पुनर्लग्न / कमलेश पुण्यार्क
पुनर्लग्न यानी पुनर्विवाह के औचित्य पर विचार करने के पूर्व ‘विवाह’ को ही समझना आवश्यक है। और उससे भी पूर्व विवाह के घटकों,पुरूष और नारी को समझना जरूरी है। पुरूष तो पुरूष है। सृष्टि में सारा कुछ उसी का है। सब उसका ही किय-कराया है। किन्तु, बेचारी नारी! कहाँ कुछ रहने दिया गया उसका? वह तो पुरूष के हाथ की कठपुतली बन कर रह गयी। कहने को तो सब कुछ उसी का है,परन्तु शायद कुछ भी नही। ‘‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,आँचल में है दूध और आँखों में पानी। ’’
बहुत दिनों पहले किसी पत्रिका के पन्नो में,जिसमें पारचूनी सामान बँधकर आया था,पढ़ने को मिला एक अधूरा सा लेख, जिसमें स्वनाम धन्य समाजशास्त्री जे.बी.वाटसन ने प्रश्न चिन्ह लगाया था--
‘‘क्या विवाह संस्था अगले ५० बर्षों बाद भी जीवित रह सकेगी ?’’
‘?’ प्रश्न विचारणीय,और उचित सा लगा। अतः विचारवीथियों में मँड़राने लगा।
‘वि’ उपसर्ग एवम् ‘वह्’ धातु से बना शब्द विवाह का अर्थ होता है,विशेष रुप से उठाकर ले जाना। इसका एक सौतेला भाई भी है- ‘परिणय’ जो ‘परि’ उपसर्ग ‘नी’ धातु से बना है। इसका अर्थ है- पूरी तरह से ले जाना। ले जाने वाले को ‘बोढ़ा’ कहते हैं। इस क्रम में कुछ और भी शब्द हैं- ‘पा’ रक्षणे धातु से बना शब्द पति यानी रक्षा का दायित्व वाला,और दूसरा शब्द है- भर्ता यानी भरण-पोषण करने वाला। पता नहीं शब्दों के इस भीड़ में नारी कहाँ खो गयी?
दरअसल नारी भटकती रही,अपने अस्तित्व की तलाश में;और अन्त में विवश होकर बन गयी, ‘इन्क्यूबेटर’ और ‘जेनरेटर’,अण्डा सेने और जनने वाली मशीन मात्र।
किन्तु प्रश्न है,क्या वह बन गयी या बना दी गयी? क्यों कि ‘स्व’हीन कुछ बन कैसे सकता है? बनाया भले जा सकता है।
सृष्टि-सिद्धान्त बतलाता है कि निर्गुण-निराकार ब्रह्म में जब विकार उत्पन्न होता है,तब सगुण और साकार होकर दो खण्डों में विभाजित हो जाता है- ‘पुरुष और नारी’ । दो खण्ड,दोनों अधूरे,दोनों अपूर्ण। टुकड़े अपूर्ण ही तो रहेंगे। अतः पुनः पूर्णता का प्रयास किया गया। विवाह ने बन्धन-सूत्र का कार्य किया,और सार्थक हो गया नियम सृष्टि का। सृष्टि का छकड़ा चल पड़ा;चला ही नहीं बल्कि दौड़ पड़ा।
अब जरा दूसरी ओर झांकें। नीति उपदेश है- ‘अदम्य के दमन का आसान उपाय है, अपरिमित गुणगान। ’ अतः ‘शक्ति’ को निष्क्रिय बनाकर उसके गुणगान किये जाने लगे-‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता’-ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं,जो चीख-चीख कर नारी महिमा की ‘भट्ट प्रसस्ति’ में अग्रणि हैं। स्तुतिगान का ‘क्लोरोफॉर्म’ धीरे-धीरे अचेत करता गया;और एक दिन ऐसा आया कि शक्ति स्वरुपा नारी सर्वथा अशक्त होकर पुरुष के हाथ की कठपुतली बन गयी। अस्तित्व हीन हो गयी।
हालांकि यह सब झमेला प्रारम्भ में नहीं था,किन्तु था कहीं ज्यादा खतरनाक। श्रुति से स्मृति पर्यन्त,उपनिषद् से पुराण और इतिहास तक कई प्रसंग मिलते हैं।
एक घटना है, श्वेतकेतु की,जिसकी माता किसी अन्य ऋषि द्वारा दबाव पूर्वक ले जायी गई थी। पूछने पर पिता द्वारा जो कारण बतलाया गया,उसे सुन कर बालक श्वेतकेतु का मृदु मस्तिष्क वायु-विहीन गुब्बारे सा पिचकने लगा, ‘गरिमामयी नारी,और वीर-भोग्या? ओफ! यह कैसा नियम है?’ किन्तु नियम,नियम है। पिता की तरह पुत्र को भी चुप बैठा रह जाना पड़ा। बड़ा होकर उस ‘विद्रोही’ ने नारी को बन्धन-ग्रस्त किया,धर्मशास्त्र का कठोर नियम बनाकर। बाद में शनैः-शनैः कई नियम स्वयं आधिपत्य जमाते चले गये नारी पर। शौर्य को बाँधने के लिए पहली बेड़ी ही पर्याप्त होती है। बाद की बेडि़याँ तो आभूषण सरीखे आसान हो जाती हैं। नारी ‘परिग्रह’ यानी धन-सम्पत्ति मान ली गयी। फलतः द्यूत-पट्ट पर घसीट लाने में ‘धर्मराज’ तक भी विचारहीन हो गये। वैसे उनके पहले राजा नल ने तो पगडंडी बना ही दी थी। दमयन्ती और द्रौपदी की ‘उपयोगिता’ पुरूष के किस ऐष्णा को ईंगित करती है- स्वस्थ मस्तिष्क को झकझोरने वाला सवाल है।
नारी को ‘पोषिता’ यानी सेविका समझा गया। ‘दारा’ द्विविददारेण, लूट लायी गई वस्तु भी नारी ही बनी। देवव्रत भीष्म जैसे वीर-धुरंधर,पार्थ जैसे धनुर्धर अग्रणी बने इस ‘पुनीत’ कार्य में। योगेश्वर कृष्ण ने तो केवल कनखी मारी,दाउ के प्रतिकार को धत्ता बताकर अर्जुन ने वाहुभरण किया,सुभद्रा को पत्नी बनने का सौभाग्य मिला;पर बेचारी अम्बा को मिली चिता की धधकती ज्वाला। सामन्ती शासन काल में कोष के साथ अन्तःपुर की विशालता भी बड़प्पन का मापडण्ड था। लूट लायी गयी नारियों पर कठोर नियन्त्रण रखा गया। राजरानियाँ तो बनी, पर कहलायी ‘असूर्यपश्या’ पति के सिवा सूर्य को भी न देखने की पाबंदी,तात्पर्य यह कि दिन के प्रकाश में उस तथाकथित पति को भी देख सकने का सौभाग्य न मिला।
स्मृतिकारों ने पातिव्रत्य धर्म का कर्कश ढिंढोरा पीटा। और तो और,पति के मनोनुकूल अन्यान्य रमणियों को बहका-फुसला कर ले आना उनके कामाग्नि का ईंधन जुटाना,स्त्री-धर्म कहलाया,जिसका ज्वलन्त दृष्टान्त
है- महर्षि माण्डव्य और सती शाण्डिली का प्रसंग।
जरा और मजेदार बात, लकड़ी को आग में डाल दिया गया,और पूछा गया,जली क्यों? जवाब भी खुद ही दे दिया स्मृतिकार पुरूष ने, ‘आहारौ द्विगुणित स्त्रीणाम्....कामस्चाष्ट गुणः स्मृतः। ’ {स्त्री दुगना खाती है पुरूषों से...कामाग्नि आठ गुणा है} ‘रण्न’;पंजाबी शब्द)अर्थात झगड़े का जड़,कहा गया- जर,जमीन,जोरू ना करे सो थोरू। यह स्थिति है नारी की। नारी की करूण गाथायें भीमकाय संस्कृत ग्रन्थों से लेकर बौद्ध,जैन आदि ग्रन्थों तक भरे पड़े है।
नारी को जीवन संगिनी कहा गया,यहाँ तक तो ठीक है;किन्तु जीवन के बाद भी चितारोहण को पतिव्रता धर्म और मुक्ति का सरल मार्ग बतलाया गया। खैर,उस विकट द्वार को सहृदय राजा राममोहन राय ने लगभग बन्द करा दिया, अपनी भाभी के प्रेम में; किन्तु आज भी ‘‘रांड़,सांढ़,सीढ़ी,सन्यासी;इनसे बचके रहिहो काशी’’ की लोकोक्ति सुनी ही जाती है। सती-प्रथा तो बन्द हो गयी,पर निष्कलुष हृदय से समाज ने कहाँ स्वीकारा बेचारी बेवावों को? समाज की नुकीली तर्जनी ही उठती है विधवाओं के प्रति। समाज के हर वर्ग में कमोवेश ये मौजूद हैं। और इनकी सामाजिक स्थिति? पूछने लायक नहीं,कहने लायक नहीं, ‘....विधवा उायन होती है...मैके की सीख...आते ही पति को चबा जाने वाली...स्वेच्छाचारिणी...कुलटा...बच्चों को दूर रखो...सुहागिनों को बच के रहना चाहिये...उसके आँचल की हवा भी खतरनाक होती है...किसी भी शुभ कार्य में इनकी छाया से भी परहेज करना चाहिये....आदि आदि। ’
समाज के साथ-साथ जरा स्मृति-धर्मशास्त्रों में झांकिए तब पता चले कि हम कहाँ हैं- कपिल स्मृति(विधवा प्रकरणम् ५४१ से ६५६),
लोहित स्मृति(विधवानाम् निन्द प्रकरणम् ४५५ से ४७२, रण्डास्वातन्त्रय प्रकरणम् ४७३ से ४९३,समीचीन रण्डा वर्णनम् ५७७ से ६०८) इत्यादि अनकानेक जगहों पर स्मृतिकारों ने विष-वमन किया है। सूप-झाड़ू लेकर पड़ गये हैं विधवावों पर। शास्त्र के अधिकाधिक कठोर नियम नरियों के लिए धरे पड़े हैं। सुहाग-रज यम ने छीना- एक पुरूष ने! और शृंगार समाज ने। अबला से मोहक कांच की चूड़ी छीन कर,सबल धातु की चूडि़याँ हथकडि़यों की तरह पहना दी गयी। धर्मशास्त्रों ने नवीन वस्त्रादि धारण की निषेधाज्ञा जारी की। इतने से सन्तोष न हुआ,सम्पत्ति के अधिकार से भी च्युत किया (लोहित स्मृति,दाय विभाग ५७७ से ६०८)। नारद,वशिष्ट,मनु,गालव,दालभ्य,याज्ञवल्क,गौतम,देवल,आंगिरस,यम,नारायण, आदि स्मृतिकारों ने जितना बन पड़ा नियम लाद दिए अबला शरीर पर। बेचारी विधवा की ‘जीर्ण’ काया चरमरा कर रह गई,नियमों के बोझ तले। इनकी दयनीयता का वर्णन स्वयं वागीश्वरी भी करने में शायद थर्रा उठें। वे भी नारी ठहरी।
एक दुर्दम्या थी-गार्गी वाचकनवी,जिसने शास्त्रार्थ में महर्षि याज्ञवल्क्य को छठी का दूध पिला दी। घबड़ाकर महर्षि ने सिर फटने की धमकी दे डाली। परन्तु,वहाँ भी नारी पराजित ही हुई। किसी पुरूष की पत्नी बन जाना क्या विजय का विगुल है?
नारी होना ही मानों अभिशाप हो गया,उसमें भी विधवा,पतिहीना और भी बड़ी बात हो गयी। बौद्ध आगमों में पुण्डरीक का एक प्रसंग है,जिसमें प्राणि मात्र के कल्याण की कामना करते हुए प्रत्येक योनि के उत्तरोत्तर विकास की बात कही गयी है। एक ओर जहाँ क्षुद्र तिर्यकयोनि से पशुयोनि प्राप्ति की बात है,तो दूसरी ओर स्त्रियों को पुरूष योनि प्राप्ति की कामना की गई है। इससे स्पष्ट होता है कि स्त्री होना उन दिनों बुरा माना जाता था। गरूड़ पुराण (प्रेत खण्ड १०/४५-४६) में कहा गया है कि सतत प्रयास से स्त्री पुरूष योनि प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार के अन्यान्य प्रसंग भी शास्त्रों में यदा-कदा मिलते हैं।
स्थित्यावलोकन के बाद अब जरा औचित्य पर भी विचार कर लिया जाय। विभिन्न दृष्टिकोण से देखने पर कई वर्ग नजर आते हैं। यथा-
१.उच्च-मध्य-निम्न २.युवती-प्रौढ़ा-वृद्धा ३.क्षत-अक्षत यौवना, ४.प्रसूता-अप्रसूता ५.सन्तानवती-निःसन्तानवती ६.सनाथ-अनाथ इत्यादि। चूकि यह सर्ववर्गीय समस्या है, अतः भ्रष्टपथ के जीर्णोद्धार का रास्ता ढूढ़ना ही न्यायसंगत प्रतीत हो रहा है,ताकि इच्छा एवं आवश्यकतानुकूल पगडंडी वा राजमार्ग का चयन सुलभ हो सके। और इस प्रकार पुनर्विवाह मर्यादित हो।
इतिहास-धर्मशास्त्रादि का गहन अवलोकन करने पर पक्ष-विपक्ष दोनों तरह के प्रमाण उपलब्ध होते हैं। एक ऐतिहासिक प्रसंग है, गुप्तकालीन ध्रुवदेवी का। प्रो.आल्टेयर,जयसवाल,राखालदास बनर्जी आदि विद्वानों ने ध्रुवदेवी के पुनर्लग्न को ऐतिहासिक तथ्य के रूप में स्वीकार किया। विशाखदत्त रचित नाटक ‘देवी-चन्द्रगुप्तम्’ के वर्णनानुसार पुनर्विवाह को भाण्डारकर जी ने प्रमाणित माना है। नाट्यकार जयशंकर प्रसाद जी ने अपने प्रौढ़तम नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ में इसी तथ्य को दर्शाया है। क्लीव,पापिष्ट रामगुप्त द्वारा ध्रुवदेवी शकराज को समर्पित की गयी। चन्द्रगुप्त ने छद्म-वेष बनाकर उसका उद्धार किया। बाद में पुरोहितों के आदेशानुसार भार्या बनायी गई चन्द्रगुप्त की।
एक अन्य पौराणिक प्रसंग है,विदर्भराज भीष्मक पुत्री दमयन्ती और वीरसेन पुत्र नल का। कलि-छल-द्यूत में राजच्यूत हो जाने पर विवश,नग्न नल द्वारा दमयन्ती जंगल में सोयी हुई अवस्था में छोड़ दी जाती है। जाते समय लज्जित नल दमयन्ती का आंचल फाड़ कर अपनी नग्नता का निवारण किये। नींद खुलने पर बेचारी को न फटे आंचल
का रहस्य खुला,न परित्यक्ता होने का आभास। बहुत बाद में वह किसी प्रकार पिता-गृह पहुँची। बेटी की दुर्दशा देख पिता द्रवित हो उठे। मर्यादा निर्वाह करते हुए ऐतिहासिक धर्मग्रन्थ महाभारत के रचयिता तो बड़े चालाकी से निकल गए हैं,यह कह कर कि गुप्तरूप से नल की खोज और परीक्षा रूप में दमयन्ती ने चेदिराज ऋतुपर्ण के पास अपने द्वितीय
स्वयंवर की सूचना भेजी थी; यह सूचना अन्यान्य जगह नहीं दी गयी थी। यहाँ वस्तुस्थिति जो भी हो,मतान्तर से यही प्रसंग पद्मपुराण में भी मिलता है। तत्कालीन धर्मवेत्तावों द्वारा राजा को सुझावादेश दिया गया कि परित्यक्ता दमयन्ती का पुनः स्वयंवर रचाया जाए। तदर्थ राजपुरोहित द्वारा ‘नारदीय मनुस्मृति’ का प्रमाण दिया गया- ‘‘पत्यौ प्रव्रजिते नष्टे, क्लीवे च पतितेमृते। पंचस्वापत्सु नारीणां,पतिरन्यो विधीयते । । १२-९९। । परिव्राजक,पतित,त्यागी,क्लीव, नपुंसक,मृतादि अवस्थाओं में नारी के लिए दूसरा पति ग्राह्य है।
भले ही पतिपरायणा दमयन्ती के मन में जो भी बात रही,पुराणकर्ता जितना भी लीपापोती किए हों,परन्तु यह स्मृति वाक्य क्या कह रहा है,ध्यातव्य है,ज्ञातव्य भी।
वह युग था ‘कृते सम्भाषणात् पापम्’ वाला,उसके बाद आया, ‘त्रेतायांचैवदर्शनात्’ का युग। पंचकन्याओं में एक है,सुग्रीव पत्नी तारा,जिसे छल-बल से विक्रमी बाली ने हरण कर लिया था। बेवश तारा बहुत दिनों तक बलिष्ट बाली की अंकशायिनी बनी रही। बाद में मौका पाकर मर्यादा पोषक श्रीराम ने छल पूर्वक बाली-बध कर,तारा को सुग्रीव के मैत्री उपहार में भेंट किया।
प्रश्न उठता है- इस छीना-झपटी,अदला-बदली की अपेक्षा क्या पुनर्लग्न अच्छा नहीं? इस सम्बन्ध में वशिष्ट स्मृति स्पष्ट और उदार प्रतीत होता है, ‘‘स्वयं विप्रतिपन्ना वा,यदिवा विप्रवासिता। बलाकारोपभुक्ता वा चौरं हस्तगतांपि वा, नत्याज्या दूषिता नारी नस्यास्त्यागो विधीयते। पुष्पकालमुपासीत ऋतुकालेन शुद्धति। । २८-२,३. (आततायी,बलात्कारी द्वारा भुक्ता विवश नारी का परित्याग उचित नहीं है,क्यों कि वह अपवित्र
और त्याज्य नहीं है,कारण कि पुनर्पुष्पित =मासिक धर्म,के पश्चात स्वतः शुद्ध हो जाती है। )
इस प्रकार पति परिवर्तन के अन्य प्रकरण भी उपलब्ध होते हैं। नारदीय मनुस्मृति कहता है-
‘‘आक्षिप्त मोघबीजौच पत्यावप्रतिकर्मणि। पतिरन्यः स्मृतीनार्या वत्सरः सम्प्रतीक्ष्तु। । १२\१६। ।
( वर्ष पर्यन्त पति के वीर्य की प्रतीक्षा करने के पश्चात नारी अन्य पुरूष का द्वार खटखटा सकती है। ) यह निर्देश सामान्य कोटि की है। आगे महर्षि की उदारता और भी स्पष्ट है-
‘‘अष्टौवर्षायु दीक्षेत ब्राह्मणं प्रोषितं पतिम्। असूता तु चत्वारी परतोऽन्यं समाश्रयेत। । ’’ना.म.स्मृ.१००. (ब्राह्मणी अप्रसूता मात्र चार बर्ष एवं प्रसूता आठ बर्ष तक प्रतीक्षा। ) यहीं आगे १०२-१०८ श्लोकों तक क्रमशः क्षत्रियादि वर्गों की समय-सीमा निर्धारित की गई है।
इन प्रसंगों और प्रमाणों से प्राचीन ग्रन्थ भरे पड़े हैं; किन्तु इन सारी सुखोक्तियों के बाद नारायण स्मृति का ‘रेडक्रॉस’ लगाकर सब गुड़ गोबर कर दिया गया- ‘‘ कलौतु पापबाहुल्यात्,वर्जनीयानि मानवै।
विधवा पुनरूद्वाहौ, नौयात्रास्तु समुद्रतः॥’’ ना.स्मृ.७\२ (कलिकाल में पाप बाहुल्य है,अतः विधवा-विवाह और समुद्रयात्रा वर्जित है। )इतना ही नहीं,आंगिरस स्मृति ने तो और तबाही मचा दी-
‘‘ पुर्निर्ववाहिता मूढ़ैःपितृ भ्रातृ मुखै खलैः। यदि सातेखिला सर्वेस्युर्वैनिरय गामिनः। ।
पुनर्विवाहिता सातु महारौरव भागिनी। तत्पतिः पितृभिः साधै कालसूत्र गमा भवेत्॥ ’’ आं.स्मृ. १९३-१९४. (यदि मूर्ख पिता-भ्राता द्वारा नारी पुनर्विवहिता बनायी जाए,तो वे सभी नरकगामी हों,वह स्त्री महारौरव नरक में जाए एवं दातागण अंगारशयन नामक नरक में तथा ग्रहणकर्ता पति अपने पितरों सहित कालसूत्र नामक नरक में ढकेले जायें। ) यहीं आगे श्लोक संख्या २०४ पर्यन्त तत् प्रायश्चित विधान दिया गया है। २१८ से २२४ श्लोक तक बहुपतिगामिनी से वेश्या की श्रेष्टता दर्शायी गयी, और यह भी कहा गया- ‘‘सकृदशो निपतति,सकृत् कन्या प्रदीयते। सकृतदाहददानीति,त्रीण्येतानि सतां सकृत ॥’’ उपर्युक्त तथ्य चाहे जो भी दर्शाते हों,मुझ मूढ़ अल्पज्ञ को तो ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ या कहें ‘परउपदेशे पाण्डित्यम्’ वाली बात लगती है। विभिन्न स्मृतियाँ विभिन्न युगों की हैं। तत्कालीन सामाजिक स्थिति को अलग-अलग ¬ऋषियों द्वारा नियामित करने का प्रयास किया गया है। येनकेन प्रकारेण पूर्वाग्रह ग्रसित,स्वार्थ साधना का प्रयास भी हो सकता है।
गहराई से विचार करने पर ज्ञात होता है कि जितना दुराचार क्रमशः कृतादि युगों में हुआ है,उसका लक्षांश भी कलयुग में शायद न हो पाए। काम,क्रोध,लोभ,मोहादि सप्त विकारों से उत्पन्न निकृष्ट कर्म उन्हीं युगों में हावी रहे हैं। पाप का मूल,काम जिसका स्वरूप अगम्यागमन पूर्व युगों में कितना हावी रहा है,यह किसी से छिपा नहीं है। पवित्रतम
पारिवारिक सम्बन्ध-माता,बहन,भगिनी,गुरूपत्नी,यहाँ तक की पुत्री तक को दुष्कृत्य में घसीटा गया। कुमारी कुलक्षणियों से बहुपतिगामिनी पर्यन्त की गाथाओं से ग्रन्थ भरे पड़े हैं,जिन पर ‘धर्म’ का मोटा मुल्लम्मा चढ़ा हुआ है। संत तुलसी ने तो ‘समरथ के नहीं दोष गुसाई’ कह कर संतोष कर लिया। जैन साहित्य में ‘त्रिपृष्ट वासुदेव’ की कथा मिलती है। प्रसंग
यह है कि राजा के यहाँ एक दिव्य स्वरूपा कन्या उत्पन्न हुई। समय पर वह चन्द्रवदना यौवन मद से अलंकृत हुई। पुत्री का यौवन पिता को कामाग्नि दग्ध कर गया। स्वयं को ईमानदार दिखाने वाला मूढ़ राजा अपने चाटुकार दरबारियों से एक दिन पूछ बैठा, ‘यदि मेरे राज्य में कोई मूल्यवान रत्न हो तो उस पर किसका आधिपत्य होना चाहिये?’ चाटुकारों ने एक स्वर से कहा, ‘महाराज का। ’ (ध्यातव्य है कि दरबारी प्रायः चाटुकार ही होते हैं। सच्चे,कर्मनिष्ट सलाहकार विरले ही मिलते हैं।
इससे भी बड़ी बात है कि महात्मा विदुर जैसे महामंत्री धृतराष्ट्र जैसे मोहान्ध-जन्मान्ध राजा को मिल भी जाय तो क्या?) उस राजा ने भी वही किया जो उसे करने की चाह थी। काम वासना की वेदी पर निज पुत्री की आहुति पड़ी। पिता-पुत्री संयोग से त्रिपृष्ट वासुदेव का जन्म हुआ। कुछ ऐसा ही,पर इतना घिनौना नहीं,एक प्रसंग है- ब्रह्मा पुत्री संध्या का। संध्या के सौन्दर्य ने जगतस्रष्टा को ही विचलित कर दिया। विवेक-भ्रष्ट वृद्ध जनक ने काम-तुष्टि का प्रस्ताव रख दिया। पिता की दूषित दृष्टि का एकमात्र परिहार संध्या को आत्मदाह ही सूझा,सो वह कर गुजारी। त्रिपृष्ट की कुमारी माता को ‘यह अवसर’ भी शायद न मिला।
ये सारी बातें बहुत पुरानी हो चुकी हैं। युग बदल गया है। जमाना भी बदल गया है। बेचारा ज्ञान,वैराग्य,अध्यात्म, धर्म,आदि सब भौतिकवाद के कठोर शिला तले दबकर कराह रहे हैं। विज्ञान ‘गॉड पार्टिकल’ के दर्शन हेतु विकल है। आज की सुन्दरी को ‘चन्द्रमुखी’ कहकर अपना मुंह नोचवाना पड़ सकता है,क्यों कि सुन्दरता के उपमान कवियों के प्यारे ‘चन्द्रमा’ को वैज्ञानिकों ने उबड़-खाबड़ घोषित कर दिया है। आज समय की पुकार है--जीर्ण नियमों का परिष्करण।
स्मृति-धर्मशास्त्रों के नियमों का काफी सम्मान किया है,हमारा आधुनिक स्मृति/ भारतीय संविधान ने। ‘मिताक्षरा’ की गहराई में उतरने का प्रयास किया है,संविधान-स्रष्टाओं ने। पुरानी स्मृतियों की मर्यादा रखते हुए,अनेक संशोधन भी किए गये। कानून ने सती-जौहर की ज्वाला पर ओले बरषाये। ‘खोरिश’-परिवरिश पाने वाली विधवा को सम्पत्ति की अधिकारिणी बनाया।
ध्यातव्य है कि कोई भी नियम सार्वभौम और कालजयी नहीं हो सकता। देश,काल और पात्र को कृष्ण ने गीता में बार-बार ईंगित किया है। स्थान,समय और व्यक्ति का विचार करते हुए,नियमों में संशोधन होते रहा है,और होते भी रहना चाहिये। स्वतन्त्रता के अर्द्धशतक बर्षों में ही संसद ने सम्माननीय संविधान का कितना उठापटक कर दिया,हम सबको विदित है।
पुनर्लग्न को भी कुछ ऐसी ही अपेक्षा है हम सबसे। प्रसस्त राजमार्ग भ्रष्ट हो चुका है। ‘डायवर्सन’ से काम नहीं चल सकता। पूर्णतया जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। अतः धर्मवेत्ताओं को फिर से जीर्ण शास्त्रों के पन्ने पलटने की आवश्यकता है। क्यों कि विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि हमारे त्रिकालदर्शी ऋषि-महर्षि कलि के योग्य भी समुचित व्यवस्था अवश्य कर गये होंगे। शास्त्र गलत नहीं हैं,अधूरे-अपूर्ण भी नहीं हैं। गलती हुई है अगर तो उसके व्याख्याताओं द्वारा,जो मूलतः धर्ममर्मज्ञ नहीं,बल्कि सम्प्रदायिकता का चश्मा पहन कर शास्त्र पढ़ने बैठे होंगे।
समीचीनता के आलोक में जरा कुछ ढूढ़ने का प्रयास करें।
अन्यान्य ग्रन्थ चाहे जो भी कहते हों,कलियुग का एक अतिमान्य ग्रन्थ है,कौटिल्य अर्थशास्त्र,जो एडमस्मीथ और रॉविंसन का कोरा ‘अर्थ’शास्त्र नहीं,बल्कि विशुद्ध समाजशास्त्र,धर्मशास्त्र,नीति शास्त्र,तर्कशास्त्र,आदि सारे गुणों से ओतप्रोत है। इसमें स्पष्ट कहा गया है, ‘नीचत्वम् परदेशम् वा प्रस्थितो राजकिल्विषी। प्राणाभिहंता पतितस्त्याज्यः क्लीवोऽपिवा पति। । (नीच,दीर्घप्रवासी,परिव्राजक,अभियुक्त,हंता,पतित,नपुंसक,आदि प्रकार का पति सर्वथा त्याज्य है। )इसकी पुष्टि पराशर एवम् नारद स्मृति से भी होती है-
‘‘नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीवेच पतिते पतौ। पंचस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते । । ’’ पा.स्मृ.४/१३ उक्त विषय के अपने टीका ग्रन्थ में आचार्य गुरूप्रसाद शर्मा ने विशद व्याख्या की है,एवं प्रो.मन्नालाल जी ने इसकी पुष्टी की है।
स्मृतियों के मानक काल के सम्बन्ध में आर्ष वचन मिलता है-
‘‘कृते तु मानवोधर्मस्त्रेतायां गौतमस्मृतः। द्वापरे शंखलिखितः कलौ पाराशरस्मृतः । । ’’ अर्थ स्पष्ट है- सतयुग में मनुस्मृति,त्रेता में गौतमस्मृति,द्वापर में शंखलिखितस्मृति,एवं कलियुग में पाराशरस्मृति के अनुसार धर्माचरण करना चाहिए। इस प्रकार अलग-अलग युगों के लिए एक-एक स्मृति निश्चित कर दी गई। फिर संशय कहां रह गया? स्पष्ट है कि अन्य स्मृतियाँ जो भी राग अलापें,हमें ध्यान सिर्फ महर्षि पराशर के वचनों पर देना है।
महर्षि पराशर को हुए भी बहुत काल बीत गए। अतः यदि लगता है कि इन नियमों का सम्यक् पालन भी कठिन है,तो हिम्मत करके समाज सेवियों को आगे आना चाहिए। निष्पक्ष भाव से,पूर्वाग्रह रहित हो कर, नूतन पथ-निर्माण में संलग्न हो जाना चाहिए।
अब जरा सामाजिक एवं पारिवारिक स्थिति को भी टटोल लें।
परिवार की परिधि दिनोंदिन सिकुड़ती जा रही है। परिभाषा बदलती जारही है। संयुक्त परिवार का अस्तित्व मुट्ठी भरे रेत की तरह सरकता जा रहा है। हम ज्यों-ज्यों मुट्ठी मींच रहे हैं,सहेजने के ख्याल से,छोटे रेतकण उतनी ही तेजी
से सरक कर मुट्ठी से बाहर छिटकते जा रहे हैं।
अतः इस संघातिक परिस्थिति में नारी को एक सुदृढ़ सहारे से वंचित कर देना कहाँ तक बुद्धिमानी है? शास्त्र का एक वचन है-
‘‘पितृ मातृ सुतभ्रातृ श्वश्रुश्वसुर मातुलैः। हीनानस्याद्विना भर्ता गर्हणीयान्यथाभवेत। । ’’ या.स्मृ.१/८६ तात्पर्य यह कि माता-पिता,भाई-बन्धु,सास-ससुर आदि से रहित नारी गर्हित नहीं है,किन्तु भर्ता रहित नारी गर्हित है। यानी नारी का वास्तविक सम्बल उसका पति ही हो सकता है।
इस प्रकार पति की महत्ता सिद्ध हो रही है। किन्तु इससे पूर्व ही महर्षि कह चुके हैं-
‘‘पिता विन्नां पतिः,पुत्राश्च वार्द्धके। अभावे ज्ञातयस्तेषां, नस्वातन्त्रय क्वचित्स्त्रियाः। । ’’ या.स्मृ.१/८५
ठीक ऐसी ही बात अन्यत्र भी द्रष्टव्य है- ‘‘पिता रक्षति कौमारे,भर्ता रक्षति यौवने। पुत्रस्त्वस्थाविरेभावे,
न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति । । ’’ वशिष्ट स्मृति ५/४ ऋषियों के ये वचन सर्वथा ग्राह्य हैं,किन्तु गौरतलब है कि टूटते परिवेश में वास्तविक सहारा पति ही हो सकता है। यौवन से वृद्धावस्था पर्यन्त इस सहारे की अनिवार्यता प्रतीत होती है। पति-पत्नी यानी पुरूष-नारी का संयुक्त रूप ही सर्वांग है। दोनों एक दूसरे के वगैर अधूरे हैं,अपूर्ण हैं। पुरूष और नारी का महत्व जीवन यान के युगल चक्र
सा है। क्या एक चक्रहीन रथ को तथाकथित समाज के उबड़-खबड़ पथ पर निर्विघ्नता पूर्वक दौड़ाकर जीवन के गन्तव्य तक पहुँचाया जा सकता है? सामाजिक,आर्थिक,धार्मिक,पारिवारिक,हर दृष्टि से एक दूसरे के सहारे की आवश्यकता है। कोई कहे,जरूरत के मुताबिक नौकर,आया,नर्स, सेविका आदि से भी काम चल सकता है। पर यह अर्थावलम्बित खाना पूर्ति है, ‘डायवर्सन’ है,मुख्यमार्ग नहीं कह सकते इसे। दोनों के बीच एक सेतु -भावनात्मक प्रेम का सेतु अनिवार्य है। प्रेम निःस्वार्थ होता है। दो प्रेमियों के बीच सिर्फ प्रेम होता है,और कुछ की गुंजायस नहीं। सच्चा सुख,शान्ति,चैन,सुकून और फिर इस रास्ते का अन्तिम पड़ाव-आनन्द और मोक्ष इन दो के मिलन से ही सम्भव हैा
हालांकि,पुरूष ने वस्तुस्थिति समझते हुए भी नासमझी का आदि रहा है;क्यों कि इससे उसके अहं को धक्का लग रहा है। अपने अहं को पोषित करने के लिए ही तरह-तरह के शास्त्र रचे।
गर्भिणी सीता का परित्याग कर राम ने स्वर्ण प्रतिमा का प्रयोग कर यज्ञ सम्पन्न किया। क्या राम विहीन सीता इसकी कल्पना भी कर सकती थी? सीता को बार-बार अपने सतीत्व की यानी पवित्रता की परीक्षा देनी पड़ी। क्या यह पुरूष के अहं का पोषण नहीं?
जो भी हो,युग बदल जाय,सीमा और आवश्कता का ढंग बदल जाय, ‘टेस्टट्यूब बेबी’ के आधुनिक युग में भी पुरूष को नारी,और नारी को पुरूष की आवश्यकता है और रहेगी। आने वाले वर्षों में नारी मात्र जननी ही नहीं,वल्कि समाज,राष्ट्र,व सम्पूर्ण मानवता का अंग होगी।
ऐसी स्थिति में उसके खास भाग को झुठलाया कैसे जा सकता है?अतः स्वस्थ चित्त से हर पहलु पर विचार करने की जरूरत है।
पुनर्लग्न की आवश्यकता सिर्फ विधवाओं को ही नहीं,परित्यकताओं को भी है। आये दिन यौवन-मद-मस्त युवक
आधुनिकता की आँधी में पतझड़ के पत्ते सा उड़ रहा है। कहाँ गिरेगा उसे पता नहीं;उसके वश की बात भी नहीं। ‘अबला’ कही जाने वाली नारी ठूंठ तरूवर की तरह विवश,समाज का मुंह निहार रही है,वसन्त की आश में;किन्तु चातक की चोंच में मेघ बरष ही जायेगा,जरुरी नहीं है। क्षत-अक्षत कौमार्य दुकूल में लिपटी,जीर्ण शास्त्रों के बोझ से दबी, ‘दो कुलों’ (पिता और स्वसुर)की ‘पाग’ मर्यादा निर्वहन में दोनों छोर से जलती मोमबत्ती की तरह घोर अंधकार मय जीवन-कक्ष को प्रदीप्त करने का भगिरथ प्रयत्नरत निरीह नारी के नेत्रों से झरती निर्झरणी को सुखा डालने वाले ‘अगस्त’ के अवतरण की आवश्यकता है। विरह वेदना में कभी माता सीता ने याद किया था, ‘....उदित अगस्त सिन्धु जल सोखा... ...। ’आज वैसे ही प्रतापी,साहसी,सहिष्णु की आवश्यकता है।
मगर अफसोस यह कि दूसरे घटक ‘पुरूष’ का उछृंखल,बर्बर रूप ही उजागर है,जो सिर्फ ‘आदमी’ है, ‘मानव’ नहीं। एक ओर हम पाते हैं, विधवायें और परित्यकतायें आजीवन तड़पती रह जाती हैं,विरह ज्वाला में;और दूसरी ओर मृत्युकूप में पैर लटकाए वृद्ध भी नौशा बनने को लालायित ‘सिद्धमकरध्वज’ से ‘वियाग्रा’ तक आजमा रहा है। कथन
का अभिप्राय सिर्फ यह नहीं कि उसे रोक दिया जाए,बल्कि दूसरे पक्ष के दर्द और वेवसी का भी अनुभव किया जाए।
यदाकदा किसी भुक्तभोगी का ध्यान इस ओर चला जाता है। यत्र-तत्र पुनर्विवाह की घटनाएँ सुनने देखने को मिल जाती हैं। कहीं कोई दुःसाहस कर बैठता है। किन्तु जरूरत है,एकजुट होकर साहस पूर्वक आगे आने की।
पिछड़ा और आधुनिक वर्ग प्रायः बन्धन मुक्त सा है,क्योंकि वह हिम्मत करके या कहें नजरअन्दाज़ करके चढ़ चुका है, शास्त्र मर्यादा की छाती पर मूंग दलने। किन्तु बीच का एक बड़ा समुदाय पुरानी जंजीर में आबद्ध है अभी भी, जिसके ऊपर ज्ञान का बोझ है,मगर विवेक का ‘बटखरा’ नहीं,ताकि तौल सके बोझ को। जंजीर काटने वाली बुद्धि की आरी तो है,पर उसके दांत सब टूटे हुए हैं। दूर-दूर बंचे दांतों से काम होने से रहे।
और अन्त में,आग्रह पूर्वक कहना चाहूंगा कि सर्वप्रथम भुक्तभोगी बहनें साहस नहीं, दुःसाहस करके आगे बढ़ें। मानसिक यातना वे ऐसे भी झेल रही हैं,थोड़ा और सही। ससुराल और मैके की पगड़ी की चिन्ता छोड़कर,अपने पसन्द की(किन्तु काफी ठोंकबजा कर)जोड़ी का चुनाव करें। हो सकता है जिद्द और विद्रोह देख दोनों विद्रोही(पिता और स्वसुर)समर्थक बन जाएँ;क्यों कि ऐसा लगता कि चाह प्रायः नब्बे प्रतिशत है,सब ओर; बिल्ली के गले में घंटी बँधने का इन्तजार हो रहा है।
एक हिम्मती गड़ेरिये की जरूरत है,जो एक भेड़ को किसी तरह खींच कर आगे,झुंड से अलग कर दे। हर झुंड का गड़ेरिया सिर्फ यही करता है,और फिर कंधे से कम्बल का बोझ उतार कर किसी ‘अमियारी’ में चैन की नींद सोता है। तो चलें हम सब,चैन की वंशी बजाने । मगर हाँ एक बात,कहीं ऐसा कोई पुनर्मिलन-समारोह हो तो मुझे बुलाना भूल मत जाना। मैं भी उस आतुर नेवले की तरह यहां-वहां भटक रहा हूँ,जिसे धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भी निराश होना पड़ा था। नेवले को तो सोने का शरीर बनाना था,मुझे बहन-बेटियों की सुनहरी मुस्कान देखने की तमन्ना है।