पुण्य का संक्रमण / राजेन्द्र वर्मा
जेठ मास का पहला मंगल! चौराहे-चौराहे हनुमान जी की फोटो के साथ प्रसाद-वितरण के पंडाल! पचीस-तीस साल पहले किसी मोहल्ले में, ख़ास तौर से अगर वह सेठों और सूदखोरों का हो, चौराहों और तिराहों पर मुश्किल से दस-बारह पंडाल कम्पटीशन किया करते थे। इनमें राहगीरों को बूंदी के साथ घड़े का ठंडा पानी पिलाने के मनुहार लगाकर पुण्य कमाया जाता था। राहगीर चाहे रिक्शा-सवार ही क्यों न हो, वह (रिक्शेचालक सहित) इन पंडालों को-को उपकृत करते हुए हनुमान जी की जयकार करता था, ताकि आस्था नामक पंछी के मन दुखी न होने पावे और लगे हाथ, पुण्यार्जन जैसा दुर्लभ कार्य सुलट सके। ... लेकिन आज पुण्य बाँटने वालों पंडालों की संख्या में न केवल बीस-पचीस गुना वृद्धि हुई है, बल्कि उनमें बूंदी के अलावा पूड़ी-सब्जी, छोले-चावल आदि की व्यवस्था हो गयी है। फ़िलहाल, पिज्जा और कोल्ड ड्रिंक के शामिल होने का इंतज़ार है! ... यह सब देखकर लगता है पाप और पुण्य, दोनों ही अत्यंत संक्रामक हैं; भले ही पहला वाला काम छुप-छुप कर किया जाए और दूसरा वाला नाच-गा कर और ढोल या, लाउडस्पीकर बजाकर।
मेरे मन में सवाल कुलबुलाये, ' ये सेठ लोग आख़िर इतने उदार क्यों हो गये? क्या ये पुण्य के संक्रमण का शिकार हो गये हैं? अगर हाँ, तो ऐसे क्योंकर हुए? कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्होंने पहले की तुलना में अधिक पाप तो नहीं कर लिये? ... और ये पुण्य अर्जन करने वाले भी तो देखिए टूटे पड़ रहे हैं! भूखे तो भूखे, खाये-अघाये भी लाइन लगकर पूड़ी खा रहे हैं और आँखों से श्रृद्धा बरसा रहे हैं! पंडाल का ख़र्च उठाने वाली तिजोरी के मालिकान भले ही स्वर्ग सिधार गये हों (नरक कतई नहीं, क्योंकि पंडालों के ज़रिए सालों-साल पुण्य नहीं कमाया है!) , लेकिन उनके उत्तराधिकारियों के मुख-मंडल पर बड़ी-बड़ी संतोष की रेखाएँ उभर आयी हैं। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि इस रेखाओं के अनुपात में उनके स्वर्गवासी माता-पिताओं, चाचा-चाचाओं आदि की आत्माएँ शान्ति नामक चादर को ओढ़-बिछा रही होंगी और धौंसपूर्वक वहाँ के मज़े लूट रही होंगी! मैं अभी सवाल-जवाब में ही उलझा था कि एक पंडालवाले ने रास्ता रोककर मुझसे प्रसाद ग्रहण करने का आग्रह किया। मैंने उसे प्रणाम कर आगे बढ़ने की कोशिश की, लेकिन तब तक तीन-चार पंडालसेवक मेरी मोटरसाइकिल के आगे खड़े हो गये—"अरे भाई! जाते कहाँ हो? प्रसाद लिए बिना तो आप नहीं जा सकते!" मैंने कहा—"आपका धन्यवाद भाई, लेकिन मुझे ऑफिस के देर हो रही है, फिर मैं घर से नाश्ता करके ही निकला हूँ। भूख-प्यास बिलकुल नहीं है!" लेकिन पंडालसेवक कहाँ हार मानने वाले थे, बोले—"शराफत से प्रसाद ले लो वर्ना...!" फिर सतर्क बोले, "ठीक है, आपको भूख नहीं है, लेकिन आपको हनुमान जी को अपमानित करने का भी कोई अधिकार नहीं! कटुए हो क्या?" उनकी तक़रार और ललकार के आगे मेरी एक न चली। मजबूरन प्रसाद ग्रहण करना पड़ा। ...मन-ही-मन हनुमान से प्रार्थना करने लगा, "बल-बुद्धि के स्वामी! इन पुण्यार्थियों को थोड़ी बुद्धि दे देते, तो हम जैसों का बड़ा उपकार होता!" पता नहीं हनुमान ने मेरी प्रार्थना सुनी कि नहीं, पर अगले पंडाल से आने वाली आवाज़ अवश्य सुनाई दी—
दुनिया चले न श्रीराम के बिना।
राम भी चले न हनुमान के बिना॥
ऑफिस पहुँचा, तो बाबुओं वाली ठसक से लबरेज़ चतुर्थ-श्रेणी कर्मचारी-सर्वश्री राम खेलावन पांडे और पहलवान बजरंगी लाल यादव ने दो सौ रुपये की तुरंता डिमांड रखी। कारण—अभी-अभी तय हुआ है कि ऑफिस के बाहर एक पंडाल लगाया जाएगा, जिसमें हनुमान जी के भक्तों को लड्डू खिलाकर ठंडा पानी पिलाया जाएगा। हम लोगों से भी तो दफ़्तर के काम-काज में गलती हो जाया करती है! इसलिए कुछ धर्म-कर्म करते रहने चाहिए।
मेरे ना-नुकुर करने पर उन्होंने प्रेरणा की संटी दिखायी—"जब बड़े साहब से पाँच सौ दिये हैं, तो आपको दो सौ तो देने ही पड़ेगे! मेरे पास निरुत्तर होने और ज़ेब ढीली करने के अलावा चारा ही क्या था? पांडे ने रुपये झपट लिये। मेरे चेहरे पर खिन्नता का भाव देख उन्होंने चुभने वाली समवेत मुस्कान फेंकी—" अभी तो तीन मंगल बाक़ी है साहब!