पुनर्जन्म फिल्में : 'गहरा भेद और बात जरा सी' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :27 मार्च 2017
अनुष्का शर्मा द्वारा निर्मित फिल्म 'फिल्लौरी' एक उबाऊ फिल्म है। अनुष्का शर्मा की पहली निर्मिति 'एनएच टेन' अत्यंत प्रभावोत्पादक फिल्म थी। उस फिल्म से हमारे असुरक्षित महानगरों का कच्चा चिट्ठा सामने आ जाता है। यह संभव है कि सुरक्षा हमारा गढ़ा हुआ मिथ है। कौन कहां कितना सुरक्षित है? राह पर चलते हुए एक अदृश्य चाकू पीठ पर कभी भी धंस सकने का एहसास बना रहता है। महान विचारक डॉ. अपूर्व पौराणिक का विश्वास है कि गुजश्ता सदियों से यह अधिक सुरक्षित कालखंड है। उनके विश्लेषण पर अविश्वास नहीं किया जा सकता परंतु स्वयं को सुरक्षित महसूस करना केवल जीने तक सीमित है, जबकि अनेक लोग जीने का अभिनय कर रहे हैं और अपनी भूमिकाओं में इतने तल्लीन है या इतने अधिक रमे हुए हैं कि इसे ही सत्य मान रहे हैं। याद अाता है अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म मिस्टर नटवरलाल का संवाद 'यह जीना भी कोई जीना है लल्लू।'
इसी तरह अकाल की भयावह संभावनाओं को भी डॉ. अपूर्व पौराणिक नकारते हैं। सत्यजीत राय ने अपनी फिल्म 'अशिनी संकेत' में यह रेखांकित किया था कि अकाल मनुष्य के लोभ-लालच द्वारा रचे जाते हैं और अपनी विलक्षण प्रतिभा से उन्होंने इस तथ्य को इस तरह रेखांकित किया कि हरे-भरे वृक्षों से घिरे स्थान पर अकाल से मृत्यु हो रही है। अब आप महान सत्यजीत राय और विद्वान डॉ. अपूर्व पौराणिक से मतभेद कैसे रख सकते हैं। एक संपन्न देश और एक खुशहाल एवं निर्भय देश में अंतर होता है। यह एक क्षीण संभावना है कि डॉ. अपूर्व पौराणिक ने डोनाल्ड ट्रम्प और उन जैसे ही लोगों का सत्तासीन होना नज़रअंदाज कर दिया हो। चमड़े के सिक्के चलाने वाले भी शहंशाह हुए हैं। बुद्धि और विज्ञान की इस विस्फोटक सदी में पागलपन भी बड़ा है। हिटलर के मंत्री गोएबल्स का विश्वास था कि एक झूठ को सौ बार बोलने पर लोग उसे सत्य मान लेते हैं। आज के मदांध सत्तासीन लोगों को की तुलना में गोएबल्स दूध पीता बच्चा नज़र आता है। हर क्षेत्र में आम आदमी को कट्टरता का हिमायती बना दिया गया है। जाने कहां से आया इस्पात हमारी विचार प्रक्रिया में समा गया है। काश विज्ञान की कोई प्रक्रिया विचारशैली में समाए इस्पात को यथार्थ के इस्पात में बदल पाती तो आवास की समस्या हल हो चाती।
बहरहाल, फिल्लौरी में प्रेमी युगल 1919 में मर जाते हैं और वे दोबारा 2017 में प्रकट होते हैं। फिल्लौरी भटकती आत्माओं और वर्तमान के पात्रों के संवाद की कथा है। इसे पुनर्जन्म नहीं कहा जा सकता। इस बार उनका मिलन होता है। ये कथाएं समानांतर चलती हैं। प्रस्तुतीकरण में सरलता नहीं है वरन जान-बूझकर दुरुह किया गया है। पुनर्जन्म केंद्रित प्रेम कथा का भ्रम कमाल अमरोही की 'महल' में प्रस्तुत हुआ परंतु इस श्रेणी की सर्वोत्तम फिल्म बिमल राय की 'मधुमति' है, जिसकी कथा ऋत्विक घटक ने लिखी थी, क्योंकि बिमल रॉय को बॉक्स ऑफिस पर भव्य सफलता की दरकार थी अन्यथा वे कोलकाता लौट जाने का मन बना चुके थे। जन्म-जन्मांतर जारी रहने वाली इस प्रेम कथा फिल्म में सलिल चौधरी व शैलेंद्र ने न भूल पाने वाला माधुर्य रचा था। 'मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी, भेद यह गहरा बात जरा सी' कबीरनुमा पंक्तियां थीं। अमीर खुसरो, कबीर और रवींद्रनाथ टैगोर के प्रभाव अधिकतम सृजनधर्मी लोगों पर रहे हैं। इसे हम सृजन क्षेत्र का पुनर्जन्म मान सकते हैं। 'मधुमति' के कुछ वर्ष पश्चात सुनील दत्त एवं नूतन अभिनीत 'मिलन' भी इसी तरह की फिल्म थी। कुछ वर्षों के पश्चात सुभाई घई ने पुनर्जन्म अवधारणा से प्रेरित 'कर्ज' बनाई, जो दरअसल, 'री-इनकार्नेशन ऑफ पीटर प्राउड' से प्रेरित थी परंतु मूल फिल्म में पत्नी फिर अपने पति को मार देती है और कहती है कि कितनी भी बार जन्म लो, मैं हर बार तुम्हें मारूंगी। ग्वालियर में पवन करण व साथियों द्वारा आयोजित परिसंवाद 'सिनेमा में स्त्री' में इस फिल्म का उल्लेख नहीं हो पाया। आखिर क्या अपराध था उस पति का कि उसकी पत्नी उसे हर नए जन्म में मारना चाहती है? इस संवाद की व्याख्या में एक किताब लिखी जा सकती है, जिसमें शेक्सपीयर की यह बात भी शामिल होगी कि अपमानित स्त्री से अधिक खतरनाक घायल शेरनी भी नहीं होती। द्रौपदी के अपमान का परिणाम हम सभी जानते हैं। अपमानित अंबा के क्रोध का परिणाम तो भीष्म ितामह को भी दंश दे गया। कल्पना करें कि तीरों की शय्या पर उत्तरायण में प्राण तजने वाले भीष्म पितामह से अंबा आकर पूछे कि क्या अगले जन्म में उसे वे अपनाएंगे! इस जन्म में भीष्म ही उसे विवाह मंडप से उठा लाए थे। मगर भीष्म मौन स्वीकृति भी अभिव्यक्त करें तो उनकी शपथ भंग होे जाती है।
बहरहाल, चेतन आनंद की 'कुदरत' पुनर्जन्म से प्रेरित श्रेष्ठ फिल्म है। राहुलदेव बर्मन ने अपने पिता सचिन देव बर्मन की 'मधुमति' के समकक्ष आने का प्रयास किया था। चेतन आनंद का प्रिया राजवंश के लिए मोह ही इस महान प्रयास को ले डूबा। व्यक्तिगत प्रेम और व्यवसाय के बीच की लक्ष्मण रेखा का अर्थ चेतन आनंद ने जानकर अस्वीकार किया यही हठ चेतन आनंद के सिनेमाई पोएटिक्स की आधारशिला भी रही है। पुनर्जन्म अवधारणा पर अमेिरकी फिल्म 'बीइंग बोर्न' में नए जन्म में पति आठ वर्षीय बालक है और विगत जन्म की प्रेमिका बाइस वर्ष की है। इस अवधारणा पर कर्नाटक के भैरप्पा का उपन्यास 'दायरे आस्थाओं के' एक महान रचना है। इस रचना में विधवा 38 वर्ष की है और पति की मृत्यु के समय वह गर्भवती थी। उसका पुत्र विज्ञान का छात्र 18 वर्ष का है और उसके स्वर्गवासी पति अपने पुनर्जन्म में 18 वर्ष के हैं। अपने श्वसुर की जिद के कारण वह अपने स्वर्गवासी पति के इस जन्म में 18 वर्षीय व्यक्ति से विवाह के लिए मजबूर कर दी जाती है गोयाकि उसका मौजूदा पति और पुत्र समान आयु के 18 वर्षीय युवा हैं। इस विषय पर खाकसार ने फिल्म बनाने का प्रयास किया था। आज दीपिका, रणवीर कपूर और रनवीर सिंह अभिनीत फिल्म बन सकती है। केवलआदित्य चौपड़ा इसे संभव कर सकते हैं।