पी कहाँ? / सातवीं हूक / रतननाथ सरशार
शर को रातब दिया जाता था, और वह साहबजादा, कि खुद रियासत का मालिक था, दिल बहलाने के लिए दिल्लगी देख रहा था। एक सिपाही के लौंडे ने शेर की दुम, जो कटघरे के बाहर थी पकड़ के खींची। शेर उस वक्त बकरी की रान खा रहा था। पहले जरा यों ही सा गुर्राया। जब उस लौंडे ने जोर से दुम को खींचा, तो शेर इस जोर से डँकारा और फिरा कि लौंडा गिर पड़ा। शेर बदस्तूर गोश्त खाने लगा। और उस साहबजादे को उस लौंडे की शरारत और बौखलाहट पर बेतरह हँसी आई, - और पहली ही मर्तबा था कि इस मकान में आ कर ये हँसे हों। हँसी के आते ही अचानक उसको ख्याल आया कि - अरे! मैं हँस रहा हँ! हाय, वह बेचारी इस वक्त क्या जाने क्या कर रही होगी, और सोती न होगी तो बेचैन जरूर होगी। और मैं कमबख्त हँस रहा हूँ!
शेर के कटघरे के पास से ये दूब के तख्ते के पास आए टहलने लगे। हद से ज्यादा उदास, बड़े रंज में। एक आदमी को बुला कर कहा - देखो एक साँड़नी सवार को नवाबगंज की चौकी तक भेजो कि देखे, बाबू किशोरी लाल साहब यहाँ आते हैं या नहीं। पालकी गाड़ी पर आएँगे। अगर उनकी गाड़ी मिले तो कह दे कि राजा राहत हुसैन ने भेजा है, और कहा है कि इतना बता दीजिए, कि बेटा या बेटी? - बल्कि एक काम करो। कलम, दवात, कागज मँगवाओे। खत लेके जाय, और कलम-दवात कागज उसके साथ कर दो, कि वह जवाब लिख दें, उनके पास मुसाफरत में कहाँ होगा। रुक्का जल्दी में लिखा -
'माई डियर किशोरी -
अरे यार आँखें तुमको देखने को तरसती हैं। भाई कुछ पता लगाया या नहीं?
तुम्हारा दोस्त,
राहत - बराय नाम।'
साँडनी सवार रुक्का और कलम-दवात कागज ले कर बहुत तेज गया, और तीन घंटे बाद वापिस आया, और कहा - हजूर चौकी से तीन कोस गया, मगर कहीं पता नहीं। एक सवार घोड़ा दौड़ाए हुए आता था। उससे पूछा, कोई टमटम पीछे आता है? उसने कहा, नहीं। इतना सुनना था कि राहत हुसेन दूब पर बैठ गए, और उनके आदमी और दरोगा साहब दौड़ पड़े।
1 - सरकार, सरकार! अरे!
२ - बोचा लाओ! बोचा लाओ! जल्दी लाओ!
3 - हजूर लेट जायँ। पसीने आ गए! ये हुआ क्या! डाक्टर साहब को बुलाओ!
4 - अरे मियाँ बोचा लाओ! घंटों लगा देते हो, पाजियो!
5 - पसीना रूमाल से पोछिए, दरोगा साहब!
जनानखाने में खबर हुई तो कयामत का सामना हो गया। और इधर इसी दूब के फर्श पर एक पलँग पर राजा राहत हुसैन साहब को लोगों ने लिटाया, और पंखा झलने लगे। इतने में एक महरी ने आन कर कहा - पर्दा हो जाय! सब एक सिरे से चले जाइए। बड़ी सरकार आती हैं! सब एकदम हुर! अब बाग और जमीन और दूब और तालाब भर में सिवाय इस लड़के के मर्द का नाम भी नहीं।
महरी ने पंखा ले लिया था। महलदार ने इत्तला दी कि, हजूर पर्दा हो गया। बड़ी बेगम, मय खवासों और महरियों और मुगलानियों और महलदार और चेंगी-पोंटों के, पलँग के इर्द-गिर्द। सबके पहले इस लड़की ने, जिसके साथ बड़ी रानी ने लड़के का निकाह तजवीजा था, राहत हुसैन के माथे पर हाथ रख कर, झुक के पूछा - मेरे प्यारे भाई, कैसे हो? यह कमसिन, बहुत ही कम-उम्र, हसीना, कुँआरी लड़की अगर किसी और नौजवान मर्द के माथे पर अपना मेहँदी से रचा हुआ हाथ रख कर इस मोहब्बत से पूछती, तो वह समझता कि कारूँ का खजाना मुझे मिल गया, मगर यह तो और ही फिराक में था। उसने इशारे से कहा - बैठ जाओ! और वह उसी पलँग पर बैठ गई।
बेगम - बेटा, यह तुम एकाएकी गिर क्यों पड़े।
राहत हुसैन यानी वही साहबजादा - अजी सरकार, ये लोग तो खामखाह बात का बतंगड़ बना देते हैं। मैं जरा दूब पर बैठ गया, और कच्ची घड़ी भर में खलबली मच गई।
बेगम - बेटा, घर भर तुमको देख कर जीता है। जो जरा भी कोई सुने कि तुम्हारे पाँव में काँटा चुभा, तो चैन क्यों कर आए। अब तुम यह बताओ कि हो कैसे! डाक्टर को बुलाने आदमी गया है।
राहत - (किसी कदर चिड़चिड़ेपन के साथ) आप तो बेकार दिक करती है। अरे भई देखती हो कि खासा अच्छा हूँ, भला-चंगा, डॉक्टर क्या करेगा?
बहनों में से एक ने कहा - भाई तुम हम लोगों के पूछने से परेशान क्यों होते हो? हमारी तो जिंदगी का दारोमदार तुम हो। अम्मीजान सच कहती हैं कि तुमको देख के जीते हैं।
राहत - अरी बहन, आखिर बीमारी की कुछ अलामत पाती हो? फिर क्यों घबराती हो?
बहन - बस, अब हमको जैसे लाखों रुपए मिल गए। जान में जान आ गई। तुमने हमें जिला लिया, जिंदगी दे दी।
बेगम - मैं कहने ही को थी : अच्छा अगर डॉक्टर आके देख ले तो क्या हर्ज है!
राहत - (चिड़चिड़ेपन के साथ) अम्मा, तुमने कलेजा पका दिया। डाक्टर क्या मेरी लाश पर मरेगा आके?
बहन - खुदा न करे! खुदा न करे! ये क्या बातें मुँह से निकालते हो, भाई! अम्मीजान, तुम यहाँ से चली जाओ!
बेगम - अच्छा, लो अब हम जाते हैं। तुम भाई-बहन बैठो।
राहत - (मुस्करा कर) नहीं, नहीं, जाइए नहीं। मगर मुझे दिक न करो भई। परेशान क्यों करती हो। जो मैं बीमार होता - तो खुद न कहता? मेरी बीमारी डाक्टर के इलाज से अच्छी होनेवाली नहीं है।
इतना कहना था कि बड़ी बेगम ने इनकी बहन की तरफ देखा, और उसने उनकी तरफ, और जितनी वहाँ खड़ी थीं, सब एक दूसरे को देखने लगीं।
राहत - अब तुम लोग जाओ। मेरा तुम्हारे बैठने में कोई हर्ज नहीं है, मैं फकत तुम्हारी तकलीफ के लिए कहता हूँ।
बहन - कैसी बच्चों की सी बातें करते हैं।
खवास - अरे हजूर, तकलीफ है, कि ऐन राहत है।
दूसरी - इसमें क्या शक है। अल्ला जानता है, जैसे ही सुना कि गश उनके दुश्मनों को आया, बस जैसे जान तन से निकल गई।
बेगम - अच्छा अब हम तो जाते हैं।
इतने में फीलबान की बीवी ने कहा, सरकार कोई औरत बंद गाड़ी में आई हैं, राजा साहब से मिलना चाहती है। सुनते ही सबके कान खड़े हुए, और राजा ने ताज्जुब के साथ पूछा - औरत आई है? और हमसे मिलना चाहती है? कौन औरत है, भई! ...अच्छा, अब तुम लोग जाओ। और वे सब चली गई। मगर सबको अचंभा कि कौन औरत आई है। घर भर में खलबली मची हुई। इधर एक खवास ने आन कर कहा, सरकार एक बंद गाड़ी में कुछ सवारियाँ आई हैं। 'फैजन' नाम बताया है। फैजन का नाम सुनना था कि बाछें खिल गईं। हुक्म है कि फीलखाने की छत पर जो खपरैल है, वहाँ पर्दा करा के सवारियों को उतरवाओ। दिल में बड़े खुश कि अपनी प्यारी माशूका का कोई सँदेशा आया, और कौन जाने कि खुद भी आई हो। डर था कि कहीं मारे खुशी के जान ही न निकल जाय! खवास हुक्म की तालीम के पहले दौड़ गया था। ये आदमी दूर पहुँचे ही थे कि उसने वापिस आके कहा, सरकार, वह नहीं उतरतीं। हजूर ही को बुलाती हैं! यह खुश-खुश चहलकदमी करते हुए चले। एक-एक कदम पर यह मालूम होता था कि कलेजा गज भर का हो गया है।
अब इधर का हाल सुनिए कि बड़ी बेगम और राहत हुसैन की बहनों और कुल घर के लोगों और नौकरों और मुसाहिबों को रंज था कि मालूम होता है कि वही औरत आई है जिस पर साहबजादे रीझे हुए हैं। लेकिन अगर बाहर-भीतर के आदमियों, मर्दों-औरतों में, किसी को खुशी थी तो वह दारोगा थे।
बेगम - मैं कहती हूँ, अब क्या होगा?
बहन - क्या बताऊँ, अम्मी जान।
खवास - मालूम होता है, वही आई है। यह है कौन, जिस पर ये इत्ते रीझे हुए हैं। टोह तो लेनी चाहिए।
बहन - फैजन तो किसी देहातिन का नाम मालूम होता है। अच्छा, नेक कदम, तुम जाके टोह तो लो! किसी बहाने से जाओ।
खवास - फीलबान के पास जाके बैठो। वहाँ से सब सूझेगा।
बेगम - हाँ, मैं कहने ही को थी।
बहन - अल्ला हमारी आबरू रखे।
बेगम - घर में लड़की मौजूद होके, लड़का मौजूद होके, और जगह कूद पड़ना -इसकी अकल को क्या हो गया है?
बहन - और यह मुआ दारोगा और पुरचक देता है।
खवास - यह मुआ है कौन? भद्दा-भदेसल!
इतने में नेककदम फीलबान के पास गई। और राजा राहत हुसैन साहब बहादुर बादशाह बने हुए उस बंद गाड़ी के पास पहुँचे। फैजन से यह खुले हुए थे, बचपन के। जब गाड़ी के पास पहुँचे तो दिल धड़-धड़ करने लगा और फैजन का नाम ले कर गाड़ी का पट खोला तो धक से रह गए। और अंदर की सवारी ने कहकहा लगा कर कहा - 'हात् तेरे गीदी के!' राजा ने कहा - भाई वल्लाह, न बड़ी मायूसी हुई! ऐसी दिल्लगी - ऐसी हालत में अच्छी नहीं होती! मैंने तो सोचा था कि हमारा कातिल होगा, तो जान में जान आ जाएगी... साथ ही भाग जाता! और जो फैजन ही होती, तो खुदा की कसम, कुरबान जाता - बल्कि कदमों पर टोपी रखता - पाँव चूमता, और धो-धो के पीता, कि माशूक की भेजी हुई आई है। तुमने, बच्चा! इस वक्त और भी रंज दिया क्या जाने कब का बदला तुमने निकाला है।
किशोरीलाल ने कहा - किसी कदर कामियाबी तो हमारे जाने में जरूर हुई। बड़ी बुरी हालत बेचारी की है। वह किसी बाग या जंगल में रहती है, और पी कहाँ! पी कहाँ! की हाँक लगाती है। अफसोस के काबिल हालत हो गई है। जिस औरत ने मुझसे बयान किया, वह खुद देख आई है - कहती थी बिलकुल दीवानी हो रही है,और अगर यही नक्शा कायम है तो खुदा-न-खास्ता, बिलकुल सिड़न हो जाएगी और तिनके चुनने लगेगी। वह तो कहती थी कि सिवाय पी कहाँ! पी कहाँ! के और कुछ कहती ही नहीं मर्दाने कपड़े में देखा था। कहती है, बिलकुल यह मालूम होता था कि कोई खूबसूरत सा लड़का खड़ा है -चुस्त घुटन्ना, अँगरखा बसंती रँगा हुआ, हरी चौड़ी गोट लगी हुई। कमर तक कुदरती लंबे-लंबे बाल, बीच की माँग निकली हुई, मगर वह रंग-रूप नहीं। वह फूल से गाल नहीं। जर्दी छाई हुई। घुल के काँटा हो गई है। बाजी बात कहने को जी नहीं चाहता। कोई ताज्जुब नहीं कि पागलपने में अपनी जान दे दे। जान पर खेल जाय - या मारे रंज के मर जाय।
राहत - पूरा पता न मालूम हुआ, कि है कहाँ?
जवाब - अरे भाई यह तो कोई जानता ही नहीं। लाख-लाख जतन किए, लालच देके कहा, कि भरपूर इनाम दूँगा। उसने कहा - बाबू जी यह न होयगा! फैजन ने आपने मरने की कसम दे दी है।
राहत - क्या फैजन भी साथ है? उसको यह क्या सूझी!
जवाब - अल्ला ही जाने! फैजन की एक रिश्तेदारिन से तो हमने सुना था - फुफी है, या खाला, या कुछ ऐसी ही है। देखो, मैं फिर टोह लगाता हूँ!
राहत - किसके मकान पर है, पूछा?
जवाब - वहाँ किसी के बताने से भी हाल मालूम न हुआ। सख्त ताकीद है, कि कोई किसी गैर से बात न करने पाए।
राहत - इसमें कोई भेद जरूर है। (ठंडी साँस भर कर) हाय क्या गजब हो रहा है। आँखें तरस रही हैं!
जवाब - अरे भई, अलैहदा इस वजह से कर दिया कि उसका दिल और तरफ हो कर धीरे-धीरे बदल जायगा और भूल जायगी। मगर वहाँ उलटी आँतें गले पड़ीं। पागलपन और बढ़ गया। मगर घबराओ नहीं, दिल को ढारस रखो!
राहत - अबर दीवानी हो गई तो गजब हो जायगा। और अगर खुदा न करे खुदा-न-खास्ता... (बहुत ही दुखी हो कर, रोते हुए) हम भी उसी की कब्र पर जान दे देंगे।
जवाब - खुदा न करे! खुदा न करे! यार, यह बदशगुनी की बातें मुँह से मत निकाला करो! उसकी कब पर जान दूँगा! वाह! - जब न मिले न!
राहत - हमारी जिंदगी पर तुफ है! जब से पैदा हुए दम भर चैन नहीं आया। चैन लेने ही नहीं पाते। इससे बढ़ कर सितम और क्या होगा कि हम उस पर जान दें, वह हम पर - और न हमें मालूम कि वह कहाँ है, न उसको हमारा हाल मालूम! क्या गजब हो रहा है - अंधेर हो रहा है! अच्छा तीन हफ्ते तक हम और किस्मत को आजमाते हैं। अगर मिल सके तो खैर, बर्ना... हमारा दिल बैठा जाता है...
यह कह कर एक चक्कर सा आया और गिर पड़ा। और इधर बाबूजी ने उनके आदमियों को बुलवाया। सुनते ही बेताब हो कर सब दौड़ पड़े।
1 - अरे! खैरियत तो है!
2 - गश आ गया!
3 - पंखा झलो! पंखा झलो! इत्र मँगाओ।
4 - यह हुआ क्या? अभी तो अच्छे थे।
सबके सब जमा हो गए और तरकीबें करने लगे कि मिजाज हजूर का रास्ते पर आए। इतने में महलखाने में खबर हुई। वहाँ खबर होना बस गजब का सामना था। सितम हो गया, पिट्टस-सी पड़ गई। कुहराम मचा हुआ। जिसने जाके यह खबर सुनाई, उसने बहुत कुछ चढ़ा कर कहा था। हुक्म हुआ, पर्दा कराओ। कई आवाजें मिल कर आईं - पर्दा कराओ! पर्दा कराओ! महलदार दौड़ी। महरी सटर-सटर करती हुई बाहर आई। पहरेदार कौन है! सारे में पर्दा करा दो - कोठी, तलाब, रमना, फीलखाना, अस्तबल, ड्योढ़ी, बाग। फाटकों से लोग हट जाएँ। जल्दी पर्दा हो! अंदर से फिर ताकीद हुई। इतने में बेगम साहब और राहत अली खाँ की दो बहनें - एक सगी, एक चचेरी, फीनसों पर सवार हो कर पहुँच गई। मर्द सब नीचे उतर आए। खवासें उनके पास रहीं। पर्दा हो कर सवारियाँ उतरीं। और बाकी और बेगमें और औरतें भी, जब पर्दा हो गया तो पैदल आने लगीं, अब गशी की हालत दूर हो गई थी, मगर कमजोरी कहीं बढ़ी हुई।
बेगम - (माथे पर हाथ रख कर) - पसीने आए हुए हैं।
बहन - भाई कैसे हो? यह हुआ क्या था?
राहत - गश सा आ गया। अब आराम है।
बहन ने कहा - अल्ला करे, आराम ही रहे!
हकीम साहब आए।
बेगम - हकीम साहब, मेरी कुल जिंदगी का दारोमदार इसी बच्चे पर है। ये अच्छे हो जायँ, तो मेरी जान तक हाजिर है। इतने दिनों के बाद जो घर में उजाला हुआ, तो यह नई बात पैदा हो गई।
हकीम - आप घबराएँ नहीं। खुदा पर भरोसा रखें। अल्लाह-ताला फरमाता है कि मेरे मकबूल बंदे वह हैं जो मुझ पर भरोसा रखते हैं।
बेगम - (रुआँसी आवाज में) यह रोज-बरोज तबीअत इनके दुश्मनों की बिगड़ती क्यों जाती है?
हकीम - इनका कुल हाल बयान फरमाइए। कहाँ रहे, किस तरह पर रहे। कौन-कौन बीमारियाँ इन्हें हुई। किसी खास बीमारी की शिकायत है? ये सब बातें मालूम होनी चाहिए।
बेगम - इनके साथ एक शख्स आया है, जो दारोगा-दारोगा कहलाता है, और एक इनका दोस्त है हिंदू। इन दोनों को कुल हाल मालूम होगा, मगर हमसे छिपाते हैं। कमबख्त साफ-साफ नहीं बताते हैं। इन्हीं दोनों की साँठ-गाँठ है। हकीम साहब, मुझे जिला लीजिए। मैं बड़ी दुखी औरत हूँ। जिंदगी इसी लड़के पर है। और इसकी हालत मुझे अच्छी नहीं मालूम होती। और मुझे मौत भी नहीं आती।
हकीम - अगर आप इस कदर घबराइएगा, तो और सब के भी हाथ-पाँव फूल जाएँगे। मैं इन दोनों से जाके साफ-साफ हाल पूछता हूँ। क्या नाम बताए आपने?
बेगम - एक दारोगा हैं, नाम नहीं जानती। और दूसरा कोई हिंदू है इनका दोस्त - उसकी बड़ी खातिरें होती हैं।
हकीम साहब ने कहा - मैं इन दोनों से दरियाफ्त करके हाजिर होता हूँ। क्योंकि ऐसी पेचीदा बीमारियों का तूल खिंचना अच्छा नहीं। जल्द रोकथाम चाहिए। यह कह कर बाहर आए। दीवानजी को बुलवाया। अकेले में बैठे। दारोगा साहब और साहबजादे के हिंदू दोस्त बुलवाए गए। हकीम साहब ने उन सब से कहना शुरू किया -
साहबजादे का हाल अच्छा नहीं है। अव्वल तो कमजोरी बेहद हो गई है। दूसरे गिजा के नाम से नफरत है। दूसरे इख्तलाजे-कल्ब... बेहद बढ़ा हुआ। और इन सब पर तुर्रा यह कि मरज का सही-सही पता नहीं चलता। डॉक्टर साहब की अक्ल भी गुम है और हमारी समझ में भी नहीं आता। अब फरमाइए, मरीज बेचारे के अच्छे होने की कौन उम्मीद है। डाक्टर सर पटक के मर गया हम इलाज करके थक गए। कुछ समझ में नहीं आता, क्या किया जावे। एक जरूरी बात दरियाफ्त करने की यह है कि ये किस हालत में थे, शौक क्या था। कोई खास बीमारी है या नहीं। दिमाग तो कभी बिगड़ नहीं गया। दिल का दौरा कब से उठता है। कोई सदमा तो एकाएक नहीं पहुँचा। जहाँ ये थे, वहाँ किसी के छुटने और जुदाई के रंज ने तो यह हालत नहीं पैदा कर दी। पेश्तर भी कभी यह कैफियत हुई थी? कुछ हालत मालूम हों, तो फिर खुदा के फज्ल से आराम हुआ समझिए। जब तक मरज की तशखीस नहीं होती इलाज से कोई फायदा न होगा।
यह सुन कर दारोगा ने कहा - जनाब हकीम साहब हमसे पूरा-पूरा हाल सुनिए। जब बेगम साहब के पहले शौहर न रहे, और उन्होंने दूसरा निकाह कर लिया, तो उनके दूसरे शौहर ने इन साहबजादे को निकाल दिया और मैंने इसकी परवरिश की। जिस ड्योढ़ी की दारोगगी पर मुकर्रर था, उनकी एक लड़की थी, बड़ी खूबसूरत। नवाब ने इस लड़की को पढ़ाने के लिए एक बूढ़ा मौलवी नौकर रखा था। और यह लड़का भी वहाँ पढ़ने लगा। जब लड़की जरा सयानी हुई, तो इन साहबजादे से पर्दा कराने लगे। मगर दोनों के दिल को यह रोक-टोक बहुत अखरी। और कोठे से झरोखे से, इधर से, उधर से, इशारेबाजियाँ होने लगी। मगर पाक मोहब्बत। बदी का खयाल न था। बचपने के दिन। धीरे-धीरे मोहब्बत गई और अब इश्क का दर्जा हो गया। नवाब ने जो यह हालत देखी तो मुझे और उस लड़के को निकाल दिया, और कसम खाके कहा कि अगर फिर इस शहर में शहर में देखा तो मरवा ही डालूँगा। जिंदा न छोड़ूँगा। हम दोनों को भागना पड़ा। गरज यह कि किस्मत ने यहाँ तक पहुँचाया। बात को तूल कौन दे : माँ ने बेटे और बेटे ने माँ को पाया। खुशी के शादियाने बजने लगे। मगर लड़का, बावजूद धन-दौलत, जायदाद और इलाका वगैरह सब कुछ होने के, खुश नहीं। परेशान, हैरान, बुत बना हुआ। सोने का लुकमा खिलाओ तो वही बात, और जौ की रोटी खिलाओ तो वही बात। सावन हरे न भादों सूखे। मोहब्बत तो बहुतों को होती है। मगर इनकी सी मोहब्बत न देखी, न सुनी। घंटों रोया करता है, और जबसे इनकी बालदा ने कहा है कि खान्दान की एक लड़की के साथ तुम्हारा निकाह होगा, तबसे जो बीमारी ने घेरा, तो गजब ही हो गया। और अब तो हालत बहुत ही खराब है। खुदा ही खैर करे। यों तो दुनिया उम्मीद पर कायम है, मगर हमको मायूसी सी होती जाती है।
जब दारोगा ने अपनी बात खत्म की तो हिंदू दोस्त ने कहा - मुझे शहर भेजा था, और बड़ी खुशामद की थी कि पता लगाओ। मालूम हुआ कि उसे लड़की की हालत और भी खराब है। उसके माँ-बाप ने उसको किसी बाग में भेजा है, कि शायद आबो-हवा की तब्दीली से मिजाज सही हो। मगर वहाँ और भी बदतर हाल हुआ। सुना कि 'पी कहाँ! पी कहाँ!' की आवाज लगती है, और चौ-तरफा पी को ढूँढ़ती फिरती है, और पी इधर उसकी जुदाई में घुले जाते हैं।
हकीम साहब और दीवान जी और दारोगा ने पूछा - वह बाग कहाँ है? कहा - मुझ से साहबजादे ने नहीं बताया। उस लड़की की कोका की लड़की है - शायद 'फैजन' नाम है, - उसकी एक रिश्तेदारन ने हमसे बयान किया। मगर जगह का नाम नहीं बताया। या तो छिपाया, या जानती न हो। मगर जानती जरूर होगी।
दारोगा ने कहा - मैं फैजन के सारे रिश्तेदारों को जानता हूँ। अच्छा, मुझे पता लगाने दीजिए। उनके रिश्तेदारों से, खास कर उसके बाप से, साफ-साफ कहा जायगा, कि जो बात आप समझे थे, वह नहीं है। - वह समझे थे कि यह लड़का मेरा है। दस-बारह रुपए महीने के दारोगा के लड़के को अपनी साहबजादी बेटी क्यों दूँ! इसी सबब से मुझे भी निकाल दिया और लड़के को भी। अब उनसे कहा जायगा, कि यह लड़का हमारा नहीं है। एक बड़ा नामी ताल्लुकेदार है, आपसे हैसियत और आमदनी में कहीं ज्यादा, इज्जत और आबरू में कहीं ज्यादा। और दोनों को आपस में इश्क। इधर आपकी साहबजादी कुढ़ती हैं, उधर लड़का। यह भी साफ-साफ कह दिया जायगा, कि लड़का, खुदा-न-खास्ता, जान दे देगा। हालत नाजुक है। हकीमों और डाक्टरों ने जवाब दे दिया। अगर दोनों एक दूसरे को देखें, तो अजब नहीं कि जी पायँ, बल्कि यकीनी। मुझे पूरा यकीन है कि जी जायँ। दोबारा जिंदगी हो जाय।
हकीम साहब यह सब सुनके खुश हुए। कहा कि - अगर उस लड़की के बाप को यही खयाल था कि एक छोटे-से आदमी के लड़के के साथ लड़की का निकाह क्यों हो, किसी ऊँचे घर में क्यों न दूँ, तो अब वह बात हासिल है। चलो बस छुट्टी हुई! - ये हैं कौन?
दारोगा ने कहा - मियाँ जोश की चढ़ाई पर वह जो टीले पर बूढ़े नवाब रहते हैं, जो आसमानी नवाब कहलाते हैं - चढ़ाई पर टीला और टीले पर बँगला - उन्हीं की लड़की है।
हकीम साहब ने कहा - अख्खाह! यह कैसे हम समझ गए! मैंने तो उस लड़की का इलाज किया है : नूरजहाँ बेगम नाम है। उसके बाप के पास आप भी चलिए और मैं भी चलूँ। मैं समझा लूँगा।
दारोगा ने पूछा - लड़की का हाल तो मुझे मालूम, मगर हाँ, इस अपने बेचारे का हाल तो अच्छा नहीं है। साफ-साफ तो यों हैं, कि बचना मुश्किल है। मगर, हाँ, अगर आसमानी नवाब राजी हो जायँ, तो कोशिश का कुछ नतीजा निकले। बस, अब देर न कीजिए और चलिए। चाहे बाबू साहब को भी ले चलिए।
हिंदू दोस्त ने कहा - मुझे इन्हीं के पास छोड़ जाइए।
हकीम साहब और दीवान जी ने बेगम साहब को इत्तला दी कि, अस्ल मरज यह है। बेगम ने कहा - मैं तो इनकी वहशत और बेचैनी से समझ गई थी कि कुछ यही हेर-फेर है। बल्कि कांजीमल से कहा भी था, कि डॉक्टर साहब से, हकीम साहब से यह भी कहो। मगर इस मुए दारोगा को तो देखो, कि सब जानता था और नहीं बताता था। नहीं तो बात इतनी बढ़ने काहे को पाती! अच्छा, अब तो हुआ, वह हुआ। अब आप लोग कोशिश करें।
हकीम - कोशिश क्या माने : उनको मजबूर करेंगे। उनकी लड़की की हालत भी तो अबतर है।
दीवानजी - हकीम साहब दारोगा को ले कर जाते हैं। उस लड़की के बाप को समझाएँगे। मियाँ जोश की चढ़ाई पर रहते हैं।
बेगम - उन्हीं की लड़की है? वह आसमानी नवाब? अल्ला-अल्ला? अब वह इतने हुए कि हमारे साहबजादे को नापसंद करें! खुदा की शान!
हकीम - आप समझीं नहीं। उनको क्या मालूम था कि किसका लड़का है, कौन है कौन। वह समझते थे कि हमारे दारोगा का लड़का है। उसको मुलजिम का लड़का समझ कर टाल दिया। यह क्या मालूम था कि राजा है, और ताल्लुकदार का लड़का। अबर यह मालूम होता, तो अब तक निकाह कबका हो चुका होता। वह तो अपने आपको बड़ा खुशनसीब समझते। लड़के को खानादामाद (घर-जमाई) कर लेते।
बेगम : यह तो बड़ी खुशखबरी सुनी। तो अब अगर उनसे कहा जाय, तो फौरन मंजूर कर लें! यह तो मुझे अब मालूम हुआ, कि यह गुत्थियाँ पड़ी हुई हैं। जभी हमारा बच्चा कुढ़-कुढ़ के घुला जाता है। फिर अब हम पैगाम भिजवाएँ!
हकीम - मैं दारोगा साहब को ले कर खुद जाता हूँ।
बेगम - तो मैं भैया से जाके कह दूँ कि जो बात तुम चाहते थे वह पूरी हो गई।
हकीम - ना : अभी नहीं। साईं के सौ खेल! अभी पक्की-पोढ़ी हो ले! जाके इतना कह दीजिए कि परसों-नरसों तक हम कोई खुशखबरी सुनाएँगे। मियाँ-जोशकी-चढ़ाईवाली बात। बस इतना कह दीजिए।
यह कह कर हकीम साहब और दीवानजी रुखसत हुए। बेगम ने जाके लड़के को तसल्ली-भरी बातें सुनाईं।
उधर हकीम साहब दारोगा को ले कर और हाथी पर सवार हो कर मियाँ-जोशकी-चढ़ाई पर चढ़ाई करने चले।