पीले पत्ते / नीरजा हेमेन्द्र
राजेश्वर की नींद तो न जाने कब की खुल चुकी थी। कदाचित् प्रातः चार से पूर्व, किन्तु वह बिस्तर पर लेटे-लेटे बहुत देर तक यूँ ही करवटें बदलते रहे। चार बजे उठ कर बाथरूम भी हो आये। पानी भी पी लिया। खिड़की का पर्दा सरका कर देखा तो अँधेरा था। आ कर पुनः बिस्तर पर लेट गये। किन्तु नींद नही आ रही थी। उन्हंे विस्तर पर उन्हे कमरे के अन्धकार में भी खुली आँखों से जैसे सब कुछ दिख रहा था। कमरे में चलते पंखे, दीवारों पर टँगे कलैण्डर, दवाईयों की मेज, कोने मंे रखी आलमारी.......सब कुछ। नींद न आने के कारण बार-बार करवट बदलने से उनके बायीं तरफ लेटी उनकी पत्नी संध्या जग गयीं। संध्या दंवी ने अँधेरे में ही टटोल कर उनके हाथों को स्पर्श करते हुए पूछा-”जग गए क्या?”
“हाँ, किन्तु बाहर अँधेरा है?” राजेश्वर ने कहा। वह अपनी पत्नी को बता देना चाह रहे थे कि वे उठ कर बाहर की आहट ले चुके हैं। वे यह भी जानते थे कि उनकी पत्नी की नींद भी सम्भवतः उनके साथ ही खुल गयी है। वे भी बिस्तर पर यूँ ही लेटी हैं। और कर भी क्या सकती हैं? नींद बस यूँ ही आती है उखड़ी-उखड़ी-सी।
राजेश्वर व उनकी पत्नी संध्या देवी की सुबह ऐसी ही होती है। दोनों एक दूसरे को स्वंय के गहरी नींद में होने का भ्रम देने के पश्चात् छः बजे बिस्तर छोड़ देते हैं। जब कि इस उम्र में उन्हेें इतनी सुबह जाग जाने व बिस्तर छोड़कर व्यस्तता का आवरण आढ़ने की आवश्यकता नही थी। किन्तु..........। संध्या देवी रसोई के कार्यों में व्यस्त हो जाती हैं। राजेश्वर गेट से बाहर झाँक कर आस-पास का जायजा लेने के पश्चात् गेट पर पड़ा अखबार उठा कर एक तरफ रख देते कर गमले में पानी डालने लगते हैं। संध्या देवी रसोई में चाय इत्यादि बनाने में व्यस्त हो जाती हैं। यही इन दोनांे की दिनचर्या है। ये दानों आजकन इस घर में अकेले ही रहते हैं।
राजेश्वर दो वर्ष पूर्व सेवा निवृत्त हो चुके हैं। नौकरी में रहते हुए ही उन्हांेने यह घर बनवाया था। बनवाते समय इस बात का ध्यान रखा कि दोनों बच्चों के रहने के लिए घर में पर्याप्त सुविधा रहे। पढ़ने का कक्ष, शयन कक्ष, बैठक इत्यादि हर सुविधा से युक्त अपेक्षाकृत बड़ा घर बनवाया। उनके दो बच्चे हैं। बड़ी बेटी अक्षिता का विवाह हो चुका है। वह अपनी घर गृहस्थी में रम गयी है। अक्षिता के दो बच्चे हैं। बच्चे छोटे हैं इस कारण वह यहाँ कम आ पाती है। राजेश्वर को स्मरण हैं वे दिन जब अक्षिता की शिक्षा पूरी ही हुई थी और वे उसके लिए योग्य वर की तलाश करने लग गये थे। उन दिनों राजेश्वर व उनकी पत्नी की यही इच्छा होती थी कि शीघ्र ही कोई योग्य लड़का मिले और शीघ्र ही वे अक्षिता का विवाह कर दें। उन दिनों प्रतिदिन वे अक्षिता के विवाह की चर्चा व चिन्ता करते।......और एक दिन वह समय भी आया जब अक्षिता का विवाह हो गया। प्रारम्भ मंे वह उन लोगों से मिलने खूब आया -जाया करती थी। धीरे-धीरे समय व्यतीत होने के साथ ही साथ वह अपनी घर गृहस्थी में व्यस्त होती गयी व उसका आना जाना कम होता गया।
राजेश्वर व उनकी पत्नी संध्या को पुत्री के विवाह के उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाने की प्रसन्नता तो थी, किन्तु पुत्री से विछोह की पीड़ा की अनुभूति प्रसन्नता से कहीं अधिक लगी। व्यस्ताओं के बीच पीडा़ की अनुभूतियाँ मद्धम तो पड़ जातीं किन्तु दिन भर में अनेकों बार उसकी स्मृतियाँ उन्हे व्याकुल करतीं। राजेश्वर व उनकी पत्नी उसकी यादों को एक दूसरे से बाँटा करते।
उनका पुत्र अक्षय दो वर्ष छोटा है अक्षिता से। बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के उपरान्त उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह बाहर गया तो जैसे बाहर का ही हो कर रह गया। वापस घर नही आया। उसे नौकरी भी मिली तो दूसरे शहर में। घर वह कभी-कभी ही आ पाता है।
अक्षय का विवाह अभी नही हुआ है। खाली क्षणों में उसके विवाह की चर्चा संध्या देवी व राजेश्वर के लिए एक महत्वपूर्ण विषय हो जाता है। खाली क्षणों ही उनके जीवन में कोई कमी नही है, यह चर्चा भी खूब होती है।
आज लाॅन के गमलों में पानी डालने के पश्चात् घर के अन्दर आते ही राजेश्वर ने सामने रसोई में संध्या को चाय बनाते देख पूछने लगे, “आज खाने मे क्या बनाओगी? “संध्या जानती हैं कि इस प्रकार के निरर्थक-से प्रश्न पूछना राजेश्वर के स्वभाव में समाहित हो गया है। वह ये भी जानती हैं कि अभी ये खाना नही खाने वाले हैं। अभी ये चाय पीयेंगे.....नहाना-धोना करेंगे......देर तक अखबार पढ़ेंगे......इन सबमें पर्याप्त समय लगायेंगे। तब तक संध्या वह अपनी काम वाली के साथ खाना बना कर अन्य सारे कार्य भी समाप्त कर लेंगी, किन्तु राजेश्वर फिर भी खाने के लिए उपलब्ध नही होंगे। वह जानती हैं कि प्रातः सात बजे ही खाने इत्यादि की चर्चा करना खाली समय में व्यस्तता भरने की उनकी नाकाम कोशिश है। प्रयत्न चाहे वो जो भी कर लें उनके पास समय की कोई कमी नही है। व्यस्तता भरने के इस प्रयत्न में उनके प्रश्न बेमौसमी फल, सब्जियों की भाँति उनके पास आते रहते हैं जो गुणवत्ता विहीन होते हैं। संध्या देवी उनके इन प्रश्नांे की अभ्यस्त हो गयी हैं।
राजेश्वर व संध्या के साथ विगत् दो वर्षों से उनके बच्चे नही हैं। दोनों ही इस बड़े से घर की दरों दीवारों व चीजों के साथ रह रहे हैं।
दिन तो कुछ सार्थक व कुछ निरर्थक बातों में व्यतीत हो जाता है। शनै-शनै संध्या होती है। करवटें बदलते-बदलते रात व्यतीत हो जाती है। आजकल मौसम भी कैसा रूखा-सूखा हो रहा है। सर्दियाँ समाप्त हाने वाली हैं। मार्च का महीना प्रारम्भ हो चुका है। दिन का मौसम सामान्य रहता है किन्तु रात्रि में अब भी ठंड विद्यमान है। राजेश्वर रात्रि में कई बार उठ-उठ कर संध्या का हाल लेते हैं कि कहीं उन्हे टंड तो नही लग रही है। संध्या के मना करने के बावजूद भी वो उन्हे कम्बल से ढँकते रहते हैं यह सोच कर कि कहीं उन्हे इस परिवर्तित होते ऋतु में ठंड न लग जाए। वैसे भी उम्र के इस पड़ाव पर जब कि शरीर थक गया रहता है, बीमारियाँ शरीर में आसानी से स्थान बना लेती हैं। संध्या देवी की अल्प अस्वस्थ्ता भी उन्हे व्याकुल कर देती है। उस पर से डाॅक्टर के यहाँ की भाग दौड़ उन्हे अनावश्यक रूप से थकाने वाली लगती है। अतः उनकी यही इच्छा होती है कि संध्या देवी कभी भी अस्वस्थ ही न हों किन्तु यह कहाँ सम्भव हो पाता है? पूरी सर्दियाँ भर संध्या घुटने के दर्द व श्वााँस फूलने की समस्या से पीडि़त रहीं। दवाईयाँ तो जैसे साथ ही नही छोड़तीं। सगे-संबधियों से अधिक अपनापा दिखाती हैं। घर के कार्यों की व्यस्तता के कारण या आलस्यवश यदि कभी उन्हे दवाईयाँ लेने का स्मरण नही रहता तो राजेश्वर उन्हे स्मरण दिला कर दवाईयाँ देना नही भूलते।
सर्दियाँ समाप्त होने वाली हैं। शनैः शनैः ऋतुएँ परिवर्तित हो रही हैं। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत् विधान है। कठोर शीत ऋतु के पश्चात् वसंत का आगमन होने वाला है। नव-पुष्प, नव-पल्लव.....। सम्पूर्ण सृष्टि नये परिधान धरण कर के वसंत ऋतु का स्वागत् करने हेतु उत्साहित हो रही है। राजेश्वर को शीत ऋतु भाती नही है। कारण....? कारण यह कि शीत ऋतु में व्याधियों में वृद्धि हो जाती है तथा उनकी व संध्या देवी की प्रातः की सैर भी बन्द हो जाती है। क्यों कि प्रातः कोहरे में बाहर निकलने से संध्या देवी की साँसों की समस्या बढ़ जाती है। यही कारण है कि राजेश्वर वसंत ऋतु के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जब वह और संध्या कुछ देर के लिए इस बन्द घर से बाहर निकलेंगे.....खुली हवा में। वैसे उन्हांेने सुन रखा है कि युवा बच्चों को जाड़े की ऋतु अच्छी लगती है। क्यों....? यह उन्हंे ज्ञात नही।
आज प्रातः ठंडक कुछ कम थी। अतः राजेश्वर संध्या के साथ भ्रमण पर निकल पड़े। घर के समीप स्थित पार्क में कुछ देर टहलने के उपरान्त वो और संध्या कुछ देर के लिये एक बेंच पर बैठ गये। संध्या थक गयी थी। थक तो राजेश्वर भी गये थे। पार्क में थोड़ी चहल-पहल थी। ठंडक कम होने के कारण प्रातः भ्रमण करने वाले घर से बाहर निकलने लगे थे। यूँ तो वसंत ऋतु के आगमन के चिह्नन प्रकृति में व्याप्त होने लगे थे। किन्तु पार्क की फि़जाओं में वसंत ऋतु की सुगंध सर्वत्र फैल रही थी। पार्क की जमीन पर कालीन सी बिछी नर्म मुलायम हरी दूब, ढाक, पलाश, बुरूंश, गुलमोहर, अमलतास के कतारबद्ध वृक्ष नव-पल्लवों, नव-पुष्पों से सुशोभित हो इतरा-लहरा रहे थे। अनेक प्रकार के पक्षियों के कलरव हवाओं में ऐसे से गूँज रहे थे जैसे वे वसंत गीत गा रहे हों। राजेश्वर ने देखा कि पार्क के एक कोने में कुछ बच्चे खेलने में मग्न थे। यह मौसम का प्रभाव था या सुकून भरे फुर्सत के कुछ पलों का। बड़ी देर तक चुप रहने के पश्चात् राजेश्वर अकस्मात् बोल पड़े,” संध्या! तुमने इस बात पर गौर किया है कि पार्क में टहलने वालों में हम जैसे वृ़द्ध लोगों की संख्या अधिक है। “तत्पश्चात् संध्या की तरफ देख कर मुस्कुरा पड़े।
संध्या समझ गयीं कि राजेश्वर आज कुछ हास-परिहास के मिजाज में हैं। अतः वह भी उनके मिजाज में सम्मिलित होते हुए बोल पड़ीं, ” माना कि वृद्ध अधिक हैं तो क्या.....? कुछ यूवान भी तो हैं। वो देखो! उस तरफ.... छोटे-छोटे बच्चे कैसे गेदों खेल रहे हैं।”
राजेश्वर भी आज पूरी तरह हास्य के मूड में थे। उन्होने संध्या की ओर देखते हुए कहा कि, “यूवान तो शरीर को अर्कषक बनाने के लिए दौड़ रहे हैं.....परिश्रम कर रहे हैं.....किन्तु वृ़द्ध तो अस्वस्थतावश विवश हो कर भ्रमण पर निकले हैं।”
कुछ क्षण रूक कर संध्या की तरफ देख कर वह पुनः बोल पड़े, “जैसे हम!”
संध्या की भी आज चुप होने की इच्छा नही थीं। वह बोल पड़ीं, “नही! ऐसा नही है। उस तरफ बच्चे भी तो हैं। जो प्रातःकालीन सैर का आनन्द ले रहे हैं। बच्चे तो स्वस्थ्य, व्याधि, आर्कषण जैसी गूढ़ बातों से परे हैं। “कह कर संध्या ने राजेश्वर से असहमति प्रकट की।
आज संध्या की इच्छा भी हास-परिहास करने की हो रही थी अन्यथा वो राजेश्वर की प्रत्येक बातांे का सर्मथन ही करती हैं। असहमति का तो प्रश्न ही नही उत्पन्न होता।
राजेश्वर ने बातों को आगे बढ़ाते हुए कहा कि,” देखो! वृक्षों पर पक्षी कैसे कलरव कर रहे हैं? शीत ऋतु हमने घर में रह कर व्यतीत कर दी। उन दिनों न तो हमे सुन्दर पक्षी दिखाई दिए न तो उनकी चहचहाहट सुनाई दी। इस खुले वातावरण में सब कुछ है।’
संध्या असहमति के स्वर छोड़ उनके समर्थन में बोल पड़ीं, “हाँ! वो देखो...वृक्षों पर नई कोंपले, नये पत्ते निकलने लगे हैं। हरी दूब में से निकलती नन्ही......मुलायम...छोटी दूब। कितना मखमली स्पर्श है इनका! सब कुछ नवीन-सा है। वृक्षों पर नई कलियाँ, नये बौर भी तो आने वाले हैं। कह कर संध्या चुप हो गयीं।
“हाँ! वसंत ऋतु आने वाली है। “राजेश्वर ने बातों का तारतम्य आगे बढ़ाते हुए कहा।
“किन्तु उससे पहले पतझर की ऋतु आएगी। “संध्या ने कहा।
पुराने पत्ते गिर जायेंगे और उनके स्थान पर नये पत्तों से वृक्ष पुनः लहलहा उठेंगे।” राजेश्वर ने संध्या का समर्थन करते हुए कहा।
राजेश्वर ने संध्या की तरफ देखा। धीरे-धीरे संध्या के चेहरे पर फैल रहे विषाद के भाव उनकी दृष्टि से छिपे न रह सके। वे चुप हो गये। उन्हंे यह अनुभूति होने लगी कि बातें प्रकृति से होती हुई गहन जीवन दर्शन की तरफ मुड़ रही हैं। वह जानते हैं कि संध्या एक धीर-गम्भीर स्त्री हैं। उम्र के इतने पड़ाव पार करने के उपरान्त वे जीवन के प्रति एक यर्थाथपरक सोच रखती हैं। इन बातों से उन्हे मानव जीवन व प्रकृति में सीधा सम्बन्ध परिलक्षित हो रहा था। इसीलिए उन्होंने हास्य की बातों से सहसा गम्भीरता की तरफ मुड़ रही बातों पर विराम लगाते हुए कहा, “चलो अब चाय पीने की इच्छा हो रही है। घर चलें।”
राजेश्वर संध्या के साथ घर की तरफ चल पड़े। वे जानते हैं कि घर जा कर वे पुनः विगत् दिनों की, बच्चों की, उन्हे देखने के ललक की, उनकी प्रतीक्षा, उनके आने, उनके जाने इत्यादि की चर्चा कर के अपने दिन व्यतीत करेंगे। वे यह भी जानते हैं कि पुराने पत्ते गिरते हैं, तो नये पत्ते उनका स्थान लेते हैं। किन्तु आज प्रकृति के सानिंध्य में बैठ कर मानो विस्मृत हो चुका यह पाठ उन्होने पुनः पढ़ डाला हो। वे दोनों घर की तरफ चल पड़े हैं शनै...शनै...शनै... नव-संचरण, नव-स्फूर्ति के साथ।