पुन: पढ़ने में / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
हम दोनों वहाँ झाड़ी में न ठहर उसी के ऊपर श्री योगानंद जी के छोटे से मठ में ठहरे। मगर भिक्षा तो क्षेत्र से ही रोटी ला कर करते थे। हाँ, रात में उस मठ में थोड़ा-सा जलपान मिल जाता था। उसकी बगल में कुछ और ऊँचाई पर कैलाश नाम से प्रसिद्ध श्री धनराजपुरी जी का एक बड़ा मठ था। वहीं पर हम एक शांत और विद्वान संन्यासी के पास 'वेदांत सिद्धांत मुक्तावली' पढ़ा करते थे। यह वेदांत का एक क्लिष्ट ग्रंथ माना जाता है। हमने उसे ही शुरू किया। हालाँकि, उसके पूर्व के और ग्रंथों को पढ़ा न था। कई लोगों के साथ हमारा पाठ था। या यों कहिए कि हमीं दूसरों के पाठ में शामिल हो गए थे। उसमें जब न्याय, मीमांसा आदि की बातें आती थीं तो कभी-कभी हम उनसे दोबारा पूछते थे। हालाँकि, आम तौर से एक ही बार कहने पर समझ लेते थे। कारण, बुद्धि तो तीक्ष्ण थी ही। लेकिन कई बार पूछने पर एक दिन उनने हमसे सब बातें पूछीं और कहा कि अभी आपकी अवस्था कम है, काशी जा कर व्याकरण, न्याय मीमांसा आदि पढ़िए। पश्चात वेदांत के ये ग्रंथ पढ़ने में मजा पाइएगा। उस समय तो हम शर्मिंदा से हुए और उनकी बात कुछ रुची भी नहीं। क्योंकि अभी भी योगी पाने की धुन थी। मगर फिर पीछे उनका ही उपदेश अक्षरश: पालन करना पड़ा।
खैर, वेदांत मुक्तावली का पाठ चलता रहा। हमें एक मजा प्राय: मिलता था। जब क्षेत्र से रोटी लाते तो गंगा के किनारे चले जाते। पानी ज्यादा तेज न था। पर, पाँव दें तो कहाँ बह जाए पता न लगे। ऐसी धारा तेज थी। लेकि न ऊँचे-ऊँचे और चिकने पत्थर उसमें पड़े थे। उन्हीं पर छलाँग मारते-मारते कुछ भीतर जाते, एक चिकने पत्थर को धो कर उसी पर रोटी आदि रखते और दूसरे पर बैठ कर भोजन करते थे। जब चाहते चिल्लू से घूँट-घूँट तर जल पी लेते। जल इतना ठंडा था कि वैशाख-जेठ के दोपहर में भी खुली धूप में बैठने पर गर्मी न मालूम होती और सारा शरीर तर रहता। यह आनंद हम बराबर लेते रहे जब तक वहाँ रहे। दूसरे साधुगण भी ऐसा ही करते थे। स्नान आदि के समय भी खूब आनंद आता था।
लेकिन हृषीकेश में जो संसार हमने देखा और साधुओं की जो बदनामी सुनी, उससे ऊब गए। पंजाब से और दूसरे प्रांतों से श्रीमान स्त्री-पुरुष वहाँ झुंड-के-झुंड आते और धर्म के नाम पर साधुओं को खूब हलवा, पूड़ी, मेवे चभाते थे वहीं सत्संग भी होता। मगर आखिर इन सबका नतीजा क्या दूसरा होना था?यह भी पता लगा कि खाने-पीने का खूब आराम और सब तरह का मजा देख कर बहुत से लोग खेती-गृहस्थी से फुर्सत पाते ही गर्मियों में गेरुवा वस्त्र धारण कर साधु वेश में उस झाड़ी को हर साल आबाद करते, वर्ष आने के पहले ही खा-पी के तगड़े हो जाते और कुछ पैसे भी भक्तों और भक्तिनों से पा जाते थे। फिर घर चले जाते। पता नहीं अब क्या हालत हैं।
कैलाश की एक बात का उल्लेख करेंगे। उसके अधिष्ठाता श्री धनराज गिरि जी यद्यपि अधिक अवस्था के थे, तथापि बड़े ही मजबूत थे। उनका शरीर बहुत दृढ़ और ठोस था। कहते थे कि साल भर नियमित रूप से श्रीफल (बेल) खाया करते थे। वह जब बिलकुल ही सूख कर गिर जाता और पेड़ों पर नहीं मिलता था तो सुखाया हुआ रखते और खाते थे। कच्चा तैयार होते ही भून कर खाना शुरू करते। अन्न के सिवाय नियमित रूप से बेल का सेवन करते और नहीं तो, मुरब्बे के रूप में सही। उसी का फल था कि शरीर ठोस था और वृद्धावस्था में भी न तो बीमार पड़े और न ढीला-ढाला बदन हुआ। बेल के इस प्रकार के नियमित सेवन (कल्प) का ऐसा ही फल बताया जाता हैं। झाड़ी के और आगे भरत जी का मंदिर हैं और उसके आगे लक्ष्मण झूला। वहीं गंगा पर मोटे तारों के रस्से पर लटकने वाला लकड़ी का पुल बना हैं। क्योंकि तेज धारा में पाया बनना और ठहरना असम्भव हैं। लटकने वाला पुल हिलता तो रहता ही हैं, ज्योंही आप चढ़िए। लेकिन काफी मजबूत हैं। उस पर आदमी, टट्टू और बकरियाँ सभी सामान ले कर पार होती रहती हैं। असल में जब तारवार नहीं थे, तो उस पुराने जमाने में पहाड़ी लोग गंगा की धारा को पार कर ईधर-उधर जाते ही थे। तीर्थयात्री लोग भी जाते थे तो गंगा वगैरह की धाराओं को उस यात्रा में कई बार पार करना पड़ता था। इसके लिए एक उपाय निकाला गया था कि धारा के दोनों तरफ जो निकटवर्ती मजबूत पेड़ हों उनमें दो समानांतर मजबूत रस्से डेढ़-दो हाथ की दूरी पर बाँध दिए जाए। फिर उनमें छोटा-सा झूला आदमी के बैठने लायक बना कर लटका दिया जाए। झूले के साथ एक लंबी रस्सी हो जो दोनों ओर बँधी रहे। बस, अगर एक आदमी उस झूले में बैठ कर साथ वाली रस्सी को दोनों हाथों से जोर से खींचता रहे तो, झूला धीरे-धीरे आगे खसकता जा कर दूसरे किनारे पहुँच जाए। फिर उधर से इसी प्रकार ईधर भी आ जाए। इसी प्रकार किसी तरह उस समय विकट नदियाँ पार करते थे। उसमें झूले या उसके आधारभूत रस्सों के टूटने का खतरा था जरूर। लेकिन उपाय दूसरा था नहीं। इसीलिए लक्ष्मणझूला नाम पड़ा। अब तो लटकनेवाला पुल बन गया है। बदरीनारायण की यात्रा में हमने रास्ते में पुराने झूलों को काम में लाते हुए पहाड़ी मनुष्य देखे। कारण, चारों ओर लटकने वाले पुल तो बने हैं नहीं। ये तो बदरी, केदार आदि के रास्ते में ही हैं। ये पुल उन्हीं पुराने झूलों की नकल हैं। हाँ, उनमें तरक्की जरूर की गई है। हम झाड़ी से दूर तक जंगल में लक्ष्मण झूले के ऊपर तक योगियों और साधुओं की तलाश में चले जाते और लौट आते थे। जंगली जड़ी-बूटियाँ ज्ञात हो जाए तो खाने-पीने की रोज की फिक्र से बचें यह भी ख्याल था। मगर न तो ऐसी बूटियाँ ही मिलीं और न योगी ही। हमने सोचा कि अच्छा तो बदरीनाथ बाबा का दर्शन ही कर आएँ और शायद कहीं उधर ही योगी मिलें। क्योंकि उत्तराखंड में ही तो उनके ज्यादा होने की बात बार-बार सुनी थी। इसलिए वहीं जाने का निश्चय कर लिया। मगर वैशाख शुक्लपक्ष की तृतीय (अक्षय तृतीया) के पहले तो बदरीनारायण जी का पट्ट (दरवाजा) खुलता नहीं। उसके पहले वहाँ पुजारी लोग जाते ही नहीं। बर्फ के कारण प्राय: छ: महीने मंदिर बंद रहा करता हैं। बर्फ हटने पर पहले पहल अक्षय तृतीया को ही वहाँ जाते हैं। कभी-कभी तो बर्फ की अधिकता के कारण और भी देर से जाना होता हैं। इसलिए यात्री लोग भी उसी के लगभग यात्रा करते हैं। न कि पहले। क्योंकि पहले जाना न सिर्फ बेकार होता हैं, वरन असंभव भी। कारण, रास्ते में दूकानें वगैरह ठीक नहीं रहती हैं, जिससे खाने-पीने का कष्ट होता है। वहाँ पहुँच कर ठहरना भी असंभव होता है। जहाँ तक स्मरण हैं, हृषीकेश से 189 मील या कुछ इतनी ही दूर बदरीनाथ का मंदिर है। इसलिए हम लोगों ने इसी हिसाब से चलना तय किया कि ठीक समय पर वहाँ पहुँच सकें।