेज दिया गया।

बड़े मुश्किल दिन।

किरन झींकती है।’मरे ठीक से पूरी खबरें भी नहीं आने देते। हमें तो ये भी नहीं पता चलता आजकल किधर हैं। कोई पता हीं। नंबर लिख कर चिट्ठी डाल दो, जाने मिलती भी होगी कि नहीं!’

हाँ, सारी बातें सेंसर होती हैं।

रुचि समझाती है, ’आप चिन्ता मत कीजिये दीदी, कर्नल हैं वे, उन्हें कुछ नहीं होगा।’

'और, जो ये ख़बरें रोज-रोज आती हैं। कितना क्या-क्या हो रहा है।, मेरी तो जान सूखती रहती है।’

जानती है वह पूरी ख़बरें देते भी नहीं। त्रस्त रहता है मन। पर खुल कर कोई कुछ नहीं कहता।

किरन ने रुचि को जाने नहीं दिया -

'नहीं, तुम कहीं मत जाओ। मैं बिलकुल अकेली पड़ जाऊँगी।’

'पता नहीं कितने दिन लड़ाई चलेगी। हमारा पलड़ा भारी है पर’, पर के आगे गहरा मौन!

'मुझसे अकेले नहीं रहा जायेगा।और कौन बैठा है मेरा। अब तो मायके में माँ भी नहीं।’

'नहीं आपको अकेला नहीं छोड़ेंगे दीदी, हमारे साथ चलिये मन लगा रहेगा।’

‘कहीं नहीं। यहाँ छोड़ गये हैं, यहीं रहूँगी, इन्तजार करूँगी उनका।’

हफ़्ते भर की छुट्टी और ले ली रुचि ने।

ख़बरों पर सबका ध्यान रहता है।

सुन-सुन कर जान सूखती रहती है।

किरन कभी-कभी कह उठती है, ’यें दो-दो धींगड़ियाँ। मेम साब बनती हैं। कहाँ गुज़र होगी इनकी? मेरी सुनती नहीं। एक लड़का होता तो निश्चिंती होती।’

रुचि समझाती है, ‘आप क्यों चिन्ता करती हैं? ये पढ़ी-लिखी लड़कियाँ लड़कों से किसी तरह कम नहीं। देखना, ये ही नाम रोशन करेंगी।’

'हमने जब-जब लड़के की बात उठाई वो भी ऐसे ही कहते थे।’

'ठीक कहते थे।’

कुछ रुक कर बोली, ‘उनकी बेटियों के लिये कुछ कहो, उन्हें अच्छा नहीं लगता था।’

'बेटियाँ होती ही हैं प्यारी। दीदी, सिर्फ़ आपकी नहीं हमारी भी हैं वो।’

‘वो भी तो, मुझसे जियादा, तुम्हें मानती हैं।’

♦♦ • ♦♦

मन में अजीब-अजीब बातें उठती हैं।कुछ बात निकाल कर रुचि का रोने का मन होता है।

याद आया घर की महरी कुंजा, जिसकी बेटी को किताबें खरिदवा देती थी, पढ़ा देती थी। चौथी पास कर ली थी उसने ने।’दीदी-दीदी’कह कर उसके चारों ओर मँडराती थी।

उस की बिदा की शाम काम करते-करते गा रही थी -

'मैया कहे- धिया नित उठि अइयो,

बाबा कहे, तीज-त्योहार,

भैया कहे बहिनी, काज-परोजन।

भौजी कह - कौने काम!’

एक दिन में जीवन का सारा प्रबंध बदल जाता है - क्यों होता है ऐसा? जनम के संबंधों का सारा मोह अचानक छूट सकता है क्या?

पर होता यही है। विवाह के बाद अगली बिदा तक वैसा कुछ नहीं रहता। उस घर उस तरह नहीं रह पाती जैसे पहले रहती थी। औपचारिकता आ जाती है, या मुझे ही ऐसा लगता है! वह बेधड़क मुक्त व्यवहार नहीं रहता। मर्यादा की एक अदृष्य लकीर- सी खिंच गई हो जैसे, कुछ अलगाव -सा, परायापन सा।

अब तो वहाँ भी मन नहीं लगता।

उमड़-उमड़ कर रोना आ रहा है।

और किरन दीदी? उनका तो कहीं मायका भी नहीं!

ज़िन्दगी बड़ी मुश्किल चीज़ है!