पुण्य स्मृति / मुकेश मानस

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1

“तीज-त्यौहार के दिन कहीं बाहर जाना ठीक ना है।”

सुबह की चाय का प्याला कमल को थमाते हुए रानो ने बोल ही दिया। दशहरे का त्यौहार है। त्यौहार के दिन आदमी को घर पर रहना चाहिए। वैसे तो कमल माल लेकर बाहर जाता ही रहता है। मगर पहली बार ऐसा हो रहा है कि वह त्यौहार के दिन बाहर जा रहा है। रानो को अच्छा नहीं लग रहा है। जबसे उसने सुना है कि कमल दशहरे के दिन माल लेकर करनाल जाएगा तभी से उसके भीतर खदर-बदर हो रही है। आज जब वो दिन आ ही पहुंचा तो रानो से रहा न गया।

“क्यूं ठीक ना है?” कमल थोड़ा झुझंला उठा। उसने रानो के चेहरे की तरफ देखा। उसके चेहरे पर प्यार और किसी आने वाले खतरे की शंका के मिले-जुले भाव थे।

“कल ना जा सकते?” अब रानो थोड़ा घबरा भी गई। उसने कह तो दी अपने मन की बात, पर उसे लगा कि कहीं कमल नाराज न हो जाए। किसी भी छोटी-सी बात पर कमल के चिढ़ जाने की आदत को अब तक वह अच्छी तरह से जान चुकी थी।

“औरतों की भी भली कही। जरा आदमी के बाहर जाने की बात सुनी नहीं कि लगीं घबराने। तू तो जानती है कि मेरा काम ही ऐसा है। तूने पहले तो कभी ऐसे नहीं किया। आज तुझे क्या हो गया?”

“कुछ ना बस ऐसे ही।” रानो थोड़ा सकुचाती हुई उसके पास आकर बैठ गई।

“घबराने की कोई बात ना है। फेर पहली बार तो जा ना रा। रामकुमार भी तो जा रे हैं साथ।” कमल ने उसका हाथ अपने हाथ में थाम लिया।

“वो बात ना है।” “फिर क्या बात है” “तीज त्यौहार के दिन आदमी को घर पर रहना चाहिए।” यह सुनकर कमल हंसने लगा। उसे हंसता देख रानो थोड़ा शरमा-सी गई।

“धंधे में तीज-त्यौहार ना देखे जाते, जानेमन।”

कमल के ‘जानेमन’ कहने के लहजे पर रानो की हंसी फूट पड़ी। उसकी हंसी अभी रुकी भी न थी कि कमल ने उसे अपनी ओर खींचा और उसको चूमने लगा। रानो हड़बड़ाकर एकतरफ हो गई।

“कोई आ जाएगा।” उसकी आंखो में शधर्म उतर आई और आवाज थरथराने लगी।

“कोई ना आता। मां पड़ौस में गई है। पिताजी चौपाल पर बैठ~ठे हैं। फिर कौन आएगा? मौका अच्छा है। तब तक हम थोड़ा प्यार कर लें।” उसने रानो को अपनी आगोश में भर लिया।

अभी एक साल भी तो नहीं हुआ है, दोनों की शादी को। कमल को आशा नहीं थी कि रानो इतनी खूबसूरत निकलेगी। रानो रंग-रूप में तो सुंदर थी ही, स्वभाव से भी मीठी और नरम थी। घर के काम-काज में भी एकदम चुस्त। आते ही घर के काम को इस तरह संभाला कि सास-ससुर एकदम खुश। उसकी शादी से पहले मां हरदम बड़बड़ाती रहती थी मगर घर में बहू के आते ही पूरी गऊ बन गई थी। रानो भी उसका खूब आदर करती। घर के सारे काम सास से पूछ-पूछकर करती। अगल-बगल वाली कमल को कहतीं- भौत सुघड़ बहू है रे तेरी।” भगवान जल्दी उसकी गोद हरी करे।” सुनते ही कमल शरमा जाता।

मां भी रानो की तारीफ करते नहीं थकती। पहले पिताजी भी कभी-कभार चौपाल पर जाकर बैठते थे वर्ना बाहर के कमरे में ही पड़े रहते थे। बहू के घर में आते ही वह भी जात-चौपाल में जाकर खूब बैठने लगे। जब कमल घर में होता तब तो बिना बुलाए आते ही नहीं।

“अब छोड़ो” - रानो उठकर कपड़े संभालने लगी।

“तू घबराती भौत है।” एक शरारत भरी मुस्कान के साथ वह रानो की ओर टकटकी लगाए देखने लगा। “दिन है।” रानो के खुद को कमल से छुड़ाने की कोशिश की। “तो क्या हुआ?” “बस करो” “जी नहीं भरा अभी।” “कभी नहीं भरेगा जी।” अभी दोनों में प्रेमालाप चल ही रहा था कि गली से मां की आवाज़ आई। कमल हड़बड़ाकर उठ गया। उसकी घबराहट देखकर रानो को हंसी आ गई। रानो उठकर बाहर के कमरे में चली गई। थोड़ी देर बाद बाहर के कमरे में मां की आवाज़ आई। “अरे बेट्टा। रामकुमार आया बैठ्ठा है चौपाल पर” “आऊं सू”

वैसे मन कमल का भी नहीं कर रहा था आज करनाल जाने को। उसे भी लग रहा था कि त्यौहार के दिन घर पर रहना चाहिए। रानो को कैसा लगेगा। त्यौहार का सारा मजा जाता रहेगा। न कुछ खायेगी, न पीयेगी सारी घड़ी इंतजार में बिता देगी। रानो का ख्याल कर-कर के थोड़ा मन तो उसका भी डोल रहा था। मगर क्या करता। धंधा तो धंधा है। फिर रामकुमार दिन तय कर आया था। अब उसकी बात कैसे टाले।

2

गांव के बाहर हाई स्कूल की एक पुरानी जर्जर इमारत थी। उसी में कमल ने दसवीं तक पढ़ाई की थी। आगे पढ़ने का उसका मन तो बहुत था मगर दसवीं में दो बार फेल हो जाने के बाद उसकी हिम्मत टूट गई। हार कर उसने पढ़ने का ख्याल अपने दिल से निकाल दिया।

पिताजी बड़ी मुश्किल से घर चलाते थे। ज़मीन-जायदाद तो थी नहीं। मेहनत-मजदूरी करके रोते-झींकते घर चलाते थे। यह उसे अच्छा नहीं लगता था। पढ़ाई छोड़ने के बाद उसने नौकरी के लिए बड़े हाथ पैर मारे। मगर ऐसा कोई काम उसे नहीं मिला जिसमें पैसा भी ठीक मिले और मन भी लगे। एक-दो साल उसने इसी तरह गुज़ार दिए। हालांकि पिताजी ने कभी उस पर यह ज़ाहिर नहीं किया था कि कमल का खाली बैठना उन्हें अखरता है। मगर मां का बड़बड़ाना कमल को बर्दाशत नहीं होता था। हारकर वह रामकुमार के साथ लग गया।

रामकुमार उसके ताऊ का लड़का था। वह आस-पास के गांवों से मरे जानवरों की खालें इक्ट्ठा करके उन्हें बेचने का काम करता था। उसने एक-दो बार कमल को अपने साथ लगने को कहा था मगर उसे यह काम पंसद नहीं था। रामकुमार ने उसे समझाया भी कि धंधे में काफी मुनाफ़ा है। मगर इस काम के लिए वह खुद को तैयार ही न कर पाता था। कमल के धंधे में आ जाने से रामकुमार का काम बढ़ गया। दोनों की साझेदारी हो गई। दो-तीन साल में उनका धंधा खूब चलने लगा, खूब मुनाफ़ा होने लगा। थोड़ी बचत करके उसने अपने पुराने घर को भी ठीक-ठीक करवा लिया। उसकी कमाई देखकर ही रानो का बाप उसके यहां रिश्ते की बात करने आया था।

शुरू-शुरू में कमल का मन धंधे में नहीं लगा। मगर धीरे-धीरे वह उसमें रम गया। अगल-बगल के कई गाँवों से उनके यहां चमड़ा आता था। जरूरत पड़ने पर दोनों घूम-घूमकर खालें इकट्ठी करते। रामकुमार के घर में खाली पड़ी एक कोठरी उनका माल गोदाम बन गई थी। ऐसा नहीं है कि केवल वही लोग इस धंधे में हैं। इस धंधे में मुनाफ़ा बहुत है। व्यापार जात-धर्म नहीं देखता। दूसरी कई उंची जातियों के लोग भी इस धंधे मे हैं। लेकिन कमल और रामकुमार काफी फल-फूल रहे हैं। चमड़ा निकालने वालों और चमड़ा व्यापारियों से उनके संबंध अच्छे हैं। इस वजह से लोग उनसे चिढ़ने भी लगे हैं।

चौपाल पर रामकुमार कमल के पिताजी के साथ गप्पे लड़ा रहा था। जाने क्या बात हुई थी दोनों के बीच कि पिताजी हुक्का पीना भूलकर बस हंसे जा रहे थे। कमल पहली बार अपने पिता को इतना खुलकर हंसते हुए देख रहा था। उसके दिल को बहुत सुकून-सा मिला। कमल को एकदम पास आया देखकर दोनों एकदम सुट्ट हो गए। उनको एकाएक खामोश होते देख वह मुस्कुरा उठा।

“क्या बात है?” “आओ कमल, बैठो” “बड़ी जल्दी आ गए” कमल के मुंह से अनायास निकल पड़ा। रामकुमार उसका मुंह देखने लगा। फिर दोनों एक धीमी हंसी के साथ हंस पड़े।

तोताराम आने वाला है ट्रक लेकर। यहां का माल भरकर दो-तीन जगह और चलना है। वहां का माल सीधे ट्रक में भर लेंगें।” “पर गोदाम में जितना माल है, उसी में ट्रक भर जायेगा।” “देखेंगे। जगह बची तो ठीक, वर्ना...!! तू गोदाम तक चल। मैं दो-तीन आदमी लेकर आता हूँ।” कहकर रामकुमार उठ खड़ा हुआ। फिर कमल के पिताजी से मुखातिब होकर बोला- “अच्छा ताऊ चलें। कल शाम तक लौटेंगे। चिंता मत करना।” “ठीक सै बेटा” कमल के पिताजी ने आर्शीवाद देने की-सी मुद्रा अपनाते हुए कहा। रामकुमार जब चला गया तो कमल से बोले- “बहू को बता दिया तूने।” “हां बता दिया।” कमल ने अपने भीतर उथल-पुथल मचा रही अनिच्छा को अपने पिता पर ज़ाहिर नहीं होने दिया। अपने भीतर खत्म न हो पा रही खदबदाहट लिए कमल गोदाम की तरफ चल पड़ा। संकरी सी गली में सामने से जगराम अपनी गाय को हांकता चला आ रहा था। कमल ठिठककर एकतरफ खड़ा हो गया।

“कहां ले जा रा है इसे” कमल ने यूं ही पूछ लिया। “अब क्या बताऊं भैया। घरवाले ना मानते। ले जा रहा हूँ कसाई के। जी खराब हो रा है।” जगराम रूआंसा सा हो रहा है।

कमल का मन भी करूणा से भर गया। इस गाय को वह पिछले कई सालों से देखता आया है। कभी-कभी उसे भी इस गाय का दूध पीने को मिला है। पिछली बार जब इसने एक सुंदर-सी बछिया को जन्म दिया तो सारे मुहल्ले में खीस बांटी गई थी। एक बार बीमार हुई तो जगराम और कमल ही ले गए थे उसे गुड़गांव की गऊशाला में दिखाने और दो दिन तक वहीं पड़े रहे थे। गाहे-बगाहे कमल जगराम के न होने पर उसकी सानी किया किया करता था। बड़ी सीधी गऊ है। उसने कभी किसी आदमी को कोई नुकसान पहुंचाया हो उसे याद नहीं पड़ता। अचानक कमल के भीतर प्यार उमड़ पड़ा। वह गाय की पीठ पर प्यार से हाथ फिराने लगा। गाय ने बड़े सहानुभूतिपूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखा। कमल उसे पुचकारने लगा।

“गऊशाला में क्यों ना छोड़ आता।” “गऊशाला वालों ने ना लिया। फिर हर महीने पैसा भी मांग रहे थे। गऊशाला के नाम पर कमाई करते हैं सब। अब बूढ़ी भी हो गई है। बार-बार बीमार पड़ जाती है। डाक्टर कै रा था अब ज्यादा जीयेगी नहीं। मैं तो घर पर ही रखना चाहता था। आंखों के सामने मरती तो सकून मिलता पर घरवाले ना मानते।” जगराम की आंखों में रूके आंसू बह निकले।

“मैं इसे सड़कों पर मरने को भी तो नहीं छोड़ सकता।” कमल ने जगराम की आंसुओं से भरी आंखें देखीं। “अच्छा! भगवान की यही मर्जी। ले जा भाई।” कमल ने आह भरकर गाय की पीठ थपथपाई। अच्छा भाई।” जगराम गाय को हांकता चला गया।

3

कमल उदास मन से गोदाम पर पहुंचा। तोताराम ट्रक लेकर गोदाम पर खड़ा था। साथ में राजू खलासी भी था। तोताराम कमल का सहपाठी था। पर उसने दसवीं के इम्तिहान दिए ही नहीं। पढ़ाई बीच में छोड़कर खलासी का काम करने लगा। उस्ताद की मिन्नतें करके ट्रक चलाना सीखकर उसने एक टाटा 407 फाइनेंस करा लिया था। पैट्रोल का खर्चा और किश्त निकालकर थोड़ी बचत हो जाती थी। घर चल जाता था उसका। घर उसका भी खस्ताहाल ही था। शादी हो गई थी। एक साल का बेटा भी था उसका। “कैसे हो?” “ठीक हूँ।” “ट्रक भर जाएगा पूरा।” “देखते हैं।” तभी रामकुमार दो मजदूरों को लेकर आ गया। “चलो भाई। भर दो जल्दी-जल्दी।”

दोनों में एक मजदूर ने जेब से पुड़िया निकालकर, खैंनी बनाई। दोनों ने खैंनी होठों में दबाई और काम पर लग गए। ये लोग भी उनका हाथ बंटाने लगे। तकरीबन ग्यारह-बारह बजे तक सब माल लोड हो गया। इसी बीच करनाल से चमड़ा व्यापारी गुप्ता का बेटा भी आ पहुंचा। वह करीब सत्तरह-अठारह साल का लड़का था। उसके चेहरे पर मौजूद खीझ से लग रहा था कि वह अपनी मर्ज़ी से नहीं आया है। वह पहली बार आया था माल उठवाने। “तू जाकर खाना खा ले। फिर चलते हैं” रामकुमार ने कमल को आदेश-सा दिया। फिर गुप्ता के बेटे को बोला- “चलो घर चलें। कुछ खाना-पीना हो जाए। थक गए होगे। थोड़ा आराम हो जाएगा।” रामकुमार गुप्ता के बेटे और तोताराम को अपने साथ लेकर चला गया।

कमल जल्दी-जल्दी घर पहुंचा। रानो दरवाजे पर ही खड़ी थी। मानो उसी का इंतजार कर रही थी। “लोड हो गया माल” उसने कमल के हाथ धुलवाते हुए कहा। “हां” कमल अनमना-सा हो उठा था। उसने जल्दी-जल्दी खाना खाया। मानो उसे बहुत जल्दी हो। इसी बीच वह लगातार रानो के चेहरे को ही देखता रहा। खाना खाकर वह चौपाल पर आकर बैठ गया। पिताजी अपनी खाट पर सो रहे थे। वह थोड़ी देर गुमसुम-सा चौपाल पर ताश खेल रहे लड़कों को देखता रहा। फिर उसे न जाने क्या सूझा। उठकर मुहल्ले में घूमने लगा। थोड़ी देर बट्टू की किराने की दुकान पर भी खड़ा रहा। फिर लौटकर गोदाम पर आ गया। रानो की समझदारी पर उसका मन खुश हो गया। वह रानो को राजू के बारे में बताना भूल गया था। पर उसने देखा कि रानो राजू को खाना दे गई थी।

दो-तीन घंटे बाद ये लोग गांव से चले। दो-तीन जगह से और माल उठाया। शाम उतरने लगी थी। गुड़गांव-झज्जर मार्ग पर करीब दस पन्द्रह मिनट चलने के बाद रामकुमार ने एक ढाबे के पास ट्रक रूकवाया। जगह देखकर कमल ट्रक रूकवाने का मतलब समझ गया। “आओ थोड़ा। ठंडा-वंडा पी लें” तोताराम ने अपनी सीट से नीचे उतरते हुए कहा। पांचों लोग ट्रक से उतरकर ढाबे में पड़ी बैंचों पर बैठ गए। ढाबे के लड़के को रामकुमार ने इशारे-इशारे में सब समझा दिया। थोड़ी देर बाद गुप्ता के लड़के और राजू के लिए ठंडे की बोतलें आ गई। कमल, रामकुमार और तोताराम के सामने कांच के गिलास और अलग-अलग प्लेट में सलाद।

रामकुमार ने बोतल की सील तोड़ी ओर पीना-पिलाना शुरू हुआ। पीना-वीना खत्म करके सब ट्रक में जा बैठे। तोताराम ने ट्रक स्टार्ट किया तो रामकुमार ने गुप्ता के लड़के से पूछा- “ज्यादा पैसे तो ना हैं आपके पास।” गुप्ता का बेटा इस सवाल पर चकराया। “आगे दुलना चौकी है। वहां पुलिस वाले बैठे होंगे।” “तो……………।” “हर चक्कर पर पांच सौ देने पड़ते हैं। छह सौ-सात सौ जेब में रख लो। बाकी तोता को दे दो। छुपा देगा। कहीं तलाशी ले ली तो सारे जाएंगे।” “ये भी करना पड़ता है।” “अरे आप पुलिसवालों को ना जानते। जब तक ठीक हैं तो ठीक है वरना किसी कसाई से कम नहीं।” रामकुमार ने समझाया।

गुप्ता के लड़के की समझ में आ गया। उसके पास तीन हजार रुपये थे। एक हजार निकालकर उसने बाकी रुपये तोता को थमा दिए। तोता ने रुपये लेकर ‘फुटमेट’ के नीचे छुपा दिए। तोताराम ने ट्रक झज्जर जाने वाले रास्ते पर छोड़ दिया। थोड़ी दूर जाने पर उसने राजू को आवाज दी। राजू पीछे खालों पर बैठा था।

“अरे सो मत जाइयो। वर्ना कहीं गिर पड़ेगा और पता भी नहीं चल पाएगा। हाथ-पांव टूटेंगे, सो अलग।” “ठीक है।”

मगर चलते ट्रक पर किसे नींद आती है। वो भी तब जब कोई खालों के ढेर पर बैठा हो। राजू को घंटों खालों के ढेर पर बैठे रहना अच्छा नहीं लगता। मगर क्या करे? काम है। हर चक्कर पर उसे तीन-चार सौ रुपये मिल जाते हैं। उसका खर्चा निकल जाता है। राजू नौवीं क्लास में पढ़ता है। घर की माली हालत खस्ता है। इसीलिए उसे ये काम करना पड़ता है। वैसे ये लोग उसे कभी डांटते-फटकारते नहीं। बड़े अच्छे लोग हैं। तोताराम तो उसे अपने छोटे भाई की तरह मानता है। सफ़र के दौरान उसके खाने-पीने, पानी-पेशाब का पूरा ध्यान रखता है। शुरू-शुरू में उसे चलते ट्रक पर खालों पर बैठे रहने में डर लगता था। मगर अब वह अनुभवी हो चुका है। ट्रक भागा जा रहा है। राजू खाली पड़े मैदानों, दूर-दूर तक लहलहाती फसलों और सड़क किनारे भागते पेड़ों को देखने में तल्लीन हो गया।

प्ट

दुलना पुलिस चौकी झज्जर शहर से दस-बारह कि0मी0 दूर है। गुड़गांव-झज्जर रोड़ पर प्राइवेट वाहन ही ज्यादा गुजरते हैं। इसका फायदा चौकी पर तैनात पुलिसवाले बखूबी उठाते हैं। जब पुलिसवालों की जेबें खाली होती हैं या उन्हें खाने-पीने का जुगाड़ करना होता है तो वे प्राइवेट वाहनों को ‘चेकिंग’ के नाम पर रोककर वसूली करते हैं। जितना पैसा चौकी वाले उगाहते हैं, उसमें से थाने का हिस्सा ईमानदारी से थाने पहुंचा दिया जाता है।

दुलना चौकी पर तकरीबन दस-बारह पुलिसवालों की तैनाती होती है। चौकी में दो कमरे हैं। एक कमरे में दफ़्तर बनाया हुआ है। इस कमरे में दफ़्तरी काम-काज का सामान व राइफलें रखी रहती हैं। दूसरा कमरा ‘चेंज’ व ‘रेस्ट’ रूम है। वैसे दोनों कमरों का इस्तेमाल सिपाही लोग अपनी जरूरत के हिसाब से करते रहते हैं। ‘दफ़्तर’ में वायरलैस हमेशा घरघराता रहता है। पर उसकी तरफ ध्यान कम ही दिया जाता है। चौकी के बाहर तीन-चार क्यारियां बनाकर उनमें फूल-पत्तियाँ उगाई गई हैं। बाहरवालों के लिए ये क्यारियाँ पुलिसवालों के प्रकृति प्रेम और अहिंसापूर्ण रवैये की परिचायक हैं। मगर यह बात जगज़ाहिर है कि न तो पुलिसवाले प्रकृति प्रेमी होते हैं और न अहिंसावादी।

शाम होते-होते दुलना चौकी पर सरगर्मी बढ़ गई है। पुलिसवाले वाहनों को ‘चेक’ करने का बहाना करके वसूली करने लगे हैं। पर अभी तक कुछ ज्यादा माल हाथ नहीं लगा है। एस0 आई0 एकदम सड़क के पास कुर्सी-मेज डालकर बैठा है। दो-तीन सिपाही सड़क पर वाहनों को चेक कर रहे हैं। अगर उन्हें लगता है कि किसी वाहन मालिक के कागज़-पत्तर पूरे नहीं है तो ऐसे वाहन मालिक से धमकाऊ अंदाज में बात की जाती है। अगर सिपाही मामले को अपने स्तर पर निबटा पाने में नाकामयाब रहते हैं तो वाहन मालिक को एस0 आई0 के पास पहुंचा दिया जाता है। अगर वाहन मालिक कोई छोटा-मोटा अफसर या सम्पन्न आदमी लगता तो ऐसे लोगों को एस0 आई0 धमकी देकर छोड़ देता है। ड्राईवर या सड़कछाप दिखने वाले लोग खुद ही चाय-पानी देकर जा रहे हैं।

सूरज जब ढलने को हुआ तो एस0 आई0 ने एक सिपाही को बुलाया। उसे कुछ रुपये थमाए और बोला - “झज्जर चले जाओ। समझे।” रुपये थामते हुए सिपाही ने जवाब दिया – “समझ गया साब।” सिपाही अपने अफसर का ईशारा समझता है। “ठीक है जल्दी जाओ और जल्दी आना”

सिपाही ‘ठीक है’ कहकर चला गया। सड़क पर जाकर उसने एक क्वालिस रूकवाई और उसमें बैठ गया। क्वालिस उसे झज्जर की तरफ ले गई। लगभग एक घंटे बाद जब सिपाही बगल में थैला टांगे लौटा तब तब एस0 आई0 पस्त हो चुका था। वह अपने सामने बैठे एक कार मालिक पर अपनी खीझ उतार रहा था। कार पर दिल्ली का नम्बर था। कार-मालिक कोई चालीस-पचास की उम्र का आदमी है। अच्छे कपड़े पहने हुए है। दिल्ली में किसी फाइनेंस कम्पनी का मैनेजर है। कार के कागज़ घर भूल आया है।

“देखिए कल गाड़ी सर्विस कराने को दी थी। कागज़ घर में रख दिए थे। सुबह जल्दी-जल्दी में घर से निकला और कागज़भूल गया।” कार मालिक एस0 आई0 को कन्विंस करने की कोशिश कर रहा था और एस0 आई0 उस पर अपना रूआब झाड़ रहा था। एस0 आई0 उसे ‘चाय-पानी’ की बात समझाने की कोशिश कर रहा है मगर वह समझ ही नहीं रहा था। एस0 आई0 मन ही मन में यह सोचकर चिढ़ रहा है कि साला है तो फाईनेंस कंपनी का मैनेजर, पर है बड़ा मूर्ख। सामान के साथ सिपाही को आया देख वह कुछ नरम हो गया। “अरे सुनो” उसने ईशारे से एक सिपाही को अपने पास बुलाया। ‘जी जनाब” सिपाही एस0 आई0 के आगे हाजिर हो गया। “साहब की गाड़ी का नंबर, घर का पता और फोन नम्बर नोट कर लो।” सिपाही समझ गया कि उसे क्या करना है। “आइए सर” यह कहकर वह कार के मालिक को अपने साथ ले गया। थोड़ी देर बार कार चली गई तो सिपाही वापस एस0 आई0 के पास आया। “कितने दे गया।” “तीन सौ साब” “बस तीन सौ।” “मैंने तो पांच सौ कहा था। पर मिन्नतें करने लगा कि इतने ही हैं।” “अरे तू नहीं जानता इन सालों को। ये बड़े रंगबाज होते हैं। खूब लुटाते हैं। अच्छा ला।” सिपाही ने सौ-सौ के तीन नोट उसके हाथ में थमा दिए। “आज कुछ खास नहीं बने। दशहरे पर तो ज्यादा आने चाहिए। अब जरा ठीक से पेश आओ समझे।” एस0 आई0 ने हिदायत दी। ठीक जनाब” सिपाही जाने लगा तो एस0 आई0 ने उसे रोक लिया और बोला- “कार-वार की बजाए ट्रक वाले पकड़ो और जरा सख्ती से झटको। समझे। अच्छा हां वो राम सिंह बता गया था कि चूहडों का ट्रक आने वाला है। ध्यान रखना। आयें तो सीधे मेरे पास लाना समझे।” “जी जनाब” सिपाही चला गया। करनालि से लौटने वाला सिपाही भीतर से पैग बनाकर लाया। “पानी ज्यादा तो नहीं मिलाया।” “ना जनाब। बढ़िया पैग बनाया है।“ “अच्छा-अच्छा बाकियों को भी पिला दे।” एस0 आई0 का दिल खुश हो रहा है। एस0 आई0 की एक बात सब सिपाहियों को पसंद है कि वो सबको बराबर पिलाता है।

लगभग आधे घंटे तक सबको नशा हो चुका था। तभी थाने से एक सिपाही और आ गया। फ्नमस्कार साब” “आ बिजेन्दर। आ गया तू। मैं तो सोच रहा था, तू आज आयेगा नहीं।” बिजेन्द्र झज्जर के एस0एच0ओ0 का रिश्तेदार है। इसलिए उसे थोड़ा भाव देना पड़ता है। मगर यह काम एस0 आई0 मजबूरी में ही करता है। वर्ना एक सिपाही की उसकी आगे क्या औकात? “थाने गया था जनाब।” “साब थे।” “थे जनाब। रामलीला ग्राउंड जाने वाले थे। कै रे थे कि साब को कहना कि आज तो कुछ ठीक-ठाक माल आना चाहिए।” “क्या ठीक-ठाक आएगा। कोई ढंग का बकरा फंसा नहीं अभी तक। वो चूड़े आने वाले थे वो भी नहीं आए अभी तक। जा अभी बची होगी। तू भी ले ले।” सिपाही एक हल्की मुस्कान लिए कमरे के भीतर चला गया।

थोड़ी देर बाद सिपाहियों ने रामकुमार के मिनी ट्रक को रूकवाया। रामकुमार को देखते ही एस0 आई0 की बांछें खिल गई। रामकुमार ने एस0 आई0 को सलाम ठोकी और एक पल की भी देरी किए बगैर पांच सौ रुपये निकालकर एस0 आई0 की तरफ सरका दिए। “बस पांच सौ।” एस0 आई0 ने नोट गिने। फिर एकाएक उसने सारे रुपये रामकुमार के मुंह पर दे मारे। “और निकाल। तूने दारु पी रखी है ना। तेरे ड्राईवर ने भी पी रखी होगी। दारु पीकर गाड़ी चलाने के ही पांच सौ होते है। और निकाल।” “बस आज तो इतने है साब।” रामकुमार थोड़ा चापलूसी के लहजे में बोला। “साले हजारों का माल इधर-उधर करते हो और मुझे थमाते हो, ये पांच सौ रूपल्ली। जा और निकाल के ला।” एस0 आई0 की आवाज में तलखी बढ़ने लगी। रामकुमार का दिल धुक-धुक करने लगा। “नाराज क्यों होते साब। आप कहो तो...” “आज तो भाई पूरे पांच हजार देने होंगे। तब काम चलेगा।” “पांच हजार तो मुश्किल है साब। चार-पांच सौ और हैं।” रामकुमार की घबराहट बढ़ चली थी। उसके माथे पर पसीना झलक आने को बेताब था। “मेरे से चालाकी मत दिखा। पांच हजार ला शराफत से, वर्ना गाड़ी पास नहीं होगी कह दिया...!!” “पांच हजार तो साब कमाई भी नहीं होगी चक्कर पे।” रामकुमार हकलाने लगा। “ज्यादा साणपट~टी मत कर। मुझे पता है होंगे तेरे पास। ले आ वर्ना माल जब्त कर लूंगा। समझा।” अब की बार एस0 आई0 गरज उठा । नशे और तेज आवाज से उसके चेहरे पर क्रूरता झलक उठी।

देर होती देख तोताराम और कमल भी ट्रक से उतर आये। उन्होंने भी पहले एस0 आई0 को राम-राम टोकी। “अरे समझाओ इसे।” एस0 आई0 अपनी रौबदार मूंछों को सहलाने लगा। “क्या हुआ?” तोताराम ने रामकुमार की रोनी सूरत देखी। “साब पांच हजार मांग रहे हैं।” रामकुमार घिघियाया “पांच हजार” सुनकर दोनों को जैसे सांप सूंघ गया। “अब कहां से लांऊ पांच हजार।” रामकुमार रोने को हो आया। “ईमान से साब। सब मिलाकर हजार से ज्यादा ना हैं हमारे पास। आज इतने ही ले लो। बच्चे हैं आपके।” तोताराम ने रामकुमार के सुर में सुर मिलाया।

“अच्छा तो पूरी पिलानिंग, करके आए हो। मैं सब समझता हूँ तुम्हारी पिलानिंग! जब डंडा पड़ेगा चूतड़ों पर तब पता चलेगी तुम्हारी पिलानिंग। बिजेन्दर...!!!’ एस0 आई0 ने जानबूझकर बिजेन्द्र को बुलाया। बिजेन्द्र दौड़ता हुआ आया।

“लगा दे सालों को लाईन में और लगा इनके चूतड़ों पर” अबकी एस0 आई0 पूरे जोर से दहाड़ा। “साब रहम करो। बच्चे हैं आपके। ईमान से कहता हूँ इससे ज्यादा ना हैं।” रामकुमार हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा। “साले चूड़े। मुझे उल्लू समझता है। गैर-कानूनी काम करते हो और पुलिस वालों से साणपट्टी करते हो।” ‘हम क्या खा के साणपट्टी करेंगे साब। हम कोई गैर-कानूनी का ना करते। इस काम का परमट है हमारे पास।” कमल को ताव आ गया था और वह खुद को रोक नहीं पाया।

बात तो कमल ने सही कही थी मगर गलत वक्त पर कही थी। एस0 आई0 का गुस्सा काबू से बाहर हो गया। नशा तो था ही। उसने आव देखा ना ताव और कमल पर बरस पड़ा।

“परमट दिखाएगा बहन चोऽऽऽऽद, साऽऽऽऽले चूहड़े। मुझे परमट दिखाएगा।”

उसके लात-घूंसे पड़ते जाते थे और कमल की चीख बढ़ती जाती थी। सभी सहमे से उसे पिटता देखते रहे। एकाएक जैसे रामकुमार को होश आया। वह कमल को बचाने लगा।

“माफ़ कर दो साब। बच्चा है! छोड़ दो साब, दया करो।” थोड़ी देर बाद एस0 आई0 ने उसे छोड़ दिया। लेकिन तब तक कमल लहू-लुहान हो चुका था। तीन-चार सिपाही भी वहाँ आ गए। “लगा दो सबको लाईन में। मुझे परमट दिखाएगा।” एस0 आई0 ने कमल की ओर खा जाने वाली निगाहों से देखा! “ले जाओ इस मादर..चोऽऽऽद को। तलाशी लो। समझे।” दो सिपाही कमल को पकड़ की भीतर ले जाने लगे तो रामकुमार एस0 आई0 के पैरों में पड़ गया। “नया-नया है साब। यह कुछ नहीं जानता। छोड़ दो साब।” एस0 आई0 ने उसे जूते की ठोकर मारी। जूता रामकुमार के पेट में लगा। रामकुमार बिलबिला उठा। “साले मुझे परमट दिखाते हो। अब निकालूंगा तुम्हारा परमट।” एस0 आई0 दहाड़ा।

कमल को कमरे से भीतर लाकर सिपाही उस पर डंडे बरसाने लगे। भीतर से कमल की दिल दहला देने वाली चीखें सुनकर रामकुमार का दिल दहल उठा। तोताराम दौड़कर गया और फुटमैट के नीचे रखे रुपये ले आया। उसके पीछे-पीछे गुप्ता का लड़का भी आ गया। “साब आपके पांव पड़ता हूँ। भगवान कसम इससे ज्यादा ना हैं। अब छोड़ दो साब। रहम करो।” अब तोताराम भी गिड़गिड़ाने लगा। बस यहीं चूक कर गया तोताराम। नोट देखकर एस0 आई0 की आंखें चमक उठीं। उसे लगा कि हो न हो इनके पास माल तो है पर निकाल नहीं रहे। एस0 आई0 पर जैसे भूत सवार हो गया था। उसने दो सिपाहियों को बुलाया और तोताराम की तरफ ईशारा करके बोला-” ले जाओ इसे और इसके चूतड़ों में मिर्चें भर दो।”

रामकुमार बुरी तरह कांपने लगा। तोताराम रो पड़ा।

“साब अब सच में नहीं है। छोड़ दो साब। माफ कर दो” तोताराम रोते हुए मिमियाने लगा।

कमरे के भीतर सिपाही कमल पर डंडे बरसा रहे थे। कमल अधरा हो चुका था। उसकी चीखें अब भीतर घुट रही थीं। एक सिपाही ने नशे के जोर में उसका सिर दीवार पर दे मारा। कमल का दम रुक गया। उसे ऐसा लगा कि उसका आखिरी वक्त आ गया है। रानो का मासूम और प्यार से भरा चेहरा उसकी आंखों में तैर गया। उसे रानो की बात याद हो गई। उसकी आंखों से आंसू बह निकले। फिर एक हिचकी के साथ उसकी आंखें पलट गई और उसका शरीर निढाल हो गया।

“अबे साले नाटक मत कर। तेरे जैसे बहुतों को ठीक किया है। तू किस खेत की मूली है साले चूड़े।”

सिपाही अब जूते की ठोकरें मार रहा था। मगर कमल न तो कोई प्रतिवाद कर रहा था, न कोई आवाज। सिपाही रुक गया। दूसरे सिपाही ने उसे छूकर देखा। फिर वह तेजी से बाहर चला गया। एस0 आई0 ने सुना तो उसके हाथों के तोते उड़ गए। “अबे क्या कर दिया सालो। कहीं मार तो नहीं दिया।” एस0 आई0 घबरा गया। वह तेजी से भीतर गया, कमल को छुआ। एकदम निर्जीव और निस्पंद देह।

“मरवा दिया सालो। मार दिया। अब फंसे सब के सब’ एस0 आई0 ने वायरलैस उठाई और जल्दी-जल्दी सारा वाक~या एस0एच0ओ0 को सुनाने लगा।

5

एस0एच0ओ0 झज्जर रामलीला ग्रांउड पर खड़ा मूंगफली खा रहा था। मूंगफली खाते हुए उसकी नज़र एक जवान औरत पर टिकी हुई थी। गाढ़े कत्थई रंग की साड़ी पहने हुए थी। भीड़ में एक तरफ खड़ी दो लड़कियों से मुस्का-मुस्का कर बात कर रही थी। थी एकदम गोरी-चिट्टी। पीछे से पीठ और गर्दन नुमायां हो रहे थे। जब कभी दिशा बदल लेती तो उसकी जबरदस्त छातियों का उभार एस0एच0ओ0 महसूस करता और उसके मुंह से हल्की सिसकी निकल जाती। वह बीच-बीच में नजरें इधर-उधर घुमा लेता ताकि कोई यह न समझे कि वह उसे घूर रहा है। लेकिन घूम-फिरकर उसकी निगाह उसी औरत पर टिक जाती।

‘यहाँ की नहीं लगती ये” - वह फुसफुसाया “क्या जनाब” उसके साथ खड़े जीप ड्राईवर ने ऐसे कहा मानो उसने कुछ सुना ही ना हो। कुछ नहीं” - एस0एच0ओ0 थोड़ा संयत होकर बोला- “मैं कह रहा था कि मूंगफली अच्छी है। बाहर का माल है शायद” वह थोड़ा शरमा भी गया कि कहीं जीप ड्राईवर ने सुन न लिया हो। “पता नहीं साब। आजकल हर चीज में मिलावट है।”

एस0एच0ओ0 की निगाहें फिर उसी औरत पर जा टिकी। एस0एच0ओ0 के भीतर एक सिहरन सी दौड़ रही थी। उसकी इच्छा हो रही थी कि उस औरत का पल्लू गिर जाए। तभी भीड़ में हलचल हुई और उस औरत का पल्लू सरक गया। एस0एच0ओ0 ने उस औरत का पेट देखा। एकदम भूरा भक्क।। नाभी देखी। गहरी और गोल।। उसके मुंह से आह निकली।

“भीड़ बढ़ रही है साहब।” जीप ड्राइवर ने फिर उसकी एकाग्रता तोड़ी।

तभी हेड कांस्टेबल तेजी से उसके पास आया। उसके हाथ में वायरलैस घनघना रहा था। “साब दुलना चौकी से मैसेज है।”

एस0एच0ओ0 ने वायरलैस अपने हाथ में ले लिया। उसने मैसेज सुना तो उसके पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई।

“साले, तू क्या सो गया था। करा ली न अपनी मां की...!!!!”

उसको इस तरह दहाड़ता देखकर जीप ड्राईवर और हेड कांस्टेबल सकपका गए।

“क्या हुआ साब?” घबराहट भरी आवाज़में प्रश्न फूट पड़ा दोनों के मुंह से। “दुलना एस0 आई0 ने मां चोऽऽऽऽद दी।” वह चीखा।

भीड़ में खड़े कुछ लोग उसकी तरफ देखने लगे। उसने अपनी आवाज़ की तेजी पर काबू किया और जीप में जाकर बैठ गया। जीप में वह सोचने लगा कि क्या किया जाए। फिर एकाएक उसे कुछ सूझा। वह धीमी आवाज़ में एस0 आई0 को कुछ समझाने लगा। “समझ गया। मैं आधे घंटे में पहुंचता हूँ।” फिर उसने हेड कांस्टेबल को अपने पास बुलाया- “थाने जाओ। थाने में जितने सिपाही हों, उन्हें भरकर चौकी पहुंचो। नायब तहसीलदार और मजिस्ट्रेट साब को खबर कर दो। इन्वेस्टीगेशन टीम बुला लो जल्दी। समझे”

हेड कांस्टेबल अपनी मोटरसाईकिल पर तेजी से चला गया।

थोड़ी देर बाद स्टेज पर माइक में एक सफेद खद्दरधारी बोला- भक्तो। एस0एच0ओ0 झज्जर साब आपसे कुछ कहना चाहते हैं।” फिर उसने माइक एस0एच0ओ0 की तरफ बढ़ा दिया।

एस0एच0ओ0 बोला- “भाईयो और बहनो!! आज हिन्दुओं का पावन-पवित्र त्यौहार है। यह बुराई पर अच्छाई और अन्याय पर न्याय का प्रतीक है। मैं इस मौके पर अपने सब हिन्दू भाइयों को बहुत-बहुत बधाई देता हूँ।।”

भीड़ ने तालियाँ बजाई। उसकी हिम्मत बढ़ गई। वह फिर थोड़ा भाषणी अंदाज में बोला- “अयोध्या के राजा भगवान श्री राम ने एक रावण को मारकर पाप का विनाश किया था। मगर आज भी हमारे देश में हजारों रावण मौजूद हैं। हिन्दू राष्ट्र की आजादी के लिए हिन्दुओं ने अनगिनत कुर्बानियाँ दीं। कुछ लोगों ने पाकिस्तान मांगा। हमने उन्हें दिया। कुछ यहीं रह गए। हमने रहने दिया सोचा था सुधर जाएंगे। मगर अफसोस इन लोगों ने अपनी नीचता और अपना स्वभाव नहीं छोड़ा। मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि दशहरे के पावन मौके पर इन लोगों ने एक बार फिर अपनी नीचता दिखाई है।” भीड़ में सन्नाटा छा गया।

“भाइयो और बहनो! अब मैं ज्यादा देर आपके बीच नहीं रुक सकता। मुझे दुलना चौकी जाना है। वहाँ एक अमानीय घटना घटी है। मुझे अभी-अभी एक बुरी खबर मिली है कि पांच मुसलमान दुलना चौकी के पास वाले मंदिर पर गऊकशी जैसा घिनौना काम कर रहे थे। उन पांचो को पकड़ लिया गया है। इस समय वे हत्यारे दुलना चौकी के लाक-अप में बंद हैं। वहाँ काफी भीड़ जमा हो गई है और उत्पात मचाने पर आमादा हैं।”

भीड़ अचानक सक्रिक हो उठी और नारे लगाने लगी-”गऊ के हत्यारों को, गोली मारो सालों को।” भीड़ के बीच से उठने वाला शोर सारे रामलीला ग्राऊंड में फैल गया। एस0एच0ओ0 मन ही मन बहुत खुश हुआ। उसने भीड़ को शांत होने का ईशारा किया। मगर भीड़ शांत नहीं हुई। माईक पर एस0एच0ओ0 की आवाज़ फिर गूंजी-भक्तों शांत हो जाइए। हिन्दू लोग शुरू से ही अहिसांवादी और न्याय प्रिय रहे हैं। दशहरे जैसे त्यौहार पर यह भयानक अमानवीय कांड है। मैं जानता हूँ कि यह कांड विदेशी ताकतों ने करवाया है। मगर हमने भी हाथों में चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा।” यह कहकर वह मंच से नीचे उतरकर तेजी से अपनी जीप में बैठ गया। उसके भाषण ने अपना काम कर दिया था। भीड़ उसके पीछे-पीछे चल पड़ी।

करीब दस-पन्द्रह मिनट में एस0एच0ओ0 चौकी के पास पहुंच गया। वहाँ पूरी तरह से ट्रैफिक जाम था। यह देखकर वह बहुत खुश हुआ। काम उसकी योजना के अनुरूप हुआ था। करीब एक कि0मी0 पैदल चलकर वह चौकी पर पहुंचा। चौकी पर उसकी आशा से ज्यादा लोग जमा थे। मिनी ट्रक धू-धू करके जल रहा था। कुछ नेता जैसे लोग भीड़ से नारे लगवा रहे थे। वह एस0 आई0 के पास जाकर खड़ा हो गया। उसने कनखियों से एस0 आई0 की ओर देखा और मुस्कुराया। एस0 आई0 के चेहरे पर अब घबराहट नहीं थी बल्कि वह जीत की भावना से भरा हुआ था। एस0 आई0 ने दिखाने के लिए उसे पूरी वारदात बयान की।

भीड़ लगातार नारे लगा रही थी। नारों में भीड़ की घृणा चारों तरफ उमड़ रही थी। वहाँ खड़े सब लोग जैसे एक असीमित घृणा के भाव के साकार प्रतीक चिन्ह थे। एस0एच0ओ0 लगातार भीड़ को शांत करने का बहाना कर रहा था। मौके पर इलाका तहसीलदार और सिटी मजिस्ट्रेट भी पहुंच चुके थे। वे भी भीड़ को समझाने का प्रयास कर रहे थे। तकरीबन आधे घंटे तक गहमा-गहमी होती रही। आध घंटा बाद भीड़ भी ठंडी पड़ने लगी।

“भाइयो, शांत हो जाइए।” - एस0एच0ओ0 चीखा “कानून को हाथ में लेने का किसी को हक नहीं। ये लागे मारे जा चुके हैं। आपने उन्माद में यह काम किया, गलत किया है। हमें जवाब देना होगा। मगर आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि अपने-अपने घरों को लौट जाइए। कानून को अपना काम करने दें।” “गाय के हत्यारों को, सजा देना पाप नहीं” - भीड़ एक बार फिर गूंजी। बढ़ती भीड़ को देखते हुए एस0एच0ओ0 ने पांचो लाशों को उठवाया। पुलिस घेरा बनाकर उन्हें भीड़ से बाहर लाई। जीप में उनको डाला गया और झज्जर पहुंचा दिया गया।

6

अगले दिन दिल्ली के अखबारों की हेडलाईन थी- “गऊकशी करते पकड़े गए पांच दलित युवकों को उन्मादी भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला।” खबर में एस0एच0ओ0 का स्टेटमेंट था- “यह सब उन्मादी भीड़ का काम है। भीड़ ने उन्हें मुसलमान समझकर मारा। बाद में शिनाख्त से पता चला कि वे पांचों दलित लड़के थे। एक बेहद खेदजनक काम किया है भीड़ ने। क्राईमब्रांच के एक वरिष्ठ अफसर मामले की तहकीकात कर रहे हैं। दोषी जल्दी ही पकड़े जायेंगे।” इन्हीं अखबारों के राज्य वाले पृष्ठ पर झज्जर की गऊशाला के अध्यक्ष का बयान था और परिषद के जिला अध्यक्ष की उदघोषणा- “एक गाय की जान पांच दलितों की जान से ज्यादा मूल्यवान है। गऊभक्तों ने गाय के हत्यारों को मारकर हिन्दू धर्म की लाज रख ली। उनके इस काम पर शर्मिन्दा होने की जरूरत नहीं। हमें उन गऊभक्तों पर गर्व है। उन्होंने एक पुन्य का काम किया है। हम राज्य सरकार से मांग करते हैं कि जहाँ गाय माता का वध हुआ, उस स्थल को पुन्य स्थल घोषित किया जाए। वहाँ एक विशाल गौ मन्दिर बनवाया जाए ताकि इस पुन्य स्थल की स्मृति बनी रहे।”

दुलना चौकी पर जो वाक्या घटित हुआ था उसकी भनक तक कमल, रामकुमार, तोताराम और राजू के गांवों को नहीं थी। रानो आंखों में एक अजीब-सा अकेलापन लिए कमल की राह देख रही थी। तोताराम की बीवी अपने नन्हे बेटे को तोतली आवाज में बता रही थी कि पापा आने वाले हैं। राजू की मां सोच रही थी कि त्योहार पर वह घर होता तो कितना अच्छा होता। व्यापारी गुप्ता सोच रहे थे कि बेटा माल लेकर अभी तक आया क्यों नहीं? 2003