पुकार / प्रतिभा सक्सेना
लगभग दो वर्ष बाद भारत लौट रही हूँ, सानफ़्रान्सिस्को एयरपोर्ट से दो दिन के उबाऊ सफ़र के बाद नई दिल्ली आ कर देश की धरती का परस मिला।
परिचित चेहरे -परिचय कोई नहीं पर भारतीय रंग-ढंग में रँगे लोग नये नहीं लग रहे। । एयरपोर्ट की व्यवस्था बहुत अच्छी हो गई है। अप्रैल बीत रही है, उतनी गर्मी नहीं लग रही इस बार जैसी हमेशा लगा करती थी। वैसे मौसमों का ढर्रा हर जगह बदल रहा है। सामान उठवाने में लोग आगे बढ़ आते हैं।
रास्ता थोड़ा ऊबड़-खाबड़ है पर पहले जितना नहीं।
वही चिर-परिचित वनस्पतियाँ। सुनहरे झूमरों से लदा इठलाता आरग्वध (अमलतास) आँखें जुड़ा गईं।
गुलमोहर लाल-लाल हँसी बिखेरते जहाँ-तहाँ खड़े हैं। सड़क के किनारे वही पेड़-पौधे -आक, धतूरा, अरंड।शीशम और बबूल, ऊँचे घने पाकड़, जिन पर झूला बहुत सजता है । ।पीपल के चंचल पत्ते और गंभीर खड़े नीम, और किनारे की घास भी तो। इन्हें देखने को आँखें तरस गईँ थीं।
सब के नाम नहीं मालूम, जैसे आस-पास रहनेवाले बहुत लोगों से देखा-देखी का परिचय है - नाम जाने बिना। इन सबको खूब पहचानती हूँ कुछ के नाम भी मालूम हैं, याद नहीं आ रहे। मन पुलक उठा।
वहाँ बहुत सुन्दर वनस्पतियाँ थीं सब-कुछ स्वच्छ सुनियोजित, लेकिन इनका मेरा जन्म का साथ है -लगाव है इनके साथ पली बढ़ी हूँ। मन करता है इनके पास चली जाऊँ। बचकानी-सी इच्छा जागती है नन्हीं-नन्हीं शाखें जो कँप रही हैं -रोमांचित-सी जा कर हाथों से छू लूँ।
हवा के झोंके बार-बार गंध-भरे संदेश ले कर आ रहे हैं तुलसी की सुवास, बेला की मदिर गंध इधऱ के घरों के आंगन,अब आँगन कहाँ, लान से चुरा कर ले आये होंगे । हरियाली दिख रही है चारों ओर।
डर रही थी, धूल की पर्त ओढ़े सूखे पेड़ इधर-उधर खड़े होंगे। वैसा कुछ नहीं। हर जगह हर-भरे पल्लव- कर हिलाती डालें लहरा रहे हैं। अच्छा लग रहा है इन हवाओं का परस,इन राहों का दरस। बहुत दिनों के छूटे अपनों से मिलने को मन उमग रहा है
दो दिन बाद है हरिद्वार का आरक्षण - परम आत्मीय गंगा का सान्निध्य और हिमालय की छाँह पाने हेतु। अभी नहीं गई तो सांसारिक प्रतिबद्धताओँ में टलता चला जायेगा जाने कब तक।
अभी उधर मौसम भी अच्छा होगा। बौरों से लदे आम या नन्हीं-नन्हीं अमियाँ। गंगा की जलधार में उत्तरी हिमानियों का स्वच्छ-शीतल जल, मार्ग में पड़ती गिरि की नेह-धाराओँ से मिलता बहा आ रहा होगा।
शीघ्र ही वर्षा ऋतु आकाश छा लेगी। ग्रीष्म के ताप से विकल वृक्ष पर्ण- आच्छादन उतार मुक्त स्नान करेंगे, शाखायें हिल-हिल कर जल बिखेरेंगी।पर्वतों की रुक्ष हुई देह सिक्त करती धारायें बह निकलेंगी । गंगा रजस्वला हो रहेंगी, तीन महीने तक। उससे पहले ही देव-दर्शन का सौभाग्य पा लूँ।
देवतात्मा हिमालय की दुर्निवार पुकार,कैसे अनसुनी करूँ। जाना तो वहीं होगा - बारंबार !
ग्यारह महीने ! पता ही नहीं चला कैसे बीत गये। प्रस्थान की बेला आ पहुँची।
लंबे प्रवास पर जाने के पहले जितना हो सके अपनों मिल लेना ठीक रहता है -फिर पता नहीं फिर कब संभव हो !
जा रही हूँ मैं भी,तीन दिन के लिये ही सही। महाशिव-रात्रि से अधिक श्रेष्ठ और कौन सा दिन होगा, हरिद्वार जाने के लिये !
प्रकृति उमा-शंभु विवाह की तैयारियाँ पूरी कर चुकी होगी। हिमालय के वनों में वसंतोत्सव चल रहा होगा। जहाँ नव-विकसित दुर्लभ पर्वतीय पुष्पों की सुगंध दिशा-दिशा में व्याप्त हो मन-इन्द्रियों को आविष्ट कर लेती है। एक बेभान करता सा नशा चढ़ा आता है कि एक अतीन्द्रिय-सा चैतन्य शेष और सारा आत्म-बोध विलय। ऊंचाइयों पर आरोहण करते हुये उन श्रेणियों की परिक्रमा देती बस में हो कर भी लगता है , उन्मुक्त विचर रही हूँ। एक जगह न रह कर संपूर्ण परिवेश में व्याप्त हो कर उस एकान्त रमणीयता का एक अंश मैं !
हिमगिरि की छाया में प्रवाहित सुरसरि का नेह-जल दृष्टिमात्र से ही अंतरतम तक शीतल कर देता है।जीवन के उत्तर-काल में वह सान्निध्य पाने का हिसाब-किताब बैठा लेने भर से कहाँ काम चलता है - सांसारिक बाध्यताओं के आगे मन-चाही आज तक किसकी चल सकी?
तो फिर जितना मिले उतना ही सही ! फिर से केलिफ़ोर्निया जाने के पहले एक बार और उस अनुभूति को पाने का लोभ - और अंतर्जाल से कुछ दिन छुट्टी !