पुरस्कार समारोह तमाशे की असलियत / जयप्रकाश चौकसे
पुरस्कार समारोह तमाशे की असलियत
प्रकाशन तिथि : 01 फरवरी 2011
मौसम का सरल विभाजन है वर्षा, शीत और ग्रीष्म ऋतु। हमने प्रकृति को इतना नष्ट किया है कि बसंत केवल पुस्तकों में रह गया। वैसे फिल्म उद्योग में बॉक्स ऑफिस की ऋतु है जून से अगस्त और दीवाली से होली तथा इनका पतझड़ है रमजान का महीना और विद्यार्थियों की परीक्षा के फरवरी से अप्रैल महीने। पुरस्कारों की ऋतु जनवरी-फरवरी तक रहती है। वर्षों तक केवल राष्ट्रीय पुरस्कार और फिल्मफेयर पुरस्कार होते थे, अब कोई आधा दर्जन समारोह होते हैं।
पुरस्कार समारोह का आर्थिक आधार उसके टेलीविजन अधिकार हैं और दर्जन भर प्रायोजक भी शामिल हैं। टेलीविजन पर दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए पुरस्कार समारोह में अधिकतम सितारों की मौजूदगी के साथ कुछ 'गरम नृत्य' का होना जरूरी है। अत: हर वर्ष फिल्मों से गरम आइटम चुने जाते हैं, जैसे वर्तमान की मुन्नी और शीला। इनके लिए कलाकारों को मोटी रकम देना पड़ती है। समारोह के पूर्व ही बड़े सितारों में पुरस्कारों का विभाजन भी कर लिया जाता है।
अफवाह यह है कि मुख्य पुरस्कार को सितारे की मौजूदगी और नृत्य का मेहनताना माना जाता है। अधिकतम को खुश करने के लिए पुरस्कारों को भी विभाजित किया गया है, मसलन आलोचकों की पसंद और अवाम की पसंद जैसे रोनित रॉय को 'उड़ान' में तथा ऋषि कपूर को 'दो दुनी चार' में। इसके अतिरिक्त दो विशेष पुरस्कार भी दिए जाते हैं, जैसे इस वर्ष माधुरी को पच्चीस वर्ष पूरे करने के लिए जबकि वे दस वर्षों से अभिनय से बाहर हैं। बेचारे आयोजकों की परेशानी यह है कि सितारों के आपसी बैर के कारण वे एक ही मंच पर नहीं आते, अत: मौजूदगी की रजामंदी के साथ ही पुरस्कारों की बंदरबांट भी शुरू होती है।
आश्चर्य है कि गुणवत्ता के आधार पर दिए जाने वाले तकनीकी इनामों का फैसला जाने किस मानदंड पर किया जाता है, कि इस वर्ष सिनेमेटोग्राफी का इनाम 'गुजारिश' के बदले 'उड़ान' को दिया गया है। 'उड़ान' को मिले पुरस्कारों की संख्या उसके दर्शकों के समान ही है। पहली फिल्म के निर्देशन के इनाम के हकदार हबीब फैजल 'दो दुनी चार' फेम थे परंतु उनका कोई 'वजन' नहीं है। सारे पुरस्कारों में माथा देखकर तिलक लगाया जाता है।
भारतीय फिल्मवालों की ऑस्कर ललक गुलाम मानसिकता का लक्षण हो सकती है, परंतु ऑस्कर पुरस्कारों का कोई प्रायोजक नहीं होता और मत देने की पूरी प्रक्रिया ईमानदार है, परंतु कभी-कभी राजनैतिक कारणों से कुछ हेरा-फेरी होती है और ऑस्कर मतदाता कई बार अपने राष्ट्रीय अपराध बोध के कारण कुछ राष्ट्रों की फिल्मों को पुरस्कार भी देते हैं। जब किसी देश का राष्ट्रीय चरित्र दागदार हो जाता है तब उस देश के हर क्षेत्र में बेईमानी और अन्याय छा जाता है। घर के कोने को बुहार देने से पूरा घर साफ नहीं होता। भारत में एक संपूर्ण सफाई की आवश्यकता है।